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जय द्वारकाधीश
12 कुंभ कुल मिलाकर होते हैं।
कुल मिलाकर 12 कुंभ होते हैं।
कुंभ के दौरान देवलोक में 8 और पृथ्वी लोक में 4 स्थानों पर अमृत की बूंदें छलक पड़ीं। पृथ्वी पर अमृत की ये बूंदें प्रयाग और हरिद्वार में प्रवाहमान गंगा नदी, उज्जैन की क्षिप्रा और नासिक की गोदावरी नदी में गिरीं...।
स तभी से चारों स्थानों में अमृत कुम्भ जागृत करने की परंपरा शुरू हो गई।
यह देव-दानव संघर्ष 12 'मानवीय वर्ष' तक चलता रहा। कहते हैं इसी
लिए इन नदी तटों पर हर 12 साल पर कुम्भ होता है। मनुष्य के बारह वर्ष पूर्ण होते हैं तब देवताओं का एक दिन होता है।
इस लिए पृथ्वी पर चार और शेष देवलोक या (आठ लोको ) में अलग अलग समय पर कुंभो का आयोजन होता है।
|| कुंभ महापर्वों की जय हो ||
|| ये देवों का अमृत कुम्भ ||
ऋग्वेद में कुम्भ का उल्लेख है।
अथर्ववेद व यजुर्वेद में 'कुम्भ' के लिए प्रार्थना है।
ऋग्वेद में 'कुम्भ' पर्व के रूप में है, पर मेले का वर्णन नहीं है।
दरअसल, वैदिक युग में धार्मिक-सामाजिक उत्सवों को समन' कहते थे।
समन मेलों का ही स्वरूप था।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में कई स्थानों पर 'समन' की चर्चा है, जिनमें हजारों लोग धार्मिक उद्देश्य से तय स्थान पर जुटते थे, यज्ञ-हवन करते थे।
कुंभ-पर्व का वेदों में उल्लेख मिलने से इसकी प्राचीनता का पता चलता है।
ऋग्वेद (10-89-7), शुक्लयजुर्वेद (19-87), अथर्ववेद (4-34-7, 16-6-8 एवं 19-53-3) की ऋचाएं कुंभ-पर्व पर पर्याप्त प्रकाश डालती हैं।
पुराणों में इस संदर्भ में जो कथाएं मिलती हैं, उनका सार-संक्षेप यह है कि पूर्वकाल में देवताओं और दानवों ने मिलकर जब समुद्र-मंथन किया, तब 14 दुर्लभ रत्न प्रकट हुए।
अमृत से भरा कुंभ ( घट ) उनमें से एक था।
देवराज इंद्र के पुत्र जयंत अमृत कुंभ को लेकर आकाश में उड़ गए, तो दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेश पर दानवों ने उनका पीछा किया और अमृत कुंभ को छीनने का बड़ा प्रयत्न किया।
देवों और असुरों में 12 दिव्य दिनों ( मनुष्यों के 12 वर्ष ) तक यह संघर्ष चला।
इस अवधि में अमृत से भरे कुंभ ( कलश ) को दैत्यों से बचाने में सूर्यनारायण, चंद्रदेव और देवगुरु बृहस्पति ने विशेष योगदान दिया, लेकिन प्रयाग, हरिद्वार, उज्जयिनी और नासिक-इन चार स्थानों पर कुछ अमृत-बिंदु गिर गए।
इसी लिए सूर्य, चंद्र एवं गुरु के विशेष संयोग से हर बारहवें वर्ष पूर्वोक्त चार स्थानों पर कुंभ का दुर्लभ योग बनता है।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार, मकर राशि में सूर्य और चंद्र की युति तथा वृष राशि में बृहस्पति की उपस्थिति से प्रयाग में कुंभयोग बनता है।
यह ग्रह-स्थिति माघ मास की अमावस्या के दिन बनती है।
यह संयोग पूर्णकुंभ ( महाकुंभ ) का योग बनाता हैं।
इस वर्ष यह ग्रहयोग मुख्यत: 10 फरवरी को बन रहा है।
मान्यता है कि कुंभ- योग में निर्धारित तीर्थ ( इस वर्ष प्रयागराज ) में स्नान करने से संचित पाप ( बुरे कर्म ) की प्रवृत्ति नष्ट हो जाते हैं तथा तन-मन पूर्णरूपेण पवित्र हो जाता है।
कुंभ-पर्व में साधु-संत और सद्गृहस्थ, दोनों बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं।
स्नान करने के पश्चात लोग कुंभक्षेत्र में अन्न, वस्त्र, धन या कलश में शुद्घ घी भरकर दान करते हैं।
संपन्न व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान-पुण्य करते हैं।
संतों - महात्माओं के सत्संग का सुअवसर भी कुंभ मेले में प्राप्त होता है।
कुंभ में एकत्रित महात्मा और विद्वान जनहित एवं लोक-कल्याण हेतु परस्पर विचार-विमर्श करते हैं।
मकर-संक्रांति से उत्तरायण हो कर सूर्यदेव हमें तीर्थराज प्रयाग में अमृत-सेवन हेतु कुंभ में स्नान के लिए प्रेरित करेंगे। लोगों की यह अनुभूति भी है कि कुंभ - स्नान करने से आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है।
चूंकि देवों को ही अमृत कुंभ का लाभ मिला था, इस लिए हमें कुंभ यह पाठ भी सिखाता है कि जब हमारे भीतर सद्गुणों का देवत्व उत्पन्न होगा, तभी महाकुंभ का स्नान भी सार्थक होगा।
|| कुंभ महापर्व प्रयाग राज की जय हो ||
|| कुंभ मेले का आयोजन ||
मान्यता है कि समुद्र-मंथन में अमृत-कुंभ के लिए देवताओं और राक्षसों में हुई खींचतान से कुछ तीर्थो में अमृत गिर जाने से वहां कुंभ आयोजित होता है। कुंभ वास्तव में उसी अमृत कुंभ की याद दिलाता है।
आज भी हर व्यक्ति अमृत - कुंभ के लिए खींचतान कर रहा है, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि अमृत उसे ही मिलता है, जिसमें देवत्व वाले गुण होते हैं।
अच्छे गुणों को ही देवत्व कहते हैं और अमृत वह है, जिसमें मरण नहीं, बल्कि मोक्ष मिलता है।
इस वर्ष मकर-संक्रांति के दिन से तीर्थराज प्रयाग में पूर्णकुंभ महापर्व का पर्वकाल प्रारंभ हो गया है।
14 जनवरी को मकर- संक्रांति के दिन प्रथम शाही स्नान के साथ प्रयाग महाकुंभ-स्नान का शुभारंभ हुआ, जो 10 मार्च को महा शिवरात्रि तक चलेगा।
साधु-संत, महात्मा तथा असंख्य श्रद्धालु उत्साह के साथ प्रयाग महाकुंभ में भाग लेकर इस महापर्व का आध्यात्मिक लाभ उठाते हैं।
शास्त्रों में कुंभ पर्व की महिमा का गुण-गान करते हुए इसके स्नान को समस्त पापों का नाशक एवं अनंत पुण्यदायक बताया गया है।
स्कंद पुराण कहता है-
सहश्चं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटि: कुंभस्नानेन तत्फलम्॥
अर्थात एक हजार बार कार्तिक मास में गंगा में स्नान करने से, सौ बार माघ में संगम-स्नान करने से, वैशाख में एक करोड़ बार नर्मदा-स्नान करने से जो पुण्यफल अर्जित होता है, वह महाकुंभ में केवल एक बार स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।
विष्णु पुराण में भी कुंभ - स्नान की प्रशंसा में कहा गया है-
अश्वमेधसहश्चाणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुंभस्नानेन तत्फलम्॥
यानी हजार बार अश्वमेध-यज्ञ करने से, सौ बार वाजपेय - यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जितनी पुण्य राशि संचित होती है, उतनी कुंभ में एक बार स्नान करने से प्राप्त होती है।
माघ मकरगत रबि जब होई।
तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं।
सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
|| कुंभयोग का काल निर्णय ||
हरिद्वार में कुंभकाल :-
पद्मिनीनायके मेषे कुंभराशि गते गुरौ।
गंगाद्वारे भवेत् योग: कुंभनामा तदोत्तम:।।
बृहस्पति कुंभ राशि एवं सूर्य राशि जब होते हैं,
तब हरिद्वार में अमृत-कुंभयोग होता है।
वसंते विषुवे चैव घटे देवपुरोहिते।
गंगाद्वारे च कुन्ताख्य: सुधामिति नरो यत:।।
बसंत ऋतु में सूर्य जब मेष राशि में संक्रमण करता है एवं देव पुरोहित वृहस्पति कुंभ राशि में आते हैं, तब हरिद्वार में कुंभ मेला होता है।
इस योग से मानव सुधा यानी अमृत प्राप्त करता है।
कुंभराशिगते जीवे यद्दिने मेषगेरवो।
हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्ज्जनम्।।
जिन दिनों में बृहस्पति कुंभ राशि में एवं सूर्य मकर राशि में रहेंगे, उन्हीं दिनों हरिद्वार में कुंभ स्नान करने पर पुनर्जन्म नहीं होता।
प्रयाग में कुंभकाल-
मेषराशिगते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ।
अमावस्या तदा योग: कुंभख्यस्तीर्थ नायके।।
बृहस्पति मेष राशि में तथा चंद्र- सूर्य मकर राशि में जब आते हैं और अमावस्या तिथि हो तो तीर्थराज प्रयाग में कुंभयोग होता है।
नासिक में कुंभकाल :-
सिंहराशिगते सूर्ये सिहंराश्यां बृहस्पतौ।
गोदावर्यां भवेत कुम्भो जायते खुल मुक्तिद:।।
बृहस्पति और सूर्य दोनों जब कुंभ राशि पर आते हैं,तब गोदावरी में मुक्तिप्रद कुंभयोग होता है।
कर्के गुरुस्तशा भानुश्चन्द्रश्चचन्द्रक्षयस्तथा।
गोदावर्यास्तदा कुम्भो जायतेवहनीमण्डले।।
कर्क राशि में वृहस्पति, सूर्य और चंद्र जब आते हैं, तब अमावस्या तिथि को गोदावरी तट पर ( नासिक ) कुंभयोग होता है।
उज्जयिनी में कुंभकाल-
मेषराशिगते सूर्ये सिहंराश्यां वृहस्पतौ।
उज्जयिन्यां भवेत कुम्भ: सर्वसौख्य विवर्द्धन:।।
सूर्य मेष राशि में एवं बृहस्पति सिंह राशि में जब आते हैं, तब उज्जयिनी ( धारा ) में सभी के लिए सुखदायक कुंभ योग आता है। चूंकि बृहस्पति सिंह राशि पर रहते हैं इसलिए सिंहस्थ कुंभयोग के नाम से यह प्रसिद्ध है।
घटे सूरि: शशिसूर्य: कुह्याम् दामोदरे यदा।
धारायाश्च तथा कुम्भो जायते खुल मुक्तिद:।।
तुला राशि में बृहस्पति, चंद्र और सूर्य के एकत्रित होने पर अमावस्या तिथि के दिन धारा ( उज्जयिनी ) में शिप्रा तट पर मुक्तिप्रद कुंभयोग होता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रहों का शुभाशुभ फल मनुष्य के जीवन पर पड़ता है।
बृहस्पति जब विभिन्न ग्रहों के अशुभ फलों को नष्ट कर पृथ्वी पर शुभ प्रभाव का विस्तार करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उक्त शुभ स्थानों पर अमृतप्रद कुंभयोग अनुष्ठित होता है।
अनादिकाल से इस कुंभयोग को आर्यों ने सर्वश्रेष्ठ साक्षात मुक्तिपद की संज्ञा दी है।
इन कुंभयोगों में उक्त पुण्य तीर्थ स्थानों में जाकर दर्शन तथा स्नान करने पर मानव कामनोभाव से पवित्र, निष्पाप और मुक्तिभागी होता है-
इस बात का उल्लेख पुराणों में है।
यही वजह है कि धर्मप्राण मुक्तिकामी नर -नारी कुंभयोग और कुंभ मेले के प्रति इतने उत्साहित रहते हैं।
|| कुंभ महापर्वों की जय हो ||