।। संसार में दरिद्र कौन है / माघ मास महात्म्य चतुर्थ अध्याय / अपने कार्य में बार - बार नवीनता लाए ।।
|| संसार में दरिद्र कौन है ||
यह प्रश्न चारों तरफ से उभर कर सामने आता है संसार में दरिद्र कौन है ।
इस पर जब हम चिंतन करना प्रारंभ करेंगे तब हमारे को बहुत ही गहराई के अंदर उतरना पड़ेगा तब हमारे को इस प्रश्न का उत्तर है बड़ी मुश्किल से प्राप्त होगा पर प्राप्त होगा यह निश्चित बात है।
दरिद्र वही व्यक्ति कहलाता है जिस व्यक्ति की कामनाएं बहुत ही ज्यादा विशाल होती है।
जिसकी महत्वाकांक्षाएं इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि समुद्र को भी वह निगल जाए तो भी उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकती है वही व्यक्ति वास्तव में दरिद्र कहलाने का अधिकारी बनता है।
जो व्यक्ति अपने मन में संतुष्ट रहना जान देता है वह व्यक्ति कौन धनी है कौन निर्धन है कभी भी अपने मन के अंदर चिंतन नहीं करता है वह हमेशा अपनी ही मस्ती में मस्त रहने वाला व्यक्ति होता है।
संसार का अपने आप को वह सबसे ज्यादा सुखी मनाना प्रारंभ कर देता है।
आवश्यकता है निर्धन व्यक्ति भी पूरी हो सकती है पर इच्छाएं महत्वाकांक्षाएं राजा के भी इस संसार के अंदर कभी भी पूरी नहीं हो सकती है ।
सारे संसार का साम्राज्य भी उसको प्राप्त हो जाए तो भी उसके मन के अंदर शांति का नामोनिशान नजर नहीं आएगा जहां महत्वाकांक्षाएं होती है ।
वहां पर दरिद्रता काम नहीं होती है और ज्यादा तेजी के साथ के अंदर बढ़ाना प्रारंभ हो जाती है।
ज्ञान की पाठशाला के विद्यार्थियों के लिए भी यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात जानने की है ।
हम भी हमारे जीवन के अंदर दरिद्र है या नहीं यह भी एक बार चिंतन करना प्रारंभ कर देना चाहिए ।
ज्ञान का सर क्या है ज्ञान का सार है ।
अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करना प्रारंभ कर देना ।
जो विद्यार्थी अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करना प्रारंभ कर देता है ।
वह व्यक्ति इस संसार के अंदर अपने आप को सुखी अनुभव कर सकता है ।
जिस व्यक्ति के मनके के अंदर महत्व आकांक्षाओं के बादल मंडराने प्रारंभ कर देती है ।
ज्यादा महत्व कामनाओं को उभारना सबसे बड़ी दरिद्रता की निशानी बन जाती है..!!
|| माघ मास महात्म्य चतुर्थ अध्याय ||
श्री वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन!
अब मैं माघ के उस माहात्म्य को कहता हूँ जो कार्तवीर्य के पूछने पर दत्तात्रेय ने कहा था।
जिस समय साक्षात विष्णु के रुप श्री दत्तात्रेय सत्य पर्वत पर रहते थे ।
तब महिष्मति के राजा सहस्रार्जुन ने उनसे पूछा कि हे योगियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेयजी!
मैंने सब धर्म सुने. अब आप कृपा करके मुझे माघ मास का माहात्म्य कहिए।तब दत्तात्रेय जी बोले –
जो नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा था वही माघ माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ।
इस कर्म भूमि भारत में जन्म लेकर जिसने माघ स्नान नहीं किया उसका जन्म निष्फल गया।
भगवान की प्रसन्नता, पापों के नाश और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए माघ स्नान अवश्य करना चाहिए।
यदि यह पुष्ट व शुद्ध शरीर माघ स्नान के बिना ही रह जाए तो इसकी रक्षा करने से क्या लाभ!
जल में बुलबुले के समान, मक्खी जैसे तुच्छ जंतु के समान यह शरीर माघ स्नान के बिना मरण समान है।
विष्णु भगवान की पूजा न करने वाला ब्राह्मण, बिना दक्षिणा के श्राद्ध, ब्राह्मण रहित क्षेत्र,आचार रहित कुल ये सब नाश के बराबर हैं।
गर्व से धर्म का, क्रोध से तप का, गुरुजनों की सेवा न करने से स्त्री तथा ब्रह्मचारी, बिना जली अग्नि से हवन और बिना साक्षी के मुक्ति का नाश हो जाता है।
जीविका के लिए कहने वाली कथा, अपने ही लिए बनाए हुए भोजन की क्रिया, शूद्र से भिक्षा लेकर किया हुआ यज्ञ तथा कंजूस का धन, यह सब नाश के कारण हैं।
बिना अभ्यास और आलस्य वाली विद्या, असत्य वाणी, विरोध करने वाला राजा, जीविका के लिए तीर्थयात्रा, जीविका के लिए व्रत, संदेह युक्त मंत्र का जप, व्यग्र चित्त होकर जप करना।
वेद न जानने वाले को दान देना, संसार में नास्तिक मत ग्रहण करना।
श्रद्धा बिना धार्मिक क्रिया, यह सब व्यर्थ है और जिस तरह दरिद्र का जीना व्यर्थ है।
उसी तरह माघ स्नान के बिना मनुष्य का जीना व्यर्थ है।
ब्रह्मघाती, सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, गुरु- पत्नी गामी और इन चारों की संगति करने वाला माघ स्नान से पवित्र होता है।
जल कहता है कि सूर्योदय से पहले जो मुझसे स्नान करता है मैं उसके बड़े से बड़े पापों को नष्ट करता हूँ।
महा पातक भी स्नान करने से भस्म हो जाते हैं।
माघ मास के स्नान का जब समय आ जाता है तो सब पाप अपने नाश के भय से काँप जाते हैं।
जैसे मेघों से मुक्त होकर चंद्रमा प्रकाश करता है।
वैसे ही श्रेष्ठ मनुष्य माघ मास में स्नान करके प्रकाशमान होते हैं।
काया, वाचा, मनसा से किए हुए छोटे या बड़े, नए या पुराने सभी पाप स्नान से नष्ट हो जाते हैं।
आलस्य में बिना जाने जो पाप किए हों वह भी नाश को प्राप्त होते हैं।
जिस तरह जन्म - जन्मांतर के अभ्यास से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
उसी तरह जन्मान्तर अभ्यास से ही माघ स्नान में मनुष्य की रुचि होती है।
यह अपवित्रों को पवित्र करने वाला बड़ा तप और संसार रूपी कीचड़ को धोने की पवित्र वस्तु है ।
हे राजन!
जो मनवांछित फल देने वाला माघ स्नान नही करते वह सूर्य, चंद्र के समान भोगों को कैसे भोग सकते हैं!
।। अपने कार्य में बार - बार नवीनता लाए ।।
सबसे आवश्यक होता है कि बार बार नवीनता लाते रहें।
जिससे लोगों में ऊर्जा बनी रहे।
कोई भी काम कितना भी रोमांचक हो उसमें धीरे धीरे बोरियत आने लगती है।
नौकरीपेशा व्यक्ति इसी लिये उदासीन होता है।
उसका सब कुछ निश्चित है।
वह जो पाँच वर्ष पूर्व कर रहा था।
वही आज भी करता है।
उसे कोई असुरक्षा का भाव नहीं है।
वह जल्दी ही बूढ़ा हो जाता है।
अभी कितनी नौकरी बची इसी ख्याल में जीता है।
वास्तव में हम सुरक्षा के लिये चिंतित रहते हैं।
जबकि जीवन का रोमांच असुरक्षा में होता है।
तो कुछ बड़ा करने कि प्रतीक्षा से अच्छा है कि कुछ नवीन अप्रत्याशित करना है।
इस से आप में और आपके साथ काम करने वालों में ऊर्जा बनी रहती है।
धन्यवाद सह पंडारामा प्रभु राज्यगुरु ( द्रविण ब्राह्मण)