https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2948214362517194" crossorigin="anonymous"></script>
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।।श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस विस्तृत प्रवचन , हिन्दू धार्मिक तीर्थ स्थानों के पण्डे ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।



श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस  आधारित विस्तृत प्रवचन का एक भाग मेंश्री राम कृपा ही केवलम् में धीरता और सिद्धि की सुंदर रचना पस्तूत किए गए हैं।

धीरके माने यह है कि दुनियामें जो कुछ होता जाता है, उसको जरा सहते चलो । 

इतने असहिष्णु मत बनो कि तेज हवा आज क्यों चल रही है, ईश्वरको गाली देना शुरू कर दो; 

तो ईश्वरको गाली देनेमें जब लग जाओगे तब तुम्हें अपने स्वरूपका ज्ञान कैसे होगा ?

 बोले…आज वर्षा क्यों हुई ? 

आज वर्षा क्यों ना हुई ? 

रोज ईश्वरसे जब हर काममें जवाब-तलब ही करते रहोगे कि तुमने ऐसा क्यों नहीं किया और ऐसा तुमने क्यों किया-- 

अगर ईश्वरसे मतभेद करते रहोगे तो ईश्वर तुम्हें अपना रहस्य नहीं बतलावेगा । 


देखो,  यह बात हम तुमको बता देते हैं । 

अगर हमारा - तुम्हारा मतभेद है तो हम कोई - न - कोई बात तुमसे गुप्त रख लेंगे । 

तुम तो ईश्वरसे मतभेद रखते हो तब ईश्वर अपने को तुम्हारे सामने काहेको जाहिर करेगा ? 

यह ईश्वरसे मतभेद न रखना माने- ईश्वर जो भी कर रहा है, उसमें मंगल ही है- यह बुद्धि रखना । 

स देवो यदेव कुरुते तदेव मङ्गलाय । 

र्ईश्वर जो कर रहा है उसमें हमारा मङ्गल है।

उसमें हमारा कल्याण है-  

कुटिया पर गाय आ गयी कि बहुत बढ़िया दूध देगी ! 

कोई चुरा ले गया तो बोले गोबर उठाने से जान बची ! 

मतलब इसका यह है कि बाह्य जो परिस्थितियाँ हैं।

घटनाएँ हैं उनसे यदि तुम क्षण - क्षण पर प्रभावित होते रहोगे और उन्हींके स्वागतमें या उन्हींका विरोध करने में लगे रहोगे तो तुम्हें ईश्वरके बारेमें सोचनेका अवसर ही कब मिलेगा ?

श्रीउड़िया बाबाजी महाराज कहा करते थे- 

मैंने पूछा था, स्वयं पूछा था कि सिद्धि क्या है महाराज? 

आपके बारेमें लोग बताते हैं कि बड़ी - बड़ी सिद्धियाँ आपको हैं ! 

तो बोलते कि बर्दाश्त करना सिद्धि है- 

सहिष्णुता ही सिद्धि है । 

एक गाली दी और छह महीने की तपस्या गयी ! 

यह तपस्या ऐसी ही हल्की-फुल्की चीज है । 

एक बार गुस्सा आया ओर छह महीनेके भजनसे बना हुआ शरीरमें जो रस है….!

मनका निर्माण करने वाला, जिससे मनमें मिठास आती है,...!

मधुरता आती है,...!

आनन्द आता है -वह गया !

मनमें ही तो क्रोध आता है न, तो क्रोधकी आगमें भजनका रस भस्म हो गया । 

उन्होंने इसका उदाहरण देकर बताया- 

कि देखो, तुम भूख सहनेकी आदत डालो । 

उनके पास अन्नकी सिद्धि थी, ऐसा लोगोंमें प्रसिद्ध था । 

वे बोले कि तुम किसी भी अन्जान - से - अन्जान गॉवमें चले जाओ और तुम्हारे अन्दर केवल भूख सहनेकी शक्ति हो।

पेड़के नीचे बैठ जाओ या मन्दिरपर बैठ जाओ।

लेकिन भूख सहो...!

माँगो मत किसीसे- 

अन्न मत माँगो...!

रोटी मत माँगो - एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन- 

फिर देखना उसी गाँवके लोग तुम्हारे लिए जिन्दगी भरको भोजनका बन्दोबस्त कर देंगे।

कि बाबाजी, तुम यहाँ रहो और तुमको रोटी मिल जायेगी।

और यदि तुम किसीके घर रोटी माँगनेको गये और दाल ठीक नहीं आयी...!

कि साग ठीक नहीं आया और तुमने चार गाली सुना दी।

तो गाँव वाले लोग क्या कहेंगे कि यह बाबाजी बड़े गुस्सावाला है भाई !

इससे जितनी जल्दी पिण्ड छूटे उतना ही अच्छा है।

यह चला जाये यहाँसे ! 

सहिष्णुतामें सिद्धि है- 

बर्दाश्त करने में सिद्धि है...!

उबलनेमें, उफ़ननेमें सिद्धि नहीं है ।

यह जो तुम समझते हो कि हम लड़ाई करके अपना मत सिद्ध कर लेंगे।

वाद-विवाद करके हम अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेंगे तो नहीं कर सकोगे । 

आप जिससे अपनी मैत्री बनाये रखना चाहते हैं।

जिसको अपने अनुकूल रखना चाहते हैं।

उसको वाद - विवादमें हरावें नहीं । 

यदि पत्नी चाहती है कि पति हमारे अनुकूल होवे तो वाद - विवादमें उसको हरावे नहीं;

पति यदि चाहता हो कि पत्नी हमारे अनुकूल रहे तो बात - बातमें उसको बेवकूफ सिद्ध न करे।

उसकी समझदारीका आदर करे । 

आपसमें मुस्कुरा करके बोले, एक-दूसरेके सद्भावका आदर करे तब न संगति चलेगी । 

दो मन हमेशा एक सरीखे नहीं हो सकते- कभी नहीं एक सरीखे हो सकते- 

यदि एक मन दूसरे मनको सहकर चलनेको तैयार नहीं है तो संसारके व्यवहारमें कभी सफलता नहीं मिल सकती- 

बेटेका सहना पड़ेगा...!

पति का सहना पड़ेगा...!

सास का सहना पड़ेगा....!

बाप का सहना पड़ेगा ।

इसी को बोलते हैं सहिष्णुता, धैर्य - मत्वा धीरो न शोचति।   

धीर शब्दका अर्थ है...!

कि तुम हो ब्रह्म और तुम्हारे अन्दर यह प्रपञ्च है- 

रज्जुमें अभ्यस्त सर्पकी तरह, मालाकी तरह, डंडेकी तरह; 

तो जैसे रस्सी - कोई उसको सॉप कहे तो भी सह लेती है और माला कहे तो भो सह लेती है- 

माला कहनेसे अभिमान नहीं करती कि मैं सुन्दर हूँ और सर्प कहनेसे विरोध करने नहीं जाती ।

 रज्जु जितनी सहिष्णु है उतने सहिष्णु ब्रह्म तुम हो ! 

🌹🙏जय श्री राम सीताराम राम राम राम🙏🌹

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हिन्दू धार्मिक तीर्थ स्थानों के पण्डे 

हिन्दू धार्मिक तीर्थ स्थानों के पण्डे –

क्या कभी आप जगन्नाथपुरी , द्वारका , हरिद्वार, काशी , वाराणसी , बद्रीनाथ या  केदारनाथ आदि की यात्रा पर गए हैं???



यहां दक्षिण भारत के धार्मिक तीर्थ यात्रा स्थानों में थोड़ाक ले भागु बहार के इतर जाती के लोग ब्राह्मण पंडा लोगो को दान दक्षिणा पैसा के लिए परेशान करने लग गया तो दक्षिण भारत के ब्राह्मण पंडा लोग प्रत्युत्तर हरेक यात्री लोगो का पैठियो दर पैठियो का नामावली लिखने का काम ज्यादातर बहुत कम ही कर दिया है....

कि यात्री तो नाम लिखवाकर चला जाता है.....

बाद इत्तर जाती के लोकल लोग ब्राह्मण लोगो को बहुत परेशानी करने लग जाता है....

इस लोकल वालो के साथ लड़ाई झगड़े न ही करना पड़े तो यात्री को बुलाकर नामांकन करवाया जाए तो उसका साथ लड़ाई झगड़े करने लग जाता है....

लेकिन खास कोई अंगत यात्री पहेचान वाला सीधा पंडा ब्राह्मणों के पास आएगा उसका ही नामकरण होता है....

बाकी सब यात्री के लिए कोई ब्राह्मण अब नामकरण करके इत्तर जाती के लोगो का साथ लड़ाई झगड़े करने से खुश नही है.....

इस लिए इधर इत्तर जाती के लोग ज्यादा पंडा शब्दों का प्रयोग करने लग गया है....

लेकिन इधर तो पंडा मतलब ओरिझनल ब्राह्मण हो ऐसा जरूरी भी नही है....

लेकिन यात्री के पास दान पुण्य के पैसा पडवाने के लिए इत्तर जाती के लोगो ने पंडा शब्द प्रयोग करना शुरू कर दिया है...

जो यहां के ओरिझनल ब्राह्मण पंडा लोग अब ज्यादा यात्री के पास जाता भी नही है....

पूछताछ भी नही करता लेकिन इत्तर जाती के लोग ही यात्री का पास पंडा शब्द का प्रयोग करके यात्री लोगो का आगे पीछे घूमकर खुला लूट जरूर चलाते रहते है....

इधर दक्षिण भारत मे सब ब्राह्मणों को मालूम भी है कि ये लोग गलत कर रहा है...

लेकिन जीवन जोखम में कौन डालेगा ये इत्तर जाती के लोगो को लड़ाई झगड़े करना नॉर्मल आम छोटी सी बात है....

सब लोग भगवान के विश्वास पर दुशरा काम करता रहता है...

लेकिन ये नामकरण का काम तो बहुत कम ही कर दिया है.....

ये अब प्रथा आपको दक्षिण भारत के अलावा किसी भी तीर्थ स्थान पर दिखाई देगा वहां के पण्डे आपके आते ही आपके पास पहुँच कर आपसे सवाल करेंगे...

आप किस जगह से आये है?? 

मूल निवास? 

आदि पूछेंगे और धीरे धीरे पूछते पूछते आपके दादा, परदादा ही नहीं बल्कि परदादा के परदादा से भी आगे की पीढ़ियों के नाम बता देंगे जिन्हें आपने कभी सुना भी नहीं होगा...

और ये सब उनकी सैंकड़ो सालों से चली आ रही किताबो में सुरक्षित है...

विश्वास कीजिये ये अदभुत विज्ञान और कला का संगम है...

आप रोमांचित हो जाते हैं जब वो आपके पूर्वजों तक का बहीखाता सामने रख देते हैं....

आपके पूर्वज कभी वहाँ आए थे और उन्होंने क्या क्या दान आदि किया....

लेकिन आजकल के शहरी इन सब बातों को फ़िज़ूल समझते हैं... 

उन्हें लगता है कि ये पण्डे सिर्फ लूटने बैठे हैं जबकि ऐसा नहीं है....

यात्रा के दौरान एक व्यक्ति के पैसे चोरी हो गए थे या गिर गए थे वो बहुत घबरा गया कि घर कैसे जाएगा ।

कहाँ रहेगा खायेगा आदि, तो पण्डे ने तत्काल पूछा कितने पैसे चाहिए आपको?? 

और पण्डे जी ने ना सिर्फ पैसे दिए बल्कि रहने और खाने की व्यवस्था भी करवाई....

ये तीर्थो के पण्डे हमारी सभ्यता, संस्कृति के अटूट अंग हैं...

इनका अस्तित्व हमारे पर ही है... 

अपनी संस्कृति बचाइए और इन्हें सम्मान दीजिये....

वैसे हिन्दुओ के नागरिकता रजिस्टर हैं ये लोग....

पीढ़ियों के डेटा इन्होंने मेहनत से बनाया और संजोया है....
इन्हें मान सम्मान दीजिये.....
जय श्री कृष्ण....!!!

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Web: https://sarswatijyotish.com/
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

।। सुंदर कटु सत्य वचन ।।

चन्द्रसूर्याग्निनेत्रश्च कालाग्नि: प्रलयान्तक:
कपिल: कपिश: पुण्यराशिर्द्वादशराशिग:।

सर्वाश्रयो प्रमेयात्मा रेवत्यादिनिवारक:
लक्ष्मणप्राणदाता च सीताजीवनहेतुक:।।

चन्द्र, सूर्य और अग्नि रूप तीनों नेत्र वाले शिव स्वरूप, मृत्युकारी अग्निरूप,प्रलयका अन्त करने वाले।

अर्थात भक्तों को जन्म - मृत्यु से रहित करने वाले।

काले - पीले वर्ण के रोम से युक्त।

श्याम - पीतवर्ण मिश्रित कपिश वर्ण।
पुण्य की राशि द्वादश राशियों के ज्ञाता।।

अर्थात ज्योतिष शास्त्र के जानने वाले।

सभी को आश्रय प्रदान करने वाले।

प्रमेय स्वरूप आत्मा वाले।

अनिष्ट को दूर करने वाले।

संजीवनी द्वारा श्री लक्ष्मण जी को प्राण प्रदान करने वाले।

श्री जानकीजी को श्रीराम का सन्देश देकर जीवन प्रदान करने वाले।' 

श्री हनुमान जी को बार - बार प्रणाम है।

प्यार बांटा तो रामायण लिखी गई

और...!

सम्पत्ति बांटी तो महाभारत।।।

कल भी...!

यही सत्य था..!

 आज भी यही सत्य है!!

भाव बिना बाजार में...!

वस्तु मिले ना मोल....!

तो..!

भाव बिना...!

"हरी "

कैसे मिले...!

जो है अनमोल.....!

इस संसार में...!

भूलों को...!

माफ करने की क्षमता...!

सिर्फ तीन में है...!

माँ....!

महात्मा.....!

और..!

परमात्मा।।

जय श्री कृष्ण...!
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स्वयं को जानकर व समझकर ही मनुष्य सफलता की तरफ अग्रसर हो सकता है।

ऐसा इस लिए,क्योंकि हम सभी मनुष्य उस एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं।

आज हर व्यक्ति भाग रहा है।

एक जगह से दूसरे जगह की ओर, एक तत्व से दूसरे तत्व की ओर। 

व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है।

क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।

स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। 

यदि आप अपने आसपास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे।

तो लगभग सबमें यही बात नजर आएगी।

हर एक व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता चला जा रहा है। 

वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? 

क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? 

उसे स्वयं पता नहीं।

परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है।

हरेक के बारे में पूछ रहा है।

आज आवश्यकता है।

इस झंझावात से निकलने की।

स्वयं के अस्तित्व को समझने की।

परिवर्तन की इस सतत प्रक्रिया में स्थिर होने की। 

यात्रा हो परंतु शून्य से महाशून्य की,परिधि से केंद्र की।

अज्ञान से ज्ञान की।

अंधकार से प्रकाश की।

असत्य से सत्य की। 

स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।

हम प्राय: अपना जीवन कंकड़ - पत्थर बटोरने में व्यर्थ गंवा देते हैं। 

सत्ता, संपत्ति, सत्कार और बहुत कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। 

तो हम क्यों न आज ही जग जाएं। 

स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। 

हमारा ध्यान दुनिया में है।

परंतु स्वयं के अंदर छिपी विराटता में नहीं। 

स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं।

अपने परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते।

जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है। 

यदि हम स्वयं के प्रति सचेत हो जाएं।

तो बात बनते देर नहीं लगेगी। 

तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरव शाली कार्य किया।

वे सभी स्वयं के अंदर छिपे अथाह सागर को समझने की बात करते हैं। 

जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो।

जहां हो एक गहन शांति। 

शांति मिलती है।

कामनाओं को शांत करने से कामनाएं भी उसी की शांत होती हैं।

जो जीवन का सही मूल्य समझ सके। 

जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है।

बल्कि जीवन में रहते हुए कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम है।

इसे जानकर व समझकर ही आगे बढ़ना सही अर्थो में जीवन की सार्थकता है।

🙏🙏🙏【【【【【{{{{ (((( मेरा पोस्ट पर होने वाली ऐडवताइस के ऊपर होने वाली इनकम का 50 % के आसपास का भाग पशु पक्षी ओर जनकल्याण धार्मिक कार्यो में किया जाता है.... जय जय परशुरामजी ))))) }}}}}】】】】】🙏🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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जय द्वारकाधीश....
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।। श्री यजुर्वेद श्री ऋगवेद और श्री विष्णु पुराण आधारित अधिक मास दैनिक नित्यकर्म ओर मूहर्त शास्त्र ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री यजुर्वेद श्री ऋगवेद और श्री विष्णु पुराण आधारित अधिक मास दैनिक नित्यकर्म ओर मूहर्त शास्त्र ।।


श्री यजुर्वेद श्री ऋगवेद और श्री विष्णु पुराण आधारित अधिक मास में खरीदारी और शुभ कामों के मुहूर्त, जानिए इन दिनों में क्या करें और क्या नहीं..!

अधिक मास को हिन्दू धर्म में बहुत ही खास माना गया है।

रामेश्वम तमिलनाडु  के ज्योतिषाचार्य पं. प्रभु राज्यगुरु का कहना है कि भारत में खगोलीय गणना के मुताबिक हर तीसरे साल एक अधिक मास होता है।

इसे अधिमास, मलमास या पुरुषोत्तममास भी कहा जाता है। 

हिंदू कैलेंडर में हर महीने के स्वामी देवता बताए गए हैं।

लेकिन इस तेरहवें महीने का स्वामी कोई नहीं है।




इस लिए इस महीने में हर तरह के मांगलिक कामों को करने की मनाही है। 

देवी भागवत पुराण का कहना है कि इस महीने में तीर्थ स्नान का बहुत ही महत्व होता है। 

साथ ही मल मास में किए गए सभी शुभ कामों का कई गुना फल मिलता है। 

इस महीने में भागवत कथा सुनने का भी बहुत महत्व है। 

इस महीने में सूर्योदय से पहले उठना चाहिए। 

योग और ध्यान करना चाहिए। 

स्नान - दान, व्रत और पूजा - पाठ करनी चाहिए। 

ऐसा करने से पाप खत्म हो जाते हैं और किए गए पुण्यों का भी कई गुना फल मिलता है।

मंदिर और व्रत - उपवास के बिना भी कर सकते हैं विशेष पूजा पं. प्रभु राज्यगुरु  बताते हैं कि अधिक मास के दौरान अगर किसी खास वजह से व्रत या उपवास नहीं कर पा रहे और मंदिर नहीं जा पा रहे हैं तो घर पर ही भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण की मानस पूजा कर सकते हैं।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के मुताबिक भगवान का ध्यान कर के मन ही मन पूजा की जा सकती है। 

इसे मानसिक पूजा कहा जाता है। 

ऐसा करने से भी उतना ही फल मिलता है जितना अन्य तरह से पूजा करने पर मिलता है।

मानस पूजा में भगवान को मन ही मन या कल्पनाओं में ही आसन, फूल, नैवेद्य, आभूषण और अन्य चीजें चढ़ाकर उनकी पूजा की जाती है। 

इसके लिए किसी भौतिक चीज की जरूरत नहीं होती है। 

बस साफ और निश्छल मन होना जरूरी है।

जिससे पूजा का हजार गुना फल मिलता है। 

इस लिए पुराणों में भी मानस पूजा को महत्वपूर्ण माना गया है।

मानस पूजा के मंत्र और उनका अर्थ :

मानस पूजा करते समय भगवान का ध्यान करना चाहिए और मन ही मन मंत्र बोलकर उनके अर्थ के मुताबिक भावना से भगवान की पूजा करनी चाहिए।

ऊं लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि। 

हे प्रभो ! 

मैं आपको पृथ्वी रूप गंध यानी चंदन अर्पित करता हूं। 

ऊं हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि। 

हे प्रभो ! 

मैं आपको आकाश रूप पुष्प अर्पित करता हूं। 

ऊं यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि। 

हे प्रभो ! 

मैं आपको वायुदेव के रूप में धूप अर्पित करता हूं। 

ऊं रं वह्नयान्तकं दीपं दर्शयामि। 

हे प्रभो ! 


 

मैं आपको अग्निदेव के रूप में दीपक अर्पित करता हूं। 

ऊं वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। 

हे प्रभो ! 

मैं आपको अमृत के समान नैवेद्य अर्पित करता हूं। 

ऊं सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि। 

हे प्रभो ! 

मैं आपको सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में अर्पित करता हूं।

अधिक मास में क्या करना चाहिए...!

हर दिन सूर्योदय से पहले उठकर नहाना चाहिए

तीर्थ स्नान करना चाहिए।

आंवले और तिल का उबटन लगाकर नहाना चाहिए पानी में तिल मिलाकर नहाना चाहिए।

सूर्य को जल चढ़ाकर योगा और ध्यान करना चाहिए।

आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर खाना खाना चाहिए।

भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण के नामों का जाप करना चाहिए।

जरूरतमंद लोगों को खाने की चीजें और मौसमी फलों का दान करें।

शाम के समय दीपदान करना चाहिए।

अधिक मास में क्या करने से बचें...!

इस महीने में शारीरिक और मानसिक रूप से अपवित्र होने से बचना चाहिए।

तामसिक चीजें यानी लहसुन-प्याज और मांसाहार जैसी चीजें नहीं खानी चाहिए।

आलस्य और हर तरह के नशे से दूर रहना चाहिए। 

देर तक नहीं सोना चाहिए।

खास तरह के व्यक्तिगत संस्कार और विशेष कामना से अनुष्ठान नहीं पूर्ण परिवार के लिए करना चाहिए 
जय श्री कृष्ण.....!!!
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जिस प्रकार आप किसी वस्तु को लेने बाजार जाते हो 


जिस प्रकार आप किसी वस्तु को लेने बाजार जाते हो तो उसका एक उचित मूल्य अदा करने पर ही उसे प्राप्त करते हो। 

इसी प्रकार जीवन में भी हम जो प्राप्त करते हैं सबका कुछ ना कुछ मूल्य चुकाना ही पड़ता है। 

🌼विवेकानन्द जी कहा करते थे कि महान त्याग के बिना महान लक्ष्य को पाना संभव नहीं। 

अगर आपके जीवन का लक्ष्य महान है तो यह ख्याल तो भूल जाओ कि बिना त्याग और समर्पण के उसे प्राप्त कर लेंगे।
 
🌼बड़ा लक्ष्य बड़े त्याग के बिना नहीं मिलता। 

कई प्रहार सहने के बाद पत्थर के भीतर छिपा हुआ ईश्वर का रूप प्रगट होता है।

अगर चोटी तक पहुँचना है तो रास्ते के कंकड़ पत्थरों से होने वाले कष्ट को भूलना ही होगा।

जय द्वारकाधीश !
जय श्री राधे कृष्ण !!
🌹🙏🌹🙏🌹
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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Web :https://sarswatijyotish.com/
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो में विश्वकर्मा शिल्प ग्रंथ प्रदाता करता है ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो में विश्वकर्मा शिल्प ग्रंथ प्रदाता करता है ।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो में विश्वकर्मा शिल्प ग्रंथ उल्लेख प्रदाता करता है।

कलाएं कितनी हो सकती हैं? 

सब लोकोपयोगी हों। 

लोक उपयोगी सृजन से बड़ा कोई सृजन नहीं। 

सृजन श्रम, संघर्ष, समय को बचाने वाला और परिश्रम को सार्थक कर आजीविका देने वाला हो।




भारत विश्वकर्मीय ज्ञान के 100 से ज्यादा ग्रंथों से समृद्ध रहा है। 

विश्‍वकर्मा और उनके शास्‍त्र
( संदर्भ : विश्‍वकर्मा ग्रंथों पर निरंतर आयोजन )

यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कल तक जो शिल्प और स्थापत्य के ग्रंथ केवल शिल्पियों के व्यवहार तक सीमित और केन्द्रित थे।

उन पर आज अनेक संस्थानों से लेकर कई विश्व विद्यालयों तक ज्ञान सत्र आयोजित होने लगे हैं।

सेमिनार, राष्ट्रीय, अंतर राष्ट्रीय गोष्ठियां होने लगी हैं। 

अनेक विद्वानों की भागीदारी होने लगी है। 

शिल्प के ये विषय पाठ्यक्रम के विषय होकर रोजगार और व्यवहार के विषय हुए हैं। 

शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। 

विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय - समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। 

सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया। 

उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़्ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है।

' मिलिन्‍दपन्‍हो ' में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। 

यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है।

इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। 

हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है...।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्णु आदि पुराणों में आया है।

जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया।

किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। 

कहीं - कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया। 

विश्‍वकर्मावतार, 

विश्‍वकर्मशास्‍त्र, 

विश्‍वकर्मसंहिता, 

विश्‍वकर्माप्रकाश, 

विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, 

विश्‍वकर्मशिल्‍पशास्‍त्रम्, 

विश्‍वकर्मीयम् ...!

आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए आवश्यक
सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। 

इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। 

समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। 

ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं। 

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन - पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। 

अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। 

इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। 

यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। 

तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। 

इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। 

मगर, उनको पढ़ा कितना गया। 

भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया...। 

इस पर लगभग सौ ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मैं ने किया है और कर रहा हूं।

विश्‍वकर्मा के चरित्र पर स्‍वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। 

पिछले वर्षों में 'महाविश्‍वकर्मपुराण' का प्रकाशन भी हुआ। 

मेरा मन है कि भारत के ये ग्रंथ विश्व समुदाय के लिए प्रेरक बने देश वास्तु गुरु भी सिद्ध हो।

भगवान विश्वकर्मा सिर्फ शिल्प, नगर और यंत्रादि के ही सृजनकर्ता नहीं रहे बल्कि उन्होंने कई आयुधों और अस्त्र शस्त्रों का निर्माण भी किया है। 

कई दिव्यास्त्र जैसे सुदर्शन चक्र, शारंग धनुष, वरुणपास कुबेर की गदा आदि के निर्माण की कहानियां प्रचलित हैं। 

कला शास्‍त्र के प्रवर्तक विश्‍वकर्मा:

विश्‍वकर्मा को कला - शिल्‍प का आदि आचार्य माना जाता है। 

यूं तो विश्‍वकर्मा का जिक्र वेदों में हैं मगर, शिल्‍प शास्‍त्रकार के रूप में उनके मतों का प्रारंभिक उद्धरण नाट्यशास्‍त्र में मिलता है। 

मत्‍स्‍यपुराण में उनके शास्‍त्र को उद्धृत किया गया है और उनके परिचय में कहा गया है।

कि वे प्रभास के पुत्र और शिल्‍प के प्रजापति हैं, प्रासाद, भवन, उद्यान, कूप, जलाशय, बगीचा, प्रतिमा, आभूषण आदि के निर्माता के रूप में उनकी ख्‍याति रही है।

वह देवताओं के वर्धकि हैं -

विश्‍वकर्मा प्रभासस्‍य पुत्र: शिल्‍पी प्रजापति:।
प्रासाद भवनोद्यानप्रतिमाभूषणादिषु।।
तडागारामकूपेषु स्‍मृत: सोsमरवर्धकि:।। (मत्‍स्‍यपुराण 5, 27-28)

उनके लिए प्रजापति, अमरवर्धकि, शिल्‍पाचार्य, कलाविद, स्‍थापत्‍य विशारद आदि कई नाम मिलते हैं।

हाल ही संपादित एक विश्‍वकर्मापुराण और शिल्‍पशास्‍त्र में उनके सौ नाम मिलते हैं।

उत्‍तरी, पश्चिमी भारत में शिल्‍प के प्रवर्तक के रूप में विश्‍वकर्मा की परंपरा हमें र्इसापूर्व से उपलब्‍ध होती है। 

विश्‍वकर्मा प्रकाश जिसे मूलत: वास्‍तुतंत्र कहा गया था, प्रारंभिक ग्रंथ है।

किंतु बाद में यह मुहूर्त से ही अधिक संबंद्ध हो गया। 

इसकी एक पांडुलिपि मुझे कश्‍मीर की डॉ. सुषमादेवी गुप्‍ता के सहयोग से 'विश्‍वकर्मासंहिता' के नाम से भी मिली है। 

" अपराजितपृच्‍छा " ग्रंथ के संपादन, अनुवाद के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि उसके रचनाकाल, 1230 ई. के आसपास तक विश्‍वकर्मा के नाम से चार ग्रंथ प्रकाश में आ चुके थे। 

ये चार ही ग्रंथ विश्‍वकर्मा के मानसपुत्रों के नाम पर लिखे गए थे - 

1. जयपृच्‍छा, 

2. विजयपृच्‍छा, 

3. अपराजितपृच्‍छा,

4. सिद्धार्थपृच्‍छा।

वैसे विश्‍वकर्मा के इन चारों ही पुत्रों का नाम सबसे पहले 'समरांगण सूत्रधार', रचनाकाल 1010 ई. में मिलता है।

समरांगण स्‍वयं जय-विश्‍वकर्मा संवाद के रूप में लिखा गया है। 

इसमें कई पूर्ववर्ती ग्रंथों की सामग्री संजोई गई है।

" अपराजितपृच्‍छा " अपने आपमें अनूठा ग्रंथ है जिसमें लगभग 7 हजार श्‍लोकों में कला के नाना रूपों का न केवल परिचय मिलता है।

बल्कि उनके प्रयोग और विधि - विधान की भी जानकारी मिलती है। 

भारत को ही नहीं, विश्‍व को इस विश्‍वकर्मीय कृति पर गर्व है। 

विश्‍वकर्मा के अन्‍य ग्रंथ भी जानकारी में आए हैं। 

इनमें से न केवल उत्‍तर भारत बल्कि दक्षिण भारत में भी विश्‍वकर्मीयम्, वास्‍तुविद्या, विश्‍वकर्माशिल्‍पादि ग्रंथ मौजूद है। 

कुछ का संपादन मुझे करने का अवसर मिला है। 

इनमें उत्‍तर और पूर्व भारतीय ग्रंथों में शिल्‍प की बहुतेरी जानकारियां हैं।

मुझे जर्मनी से प्रकाशित 'विश्‍वकर्मापुराण' का तामिल और तेलुगु पाठ में देखने को मिला है।

हालांकि मैं इसे पढ नहीं पा रहा था किंतु मेरे मित्र वर ब्रहृम श्री कोल्‍लोजु श्रीकांताचार्य स्‍वामि, महबूब नगर, तेलंगाण और परमकुड़ी , तामिलनाडु ने इसे मेरे लिए हिंदी, देवनागरी में अनूदित कर दिए थे और इसी आधार पर कुछ समय पहले उस पुराण का तामिल अनुवाद सहित प्रकाशन हो गया है। 

हिंसा विद्वानों का ध्‍येय नहीं :

  महाविश्‍वकर्म पुराण

क्रोधेपि चाश्रुपाते च शोके, चापि जलं स्‍पृशेत्।
कुर्यान्‍न लोहितं विद्वान्, विश्‍वकर्मा सदाशुचि:।।

इस श्‍लोक का सामान्‍य आशय है कि क्रोध करने पर, आंसु बहाने पर ओर शोक होने पर जलस्‍नान करना चाहिए।

विद्वान कभी रक्‍तपात नहीं करता, वह ऐसा सोचता ही नहीं है और जो विश्‍व के लिए सृजन कर्म में लगे रहते हैं, वे सदा ही पवित्र हृदय होते है।

यह श्‍लोक महाविश्‍वकर्म पुराणम् (32, 15) का है जिसका अनुवाद आज ही पूरा हुआ है। 

यह पुराण मूलत: आंध्रलिपि में था जिसको जर्मनी में संरक्षित पाठ से तैयार किया गया तमिल और तेलुगु में यह वृत्ति सहित वर्षों पहले निकला। 

इस संस्‍कृत उपपुराण में कई अद्भुत बातें है।

विशेषकर सृष्टि रचना में विश्‍वकर्मा के योगदान सहित विश्‍व के विकास में सहयोग देने वालों के लिए सोलह संस्‍काराें की जरूरत पर बल दिया गया है। 

क्‍योंकि, पुराणकार मानता है कि जन्‍म से सभी संस्‍कारहीन होते हैं और संस्‍कार हो जाने के बाद वे पाण्डित्‍य के धनी हो सकते हैं।

इस के लिए पठन - पाठन जरूरी है। 

अपने अपने कुलगत कर्मों को करने वाल निरंतर दक्षता अर्जित करता है और वह कभी भूखा नहीं मरता। 

उसको अपने कुलगत कर्मों के कारण कोई दोष नहीं लगता। 

एक तरह से इसमें कई व्‍यावहारिक बातें हैं जो सर्वथा प्रासंगिक है।

विश्‍वकर्मा की पांच संतानें बताई गई है- 

मनु, मय, त्‍वष्‍टा, शिल्‍पी और विश्‍वज्ञ। 

इनके वंशजों की गोत्रों और प्रवर पर भी प्रकाश डाला गया था। 

मुनि कालहस्ति और राजा सुव्रत के संवाद रूप में लिखे गए इस पुराण का तामिल और तेलुगु पाठ बहुत सीमित था। 

इसी कारण ब्रह्मश्री कोल्‍लोजु श्रीकान्‍ताचार्य स्‍वामि ने इसका देवनागरी पाठ तैयार किया। 

इस पाठ का संशोधन, संपादन और अनुवाद हिन्‍दी में आज पूरा हुआ। 

करीब पांच सौ ग्रंथों के मतों के उद्धरणों का पाद टिप्‍पणियाें के रूप में उपयोग किया गया है। 

इनमें ऋग्‍वेद, यजुर्वेद सहित गृहसूत्रों, धर्मसूत्रों, स्‍मृतियों, पुराणों और ज्‍योतिषीय ग्रंथों के उद्धरण शामिल हैं। 

पहली बार यह देवनागरी में देशवासियों को मिलेगा...!

मूर्ति और चित्र शास्त्र में वेदों की छवि बनाने की परम्परा लगभग एक हजार साल पुरानी है। 

विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र में चारों वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण आदि के स्वरूप तय हुए जिसे अपराजित पृच्छा, जय पृच्छा में उद्धृत किया गया। 

बाद में हेमाद्रि ने 1270 में इन मतों को महत्व देकर व्रत खंड में रखा और इसी आधार पर सूत्रधार मंडन ने देवता मूर्ति प्रकरण में दिया। 

उसी काल में चितौड़ गढ़ के विजय स्तंभ में चारों वेदों का अंकन हुआ और फिर उदयपुर में महाराणा संग्राम सिंह के शासनकाल में मेवाड़ शैली में चारों ही वेद के स्वरूप चित्रित हुए। 


ये चित्र पारम्परिक स्वरूप से भिन्न हैं।

आएये जाने कौन है विश्वकर्मा जी...!

एक परिचय..!!

आप अपने  प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें।

कि आदि काल से ही "विश्वकर्मा शिल्पी" अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है।

भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है । 

पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । 

कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है ।

भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया । 

श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण - पोषण का कार्य सौप दिया। 

प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और राज्य करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया। 

बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की। 

उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया। 

यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग - रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया।

हमारे धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है।

विराट विश्वकर्मा – सृष्टि के रचेता

धर्मवंशी विश्वकर्मा – महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र

अंगिरावंशी विश्वकर्मा – आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र

सुधन्वा विश्वकर्म – महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र

भृंगुवंशी विश्वकर्मा – उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य ( शुक्राचार्य के पौत्र )

देवगुरु बृहस्पति की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा अत्यंत वृध्द है।

सृष्टि के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विष्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से सामना दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से प्रत्न और पाँचवे ईशान नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्णा की उत्पत्ति शास्त्रो में वर्णित है। 

इन्ही सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ।

शिल्पशास्त्रो के प्रणेता बने स्वंय भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है।

शिल्पो कें आचार्य शिल्पी प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस ,काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव दैवज्ञा के रुप में जाने गये । 

ये सभी ऋषि वेंदो में पारंगत थे ।

कन्दपुराण के नागर खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है । 

ब्रम्ह स्वरुप विराट श्री.विश्वकर्मा पंचमुख है। 

उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है । 

उनके नाम है – 

मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ ।

ऋषि मनु विष्वकर्मा – 

ये “सानग गोत्र” के कहे जाते है । 

ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है । 

इनके वशंज लोहकार के रुप मे जानें जाते है ।

सनातन ऋषि मय – 

ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है । 

ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। 

इनके वंशंज काष्टकार के रुप में जाने जाते है।

अहभून ऋषि त्वष्ठा – 

इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है। 

इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है ।

प्रयत्न ऋषि शिल्पी – 

इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है। 

इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं ।

देवज्ञ ऋषि – 

इनका गोत्र है सुर्पण। 

इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं। 

ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है, ।

परमेश्वर विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है। 

लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर ,मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की रचना करने वाले है । 

इनकी सारी रचनाये लोक हित कारणी हैं । 

इस लिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है। 

इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता ।


मनु ऋषि ये भगनान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र थे । 

इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है । 

इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है ।

भगवान विश्वकर्मा के दुसरे पुत्र मय महर्षि थे।

इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था। 

इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है। 

इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है ।

भगवान विश्वकर्मा के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे। 

इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था। 

इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है। 

वे देवताओं में पूजित ऋषि थे ।

भगवान विश्वकर्मा के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे। 
इनका विवाह भृगु ऋषि की करूणाके साथ हुआ था । 

इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है। 

इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है ।

भगवान विश्वकर्मा के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे। 
इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चन्र्दिका के साथ हुआ था । 

इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी ऋषि हुये।

इन पाँच पुत्रो के अपनी छीनी, हथौडी और अपनी उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है। 

उन्होन् अपने वशंजो को कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने - अपने कार्य को सभालते चले आ रहे है।

विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। 

आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। 

उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक कहा माना गया है। 

वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं-

देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।

वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है। 

उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है। 

वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।

विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव - बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। 

यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। 

स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। 

कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।

सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया। 

राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका ज़िक्र मिलता है। 

यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। 

विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—

कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥

उनका अष्टगंधादि से पूजन लाभदायक है।

विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। 

विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। 

विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। 

इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। 

मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। 

संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। 

इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया।
✍🏻प्रभु  राज्यगुरू
जय श्री कृष्ण....

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

aadhyatmikta ka nasha

श्रीस्कन्द महापुराण श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् :

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण  श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् : संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण : ब्राह्मखण्ड ( सेतु - महात्म्य ) चक्रतीर्थ,...

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