सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। आइये जाने शिवलिंग के वारे में रोचक जानकारी और शिव दर्शन...!।।
यदि आपने महादेव शिव के प्रतीक शिवलिंग को घर में स्थापित किया है तो आपको भी कुछ बातो का विशेष ध्यान रखना होगा।
क्योकि यदि भगवान शिव भोले है तो उनका क्रोध भी बहुत भयंकर होता है।
इसी कारण उन्हें त्रिदेवो में संहारकर्ता की उपाधि प्राप्त हुई है।
शिवलिंग की पूजा यदि सही नियम और विधि - विधान से करी जाए तो यह अत्यन्त फलदायी होती है।
परन्तु वहीं यदि शिवलिंग पूजा में कोई त्रुटि हो जाए तो ये गलती किसी मनुष्य के लिए विनाशकारी भी सिद्ध हो सकती है।
आज हम आपको उन त्रुटियों के बारे में बताने जा रहे है ।
जिनको अपना के आप भगवान शिव के प्रकोप से बचकर उनकी विशेष कृपा और आशीर्वाद अपने ऊपर पा सकते है।
ऐसा स्थान जहाँ पूजा न हो रही हो : -
शिव लिंग को कभी भी ऐसे स्थान पर स्थापित नहीं करना चाहिए जहाँ आप उसे पूज ने रहे हो ।
हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यदि आप शिवलिंग की पूजा पूरी विधि - विधान से न कर पा रहे।
हो या ऐसा करने में असमर्थ हो तो भूल से भी शिवलिंग को घर पर न रखे।
क्योकि यदि कोई व्यक्ति घर पर भगवान शिव का शिवलिंग स्थापित कर उसकी विधि विधान से पूजा नहीं करता तो यह महादेव शिव का अपमान होता है।
तथा इस प्रकार वह व्यक्ति किसी अनर्थकारी चीज़ को आमंत्रित करता है।
भूल से भी न करें केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित : -
पुराणों में केतकी के फूल को शिव पर न चढ़ाने के पीछे एक कथा छिपी है।
इस कथा के अनुसार जब एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी माया से प्रभावित होकर अपने आपको एक -दूसरे से सर्वश्रेष्ठ बताने लगे तब महादेव उनके सामने एक तेज प्रकाश के साथ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए।
ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शिव ने ब्र्ह्मा और विष्णु से कहा की आप दोनों में जो भी मेरे इस रूप के छोर को पहले पा जायेगा वह सर्वशक्तिमान होगा।
भगवान विष्णु शिव के ज्योतिर्लिंग के ऊपरी छोर की ओर गए तथा ब्र्ह्मा जी नीचे के छोर की ओर गए।
कुछ दूर चलते चलते भी जब दोनों थक गए तो भगवान विष्णु ने शिव के सामने अपनी पराजय स्वीकार ली है।
परन्तु ब्र्ह्मा जी ने अपने पराजय को छुपाने के लिए एक योजना बनाई।
उन्होंने केतकी के पुष्पों को साक्षी बनाकर शिव से कहा की उन्होंने शिव का अंतिम छोर पा लिया है ।
ब्र्ह्मा जी के इस झूठ के कारण शिव ने क्रोध में आकर उनके एक सर को काट दिया तथा केतकी के पुष्प पर भी पूजा अरचना में प्रतिबंध लगा दिया।
तुलसी पर प्रतिबंध : -
शिव पुराण की एक कथा के अनुसार जालंधर नामक एक दैत्य को यह वरदान था की उसे युद्ध में तब तक कोई नहीं हरा सकता जब तक उसकी पत्नी वृंदा पतिव्रता रहेगी।
उस दैत्य के अत्याचारों से इस सृष्टि को मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता होने का संकल्प भंग किया तथा महादेव ने जलंधर का वध।
इसके बाद वृंदा तुलसी में परिवर्तित हो चुकी थी तथा उसने अपने पत्तियों का महादेव की पूजा में प्रयोग होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया यही कारण की है ।
की शिवलिंग की पूजा पर कभी तुलसी के पत्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता।
हल्दी पर रोक : -
हल्दी का प्रयोग स्त्रियाँ अपनी सुंदरता निखारने के लिए करती है तथा शिवलिंग महादेव शिव का प्रतीक है।
अतः हल्दी का प्रयोग शिवलिंग की पूजा करते समय नहीं करनी चाहिए।
कुमकुम का उपयोग : -
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कुमकुम का प्रयोग एक हिन्दू महिला अपने पति के लम्बी आयु के लिए करती है।
जबकि भगवान शिव विध्वंसक की भूमिका निभाते है।
भर्था संहारकर्ता शिव की पूजा में कभी भी कुमकुम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
शिवलिंग का स्थान बदलते समय : -
शिवलिंग का स्थान बदलते समय उसके चरणों को सपर्श करें तथा एक बर्तन में गंगाजल का पानी भरकर उसमे शिवलिंग को रखे।
और यदि शिवलिंग पत्थर का बना हुआ हो तो उसका गंगाजल से अभिषेक करें।
शिवलिंग पर कभी पैकेट का दूध ना चढ़ाए : -
शिवलिंग की पूजा करते समय हमेशा ध्यान रहे की उन पर पासच्युराईज्ड दूध ना चढ़े, शिव को चढ़ने वाला दूध ठंडा और साफ़ होना चाहिए।
शिवलिंग किस धातु का हो : -
शिवलिंग को पूजा घर में स्थापित करने से पूर्व यह ध्यान रखे की शिवलिंग में धातु का बना एक नाग लिपटा हुआ हो ।
शिवलिंग सोने, चांदी या ताम्बे से निर्मित होना चाहिए।
शिवलिंग को रखे जलधारा के नीचे : -
यदि आपने शिवलिंग को घर पर रखा है तो ध्यान रहे की शिवलिंग के नीचे सदैव जलधारा बरकरार रहे अन्यथा वह नकरात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता है।
कौनसी मूर्ति हो शिवलिंग के समीप : -
शिवलिंग के समीप सदैव गोरी तथा गणेश की मूर्ति होनी चाहिए ।
शिवलिंग कभी भी अकेले नहीं होना चाहिए।
हर शिवालयों या भगवान शिव के मंदिर में आप ने देखा होगा की उनकी आरधना एक गोलाकर पत्थर के रूप में लोगो द्वारा की जाती है ।
जो पूजास्थल के गर्भ गृह में पाया जाता है।
महादेव शिव को सिर्फ भारत और श्रीलंका में ही नहीं पूजा जाता बल्कि विश्व में अनेको देश ऐसे है।
जहाँ भगवान शिव की प्रतिमा या उनके प्रतीक शिवलिंग की पूजा का प्रचलन है ।
पहले दुनियाभर में भगवान शिव हर जगह पूजनीय थे।
इस बात के हजारो सबूत आज भी वर्तमान में हमे देखने को मिल सकते है।
रोम में शिवलिंग : -
प्राचीन काल में यूरोपीय देशो में भी शिव और उनके प्रतीक शिवलिंग की पूजा का प्रचलन था ।
इटली का शहर रोम दुनिया के प्राचीनतम शहरों में से एक है।
रोम में प्राचीन समय में वहां के निवासियों द्वारा शिवलिंग की पूजा ”प्रयापस” के रूप में की जाती थी ।
रोम के वेटिकन शहर में खुदाई के दौरान भी एक शिवलिंग प्राप्त किया गया जिसे ग्रिगोरीअन एट्रुस्कैन म्यूजियम में रखा गया है।
इटली के रोम शहर में स्थित वेटिकन शहर का आकार भगवान शिव के आदि - अनादि स्वरूप शिवलिंग की तरह ही है।
जो की एक आश्चर्य प्रतीत होता है।
हाल ही में इस्लामिक राज्य द्वारा नेस्तनाबूद कर दिए गए प्राचीन शहर पलमायरा नीमरूद आदि नगरों में भी शिव की पूजा से सबंधित अनेको वस्तुओं के अवशेष मिले है।
प्राचीन सभ्यता में शिवलिंग :-
पुरातत्विक निष्कर्षो के अनुसार प्राचीन शहरों मेसोपोटेमिया और बेबीलोन में भी शिवलिंग के पूजे जाने के प्रमाण पाये गए है।
इसके अल्वा मोहन जोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता में भी भगवान शिव की पूजा से संबंधित वस्तुओं के अवशेष मिले है।
जब भिन्न - भिन्न सभ्यताओं का जन्म हो रहा था उस समय सभी लोग प्रकृति और पशुओं पर ही निर्भर थे।
इस लिए वह प्राचीन समय में भगवान शिव की पशुओं के संरक्षक पशुपति देवता के रूप पूजा करते थे ।
आयरलैंड में प्राचीन शिवलिंग :-
आयरलैंड के तार हिल स्थान पर भगवान शिव के शिवलिंग के भाति एक लम्बा अंडाकार रहस्मय पत्थर रखा गया है।
जिसे यहाँ के लोगो द्वारा भाग्य प्रदान करने वाले पत्थर के रूप में पुकारा जाता है।
फ्रांसीसी भिक्षुवो द्वारा 1632 से 1636 ईस्वी के बीच लिखित एक प्राचीन दस्तावेज के अनुसार इस पत्थर को इस स्थान पर चार अलौकिक लोगो द्वारा स्थापित किया गया था।
अफ्रिका में शिवलिंग : -
साउथ अफ्रीका की सुद्वारा नामक एक गुफा में पुरातत्वविदों को महादेव शिव के शिवलिंग की लगभग 6000 वर्ष पुरानी शिवलिंग प्राप्त हुआ है।
जिसे कठोर ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित किया गया था।
इस शिवलिंग को खोजने वाले पुरातत्व विभाग के लोग इस बात को लेकर हैरान है की आखिर ये शिवलिंग अब तक कैसे सुरक्षित रह सकता है।
शिवलिंग का विन्यास : -
शिवलिंग के मुखयतः तीन भाग होते है।
पहला भाग जो नीचे चारो तरफ से भूमिगत रहता है।
मध्य भाग में आठ तरफ से एक समान बैठक बनी होती है।
अंत में इसका शीर्ष भाग , जो की अंडाकार होता है तथा जिसकी पूजा की जाती है ।
इस शिवलिंग की उच्चाई सम्पूर्ण मंडल या परिधि की एक तिहाई होती है।
ये तीन भाग ब्र्ह्मा नीचे, विष्णु बीच में तथा शिव शीर्ष में होने का प्रतीक है।
शिव के माथे पर तीन रेखाएं ( त्रिपुंड ) व एक बिंदु होता है जो शिवलिंग पर भी समान रूप से निरुपित होती है ।
प्राचीन काल में ऋषियों और मुनियों द्वारा ब्रह्माण्ड के वैज्ञानिक रहस्य को समझकर इसके सत्य को प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न रूपों में इसका सपष्टीकरण दिया जिनमे शिवलिंग भी एक है।
शिवलिंग का अर्थ : -
शिवलिंग भगवान शिव की रचनात्मक और विनाशकारी दोनों ही शक्तियों को प्रदर्शित करता है ।
शिवलिंग का अर्थ होता है ”सृजन ज्योति” यानी भगवान शिव का आदि - अनादि स्वरूप।
सूर्य, आकाश, ब्रह्माण्ड, तथा निराकार महापुरुष का प्रतीक होने का कारण ही यह वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है।
‘व्यापक प्रकाश’।
श्री शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
शिवलिंग कहलाया।
शिवलिंग का आकार - प्रकार ब्राह्मण्ड में घूम में रही आकाश गंगा के समान ही है ।
यह शिवलिंग हमारे ब्रह्माण्ड में घूम रहे पिंडो का एक प्रतीक ही है ।
शिवलिंग का प्रकार
देव लिंग : -
जिस शिवलिंग को दवाओं द्वारा स्थापित किया हो उसे देव लिंग के नाम से पुकारा जाता है ।
वर्तमान में मूल एवं परम्परिक रूप से इस प्रकार के शिवलिंग देवताओ के लिए पूजित है।
असुर लिंग : -
असुरो द्वारा जिस शिवलिंग की पूजा की जाती वह असुर लिंग कहलाता था ।
रावण ने भी ऐसे ही एक शिवलिंग की स्थापना करी थी ।
रावण की तरह ही अनेक असुर थे जो भगवान शिव के भक्त थे और भगवान शिव कभी अपने भक्तो में भेदभाव नहीं करते।
अर्श लिंग : -
पुराने समय में ऋषि मुनियों द्वारा जिन शिवलिंगों की पूजा की जाती थी वे अर्श लिंग कहलाते थे।
पुराण लिंग :-
पौराणिक युग में व्यक्तियों द्वारा स्थापित किये गए शिवलिंगों को पुराण लिंग के नाम से जाना गया।
मानव शिवलिंग : -
वर्तमान में मानवों द्वारा निर्मित भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग ,मानव निर्मित शिवलिंग कहलाए।
.स्वयम्भू लिंग : -
भगवान शिव किसी कारण जिस स्थान पर स्वतः ही लिंग के रूप में प्रकट हुए इस प्रकार के शिवलिंग स्वम्भू लिंग कहलाए।
मस्तक पर चन्द्र का विराजमान होना : -
भगवान शिव के मस्तक में चन्द्रमा विराजित होने के कारण वे भालचन्द्र या गुजरात में सोमनाथ मंदिर के बगल में भालका तीर्थ नाम से भी प्रसिद्ध है ।
चन्द्रमा का स्वभाव शीतल होता है तथा इसकी किरणे शीतलता प्रदान करती है।
ऐसा अक्सर देखा गया है की जब मनुष्य का दिमाग शांत होता है।
तो वह बुरी परिस्थितियों का और बेहतर ढंग से सामना करता है।
तथा उस पर काबू पा लेता है।
वही क्रोधी स्वभाव वाले मनुष्य की परेशानियां और अधिक बढ़ जाती है।
श्रीं ज्योतिष शास्त्र में चन्द्रमा को मन का प्रतीक माना गया है तथा मन की प्रवृति बहुत चंचल होती है।
मनुष्य को सदैव अपने मन को वश में रखना चाहिए नहीं तो यह मनुष्य के पतन का कारण बनता है ।
इसी कारण से महादेव शिव ने चन्द्रमा रूपी मन को काबू कर अपने मस्तक में धारण किया है।
अस्त्र के रूप में त्रिशूल : -
भगवान शिव सदैव अपने हाथ में एक त्रिशूल पकड़े रहते है।
जो बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र है तथा इसके शक्ति के आगे कोइ अन्य शक्ति केवल कुछ क्षण मात्र भी ठहर नहीं सकती।
त्रिशूल संसार की तीन प्रवृत्तियों का प्रतीक है।
जिसमे सत का मतलब सात्विक, रज का मतलब संसारिक और तम का मतलब तामसिक होता है।
हर मनुष्य में ये तीनो ही प्रवृत्तियाँ पाई जाती है तथा इन तीनो को वश में करने वाला व्यक्ति ही आध्यात्मिक जगत में आगे बढ़ पता है।
त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव यह संदेश देते है ।
की मनुष्य का इन तीनो पर ही पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए ।
गले में नाग को धारण करना :-
भगवान शिव जितने रहस्मयी है ।
उतने ही रहस्मय उनके वस्त्र और आभूषण भी है ।
जहा सभी देवी - देवता आभूषणो से सुस्जित होते है।
वही भगवान शिव एकमात्र ऐसे देव है।
जो आभूषणो के स्थान पर अपने गले में बहुत ही खतरनाक प्राणी माने जाने वाले नाग को धारण किये हुए है ।
भगवान शिव के गले में लिपटा हुआ नाग जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का ही प्रतीक माना जाता है ।
भारतीय अध्यात्म में नागो को दिव्य शक्ति के रूप में मान कर उनकी पूजा अरचना की जाती है ।
परन्तु वही कुछ लोग बिना वजह इन से डर कर इनकी हत्या कर देते है।
भगवान शिव अपने गले में नाग को धारण कर यह सन्देश देते है।
पृथ्वी के इस जीवन चक्र में प्रत्येक छोटे - बड़े प्राणी का अपना एक विशेष योगदान है ।
अतः बिना वजह किसी प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए।
भगवान शिव का वाद्य यंत्र डमरू :-
भगवान शिव का वाद्य यंत्र डमरू ”नाद” का प्रतीक माना जाता है ।
वेदों तथा पुराणों के अनुसार भगवान शिव को संगीत का जनक माना गया है ।
नाद का अर्थ होता है ऐसी ध्वनि जो बृह्मांड में निरंतर जारी रहे जिसे ओम कहा जाता है ।
भगवान शिव दो तरह का नृत्य करते है।
तांडव नृत्य करते समय भगवान शिव के पास डमरू नहीं होता तथा जब वे डमरू बजाते हुए नृत्य करते है ।
तभी तो हर ओर आनंद को उतपन्न करता रहता होता है।
जटाएं : शिव अंतरिक्ष के देवता हैं ।
उनका नाम व्योमकेश है ।
अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है ।
जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं ।
वायु आकाश में व्याप्त रहती है।
सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है ।
इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है।
अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है ।
शिव रुद्र स्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।
भगवान शिव और भभूत या भष्म :-
भगवान शिव अपने शरीर में भष्म धारण करते है।
जो जगत के निस्सारता का बोध कराती है ।
भष्म संसार के आकर्षण, माया, बंधन, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है ।
यज्ञ के भस्म में अनेक आयुर्वेदिक गुण होते है.।
भष्म के प्रतीक के रूप में भगवान शिव यह संदेश देते है।
की पापो के कामों को छोड़ मनुष्य को सत मार्ग में ध्यान लगाना चाहिए तथा संसार के इस तनिक भर के आकर्षण से दूर रहना चाहिए।
क्योकि जगत के विनाश के समय केवल भस्म ( राख ) ही शेष रह जाती है तथा यही हाल हमारे शरीर के साथ भी होता है।
भगवान शिव को क्यों है प्रिय भांग और धतूरा :-
श्री आयर्वेद के अनुसार भांग नशीला होने के साथ अटूट एकाग्रता देने वाला भी माना गया है ।
एकाग्रता के दम पर ही मनुष्य अपना कोई भी कार्य सिद्ध कर सकता है तथा ध्यान और योग के लिए भी एकाग्रता का होना अतयधिक महत्वपूर्ण है।
इस लिए भगवान शिव को भांग और धतूरा अर्पित किया जाता है जो एकाग्रता का प्रतीक है.।
श्रीं शिवदर्शन...!
निराकार ब्रह्म शिवसे इस सृष्टि की रचना हुई और प्रथम पंचतत्व के देवता गणपति , विष्णु , सूर्य , शक्ति और रुद्रदेव की उपासना शुरू हुई ।
उपासना ओर देव अनुसार वो विविधमत के सम्प्रदाय कहलाये।
शिवपूजा ओर रुद्र उपासना के विविधमत सम्प्रदाय ।
भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं।
श्रीं महाभारत में माहेश्वरों ( शैव ) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं : -
शैव ...!
पाशुपत...!
कालदमन..!
कापालिक...!
शैवमत का मूलरूप श्री ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं।
12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए।
शिव - मन्दिरों में शिव को योगमुद्रा में दर्शाया जाता है।
भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव और शिव से संबंधित धर्म को शैवधर्म कहा जाता है।
शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है।
श्रीं ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है।
श्रीं अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा जाता है।
लिंगपूजा का पहला स्पष्ट वर्णन श्री मत्स्यपुराण में मिलता है।
श्रीं महाभारत के अनुशासन पर्व से भी लिंग पूजा का वर्णन मिलता है।
श्री वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है: -
पाशुपत
काल्पलिक
कालमुख
लिंगायत
पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है।
इसके संस्थापक लवकुलीश थे जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।
पाशुपत संप्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया है।
इस मत का सैद्धांतिक ग्रंथ श्री पाशुपत सूत्र है।
कापालिक संप्रदाय के ईष्ट देव भैरव थे ।
इस सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र 'शैल' नामक स्थान था!
कालमुख संप्रदाय के अनुयायिओं को श्री शिव पुराण में महाव्रतधर कहा जाता है।
इस संप्रदाय के लोग नर - कपाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे।
लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था।
इन्हें जंगम भी कहा जाता है ।
इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे।
श्रीं बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है ।
इस संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय भी कहा जाता था।
दसवीं शताब्दी में मत्स्येंद्रनाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय का व्यापक प्रचार प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ।
दक्षिण भारत में शैवधर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव और चोलों के समय लोकप्रिय रहा।
नायनारों संतों की संख्या 63 बताई गई है जिनमें उप्पार, तिरूज्ञान, संबंदर और सुंदर मूर्ति के नाम उल्लेखनीय है।
पल्लवकाल में शैव धर्म का प्रचार प्रसार नायनारों ने किया।
ऐलेरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने करवाया।
भारशिव नागवंशी शासकों की मुद्राओं पर शिव और नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
श्री शिव महा पुराण में शिव के दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है।
ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं : -
महाकाल।
तारा ।
भुवनेश।
षोडश ।
भैरव ।
छिन्नमस्तक गिरिजा ।
धूम्रवान ।
बगलामुखी ।
मातंग ।
कमल। ( दशमहाविद्या )।
शिव के अन्य ग्यारह अवतार हैं : -
कपाली।
पिंगल।
भीम ।
विरुपाक्ष ।
विलोहित ।
शास्ता।
अजपाद ।
आपिर्बुध्य।
शम्भ।
चण्ड।
भव।
शैव ग्रंथ इस प्रकार हैं : -
श्वेताश्वतरा उपनिषद।
शिव पुराण।
आगम ग्रंथ।
तिरुमुराई।
शैव तीर्थ इस प्रकार हैं : -
बनारस ।
केदारनाथ ।
सोमनाथ ।
रामेश्वरम।
चिदम्बरम।
अमरनाथ।
कैलाश मानसरोवर।
शैव सम्प्रदाय के संस्कार इस प्रकार हैं : -
शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं।
इसके संन्यासी जटा रखते हैं।
इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते।
इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं।
इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं।
यह निर्वस्त्र भी रहते हैं, और भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं।
शैव चंद्र पर आधारित व्रत उपवास करते हैं।
शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है।
शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं जहां सिर्फ शिवलिंग होता है।
यह भभूति तीलक आड़ा लगाते हैं।
शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, औघड़, योगी, सिद्ध कहा जाता है।
प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः ।
मन्त्रमूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः ॥
भावार्थ : -
कोई पुरुष दान देकर प्रिय होता है, कोई मीठा बोलकर प्रिय होता है।
कोई अपनी बुद्धिमानी से प्रिय होता है; लेकिन जो वास्तव में प्रिय होता है ।
वह बिना प्रयास के प्रिय होता है।
आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर महादेव की सदैव कृपा हो यही प्रार्थना है।
!!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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