https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 08/11/20

पारमार्थिक सुख / स्वार्थ छोडिये...!

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

पारमार्थिक सुख / स्वार्थ छोडिये...! 


पारमार्थिक सुख *♨️✒️👉🏿•◆स्वार्थ छोडिये◆•👈🏿✒️♨️*


पारमार्थिक सुख

इंसान भी दो तरह की प्रवृत्ति के पाये जाते हैं। 

"हंस" और "काग"...!






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पुराने जमाने में एक शहर में दो ब्राह्मण पुत्र रहते थे ।

एक गरीब था तो दूसरा अमीर..

दोनों पड़ोसी थे..

गरीब ब्राम्हण की पत्नी । 

उसे रोज़ ताने देती । 

झगड़ती ..

एक दिन ग्यारस के दिन गरीब ब्राह्मण पुत्र झगड़ों से तंग आ जंगल की ओर चल पड़ता है ।

ये सोच कर । 

कि जंगल में शेर या कोई मांसाहारी जीव उसे मार कर खा जायेगा ।

उस जीव का पेट भर जायेगा और मरने से वो रोज की झिक झिक से मुक्त हो जायेगा..

जंगल में जाते उसे एक गुफ़ा नज़र आती है...

वो गुफ़ा की तरफ़ जाता है...
गुफ़ा में एक शेर सोया होता है और शेर की नींद में ख़लल न पड़े इसके लिये हंस का पहरा होता है..

हंस ज़ब दूर से ब्राह्मण पुत्र को आता देखता है तो चिंता में पड़ सोचता है..

ये ब्राह्मण आयेगा।

शेर जगेगा और इसे मार कर खा जायेगा...
ग्यारस के दिन मुझे पाप लगेगा...
इसे बचायें कैसे???

उसे उपाय सुझता  है और वो शेर के भाग्य की तारीफ़ करते कहता है..

ओ जंगल के राजा... 

उठो।

जागो..
आज आपके भाग खुले हैं।

ग्यारस के दिन खुद विप्र देव आपके घर पधारे हैं।

जल्दी उठें और इन्हे दक्षिणा दें रवाना करें...!

आपका मोक्ष हो जायेगा...!

ये दिन दुबारा आपकी जिंदगी में शायद ही आये।

आपको पशु योनी से छुटकारा मिल जायेगा..

शेर दहाड़ कर उठता है । 

हंस की बात उसे सही लगती है और पूर्व में शिकार मनुष्यों के गहने वो ब्राह्मण के पैरों में रख ।

शीश नवाता है।

जीभ से उनके पैर चाटता है...

हंस ब्राह्मण को इशारा करता है।







विप्र देव ये सब गहने उठाओ और जितना जल्द हो सके वापस अपने घर जाओ...

ये सिंह है कब मन बदल जाय..

ब्राह्मण बात समझता है।

घर लौट जाता है....

पडौसी अमीर ब्राह्मण की पत्नी को जब सब पता चलता है। 

तो वो भी अपने पति को जबरदस्ती अगली ग्यारस को जंगल में उसी शेर की गुफा की ओर भेजती है....

अब शेर का पहेरादार बदल जाता है..

नया पहरेदार होता है ""

कौवा""

जैसे कौवे की प्रवृति होती है। 

वो सोचता है बढीया है। 

ब्राह्मण आया शेर को जगाऊं ...

शेर की नींद में ख़लल पड़ेगी। 

गुस्साएगा। 

ब्राह्मण को मारेगा तो कुछ मेरे भी हाथ लगेगा ।

मेरा पेट भर जायेगा...!

ये सोच वो कांव..!

कांव..कांव चिल्लाता है..

शेर गुस्सा हो जगता है..!

दूसरे ब्राह्मण पर उसकी नज़र पड़ती है। 

उसे हंस की बात याद आ जाती है.. 

वो समझ जाता है, कौवा ,,,

क्यूं कांव..

कांव कर रहा है..

वो अपने ।

पूर्व में हंस के कहने पर किये गये धर्म को खत्म नहीं करना चाहता..

पर फिर भी शेर,शेर होता है। 

जंगल का राजा...!

वो दहाड़ कर ब्राह्मण को कहता है..!

""हंस उड़ सरवर गये और अब काग भये प्रधान...!

थे तो विप्रा थांरे घरे जाओ,,,,

मैं किनाइनी जिजमान...

अर्थात हंस जो अच्छी सोच वाले अच्छी मनोवृत्ति वाले थे। 

उड़ के सरोवर यानि तालाब को चले गये है और अब कौवा प्रधान पहरेदार है। 

जो मुझे तुम्हें मारने के लिये उकसा रहा है.. 

मेरी बुध्दी घूमें उससे पहले ही.. 

है ब्राह्मण यहां से चले जाओ..

शेर किसी का जजमान नहीं हुआ है..

वो तो हंस था। 

जिसने मुझ शेर से भी पुण्य करवा दिया..

दूसरा ब्राह्मण डर के मारे तुरंत अपने घर की ओर भाग जाता है...

कहने का मतलब है दोस्तों...

ये कहानी आज के परिपेक्ष्य में भी सटीक बैठती है ...

हंस और कौवा कोई और नहीं ,,,

हमारे ही चरित्र है...

कोई किसी का दु:ख देख दु:खी होता है। 

और उसका भला सोचता है ,,,

वो हंस है...

और जो किसी को दु:खी देखना चाहता है ,,,

किसी का सुख जिसे सहन नहीं होता ...

वो कौवा है...

जो आपस में मिलजुल,भाईचारे से रहना चाहते हैं। 

वे हंस प्रवृत्ति के हैं..

जो झगड़े कर एक दूजे को मारने लूटने की प्रवृत्ति रखते हैं। 

वे कौवे की प्रवृति के है...

स्कूल या आफिसों में जो किसी कार्मिक की गलती पर अफ़सर को बढ़ा चढ़ा के बताते हैं।

उस पर कार्यवाही को उकसाते हैं...

वे कौवे है..

जो किसी कार्मिक की गलती पर भी अफ़सर को बडा मन रख माफ करने को कहते हैं। 

वे हंस प्रवृत्ति के है..

अपने आस पास छुपे बैठे ,,,कौवों को पहचानों उनसे दूर रहो और
जो हंस प्रवृत्ति के हैं।

उनका साथ करो..

उनसे भला करने की प्रेरणा लो...

💐पारमार्थिक सुख ही वास्तविक सुख है।

यानि जो सुख और ख़ुशी दूसरों को दे कर खुद खुश या सुखी होते है । 

उनसे बड़ा कोई सुख है ही नही।💐
     🌺राधे राधे🌺

*जय द्वारकाधीश🙏🙏*

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*♨️✒️👉🏿•◆स्वार्थ छोडिये◆•👈🏿✒️♨️*

     एक छोटे बच्चे के रूप में, मैं बहुत *स्वार्थी* था, हमेशा अपने लिए सर्वश्रेष्ठ चुनता था।
     
धीरे - धीरे, सभी दोस्तों ने मुझे छोड़ दिया और अब मेरे कोई दोस्त नहीं थे। 

मैंने नहीं सोचा था कि यह मेरी गलती थी, और मैं दूसरों की आलोचना करता रहता था लेकिन मेरे पिता ने मुझे जीवन में मदद करने के लिए 3 दिन में 3 संदेश दिए।

     एक दिन, *मेरे पिता ने हलवे के 2 कटोरे बनाये और उन्हें मेज़ पर रख दिया।*

     एक के ऊपर 2 बादाम थे, जबकि दूसरे कटोरे में हलवे के ऊपर कुछ नहीं था।

     फिर उन्होंने मुझे हलवे का कोई एक कटोरा चुनने के लिए कहा, क्योंकि उन दिनों तक हम गरीबों के घर बादाम आना मुश्किल था.... मैंने 2 बादाम वाले कटोरे को चुना!

      मैं अपने बुद्धिमान विकल्प / निर्णय पर खुद को बधाई दे रहा था, और जल्दी जल्दी मुझे मिले 2 बादाम हलवा खा रहा था।

      परंतु मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही था, जब मैंने देखा कि की मेरे पिता वाले कटोरे के नीचे *8 बादाम* छिपे थे!


     \


बहुत पछतावे के साथ, मैंने अपने निर्णय में जल्दबाजी करने के लिए खुद को डांटा।

      मेरे पिता मुस्कुराए और मुझे यह याद रखना सिखाया कि,

    *आपकी आँखें जो देखती हैं वह हरदम सच नहीं हो सकता, उन्होंने कहा कि यदि आप स्वार्थ की आदत बना लेते हैं तो आप जीत कर भी हार जाएंगे।*

     अगले दिन, मेरे पिता ने फिर से हलवे के 2 कटोरे पकाए और टेबल पर रखे। 

एक कटोरा के शीर्ष पर 2 बादाम और दूसरा कटोरा जिसके ऊपर कोई बादाम नहीं था।

     फिर से उन्होंने मुझे अपने लिए कटोरा चुनने को कहा। 

इस बार मुझे कल का संदेश याद था, इसलिए मैंने शीर्ष पर बिना किसी बादाम कटोरी को चुना।

     परंतु मेरे आश्चर्य करने के लिए इस बार इस कटोरे के नीचे एक भी बादाम नहीं छिपा था! 

     फिर से, मेरे पिता ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा,....! 

*"मेरे बच्चे, आपको हमेशा अनुभवों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि कभी - कभी जीवन आपको धोखा दे सकता है या आप पर चालें खेल सकता है। 

स्थितियों से कभी भी ज्यादा परेशान या दुखी न हों, बस अनुभव को एक सबक अनुभव के रूप में समझें, जो किसी भी पाठ्यपुस्तक से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।*

     तीसरे दिन, मेरे पिता ने फिर से हलवे के 2 कटोरे पकाए।

     पहले 2 दिन की ही तरह, एक कटोरे के ऊपर 2 बादाम, और दूसरे के शीर्ष पर कोई बादाम नहीं। 

मुझे उस कटोरे को चुनने के लिए कहा जो मुझे चाहिए था।

     लेकिन इस बार, मैंने अपने पिता से कहा, *पिताजी, आप पहले चुनें, आप परिवार के मुखिया हैं और आप परिवार में सबसे ज्यादा योगदान देते हैं । 

आप मेरे लिए जो अच्छा होगा वही चुनेंगे*।

      मेरे पिता मेरे लिए खुश थे।

उन्होंने शीर्ष पर 2 बादाम के साथ वाला कटोरा चुना, लेकिन जैसे ही मैंने अपने  कटोरे का हलवा खाया!  कटोरे के हलवे के एकदम नीचे 4 बादाम और थे।😊

      मेरे पिता मुस्कुराए और मेरी आँखों में प्यार से देखते हुए, उन्होंने कहा *मेरे बच्चे, तुम्हें याद रखना होगा कि, जब तुम भगवान पर सब कुछ छोड़ देते हो तो वे हमेशा तुम्हारे लिए सर्वोत्तम का चयन करेंगे।*

    *और जब तुम दूसरों की भलाई के लिए सोचते हो, अच्छी चीजें स्वाभाविक तौर पर आपके साथ भी हमेशा होती रहेंगी ।*

शिक्षा: 

परोपकारी बनें, बड़ों का सम्मान करते हुए उन्हें पहले मौका व स्थान देवें, बड़ों का आदर - सम्मान करोगे तो कभी भी खाली हाथ नहीं लौटोगे ।  

 *"अनुभव व दृष्टि का ज्ञान व विवेक के साथ सामंजस्य हो जाये बस यही सार्थक जीवन है।"*

     *🙏जय श्री कृष्ण 🙏*
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85 Web http://Sarswatijyotish.com
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री यजुर्वेद , श्री ऋग्वेद और विष्णुपुराण , के अनुसार श्री ऋषि पंचमी के पूजन व्रत और कथा का महातम महत्व ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।।  श्री यजुर्वेद , श्री ऋग्वेद  और विष्णुपुराण , के अनुसार श्री ऋषि पंचमी के पूजन व्रत और कथा का महातम महत्व ,  *००((( हरि का भोग)))००*  ।। 


।  श्री यजुर्वेद , श्री ऋग्वेद  और विष्णुपुराण , के अनुसार श्री ऋषि पंचमी के पूजन व्रत और कथा का महातम महत्व  ।।


हमारे श्री ऋग्वेद और श्री विष्णुपुराण , श्री गरुड़पुराण आधारित भाद्रपद ( भादो ) मास शुक्ल पक्ष पंचमी के दिन ही ऋषि पंचमी पर पूजन करने के लिए व्यक्ति को नदी आदि में स्नान करने तथा आह्लिक कृत्य करने के उपरान्त अग्निहोत्रशाला में जाना चाहिए । 






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सप्तऋषियों की प्रतिमाओं को स्थापित कर उनका आवाहन करके उन्हें पंचामृत में स्नान करना चाहिए.....!

तत्पश्चात उन पर चन्दन,कपूर आदि का लेप लगाना चाहिए, फूलों एवं सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, इत्यादि अर्पण करने चाहिए तथा श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों और नैवेद्य से पूजा और मन्त्र जाप करना चाहिए.

वराहमिहिर की बृहत्संहिता के अनुसार मरीचि, वसिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु; को  सप्तर्षि ( सात ऋषि ) कहा गया है । 

संहिता में आगे आया है कि सप्तर्षि के साथ साध्वी अरून्धती भी हैं जो ऋषि तुल्य हैं एवम वसिष्ठ के साथ  हैं। 

अतः इस पूजन में अरून्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिए ।

व्रतराज के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा ( श्यामाक ) या कन्द - मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिए। 

इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है।

यह व्रत सात वर्षों का होता है। 

सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ  ( सोने या चाँदी की ) दान में दे दी जाती हैं। 

यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वस्त्र एवं दक्षिणा दी जाती है।

श्री ऋग्वेद के अनुसार पूजन विधि :

स्नानादि कर अपने घर के स्वच्छ स्थान पर हल्दी, कुंकुम, रोली आदि से चौकोर मंडल बनाकर उस पर सप्तऋषियों की स्थापना करें।

इसके पश्चात ऋषि पंचमी पूजन एवम व्रत के संकल्प हेतु निम्न मंत्र से संकल्प लें -

अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्यायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये।

संकल्प के पश्चात गन्ध, पुष्प, धूप, दीप नैवेद्यादि से सप्त ऋषियों की पूजन कर नीचे दिए हुए मन्त्रों से अर्घ्य दें।






सप्त ऋषियों के लिए मन्त्र —

कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
दहन्तु पापं सर्व गृह्नन्त्वर्ध्यं नमो नमः॥

अरून्धती के लिए मन्त्र —

अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरून्धती। 
कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि॥

अब व्रत कथा सुनकर आरती कर प्रसाद वितरित करें।

इसके पश्चात बिना बोया (अकृष्ट ) पृथ्वी में पैदा हुए शाकादिका आहार करके ब्रह्मचर्य का पालन करके व्रत करें।

इस प्रकार सात वर्ष करके आठवें वर्ष में  सप्त ऋषियों की सोने ( धातु ) की सात मूर्तियां बनवाएं। 

सात गोदान तथा सात युग्मक - ब्राह्मण को भोजन करा कर उनका विसर्जन करें । 

कहीं - कहीं, किसी प्रांत में स्त्रियां पंचताडी तृण एवं भाई के दिए हुए चावल कौवे आदि को देकर फिर स्वयं भोजन करती है।

यदि पंचमी तिथि चतुर्थी एवं षष्टी से संयुक्त हो तो ऋषि पंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्त पंचमी को। 

किन्तु इस विषय में मतभेद है।

सम्भवत: 

आरम्भ में ऋषिपंचमी व्रत सभी पापों की मुक्ति के लिए सभी लोगों के लिए व्यवस्थित था, किन्तु आगे चलकर यह केवल नारियों से ही सम्बन्धित रह गया।  

इसके करने से सभी पापों एवं तीनों प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिलता है। 

तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है। 

जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर -  सौन्दर्य , पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है।

श्री ऋग्वेद एवं श्री विष्णुपुराण व्रतकथा ०१ 

एक समय राजा सिताश्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी के पास गए और उनके चरणों में शीश नवाकर बोले- 

हे आदिदेव! 

आप समस्त धर्मों के प्रवर्तक और गुढ़ धर्मों को जानने वाले हैं।

आपके श्री मुख से धर्म चर्चा श्रवण कर मन को आत्मिक शांति मिलती है। 

भगवान के चरण कमलों में प्रीति बढ़ती है। 

वैसे तो आपने मुझे नाना प्रकार के व्रतों के बारे में उपदेश दिए हैं। 

अब मैं आपके मुखारविन्द से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने की अभिलाषा रखता हूं, जिसके करने से प्राणियों के समस्त पापों का नाश हो जाता है।

राजा के वचन को सुन कर ब्रह्माजी ने कहा- 

हे श्रेष्ठ, तुम्हारा प्रश्न अति उत्तम और धर्म में प्रीति बढ़ाने वाला है। 

मैं तुमको समस्त पापों को नष्ट करने वाला सर्वोत्तम व्रत के बारे में बताता हूं। 

यह व्रत ऋषिपंचमी के नाम से जाना जाता है। 

इस व्रत को करने वाला प्राणी अपने समस्त पापों से सहज छुटकारा पा लेता है।

विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। 

उसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थी, जिसका नाम सुशीला था। 

उस ब्राह्मण के एक पुत्र तथा एक पुत्री दो संतान थी। 

विवाह योग्य होने पर उसने समान कुलशील वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। 

दैवयोग से कुछ दिनों बाद वह विधवा हो गई। 

दुखी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।

एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। 

कन्या ने सारी बात मां से कही। 

मां ने पति से सब कहते हुए पूछा- 

प्राणनाथ! 

मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?

उत्तंक ने समाधि द्वारा इस घटना का पता लगाकर बताया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। 

इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। 

इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा - देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। 

इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।

धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। 

वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। 

यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी।

पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। 

व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। 

अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।







श्री ऋग्वेद  एवं श्री गरुड़पुराण के व्रतकथा ०२  

सत युग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुये थे। वह ऋषियों के समान थे। 

उन्हीं के राज में कृषक सुमित्र था। 

उसकी स्त्री जयश्री अत्यन्त पतिव्रता थी। 

एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी स्त्री खेती के कामों में लगी हुई थी तो वह रजस्वला हो गई। 

उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। 

कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त हुए। 

जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली। 

क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था। 

इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। 

वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहाँ रहने लगे। 

धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। 

अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को जिमाने के लिये नाना प्रकार के भोजन बनवाये। 

जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। 

कुतिया के रूप में सुचित्र की माँ कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्महत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुँह डाल दिया। 

सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी। 

बेचारी कुतिया मार खाकर इधर - उधर भागने लगी। 

चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। 

सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ़ करा के दोबारा खाना बनाकर ब्राह्मणों को खिलाया। 

रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली...!

हे स्वामी! 

आज तो भूख से मरी जा रही हूँ। 

वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज़ खाने को देता था। 

लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला। 

साँप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्महत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। 

इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया। 

तब वह बैल बोला, 

हे भद्रे! 

तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूँ और आज बोझा ढ़ोते - ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। 

आज मैं भी खेत में दिन भर हल में जुता रहा। 

मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। 

मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया। 

अपने माता - पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। 

वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता - पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। 

तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नी सहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता - पिता को दो। 

भाद्रपद ( भादों ) महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्यान्ह में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नये रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। 

इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नी सहित विधि विधान से पूजन व्रत किया। 

उसके पुण्य से माता - पिता दोनों पशु योनियों से छूट गये। 

इस लिये जो स्त्री श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर वैकुण्ठ जाती है।

         !!!!! शुभमस्तु !!!

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*००((( हरि का भोग)))००*


श्री यशोदा जी के मायके से एक ब्राह्मण गोकुल आए !

नंदलाल जी के घर बालक का जन्म हुआ यह सुनकर आशीर्वाद देने आए थे !

मायके से आए ब्राह्मण को देखकर यशोदा जी को बड़ा आनंद हुआ पंडित जी के चरण धोकर आदर सहित उनको घर में बिठाया और उनके भोजन के लिए योग्य स्थान गोबर से लिपवा दिया! 

पंडित जी से बोली देव आपकी जो इच्छा हो भोजन बना ले यह सुनकर विप्र का मन अत्यंत हर्षित हुआ! 






विप्र देव ने कहा बहुत अवस्था बीत जाने पर विधाता अनुकूल हुए यशोदा जी तुम धन्य हो जो ऐसा सुंदर बालक का जन्म तुम्हारे घर हुआ! 

यशोदा जी गाय दुहवाकर दूध ले आई ब्राह्मण बड़ी प्रसन्नता से घी मिश्री मिलाकर खीर बनाई खीर परोसकर  भगवान हरि को भोग लगाने के लिए ध्यान करने लगे

जैसे ही आंखें खुली तो विप्र देव ने देखा कन्हैया खीर का भोग लगा रहे हैं! 

वे बोले यशोदा जी आकर अपने पुत्र की करतूत को देखो इसने सारा भोजन जूठा कर दिया! 

ब्रजरानी दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी विप्र देव बालक को क्षमा करें और कृपया फिर से भोजन बना ले! 

बृज रानी दोबारा दूध घी मिश्री तथा चावल लेकर आई और कन्हैया को घर के भीतर ले गई ताकि वह  कोई गलती ना करें! 

विप्र अब पुनः खीर बनाकर अपने आराध्य को अर्पित कर ध्यान करने लगे कन्हैया फिर वहां आकर खीर का भोग लगाने लगे ! 

विप्र देव परेशान हो गए मैया मोहन को गुस्से से कहती है कान्हा लड़कपन क्यों करते हो तुम ने ब्राह्मण को बार-बार खिजाया तंग किया है! 

 इस तरह के विप्र देव जब - जब भोग लगाते हैं कन्हैया आकर कर जूठा कर देते हैं ! 

 अब माता परेशान होकर कहने लगी कन्हैया मैंने बड़ी उमंग से ब्राह्मण देव को न्यौता दिया था और तू उन्हें चिढ़ाता है! 

जब वह अपने ठाकुर जी को भोग लगाते हैं तब तू क्यों भाग कर आता है और भोग झूठा कर देता है! 

यह सुनकर कन्हैया बोले मैया तू मुझे क्यों दोस देती है विप्र देव स्वयं ही विधि विधान से मेरा ध्यान कर हाथ जोड़कर मुझे भोग लगाने के लिए बुलाते हैं हरि आओ भोग स्वीकार करो मैं कैसे ना जाऊं !

ब्राह्मण की समझ में बात आ गई अब व्याकुल होकर कहने लगे प्रभु अज्ञानवश मैंने जो अपराध किया है मुझे क्षमा करें! 

 यह गोकुल धन्य है श्री नंद जी और यशोदा जी धन्य है जिनके यहां साक्षात श्री हरि ने अवतार लिया है मेरे समस्त  पुण्यो एव उत्तम कर्मों का फल आज मुझे मिल गया जो दीनबंधु प्रभु ने मुझे साक्षात दर्शन दिए !

सूरदास जी कहते हैं कि विप्र देव बार बार हे अंतर्यामी दयासागर मुझ पर कृपा कीजिए भव से पार कीजिए यशोदा जी के आंगन में लौटने लगे! 

*一((( श्री राधे )))一*
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋग्वेद श्री अथर्वेद श्री सामवेद और श्री विष्णुपुराण के अनुसार श्री गणेशजी के पूजन और विषर्जन नही क्यों किया जाता है/सुंदर वर्णन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋग्वेद श्री अथर्वेद श्री सामवेद और श्री विष्णुपुराण के अनुसार श्री गणेशजी के पूजन और विषर्जन नही क्यों किया जाता है/सुंदर वर्णन ।।


।। श्री ऋग्वेद श्री अथर्वेद श्री सामवेद और श्री विष्णुपुराण के अनुसार श्री गणेशजी के पूजन और विषर्जन नही क्यों किया जाता है ।।


श्रीऋग्वेद श्री अथर्वेद श्री सामवेद के अनुसार श्री गणेशजी के पूजन और श्री विष्णुपुराण के अनुसार  विदा नही किया जाता है ।





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हर साल में भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन ही श्री गणेश चतुर्थी मनाया जाता है ।

गजाननं भूतगणादिसेवितं 
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारकं 
नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥

श्री ऋग्वेद के अनुसार हर साल में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय विघ्नविनाशक श्री गणेश का जन्म हुआ था | 

अत: यह तिथि मध्याह्नव्यापिनी लेनी चाहिए | 

इस दिन रविवार अथवा मंगलवार हो तो प्रशस्त है | 

गणेश जी हिन्दुओं के प्रथमपूज्य देवता हैं | 

सनातन धर्मानुयायी स्मार्तों के पञ्चदेवताओं में गणेशजी प्रमुख हैं | 

हिन्दुओं के घर में चाहे पूजा या क्रियाकर्म हो, सर्वप्रथम श्रीगणेश जी का आवाहन और पूजन किया जाता है | 

शुभ कार्यों में गणेश जी की स्तुति का अत्यन्त महत्त्व माना गया है | 

गणेशजी विघ्नों को दूर करने वाले देवता हैं | 

इनका मुख हाथी का, उदर लंबा तथा शेष शरीर मनुष्य के समान है | 

मोदक इन्हें विशेषप्रिय है | 

बंगाल की दुर्गापूजा की तरह महाराष्ट्र में गणेशपूजा एक राष्ट्रिय पर्व के रूप में प्रतिष्ठित है |

गणेशचतुर्थी के दिन नक्तव्रत का विधान है | 

अत: भोजन सांयकाल करना चाहिए तथा पूजा यथासंभव मध्याह्न में ही करनी चाहिए ।

क्योंकि---

“पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथि: |”

....अर्थात् सभी पूजा-व्रतों में मध्याह्नव्यापिनी तिथि लेनी चाहिए |

भाद्रपद मास क्व शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त हो कर अपनी शक्ति के अनुसार...!

सोने,चाँदी ,तांबे,मिट्टी, पीतल अथवा गोबर से गणेश की प्रतिमा बनाए या बनी हुई प्रतिमा का पुराणों में वर्णित गणेश जी के गजानन, लम्बोदरस्वरूप का ध्यान करे और अक्षत-पुष्प लेकर निम्न संकल्प करे—

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य दक्षिणायने सूर्ये वर्षर्तौ भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे गणेशचतुर्थ्यां तिथौ अमुकगोत्रोऽमुक शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं विद्याऽऽरोगीपुत्रधनप्राप्तिपूर्वकं सपरिवारस्य मम सर्वसंकटनिवारणार्थं श्रीगणपतिप्रसादसिद्धये चतुर्थीव्रतांगत्वेन श्रीगणपतिदेवस्य यथालब्धोपचारै: पूजनं करिष्ये |

हाथ में लिए हुए अक्षत-पुष्प इत्यादि गणेशजीके पास छोड़ दें |

इसके बाद विघ्नेश्वर का यथाविधि “ ॐ गं गणपतये नम:” से पूजन कर दक्षिणा के पश्चात् आरती कर गणेशजी को नमस्कार करे एवं गणेशजी की मूर्त पर सिंदूर चढ़ाए | 

मोदक और दूर्वा की इस पूजा में विशेषता है | 

अत: पूजा के अवसर पर 21 दूर्वादल भी रखें | 

तथा उनमें से 2 - 2 दूर्वा निम्नलिखित दस नाम मन्त्रों से क्रमश: चढ़ाएं ----

१-ॐ गणाधिपाय नम: , 
२- ॐ उमापुत्राय नम:, 
३- ॐ विघ्ननाशनाय नम:,
४- ॐ विनायकाय नम:, 
५-ॐ ईशपुत्राय नम:, 
६-ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नम:, 
७-ॐ एकदन्ताय नम:, 
८-इभवक्त्राय नम:, 
९-ॐ मूषकवाहनाय नम:, 
१०- ॐ कुमारगौरवे नम: |

पश्चात् दसों नामों का एक साथ उच्चारण कर अवशिष्ट एक दूब चढ़ाएं | 

इसी प्रकार 21 लड्डू भी गणेशपूजा में आवश्यक होते हैं | 

इक्कीस लड्डू का भोग रखकर पांच लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और पांच, ब्राह्मण को दे दें एवं शेष को प्रसाद स्वरूप में स्वयं लेलें तथा परिवार के लोगों में बाँट दें | 

पूजन की यह विधि चतुर्थी के मध्याह्न में करें | 

ब्राह्मणभोजन कराकर दक्षिणा दे और स्वयं भोजन करें |

पूजन के पश्चात् नीचे लिखे वह सब सामग्री ब्राह्मण को निवेदन करें |

“दानेनानेन देवेश प्रीतो भव गणेश्वर |
सर्वत्र सर्वदा देव निर्विघ्नं कुरु सर्वदा |
मानोन्नतिं च राज्यं च पुत्रपौत्रान् प्रदेहि मे |”

इस व्रत से मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं, क्योंकि विघ्नहर गणेशजी के प्रसान्न होने पर क्या दुर्लभ है ? 

गणेशजी का यह पूजन बुद्धि,विद्या,तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति एवं विघ्नों के नाश के लिए किया जाता है | 

कई व्यक्ति श्रीगणेशसहस्रनामावली के एक हजार नामों से प्रत्येक नाम के उच्चारण के साथ लड्डू अथवा दूर्वादल आदि श्रीगणेशजी को अर्पित करते हैं | 

इसे गणपतिसहस्रार्चन कहा जाता है | 

श्रीऋग्वेद , श्रीअथर्वेद , श्रीसामवेद और श्री विष्णुपुराण के अनुसार श्रीगणेश जी को कभी भी विदा नहीं करना चाहिए ।

क्योंकि विघ्न हरता ही अगर विदा हो गए तुम्हारे विघ्न कौन हरेगा।

क्या कभी सोचा है गणेश प्रतिमा का विसर्जन क्यों?  

अधिकतर लोग एक दूसरे की देखा देखी गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर रहे हैं, और 3 या 5 या 7 या 11 दिन की पूजा के उपरांत उनका विसर्जन भी करेंगे। 

आप सब से निवेदन है कि आप छोटे से मूर्ति की श्रीगणपति की स्थापना करें पर विसर्जन नही विसर्जन केवल महाराष्ट्र में ही होता हैं।

क्योंकि श्रीगणपति  परिवार सहित वहाँ एक मेहमान बनकर गये थे ।

वहाँ लाल बाग के राजा कार्तिकेय ने अपने भाई गणेश जी को अपने यहाँ बुलाया और कुछ दिन वहाँ रहने का आग्रह किया था ।

जितने दिन गणेश जी वहां रहे उतने दिन माता लक्ष्मी और उनकी पत्नी रिद्धि व सिद्धि वहीँ रही इनके रहने से लाल बाग धन धान्य से परिपूर्ण हो गया ।

तो कार्तिकेय जी ने उतने दिन का गणेश जी को लालबाग का राजा मानकर सम्मान दिया यही पूजन गणपति उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। 

अब रही बात देश की अन्य स्थानों की तो श्रीगणेश जी हमारे घर के मालिक हैं और घर के मालिक को कभी विदा नही करते ।

वहीं अगर हम गणपति जी का विसर्जन करते हैं तो उनके साथ लक्ष्मी जी व रिद्धि सिद्धि भी चली जायेगी तो जीवन मे बचा ही क्या। 

हम बड़े शौक से कहते हैं ।

 *गणपति बाप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ* 

इसका मतलब हमने एक वर्ष के लिए गणेश जी लक्ष्मी जी आदि को जबरदस्ती पानी मे बहा दिया ।

तो आप खुद सोचो कि आप किस प्रकार से नवरात्रि पूजा करोगे ।

किस प्रकार दीपावली पूजन करोगे और क्या किसी भी शुभ कार्य को करने का अधिकार रखते हो जब आपने उन्हें एक वर्ष के लिए भेज दिया। 

इस लिए श्रीगणेश जी की स्थापना करें पर विसर्जन कभी न करे। 

*निवेदन* - आगामी श्री गणेश चतुर्थी पर श्री गणपति जी की पारंपरिक छोटी सी मूर्ति ख़रीदे ।

जिसमे गणेश जी के मूल स्वरुप की प्रतिकृति हो, ऋद्धि-सिद्धि विद्यमान हो ।

बाहुबली गणेश , सेल्फ़ी लेते हुए स्कूटर चलाते हुए ऑटो चलाते हुए  बॉडी बिल्डर  बाहुबली  सिक्स पैक या अन्य किसी प्रकार के अभद्र स्वरुप में गणेश जी को बिठाने का कोई औचित्य नहीं है सनातन धर्म की हँसी उड़ाई जा रही है..

*अपने धर्म का मज़ाक न उड़ायें*

सभी से निवेदन है समझदारी का परिचय देवे , और सही श्री गणेश जी की छोटी प्रतिमा का स्थापना करे धर में रोज सुबह ही उसकी पूजन करे ।

           *ॐ एकदंताय नमो नमः*


         !!!!! शुभमस्तु !!!

+++

।। सुंदर वर्णन ।।

जो मन को नियंत्रित नहीं करते,
उनके लिए वह शत्रु के समान
कार्य करता है।
हमारे जीवन में अच्छाई व बुराई,
सकारात्मकता व नकारात्मकता,
हमारी अपनी सोच से ही उत्पन्न
होती है, व हमारे  जीवन को पूर्ण
रूप से प्रभावित करते हैं। हमारी
सोच, हमारे विचार तथा हमारे
संस्कार हमारी इच्छाओं के द्वारा
एवं मन में चल रही उथल-पुथल
से ही निर्देशित व संचालित होते
हैं। ऐसे में यदि हमारा अपने मन
पर नियंत्रण नही रहता, तो फिर
निश्चित जानिए, स्वयं हमारा मन
ही एक शत्रु समान व्यवहार करते
हुए हमारे जीवन को सम्पूर्ण रूप
से अनियंत्रित व अव्यवस्थित कर
देगा। अतः अपने मन एवं विचारों
पर नियंत्रण करना सीखिए, जिस
के लिए निरंतर प्रयास व साधना
की आवश्यकता होती है।





 *आप किसी को नहीं बदल सकते अपने आप को बदलिए हक़ से*
*अपने दिल में जो है*
*उसे कहने का साहस,*
*और* 
*दूसरों के दिल में जो है*
*उसे समझने की कला*
*अगर है,*
*तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं*
 *ख़ुश रहो मस्त रहो हक़ से यह दुनियाँ रंग बिरंगी है ऐसे ही चलती रहेगी*
।।।।।।।। जय श्री कृष्ण ।।।।।।।।
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