https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 09/22/20

‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा , चंदन तिलक का महत्त्व‼️

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथाचंदन  , तिलक का महत्त्व‼️


श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा

हमारे सनातन हिन्दू  हनुमान जी की पत्नी के साथ दुर्लभ कथा दिया जाता है ।

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं।

आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में खास है। 









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यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।

हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आए हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और वाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। 

लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है। 

इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का।

यह मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। 

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। 

पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।

कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा। 

दरअसल हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।

हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 

सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता 

और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। 

लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।

कुल 9 तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।

हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। 

इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वह धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे।

ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी। 

और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। 

लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहां से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे।









सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। 

इसके बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।

इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।

पाराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की – 

यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ।

🙏जय श्री बालाजी की🙏👇

॥॥सबसे बड़ा तीर्थ॥॥ 

एक बार एक चोर जब मरने लगा तो उसने अपने बेटे को बुलाकर एक नसीहत दी:-

” अगर तुझे चोरी करनी है तो किसी गुरुद्वारा, धर्मशाला या किसी धार्मिक स्थान में मत जाना बल्कि इनसे दूर ही रहना और दूसरी बात अगर कभी पकड़े जाओ।

तो यह मत स्वीकार करना कि तुमने चोरी की है।

चाहे कितनी भी सख्त मार पड़े”

चोर के लड़के ने कहा:- 

“सत्य वचन” 

इतना कहकर वह चोर मर गया और उसका लड़का रोज रात को चोरी करता रहा।

एक बार उस लड़के ने चोरी करने के लिए किसी घर के ताले तोड़े, लेकिन घर वाले जाग गए और उन्होंने शोर मचा दिया आगे पहरेदार खड़े थे उन्होंने कहा:- 

“आने दो, बच कर कहां जाएगा”? 

एक तरफ घरवाले खड़े थे और दूसरी तरफ पहरेदार
अब चोर जाए भी तो किधर जाए वह किसी तरह बच कर वहां से निकल गया रास्ते में एक धर्मशाला पड़ती थी धर्मशाला को देखकर उसको अपने बाप की सलाह याद आ गई कि धर्मशाला में नहीं जाना।

लेकिन वह अब करे भी तो क्या करे ? 

उसने यह सही मौका देख कर वह धर्मशाला में चला गया जहाँ सत्संग हो रहा था।

वह बाप का आज्ञाकारी बेटा था।

इस लिए उसने अपने कानों में उंगली डाल ली जिससे सत्संग के वचन उसके कानों में ना पड़ जाए।

लेकिन आखिरकार मन अडियल घोड़ा होता है।

इसे जिधर से मोड़ो यह उधर नही जाता है कानों को बंद कर लेने के बाद भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इस से मुझे क्या लेना देना घर वाले और पहरेदार पीछे लगे हुए थे।

किसी ने बताया कि चोर, धर्मशाला में है।

जांच पड़ताल होने पर वह चोर पकड़ा गया.

सिपाही ने चोर को बहुत मारा लेकिन उसने अपना अपराध कबूल नहीं किया।

उस समय यह नियम था कि जब तक मुजरिम, अपराध ने स्वीकार कर ले तो सजा नहीं दी जा सकती.

उसे राजा के सामने पेश किया गया वहां भी खूब मार पड़ी, लेकिन चोर ने वहां भी अपना अपराध नहीं माना वह चोर देवी की पूजा करता था।

इस लिए सिपाही ने एक ठगिनी को सहायता के लिए बुलाया ठगिनी ने कहा कि मैं इसको मना लूंगी उसने देवी का रूप भर कर दो नकली बांहें लगाई, चारों हाथों में चार मशाल जलाई और नकली शेर की सवारी की।

क्योंकि वह सिपाही के साथ मिली हुई थी इस लिए जब वह आई तो उसके कहने पर जेल के दरवाजे कड़क कड़क कर खुल गए जब कोई आदमी किसी मुसीबत में फंस जाता है तो अक्सर अपने इष्ट देव को याद करता है।

इस लिए चोर भी देवी की याद में बैठा हुआ था कि अचानक दरवाजा खुल गया और अंधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई.

देवी ने खास अंदाज में कहा:-

” देख भक्त! तूने मुझे याद किया और मैं आ गई| 

तूने बड़ा अच्छा किया कि तुमने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया अगर तू ने चोरी की है तो मुझे सच - सच बता दे मुझसे कुछ भी मत छुपाना| 

मैं तुम्हें फौरन आजाद करवा दूंगी..

चोर, देवी का भक्त था अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ और मन में सोचने लगा कि मैं देवी को सब सच सच बता दूंगा वह बताने को तैयार ही हुआ था।

कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ गई उसको फौरन सत्संग का वचन याद आ गया।

कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उसने देखा कि इसकी तो परछाई है।

वह समझ गया कि यह देवी नहीं बल्कि मेरे साथ कोई धोखा है।

वह सच कहते कहते रुक गया और बोला:-

“ मां! मैंने चोरी नहीं की अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता।

जेल के कमरे के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत नोट कर रहे थे।

उनको और ठगिनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है.

अगले दिन उन्होंने राजा से कह दिया कि यह चोर नहीं है।

राजा ने उस को आजाद कर दिया जब चोर आजाद हो गया तो सोचने लगा कि सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया हूं।

अगर मैं अपनी सारी जिंदगी सत्संग सुनने में लगाऊं तो मेरा तो जीवन ही बदल जाएगा।

अब वह प्रतिदिन सत्संग में जाने लगा और चोरी का धंधा छोड़ कर महात्मा बन गया.

 शिक्षा:- 

कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है.

         !!!!! शुभमस्तु !!!

चंदन तिलक का महत्त्व :


हमारे धर्मं में चन्दन के तिलक का बहुत महत्व बताया गया है। 

शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है।

यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। 

माना जाता है ।

कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है ।

तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
 
भगवान को चंदन अर्पण :

भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है।
 
हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। 

अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। 

चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। 

चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। 

माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है ।

जहां सबकी नजर अटकती है।

उसके मध्य में तिलक लगाकर, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।

तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है ।

इस को सात्विकता का प्रतीक माना जाता है । 

मस्तिष्क के भ्रु - मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । 

शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं ।

तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । 

इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है ।

हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । 

इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा - पाठ उपासना व नामकरण , सगाई या लग्न जैसा शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार - बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल - सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें ।

इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।

शास्त्रों के अनुसार :

शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है ।

हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे ।

इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर ।

ताकि मन में उस केन्द्र बिन्दु की स्मृति हो सकें । 

शरीर व्यापी चेतना शनैःशनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे ।

 चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । 

अतः इसे तिलक या टीके के माध्यम से आज्ञाचक्र
 पर एकत्रित करके तीसरे नेत्र को जागृत करा सकते है । 

ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकते है ।






चन्दन लगाने के प्रकार:


स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त  वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, लगाते हैं।

शैव ललाट पर त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक लगाते हैं।

शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। 

धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है।

जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है।

नारद पुराण में उल्लेख आया है-

ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र ।

क्षत्रिय को त्रिपुण्ड ।

वैश्य को अर्धचन्द्र ।

शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये।

योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है।

चन्दन के प्रकार :

हरि चन्दन - 

पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर  के मिलाने से हरिचन्दन बनता है।

गोपीचन्दन- 

गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है ।

जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। 

श्री स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है ।

श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था ।

जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। 

इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है।

कमल' कहत जगदम्ब से,माई राखहु लाज।
सतबुद्धि और प्रेम बन,सबके हृदय विराज।।

कमल' की एकहि प्रार्थना,एक आस बिस्वास।
आजीवन अरु अंत समय,रहे चरण में वास।।

शिव शंकर विन्ध्येश्वरी,शत शत तोहि प्रणाम।
तुमसे तुमको मांगता,भक्ति भाव निष्काम।।

     ।| जय मां भगवती ||

ये वा स्तुवन्ति मनुजा अमरान्विमूढा
  मायागुणैस्तव चतुर्मुखविष्णुरुद्रान्।
शुभ्रांशुवह्नियमवायुगणेशमुख्यान्
  किं त्वामृते जननि ते प्रभवन्ति कार्ये।।

       ( श्रीमद्देवीभागवत )

हे जननि!जो मनुष्य माया के गुणों से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि,यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओं के स्तुति करते हैं ।

वे अज्ञानी ही हैं; 

क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपा शक्ति के बिना उन मनुष्यों को कार्य - फल प्रदान करने में समर्थ हो सकते हैं?

'मां आपकी जय हो, आपको बार - बार प्रणाम है।
 
त्वामेकमाद्यं पुरुषं पुराणं
 जगत्पतिं कारणमच्युतं प्रभुम्।
जनार्दनं जन्मजरार्तिनाशनं
सुरेश्वरं सुन्दरमिन्दिरापतिम्।।

बृहद्भुजं‌श्यामलकोमलं शुभं
वराननं वारिजपत्रनेत्रम्।
तरंगभङ्गायतकुन्तलं हरिं सुकान्तमीशं 
प्रणतोऽस्मि शाश्वतम्।।

आज मैं एक ( अद्वितीय ), आदि, पुराण पुरुष,जगदीश्वर, जगत् के कारण,अच्युत स्वरूप,सबके स्वामी और जन्म - जरा एवं पीड़ा को नष्ट करने वाले,देवेश्वर ,परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूं।

जिनकी भुजाएं बड़ी हैं,जो श्याम वर्ण,कोमल ,सुशोभन,सुमुख और कमल दल लोचन हैं।

क्षीरसागर की तरंग भङ्गी के समान जिनके लम्बे - लम्बे घुंघराले केश हैं।

उन परम कमनीय ,सनातन ईश्वर भगवान श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।

 !!!!! शुभमस्तु !!!

जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits, V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409
WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
Web: https://sarswatijyotish.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद भागवत कथा के अनुसार वैशाख मास का महत्व माहत्म का सुंदर उल्लेख बताए गए हैं।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद भागवत कथा के अनुसार वैशाख मास का महत्व माहत्म का सुंदर उल्लेख बताए गए हैं।।


श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद भागवत कथा के अनुसार वैशाख मास का महत्व माहत्म का सुंदर उल्लेख बताए गए हैं।

इस अध्याय में:-  
( भगवत् कथा के श्रवण और कीर्तन का महत्त्व तथा वैशाख मास के धर्मों के अनुष्ठान से राजा पुरुयशा का संकट से )

श्री वैशाख मास-माहात्म्य अध्याय - 06

श्रुतदेव बोले- 

मेष राशि में सूर्य के स्थित रहने पर जो वैशाख मास में प्रात:काल स्नान करता है। 

और भगवान् विष्णु की पूजा करके इस कथा को सुनता है 








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वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम धाम को प्राप्त होता है। 

इस विषय में एक प्राचीन इतिहास कहते हैं।

जो सब पापों का नाशक, पवित्रकारक, धर्मानुकूल, वन्दनीय और पुरातन है।

गोदावरी के तट पर शुभ ब्रह्मेश्वर क्षेत्र में महर्षि दुर्वासा के दो शिष्य रहते थे।

जो परमहंस, ब्रह्मनिष्ठ, उपनिषद्विद्या में परिनिष्ठित और इच्छारहित थे। 

वे भिक्षामात्र भोजन करते और पुण्यमय जीवन बिताते हुए गुफा में निवास करते थे। 

उनमें से एक का नाम था सत्यनिष्ठ और दूसरेका तपोनिष्ठ।

वे इन्हीं नामों से तीनों लोकों में विख्यात थे। 

सत्यनिष्ठ सदा भगवान् विष्णु की कथा में तत्पर रहते थे। 

जब कोई श्रोता अथवा वक्ता न होता।

तब वे अपने नित्यकर्म किया करते थे यदि कोई श्रोता उपस्थित होता तो उसे निरन्तर वे भगवत् कथा सुनते और यदि कोई कथावाचक भगवान् विष्णु की कल्याणमयी पवित्र कथा कहता तो वे अपने सब कर्मोको समेटकर श्रवण में तत्पर हो उस कथा को सुनने लगते थे। 

वे अत्यन्त दूर के तीर्थों और देवमन्दिरों को छोड़ कर तथा कथा विरोधी कर्मो का परित्याग करके भगवान् की दिव्य कथा सुनते और श्रोताओं को स्वयं भी सुनाते थे कथा समाप्त होने पर सत्यनिष्ठ अपना शेष कार्य पूरा करते थे। 

कथा सुनने वाले पुरुष को जन्म - मृत्युमय संसार बन्धन की प्राप्ति नहीं होती। 

उसके अन्तःकरण की शुद्धि होती है।

भगवान् विष्णु में जो अनुराग की कमी है, वह दूर हो जाती है और उनके प्रति गाढ़ अनुराग होता है। 

साथ ही साधु पुरुषों के प्रति सौहार्द बढ़ता है।

रजोगुण रहित गुणातीत परमात्मा शीघ्र ही हृदय में स्थित हो जाते हैं। 

श्रवण से ज्ञान पाकर मनुष्य भगवच्चिन्तन में समर्थ होता है।

श्रवण, ध्यान और मनन- यह वेदों में अनेक प्रकार से बताया गया है। 

जहाँ भगवान् विष्णु की कथा न होती हो और जहाँ साधु पुरुष न रहते हों।

वह स्थान साक्षात् गंगातट ही क्यों न हो।

नि:सन्देह त्याग देने योग्य है। 

जिस देश में तुलसी नहीं हैं। 

अथवा भगवान् विष्णु का मन्दिर नहीं है।

ऐसा स्थान निवास करने योग्य नहीं है।

यह निश्चय करके मुनिवर सत्यनिष्ठ सदा भगवान् विष्णु की कथा और चिन्तन में संलग्न रहते थे।

दुर्वासा का दूसरा शिष्य तपोनिष्ठ दुराग्रह पूर्वक कर्म में तत्पर रहता था। 

वह भगवान् की कथा छोड़कर अपना कर्म पूरा करनेके लिये इधर-उधर हट जाता था। 

कथा की अवहेलना से उसे बड़ा कष्ट उठाना पड़ा।

 अन्ततोगत्वा कथापरायण सत्यनिष्ठ ने ही उसका संकट से उद्धार किया।

जहाँ लोगों के पाप का नाश करने वाली भगवान् विष्णु की पवित्र कथा होती है।

वहाँ सब तीर्थ और अनेक प्रकार के क्षेत्र स्थित रहते हैं। 

जहाँ विष्णु-कथारूपी पुण्यमयी नदी बहती रहती है।

उस देश में निवास करने वालों की मुक्ति उनके हाथ में ही है।

पूर्व काल में पांचाल देश में पुरुयशा नामक एक राजा थे।

जो पुण्यशील एवं बुद्धिमान् राजा भूरियशा के पुत्र थे। 

पिता के मरने पर पुरुयशा राज्यसिंहासन पर बैठे। 

वे धर्म की अभिलाषा रखने वाले, शूरता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न और धनुर्वेद में प्रवीण थे। 

उन महामति नरेश ने अपने धर्म के अनुसार पृथ्वी का पालन किया। 

कुछ काल के पश्चात् राजा का धन नष्ट हो गया। 

हाथी और घोड़े बड़े-बड़े रोगों से पीड़ित होकर मर गये। 

उनके राज्य में ऐसा भारी अकाल पडा, जो मनुष्यों का अत्यन्त विनाश करने वाला था। 

पांचाल नरेश राजा पुरुयशा को निर्बल जानकर उनके शत्रुओं ने आक्रमण किया और युद्ध में उनको जीत लिया।

तदनन्तर पराजित हुए राजा ने अपनी पत्नी शिखिणी के साथ पर्वत की कन्दरा में प्रवेश किया।

साथ में दासी आदि सेवकगण भी थे। 

इस प्रकार छिपे रहकर राजा मन - ही - मन विचार करने लगे कि मेरी यह क्या अवस्था हो गयी। 

मैं जन्म और कर्म से शुद्ध हूँ।

माता और पिता के हित में तत्पर रहा हूँ।

गुरुभक्त, उदार, ब्राह्मणों का सेवक, धर्मपरायण, सब प्राणियों के प्रति दयालु, देवपूजक और जितेन्द्रिय भी हूँ।

फिर किस कर्म से मुझे यह विशेष दु:ख देने वाली दरिद्रता प्राप्त हुई है? 

किस कर्म से मेरी पराजय हुई और किस कर्म के फलस्वरूप मुझे यह वनवास मिला है?

इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल होकर राजा ने खिन्न चित्त से अपने सर्वज्ञ गुरु मुनिश्रेष्ठ याज और उपयाज का स्मरण किया। 

राजा के आवाहन करने पर दोनों बुद्धिमान् मुनीश्वर वहाँ आये। 

उन्हें देखकर पांचालप्रिय नरेश सहसा उठकर खड़े हो गये और बड़ी भक्ति के साथ गुरु के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया। 

फिर वन में पैदा होने वाली शुभ सामग्रियों के द्वारा उन्होंने उन दोनों का पूजन किया और विनीत भाव से पूछा- 

'विप्रवरो! 

मैं गुरुचरणों में भक्ति रखने वाला हूँ। 

मुझे किस कर्म से यह दरिद्रता, कोष हानि और शत्रुओं से पराजय प्राप्त हुई है?

 किस कारण से मेरा वनवास हुआ और मुझे अकेले रहना पड़ा? 

मेरे न कोई पुत्र है, न भाई है और न हितकारी मित्र ही हैं मेरे द्वारा सुरक्षित राज्य में यह बड़ा भारी अकाल कैसे पड़ गया? 

ये सब बातें विस्तार पूर्वक मुझे बताइये।'








राजा के इस प्रकार पूछने पर वे दोनों मुनिश्रेष्ठ कुछ देर ध्यानमग्न हो इस प्रकार बोले-

राजन्! 

तुम पहले के दस जन्मों तक महापापी व्याध रहे हो। 

तुम सब लोगों के प्रति क्रूर और हिंसापरायण थे। 

तुमने कभी लेशमात्र भी धर्म का अनुष्ठान नहीं किया। 

इन्द्रियसंयम तथा मनोनिग्रह का तुम में सर्वथा अभाव था। 

तुम्हारी जिह्वा किसी प्रकार भगवान् विष्णु के नाम नहीं लेती थी। 

तुम्हारा चित्त गोविन्द के चारु चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता था और तुमने कभी मस्तक नवाकर परमात्मा को प्रणाम नहीं किया। 

इस प्रकार दुरात्मा व्याध का जीवन व्यतीत करते हुए तुम्हारे नौ जन्म पूरे हो गये दसवाँ जन्म प्राप्त होने पर तुम सह्य पर्वतपर पुन: व्याध हुए। 

वहाँ सब लोगों के प्रति क्रूरता करना ही तुम्हारा स्वभाव था। 

तुम मनुष्योंके लिये यमके समान थे। 

दयाहीन, शस्त्रजीवी और हिंसापरायण थे। 

अपनी स्त्री के साथ रहते हुए राह चलने वाले पथिकों को तुम बड़ा कष्ट दिया करते थे बड़े भारी शठ थे। 

इस प्रकार अपने हित को न जानते हुए तुमने बहुत वर्ष व्यतीत किये।

जिनके छोटे-छोटे बच्चे हैं, ऐसे मृगों और पक्षियों के वध करने के कारण तुम दयाहीन दुर्बुद्धि को इस जन्म में कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। 

तुमने सबके साथ विश्वासघात किया।

इस लिये तुम्हारे कोई सहोदर भाई नहीं हुआ। 

मार्ग में सबको पीड़ा देते रहे।

इस लिये इस जन्म में तुम मित्र रहित हो। 

साधु पुरुषों के तिरस्कार से शत्रुओं द्वारा तुम्हारी पराजय हुई है। 

कभी दान न देने के दोष से तुम्हारे घर में दरिद्रता प्राप्त हुई है। 

तुमने दूसरों को सदा उद्वेग में डाला।

इस लिये तुम्हें दुःसह वनवास मिला। 

सबके अप्रिय होने के कारण तुम्हें असह्य दु:ख मिला है। 

तुम्हारे क्रूर कर्मो के फल से ही इस जन्म में मिला हुआ राज्य भी छिन गया है। 

वैशाख मास की गरमी में तुमने स्वार्थवश एक दिन एक ऋषि को दूर से तालाब बता दिया था और हवा के लिये पलाश का एक सूखा पत्ता दे दिया था। 

बस, जीवन में इस एक ही पुण्य के कारण तुम्हारा यह जन्म परम पवित्र राजवंश में हुआ है।

अब यदि तुम सुख, राज्य, धन-धान्यादि सम्पत्ति, स्वर्ग और मोक्ष चाहते हो अथवा सायुज्य एवं श्रीहरि के पद की अभिलाषा रखते हो तो वैशाख मास के धर्मो का पालन करो। 

इससे सब प्रकार के सुख पाओगे। 

इस समय वैशाख मास चल रहा है। 

आज अक्षय तृतीया है। 

आज तुम विधि - पूर्वक स्नान और भगवान् लक्ष्मीपति की पूजा करो। 

यदि अपने समान ही गुणवान् पुत्रों की अभिलाषा करते हो तो सब प्राणियों के हित के लिये प्याऊ लगाओ। 

इस पवित्र वैशाख मास में भगवान् मधुसूदन की प्रसन्नता के लिये यदि तुम निष्काम भाव से धर्मो का अनुष्ठान करोगे।

तो अन्त:करण शुद्ध होने पर तुम्हें भगवान् विष्णु का प्रत्यक्ष दर्शन होगा।




 




यों कहकर राजा की अनुमति ले उनके दोनों ब्राह्मण पुरोहित याज और उपयाज जैसे आये थे।

वैसे ही चले गये उनसे उपदेश पाकर महाराज पुरुयशा ने वैशाख मास के सम्पूर्ण धर्मो का श्रद्धापूर्वक पालन किया और भगवान् मधुसूदन की आराधना की। 

इससे उनका प्रभाव बढ़ गया तथा बन्धु-बान्धव उनसे आकर मिल गये। 

तत्पश्चात् वे मरने से बची हुई सेना को साथ ले बन्धुओं सहित पांचाल नगरी के समीप आये। 

उस समय पांचाल राजा के साथ राजाओं का पुन: संग्राम हुआ। 

महारथी पुरुषशा ने अकेले ही समस्त महाबाहु राजाओं पर विजय पायी। 

विरोधी राजाओं ने भागकर विभिन्न देशों के मार्गो का आश्रय लिया। 

विजयी पांचालराज ने भागे हुए राजाओं के कोष, दस करोड़ घोड़े, तीन करोड़ हाथी, एक अरब रथ, दस हजार ऊँट और तीन लाख खच्चरों को अपने अधिकार में करके अपनी पुरी में पहुँचा दिया।

वैशाख धर्म के माहात्म्य से सब राजा भग्नमनोरथ हो पुरुयशा को कर देने वाले हो गये और पांचाल देश में अनुपम सुकाल आ गया। 

भगवान् विष्णु की प्रसन्नता से इस वसुधा पर उनका एकछत्र राज्य हुआ और गुरुता, उदारता आदि गुणों से युक्त उनके पाँच पुत्र हुए।

जो धृष्टकीर्ति, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्न, विजय और चित्रकेतु के नाम से प्रसिद्ध थे। 

धर्म पूर्वक प्रतिपालित होकर समस्त प्रजा राजा के प्रति अनुरक्त हो गयी। 

इससे उसी क्षण उन्हें वैशाख मास के प्रभाव का निश्चय हो गया। 

तब से पांचालराज भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये वैशाख मास के धर्मो का निष्काम भाव से बराबर पालन करने लगे। 

उनके इस धर्म से सन्तुष्ट होकर भगवान् विष्णु ने अक्षय तृतीया के दिन उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया।

            "जय जय श्री हरि हरि"
 जय श्री कृष्ण ...!


जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है:








जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है ।

उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना उचित नहीं है। 

और जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा नहीं करना चाहिए। 

🌼अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना यह पूरी तरह पागलपन होता है। 

प्रेम ही ऐसा हथियार है जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है। 

प्रेम की विजय ही सच्ची विजय है। 

🌼आज प्रत्येक घर में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है ।

उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। 

आग को आग नहीं बुझाती, पानी बुझाता है। 

प्रेम से दुनियां को तो क्या दुनियां बनाने वाले तक को जीता जा सकता है। 

पशु -पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं। 

 प्रेम बाटों, इसकी खुशबू कभी ख़तम नहीं होती ।

जय श्री कृष्ण !
जय श्री राधे कृष्ण !!

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

।। सुंदर कटु सत्य वचन ।।

चन्द्रसूर्याग्निनेत्रश्च कालाग्नि: प्रलयान्तक:
कपिल: कपिश: पुण्यराशिर्द्वादशराशिग:।

सर्वाश्रयो प्रमेयात्मा रेवत्यादिनिवारक:
लक्ष्मणप्राणदाता च सीताजीवनहेतुक:।।

चन्द्र, सूर्य और अग्नि रूप तीनों नेत्र वाले शिव स्वरूप, मृत्युकारी अग्निरूप,प्रलयका अन्त करने वाले।









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अर्थात भक्तों को जन्म - मृत्यु से रहित करने वाले।

काले - पीले वर्ण के रोम से युक्त।

श्याम - पीतवर्ण मिश्रित कपिश वर्ण।
पुण्य की राशि द्वादश राशियों के ज्ञाता।।

अर्थात ज्योतिष शास्त्र के जानने वाले।

सभी को आश्रय प्रदान करने वाले।

प्रमेय स्वरूप आत्मा वाले।

अनिष्ट को दूर करने वाले।

संजीवनी द्वारा श्री लक्ष्मण जी को प्राण प्रदान करने वाले।

श्री जानकीजी को श्रीराम का सन्देश देकर जीवन प्रदान करने वाले।' 

श्री हनुमान जी को बार - बार प्रणाम है।

प्यार बांटा तो रामायण लिखी गई

और...!

सम्पत्ति बांटी तो महाभारत।।।

कल भी...!

यही सत्य था..!

 आज भी यही सत्य है!!

भाव बिना बाजार में...!

वस्तु मिले ना मोल....!

तो..!

भाव बिना...!

"हरी "

कैसे मिले...!

जो है अनमोल.....!

इस संसार में...!

भूलों को...!

माफ करने की क्षमता...!

सिर्फ तीन में है...!

माँ....!

महात्मा.....!

और..!

परमात्मा।।

जय श्री कृष्ण...!




 



स्वयं को जानकर व समझकर ही मनुष्य सफलता की तरफ अग्रसर हो सकता है।

ऐसा इस लिए,क्योंकि हम सभी मनुष्य उस एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं।

आज हर व्यक्ति भाग रहा है।

एक जगह से दूसरे जगह की ओर, एक तत्व से दूसरे तत्व की ओर। 

व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है।

क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।

स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। 

यदि आप अपने आसपास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे।

तो लगभग सबमें यही बात नजर आएगी।

हर एक व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता चला जा रहा है। 

वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? 

क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? 

उसे स्वयं पता नहीं।

परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है।

हरेक के बारे में पूछ रहा है।

आज आवश्यकता है।

इस झंझावात से निकलने की।

स्वयं के अस्तित्व को समझने की।

परिवर्तन की इस सतत प्रक्रिया में स्थिर होने की। 

यात्रा हो परंतु शून्य से महाशून्य की,परिधि से केंद्र की।

अज्ञान से ज्ञान की।

अंधकार से प्रकाश की।

असत्य से सत्य की। 

स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।

हम प्राय: अपना जीवन कंकड़ - पत्थर बटोरने में व्यर्थ गंवा देते हैं। 

सत्ता, संपत्ति, सत्कार और बहुत कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। 

तो हम क्यों न आज ही जग जाएं। 

स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। 

हमारा ध्यान दुनिया में है।

परंतु स्वयं के अंदर छिपी विराटता में नहीं। 

स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं।

अपने परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते।

जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है। 

यदि हम स्वयं के प्रति सचेत हो जाएं।

तो बात बनते देर नहीं लगेगी। 

तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरव शाली कार्य किया।

वे सभी स्वयं के अंदर छिपे अथाह सागर को समझने की बात करते हैं। 

जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो।

जहां हो एक गहन शांति। 

शांति मिलती है।

कामनाओं को शांत करने से कामनाएं भी उसी की शांत होती हैं।

जो जीवन का सही मूल्य समझ सके। 

जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है।

बल्कि जीवन में रहते हुए कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम है।

इसे जानकर व समझकर ही आगे बढ़ना सही अर्थो में जीवन की सार्थकता है।

वाल्मिकी रामायण में सीता माता द्वारा पिंडदान देकर राजा दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है....! 

वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता पितृ पक्ष के वक़्त श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे वहाँ ब्राह्मण द्वारा बताए श्राद्ध कर्म के लिए....! 

आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु श्री राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए।
 
ब्राह्मण देव ने माता सीता को आग्रह किया कि पिंडदान का कुतप समय निकलता जा रहा है....! 

यह सुनकर सीता जी की व्यग्रता भी बढ़ती जा रही थी क्योंकि श्री राम और लक्ष्मण अभी नहीं लौटे थे।

इसी उपरांत दशरथ जी की आत्मा ने उन्हें आभास कराया की पिंड दान का वक़्त बीता जा रहा है।

यह जानकर माता सीता असमंजस में पड़ गई।तब माता सीता ने समय के महत्व को समझते हुए यह निर्णय लिया कि वह स्वयं अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान करेंगी।

उन्होंने फल्गू नदी के साथ साथ वहाँ उपसथित वटवृक्ष, कौआ, तुलसी, ब्राह्मण और गाय को साक्षी मानकर स्वर्गीय राजा दशरथ का का पिंडदान पुरी विधि विधान के साथ किया....! 

इस क्रिया के उपरांत जैसे ही उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की तो राजा दशरथ ने माता सीता का पिंड दान स्वीकार किया।

माता सीता को इस बात से प्रफुल्लित हुई कि उनकी पूजा दशरथ जी ने स्वीकार कर ली है।

पर वह यह भी जानती थी कि प्रभु राम इस बात को नहीं मानेंगे....! 

क्योंकि पिंड दान पुत्र के बिना नहीं हो सकता है।
 
थोड़ी देर बाद भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर आए और पिंड दान के विषय में पूछा तब माता सीता ने कहा कि....! 

समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया प्रभु राम को इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था....! 

कि बिना पुत्र और बिना सामग्री के पिंडदान कैसे संपन्न और स्वीकार हो सकता है।

तब सीता जी ने कहा कि वहाँ उपस्थित फल्गू नदी, तुलसी, कौआ,गाय, वटवृक्ष और ब्राह्मण उनके द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं।

भगवान राम ने जब इन सब से पिंडदान किये जाने की बात सच है या नहीं यह पूछा,तब फल्गू नदी, गाय,कौआ, तुलसी और ब्राह्मण पांचों ने प्रभु राम का क्रोध देखकर झूठ बोल दिया....! 

कि माता सीता ने कोई पिंडदान नहीं किया सिर्फ वटवृक्ष ने सत्य कहा कि....! 

माता सीता ने सबको साक्षी रखकर विधि पूर्वक राजा दशरथ का पिंड दान किया।पांचों साक्षी द्वारा झूठ बोलने पर माता सीता ने क्रोधित होकर उन्हें आजीवन श्राप दिया।
 
फल्गू नदी को श्राप दिया कि वोह सिर्फ नाम की नदी रहेगी....! 

उसमें पानी नहीं रहेगा इसी कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी है।

गाय को श्राप दिया कि गाय पूजनीय होकर भी सिर्फ उसके पिछले हिस्से की पूजा की जाएगी और गाय को खाने के लिए दर बदर भटकना पड़ेगा....! 

आज भी हिन्दू धर्म में गाय के सिर्फ पिछले हिस्से की पूजा की जाती है...!

माता सीता ने ब्राह्मण को कभी भी संतुष्ट न होने और कितना भी मिले उसकी दरिद्रता हमेशा बनी रहेगी का श्राप दिया।

इसी कारण ब्राह्मण कभी दान दक्षिणा के बाद भी संतुष्ट नहीं होते हैं...! 

सीताजी ने तुलसी को श्राप दिया कि वह कभी भी गया कि मिट्टी में नहीं उगेगी यह आज तक सत्य है...! 

कि गया कि मिट्टी में तुलसी नहीं फलती और कौवे को हमेशा लड़ झगड कर खाने का श्राप दिया था।

अतः कौआ आज भी खाना अकेले नहीं खाता है।
 
सीता माता द्वारा दिए गए इन श्रापों का प्रभाव आज भी इन पांचों में देखा जा सकता है...!

जहाँ इन पांचों को श्राप मिला वहीं सच बोलने पर माता सीता ने वट वृक्ष को आशीर्वाद दिया कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री उनका स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी।

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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