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जय द्वारकाधीश
प्रथम गुरु त्रिदेव ( ब्रह्मा विष्णु और महेश ) उर्फ़े दत्तात्रेय माता सती अनसूयाजी का वर्णन 2 , सच्चे साधु के लक्षण , भगवान् बहुत ही दयालु है , शांतिदूत का दायित्व
2💥 नवनाथ पंथ कथा 💥
॥ प्रथम गुरु दत्तात्रेय ( त्रिदेव ) और अनुसूईयाजी वर्णन ॥ - 2
ॐ नमोनमः शिव गोरक्ष योगी । आदेश आदेश
" ब्रहमा, विष्णु और महेश " तीनो देव महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुंचे ।
तीनों देव मुनि वेष में थे ।
उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम पर नहीं थे ।
अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनसूया ने स्वागत - सत्कार करना चाहा, किंतु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया ।
सती अनसूया ने उनसे पूछा-
‘मुनियों! मुझसे कौन सा अपराध हो गया, जो आप लोग मेरे द्वारा की हुई पूजा को ग्रहण नहीं कर रहें हैं ?’
मुनियों ने कहा-
देवि !
यदि आप बिना वस्त्र के हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगें ।
यह सुनकर सती अनसूया सोच में पड़ गयी ।
उन्होने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया ।
वे बोलीं- "
मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूंगी ।
यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैनें कभी भी काम भाव से किसी पर - पुरूष का चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छह - छह माह के बच्चे बन जायें "।
" पतिव्रता अनुसूयाजी का इतना कहना था कि त्रिदेव छह छह माह के बच्चे बन गये ।
माता ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालने में खेलने के लिए डाल दिया ।"
इस प्रकार " त्रिदेव माता अनसूया के वात्सल्य प्रेम के बंदी बन गये ।"
इधर जब तीनों देवियों ने देखा कि हमारे पति तो आये ही नहीं तो वे चिन्तित हो गयीं ।
आखिर तीनों अपने पतियों का पता लगाने के लिये चित्रकूट गयीं ।
संयोग से वहीं नारद जी से उनकी मुलाकात हो गयी ।
त्रि - देवियों ने उनसे अपने पतियों का पता पूछा ।
नारद ने कहा कि
" वे लोग तो आश्रम में बालक बनकर खेल रहे हैं ।"
त्रि - देवियों ने अनसूया जी से आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा मांगी ।
अनसूया जी ने उनसे उनका परिचय पूछा ।
त्रिदेवियों ने कहा-
‘ माता जी !
हम तो आपकी बहुएँ हैं ।
आप हमें क्षमा कर दें और हमारे पतियों को लौटा दें ।‘
अनसूया जी का हृदय द्रवित हो गया ।
अनुसूयाजी का ह्रदय द्रवित हो गया, उन्होंने मन्त्र द्वारा जल छिड़कर उन्हें पर्व रूप कर उनकी पूजा अर्चना करी ।
तब तक ऋषि अत्रि भी आश्रम आ गये ।
तो माता अनुसुईया ने सारी बात विस्तार से उनके समुख रखी, जिसे सर्वज्ञानी ऋषि अत्रि पहले से जानते थे ।
ऋषि अत्रि ने मंत्रो के द्वारा तीनो देवो को एक रूप में परिवर्तित कर एक बालक का रूप दे दिया जिसके तीन मुख एवं छः हाथ थे अपने पति को इस रूप में देख तीनो देवियो पछतावा होता है और ऋषि अत्रि एवं माता अनुसुईया से छमा माँग अपने पतियों को वापस देने का आग्रह करती है ऋषि अत्रि तीनो देवो को उनका मूर्त रूप दे देते है ।
*" तब तीनो देवो ने अपने आशीर्वाद के द्वारा दत्तात्रेय भगवान को बनाते है जो तीनों देवो का रूप कहलाते है इस प्रकार माता अनुसुईया परीक्षा में सफल हुई और उन्हें तीनो देवो के समान के पुत्र की प्राप्ति हुई । "*
भगवान दत्तात्रेयजी ने गुरु मछेन्द्रनाथजी को गुरु मंत्र देकर शिष्य बनाया था स्वयं गुरु बने ।
नाथ पंथ की दीक्षा देकर भगवान दत्तात्रेय उन्हें लेकर देवो के देव महादेव के पास ले गये ।
भगवान शँकरजी कहा -
हे दत्तात्रेयजी !
इस देवधारी तपस्वी बालक को अपने " नाथ पंथ " की दीक्षा देकर उचित कार्य किया, अब आप इसे सम्पूर्ण गुप्तज्ञानकी जानकारी प्राप्त कराये ।
मेरा आशीर्वाद सदा इसके साथ है कि यह आपका चेला सम्पूर्ण संसार मे आपका मस्तक उँच्चा करके, अक्षय कीर्ति का अधिकारी बनेगा ।
भगवान दत्तात्रेय जी ने वेद वेदांग यंत्र-मन्त्र शास्त्रो की सब विद्याओं में मछेन्द्रनाथजी प्रवीण किया था ।
॥ ॐ नाथ देवाय नमो नमः ॥
आदेश ...आदेश....!
(आगे - 3 पर मछेन्द्रनाथ जीवनी वर्णन )
सच्चे साधु के लक्षण
एक बार की बात है।
एक संत अपने एक शिष्य के साथ किसी नगर की ओर जा रहे थे।
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रास्ते में चलते-चलते रात हो चली थी और तेज बारिश भी हो रही थी।
संत और उनका शिष्य कच्ची सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे।
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उनके कपड़े भी कीचड़ से लथपथ हो चुके थे।
मार्ग में चलते-चलते संत ने अचानक अपने शिष्य से सवाल किया - 'वत्स, क्या तुम बता सकते हो कि वास्तव में सच्चा साधु कौन होता है ?
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संत की बात सुनकर शिष्य सोच में पड़ गया।
उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा।
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उसे मौन देखकर संत ने कहा - सच्चा साधु वह नहीं होता, जो अपनी सिद्धियों के प्रभाव से किसी रोगी को ठीक कर दे या पशु-पक्षियों की भाषा समझ ले।
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सच्चा साधु वह भी नहीं होता, जो अपने घर-परिवार से नाता तोड़ पूरी तरह बैरागी बन गया हो या जिसने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो।
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शिष्य को यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हो रहा था।
वह तो इन्हीं गुणों को साधुता के लक्षण मानता था।
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उसने संत से पूछा - गुरुदेव, तो फिर सच्चा साधु किसे कहा जा सकता है ?
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इस पर संत ने कहा - वत्स, कल्पना करो कि इस अंधेरी, तूफानी रात में हम जब नगर में पहुंचें और द्वार खटखटाएं।
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इस पर चौकीदार हमसे पूछे - कौन है ?
और हम कहें - दो साधु।
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इस पर वह कहे - मुफ्तखोरो ! चलो भागो यहां से।
न जाने कहां-कहां से चले आते हैं।
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संत के मुख से ऐसी बातें सुनकर शिष्य की हैरानी बढ़ती जा रही थी।
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संत ने आगे कहा - सोचो, इसी तरह का व्यवहार और जगहों पर भी हो।
हमें हर कोई उसी तरह दुत्कारे, अपमानित करे, प्रताड़ित करे। .
इस पर भी यदि हम नाराज न हों, उनके प्रति जरा-सी भी कटुता हमारे मन में आए और हम उनमें भी प्रभु के ही दर्शन करते रहें, तो समझो कि यही सच्ची साधुता है।
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साधु होने का मापदंड है - हर परिस्थिति में समानता और सहजता का व्यवहार।
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इस पर शिष्य ने सवाल किया - लेकिन इस तरह का भाव तो एक गृहस्थ में भी हो सकता है।
तो क्या वह भी साधु है ?
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संत ने मुस्कराते हुए कहा - बिलकुल है, जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि सिर्फ घर छोड़कर बैरागी हो जाने से ही कोई साधु नहीं हो जाता।
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साधु वही है, जो साधुता के गुणों को धारण करे।
और ऐसा कोई भी कर सकता है।
भगवान् बहुत ही दयालु है:
एक राजा का फलों का एक विशाल बगीचा था।
उसमें तरह-तरह के फल लगते थे।
उस बगीचे की सारी देख-रेख एक किसान अपने परिवार के साथ करता था।
और वो किसान हर दिन बगीचे के ताजे फल लेकर राजा के राजमहल में जाता था।
एक दिन किसान ने पेड़ों पर देखा।
कि नारियल, अनार, अमरूद और अंगूर आदि पक कर तैयार हो रहे हैं।
*फिर वो किसान सोचने लगा- कि आज कौन सा फल राजा को अर्पित करूं?*
*और उसे लगा कि आज राजा को अंगूर अर्पित करने चाहिएं,*
क्योंकि वो बिल्कुल पक कर तैयार हैं।
फिर उसने अंगूरों की टोकरी भर ली और राजा को देने चल पड़ा।
किसान जब राजमहल में पहुंचा ।
तो राजा किसी दूसरे ख्याल में खोया हुआ था और थोड़ी सा नाराज भी लग रहा था।
किसान ने रोज की तरह मीठे रसीले अंगूरों की टोकरी राजा के सामने रख दी।
और थोड़ी दूरी पर बैठ गया।
अब राजा उन्ही ख्यालों में टोकरी में से अंगूर उठाता।
एक खाता और एक खींचकर किसान के माथे पर निशाना साधकर फेंक देता।
राजा का अंगूर जब भी किसान के माथे या शरीर पर लगता था।
*तो किसान कहता---*
*ईश्वर बड़ा ही दयालु है।*
राजा फिर और जोर से अंगूर फेंकता था।
*और किसान फिर वही कहता---*
*ईश्वर बड़ा ही दयालु है।*
थोड़ी देर बाद जब राजा को एहसास हुआ।
कि वो क्या कर रहा है और प्रत्युत्तर क्या आ रहा है।
तो वो संभलकर बैठ गया और फिर
*किसान से कहा---*
*मैं तुम्हें बार-बार अंगूर मार रहा हूं, और ये अंगूर तुम्हें लग भी रहे हैं ।*
पर फिर भी तुम बार-बार यही क्यों कह रहे हो---
ईश्वर बड़ा ही दयालु है।*
किसान बड़ी ही नम्रता से बोला- राजा जी!
बाग में आज नारियल, अनार, अमरुद और अंगूर आदि फल तैयार थे ।
पर मुझे भान हुआ कि क्यों न मैं आज आपके लिए अंगूर ले चलूं।
अब लाने को तो मैं नारियल, अनार और अमरुद भी ला सकता था ।
पर मैं अंगूर लाया।
*यदि अंगूर की जगह नारियल, अनार या अमरुद रखे होते ।*
*तो आज मेरा हाल क्या होता?*
*इसीलिए मैं कह रहा था-*
*ईश्वर बड़ा ही दयालु है।*
तात्पर्य------
*इसी प्रकार ईश्वर हमारी भी कई मुसीबतों को बहुत ही हल्का करके हमें उबार लेते हैं ।*
*पर ये तो हम ही कृतघ्न प्राणी हैं जो धन्यवाद न करते हुए।*
*उल्टा उन्हें ही गलत ठहरा देते हैं।*
मेरे साथ ही ऐसा क्यूं हुआ?
मेरा क्या कसूर था आदि आदि ?
*परम पिता परमात्मा को असंख्य कोटि-कोटि प्रणाम, नमन एवं धन्यवाद ।*
*उनकी अहेतु की हर कृपा के लिए 🙇🙏💐🚩*
शांतिदूत का दायित्व :
शांतिदूत का दायित्व और बल,बुद्धि,विवेक के साथ राम - अंगद संवाद.....
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श्रीरामजी ने कहा था:-
अंगद दूत का बड़ा दायित्व होता है।
शत्रु को भरी सभा मे अपने स्वामी का संदेश सुनाना और अपनी बात से सहमत करवाना।अपने स्वामी की शक्ति का इस प्रकार बखान करना कि अपने स्वामी का सम्मान भी बना रहे और सामने सुनने वाले को अपना निरादर भी न लगे।आत्मसंयम दूत का सबसे बड़ा गुण है अंगद।
तुम क्या उद्देश्य लेकर जा रहे हो इसे भलीभांति समझ लो।रावण सम्मान के साथ सीता को वापस पहुँचा दे।रक्तपात और संघार की स्थिति न आने पाए।यही उद्देश्य है हमारा।तुम हमारी ओर से शांति दूत बनकर जा रहे हो बालिकुमार।
"शांति सन्देशा राम का,ले जाओ युवराज।
एक अवसर दो शत्रु को,वीरोचित यह काज।।"
दूत का एक और भी कर्तव्य होता है बालिकुमार...शत्रु के सामने अपने दल की शक्ति और अपनी सेना के बलाबल का वर्णन इस चतुराई से करे कि शत्रु अंदर ही अंदर दहल जाए।
जाओ विजयी भव।
'शांतिदूत ने राम का,लेकर शांति सन्देश।
असत,अधर्म,अनीति के,गढ़ में किया प्रवेश।।'
फिर गदा बाहर फेक दी अंगद ने....बाहर
"शत शत दल पीछे अंगद चला है ऐसे निर्भयसिंग जैसे हाथियों के दल में।
साहस अपार लिए राम का आधार लिए कूद पड़े जैसे कोई सागर अटल में।
रोके न किसी के रोके बढ़ता ही चला जाए सूर्य का प्रकाश जैसे घने जंगल में।
राम जी की सेना में है बड़े बड़े योद्धा पर अंगद सा एक न विवेक बुद्धि बल में।।"
••••आज की रामायण का प्रमुख अंश...
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏