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जय द्वारकाधीश
‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथाचंदन , तिलक का महत्त्व‼️
श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा
हमारे सनातन हिन्दू हनुमान जी की पत्नी के साथ दुर्लभ कथा दिया जाता है ।
कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं।
आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में खास है।
यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।
हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आए हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और वाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है।
लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है।
इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का।
यह मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी नहीं थे।
पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।
कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा।
दरअसल हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।
हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता
और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते।
लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।
कुल 9 तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।
हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे।
इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वह धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे।
ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी।
और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए।
लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहां से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे।
सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया।
इसके बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।
इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।
पाराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की –
यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ।
🙏जय श्री बालाजी की🙏👇
॥॥सबसे बड़ा तीर्थ॥॥
एक बार एक चोर जब मरने लगा तो उसने अपने बेटे को बुलाकर एक नसीहत दी:-
” अगर तुझे चोरी करनी है तो किसी गुरुद्वारा, धर्मशाला या किसी धार्मिक स्थान में मत जाना बल्कि इनसे दूर ही रहना और दूसरी बात अगर कभी पकड़े जाओ।
तो यह मत स्वीकार करना कि तुमने चोरी की है।
चाहे कितनी भी सख्त मार पड़े”
चोर के लड़के ने कहा:-
“सत्य वचन”
इतना कहकर वह चोर मर गया और उसका लड़का रोज रात को चोरी करता रहा।
एक बार उस लड़के ने चोरी करने के लिए किसी घर के ताले तोड़े, लेकिन घर वाले जाग गए और उन्होंने शोर मचा दिया आगे पहरेदार खड़े थे उन्होंने कहा:-
“आने दो, बच कर कहां जाएगा”?
एक तरफ घरवाले खड़े थे और दूसरी तरफ पहरेदार
अब चोर जाए भी तो किधर जाए वह किसी तरह बच कर वहां से निकल गया रास्ते में एक धर्मशाला पड़ती थी धर्मशाला को देखकर उसको अपने बाप की सलाह याद आ गई कि धर्मशाला में नहीं जाना।
लेकिन वह अब करे भी तो क्या करे ?
उसने यह सही मौका देख कर वह धर्मशाला में चला गया जहाँ सत्संग हो रहा था।
वह बाप का आज्ञाकारी बेटा था।
इस लिए उसने अपने कानों में उंगली डाल ली जिससे सत्संग के वचन उसके कानों में ना पड़ जाए।
लेकिन आखिरकार मन अडियल घोड़ा होता है।
इसे जिधर से मोड़ो यह उधर नही जाता है कानों को बंद कर लेने के बाद भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इस से मुझे क्या लेना देना घर वाले और पहरेदार पीछे लगे हुए थे।
किसी ने बताया कि चोर, धर्मशाला में है।
जांच पड़ताल होने पर वह चोर पकड़ा गया.
सिपाही ने चोर को बहुत मारा लेकिन उसने अपना अपराध कबूल नहीं किया।
उस समय यह नियम था कि जब तक मुजरिम, अपराध ने स्वीकार कर ले तो सजा नहीं दी जा सकती.
उसे राजा के सामने पेश किया गया वहां भी खूब मार पड़ी, लेकिन चोर ने वहां भी अपना अपराध नहीं माना वह चोर देवी की पूजा करता था।
इस लिए सिपाही ने एक ठगिनी को सहायता के लिए बुलाया ठगिनी ने कहा कि मैं इसको मना लूंगी उसने देवी का रूप भर कर दो नकली बांहें लगाई, चारों हाथों में चार मशाल जलाई और नकली शेर की सवारी की।
क्योंकि वह सिपाही के साथ मिली हुई थी इस लिए जब वह आई तो उसके कहने पर जेल के दरवाजे कड़क कड़क कर खुल गए जब कोई आदमी किसी मुसीबत में फंस जाता है तो अक्सर अपने इष्ट देव को याद करता है।
इस लिए चोर भी देवी की याद में बैठा हुआ था कि अचानक दरवाजा खुल गया और अंधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई.
देवी ने खास अंदाज में कहा:-
” देख भक्त! तूने मुझे याद किया और मैं आ गई|
तूने बड़ा अच्छा किया कि तुमने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया अगर तू ने चोरी की है तो मुझे सच - सच बता दे मुझसे कुछ भी मत छुपाना|
मैं तुम्हें फौरन आजाद करवा दूंगी..
चोर, देवी का भक्त था अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ और मन में सोचने लगा कि मैं देवी को सब सच सच बता दूंगा वह बताने को तैयार ही हुआ था।
कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ गई उसको फौरन सत्संग का वचन याद आ गया।
कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उसने देखा कि इसकी तो परछाई है।
वह समझ गया कि यह देवी नहीं बल्कि मेरे साथ कोई धोखा है।
वह सच कहते कहते रुक गया और बोला:-
“ मां! मैंने चोरी नहीं की अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता।
जेल के कमरे के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत नोट कर रहे थे।
उनको और ठगिनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है.
अगले दिन उन्होंने राजा से कह दिया कि यह चोर नहीं है।
राजा ने उस को आजाद कर दिया जब चोर आजाद हो गया तो सोचने लगा कि सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया हूं।
अगर मैं अपनी सारी जिंदगी सत्संग सुनने में लगाऊं तो मेरा तो जीवन ही बदल जाएगा।
अब वह प्रतिदिन सत्संग में जाने लगा और चोरी का धंधा छोड़ कर महात्मा बन गया.
शिक्षा:-
कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है.
!!!!! शुभमस्तु !!!
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चंदन तिलक का महत्त्व
हमारे धर्मं में चन्दन के तिलक
का बहुत महत्व बताया गया है।
शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है।
यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है।
माना जाता है ।
कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है ।
तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
भगवान को चंदन अर्पण :
भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है।
हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे।
अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है।
चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है।
चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण :
मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है।
माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है ।
जहां सबकी नजर अटकती है।
उसके मध्य में तिलक लगाकर, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।
तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है ।
इस को सात्विकता का प्रतीक माना जाता है ।
मस्तिष्क के भ्रु - मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है ।
शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं ।
तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है ।
इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है ।
हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा ।
इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा - पाठ उपासना व नामकरण , सगाई या लग्न जैसा शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार - बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल - सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें ।
इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।
शास्त्रों के अनुसार :
शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है ।
हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे ।
इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर ।
ताकि मन में उस केन्द्र बिन्दु की स्मृति हो सकें ।
शरीर व्यापी चेतना शनैःशनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे ।
चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है ।
अतः इसे तिलक या टीके के माध्यम से आज्ञाचक्र
पर एकत्रित करके तीसरे नेत्र को जागृत करा सकते है ।
ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकते है ।
स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, लगाते हैं।
शैव ललाट पर त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक लगाते हैं।
शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं।
धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है।
जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है।
नारद पुराण में उल्लेख आया है-
ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र ।
क्षत्रिय को त्रिपुण्ड ।
वैश्य को अर्धचन्द्र ।
शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये।
योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है।
चन्दन के प्रकार :
हरि चन्दन -
पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर के मिलाने से हरिचन्दन बनता है।
गोपीचन्दन-
गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है ।
जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है।
श्री स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है ।
श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था ।
जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था।
इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है।
कमल' कहत जगदम्ब से,माई राखहु लाज।
सतबुद्धि और प्रेम बन,सबके हृदय विराज।।
कमल' की एकहि प्रार्थना,एक आस बिस्वास।
आजीवन अरु अंत समय,रहे चरण में वास।।
शिव शंकर विन्ध्येश्वरी,शत शत तोहि प्रणाम।
तुमसे तुमको मांगता,भक्ति भाव निष्काम।।
।| जय मां भगवती ||
ये वा स्तुवन्ति मनुजा अमरान्विमूढा
मायागुणैस्तव चतुर्मुखविष्णुरुद्रान्।
शुभ्रांशुवह्नियमवायुगणेशमुख्यान्
किं त्वामृते जननि ते प्रभवन्ति कार्ये।।
(श्रीमद्देवीभागवत)
हे जननि!जो मनुष्य माया के गुणों से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि,यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओं के स्तुति करते हैं ।
वे अज्ञानी ही हैं;
क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपा शक्ति के बिना उन मनुष्यों को कार्य - फल प्रदान करने में समर्थ हो सकते हैं?
'मां आपकी जय हो, आपको बार - बार प्रणाम है।
त्वामेकमाद्यं पुरुषं पुराणं
जगत्पतिं कारणमच्युतं प्रभुम्।
जनार्दनं जन्मजरार्तिनाशनं
सुरेश्वरं सुन्दरमिन्दिरापतिम्।।
बृहद्भुजंश्यामलकोमलं शुभं
वराननं वारिजपत्रनेत्रम्।
तरंगभङ्गायतकुन्तलं हरिं सुकान्तमीशं
प्रणतोऽस्मि शाश्वतम्।।
आज मैं एक ( अद्वितीय ), आदि, पुराण पुरुष,जगदीश्वर, जगत् के कारण,अच्युत स्वरूप,सबके स्वामी और जन्म - जरा एवं पीड़ा को नष्ट करने वाले,देवेश्वर ,परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूं।
जिनकी भुजाएं बड़ी हैं,जो श्याम वर्ण,कोमल ,सुशोभन,सुमुख और कमल दल लोचन हैं।
क्षीरसागर की तरंग भङ्गी के समान जिनके लम्बे - लम्बे घुंघराले केश हैं।
उन परम कमनीय ,सनातन ईश्वर भगवान श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।
!!!!! शुभमस्तु !!!
जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏