हथेली दर्शन का विधान : / वृन्दावन की माटी / 🕉 मेरे विट्ठल / समय बहुत बलवान होता है :
हथेली दर्शन का विधान :
हमारे ऋषि - मुनियों ने सदियों से सुबह उठकर हथेली दर्शन का विधान बताया है...!
मान्यता है कि हमारे हाथों में देवी-देवताओं का निवास होता है।
सुबह उठकर हथेली दर्शन करने से इन देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है और व्यक्ति के जीवन में सुख-समृद्धि आती है।
शास्त्रों के अनुसार, हाथों में कई तीर्थ भी होते हैं, जिनका दर्शन करने से पापों का नाश होता है।
हथेली दर्शन करने से व्यक्ति की ग्रह दशा सुधरती है, मन शांत होता है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
इस प्रकार, यह एक सरल सा साधन है जिसके माध्यम से हम अपने जीवन को सकारात्मक बना सकते हैं।
इसके लिए आपको सुबह उठकर बस अपने हाथों का दर्शन करना होता है और उसके साथ कुछ खास नियमों का पालन करते हुए मंत्र का जाप करना होता है।
आइए इस लेख में इसके बारे में विस्तार से जानते हैं।
क्या है मंत्र?
माना जाता है कि जब हम सुबह उठकर तुरंत अपनी दोनों हथेली को एक साथ मिलाकर पुस्तक की तरह खोल लें और उसका दर्शन करें, और साथ में इस मंत्र का जाप करते हैं तो पूरा दिन अच्छा जाता है।
कराग्रे बसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥
यह श्लोक हमारे हाथों के अग्रभाग में माता लक्ष्मी, मध्य भाग में माता सरस्वती और मूल भाग में भगवान विष्णु के निवास होने का वर्णन करता है।
सुबह उठकर इनका दर्शन करने का अर्थ है कि हम इन देवताओं को प्रणाम कर रहे हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। यह श्लोक हमें धन, विद्या और भगवत कृपा प्राप्त करने की कामना करता है।
अर्थात
यह श्लोक हमारे जीवन में धन, विद्या और आध्यात्मिक उन्नति की कामना करता है।
सुबह उठकर इस श्लोक का जाप करने से व्यक्ति सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है और उसके सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
कर्म की भावना है निहित
हथेली दर्शन का मूल भाव सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं है,बल्कि यह हमारे जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है।
जब हम अपनी हथेलियों को देखते हैं, तो हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हम ऐसे कर्म करें जिनसे हमें धन,सुख और ज्ञान प्राप्त हो।यह हमें अपने कर्मों पर विश्वास करने और सदाचार का पालन करने के लिए प्रेरित करता है।
साथ ही,यह हमें दूसरों की सेवा करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है।
हथेली दर्शन का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह हमें भगवत चिंतन की ओर ले जाता है।
जब हम अपने हाथों को देखते हैं,तो हम समझते हैं कि हमारे सभी कार्य हमारे हाथों से ही होते हैं।
यह हमें पराश्रित न रहकर अपनी मेहनत से जीविका कमाने के लिए प्रेरित करता है।
जब हम विश्वास के साथ अपने हाथों को देखते हैं,तो हमें यह विश्वास हो जाता है कि हमारे शुभ कर्मों में देवता भी हमारा साथ देंगे।
यह हमें अपने कर्मों के प्रति जागरूक बनाता है और हमें सफलता की ओर अग्रसर करता है..!!
नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरं
नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम्।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं
महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम्।।
जो प्रणत न होने वाले - उद्दण्ड मनुष्यों के लिए भयंकर हैं; नवोदित सूर्य के समान अरुण प्रभा से उद्भासित हैं..!
दैत्य और देवता - सभी जिनके चरणों में शीश झुकाते हैं...!
जो प्रणत भक्तों का भीषण आपत्तियों से उद्धार करने वाले हैं, उन सुरेश्वर, निधियों के अधिपति, गजेन्द्र शासक, महेश्वर, परात्पर गणेश्वर का मैं निरन्तर आश्रय ग्रहण करता हूं।'
|| " वृन्दावन की माटी " ||
शोभा नाम की औरत जिसकी बहन वृंदावन में रहती थी।
एक दिन वह उसको मिलने के लिए वृंदावन गई।
शोभा जो कि काफी पैसे वाली औरत थी लेकिन उसकी बहन कीर्ति जो कि वृंदावन में रहती थी ज्यादा पैसे वाली नहीं थी लेकिन दिल की वह बहुत अच्छी थी या यह कह सकते हैं कि दिल कि वह बहुत अमीर थी।
उसका पति मिट्टी के घड़े बनाने का काम करता था।
शोभा काफी सालों बाद अपनी बहन को मिलकर बहुत खुश हुई।
लेकिन उसमें थोड़ा सा अपने पैसे को लेकर घमंड भी था वो कीर्ति के घर हर छोटी बात पर उसकी चीजों के में से नुक्स निकालती रहती थी लेकिन कीर्ति जो थी उसको कुछ ना कह कर बस यही कह देती जो बिहारी जी की इच्छा।
लेकिन शोभा हर बात में उस को नीचा दिखाने की कोशिश करती।
कीर्ति ने अपनी तरफ से अपनी बहन की आवभगत में कोई कमी ना छोड़ी उसने अपनी बहन का पूरा ख्याल रखा उसने उसको वृंदावन के सारे मंदिर के दर्शन करवाए और उनकी महिमा के बारे में बताया शोभा यह दर्शन करके खुश तो हुई और उसने महिमा भी सुनी...!
लेकिन उसका इन चीजों में इतना ध्यान नहीं था बस दर्शन करके वापस आ गई।
उसको वृंदावन में रहते हुए काफी दिन हों गए।
एक दिन वह अपनी बहन से बोली कि कीर्ति अब बहुत दिन हो गए तेरे घर को रहते हुए अब मुझे अपने घर को जाना चाहिए तो कीर्ति थोड़ी सी उदास हो गई और बोली बहन कुछ दिन और रुक जाओ।
लेकिन शोभा बोली नहीं काफी दिन हो गए मुझे आए हुए घर में मेरा पति और बच्चे अकेले हैं उनको सास के सहारे छोड़ कर आई हूँ अब मैं फिर कभी आऊंगी।
जब शोभा वापिस जाने लगी की कीर्ति जो कि शोभा की बड़ी बहन थी तो उसने अपनी छोटी बहन को उपहार स्वरूप मिट्टी का घड़ा दिया।
घड़े को देखकर शोभा हैरान सी हो गई और मन में सोचने लगी क्या कोई उपहार में भी घड़ा देता है..!
लेकिन कीर्ति के बार - बार आग्रह करने पर उसने अनमने से घड़ा ले लिया।
जब शोभा जाने लगी तो कीर्ति की आँखों में आँसू थे लेकिन शोभा उससे नजरें चुराती हुई जल्दी - जल्दी वहाँ से चली गई।
सारे रास्ते शोभा यही सोचती रही कि मैं घर जाकर अपनी सास और पति को क्या बताऊँगी कि मेरी बड़ी बहन ने मुझे घड़ा उपहार के रूप में दिया है तो उसको इस बात से बहुत लज्जा आ रही थी ।
तो उसने सोचा कि मैं घर में जाकर झूठ बोल दूँगी कि घड़ा मै खरीद कर लाई हूँ मुझे तो मेरी बहन ने काफी कुछ दिया है।
इसी तरह सोचती सोचती मैं घर पहुँची और उसने घर जाकर घड़ा अपनी रसोई के ऊपर रख दिया।
उसको मन में बहुत ही गुस्सा आ रहा था कि मेरी बहन क्या इस लायक भी नहीं थी छोटी बहन को कुछ पैसे उपहार में दे सके।
एक घड़ा सा पकड़ा दिया है।
अब उसको अपने घर आए काफी दिन हो गए।
गर्मियों के दिन थे तभी उसके गाँव में पानी की बहुत दिक्कत आने लगी कुएँ में नदियों में पानी सूख गया उसके गाँव के लोग दूर - दूर से पानी भर कर लाते थे पैसे होने के बावजूद भी शोभा को पानी के लिए बहुत दिक्कत हो रही थी।
एक दिन शोभा बहुत दूर जाकर उनसे पानी भर रही थी वहाँ पर और भी औरतें पानी भरने के लिए आई हुई थी तो जल्दी पानी भरने की होड़ में धक्का - मुक्की में शोभा का घड़ा टूट गया।
शोभा दूसरी औरतों पर चिल्लाने लगी यह आपने क्या किया बड़ी मुश्किल से तो मैंने पानी भरा था आप लोगों ने धक्का - मुक्की करके मेरा घडा तोड़ दिया है।
अब वह उदास मन से घर को आई अब उसके पास कोई और दूसरा बर्तन भी नहीं था पानी भरने के लिए....!
तभी अचानक उसको अपनी बहन के दिए हुए घडे की याद आई तो उसने रसोई के ऊपर से घड़ा उतारा और फिर चल पड़ी बड़ी दूर पानी भरने के लिए जब कुएँ पर पहुँची।
अभी भीड़ कम हो चुकी थी।
वह घड़े में पानी भरकर घर लाई।
तभी उसका पति खेतों से वापस आया गर्मी अधिक होने के कारण वह गर्मी से बेहाल हो रहा था और आकर कहता शोभा क्या घर में पानी है।
क्या एक गिलास पानी मिलेगा तो शोभा ने कहा हाँ मैं अभी भरकर लाई हूँ।
तभी उसने उस घड़े में से एक गिलास पानी भरकर अपने को पति को दिया गले में से पानी उतरते ही उसका पति एकदम से उठ खड़ा हुआ और बोला यह पानी तुम कहाँ से लाई हो तो शोभा एकदम से डर गई कि शायद मुझसे कोई भूल हो गई है तो उसने कहा, क्यों क्या हुआ ?
तो उसने कहा यह पानी नहीं यह तो अमृत लग रहा है।
इतना मीठा पानी तो आज तक मैंने नहीं पिया।
यह तो कुएँ का पानी लग ही नहीं रहा यह तो लग रहा है किसी मंदिर का अमृत है।
तो शोभा बोली मैं तो कुएँ से ही भरकर लाई हूँ।
यह देखो घड़ा भरा हुआ उसके पति ने कहा यह घडा तुम कहाँ से लाई थी उसने कहा जब मैं वृंदावन से वापस आ रही थी तो मेरी बहन ने मुझे दिया था यह सुनकर उसका पति चुप हो गया।
अब शोभा का पति बोला कि मैं थोड़ी देर के लिए बाहर जा रहा हूँ तब तक तुम भोजन तैयार करो।
तो शोभा ने उसे घड़े के जल से दाल चावल बनाये घड़े के पानी से दाल चावल बनाने से उसकी खुशबू पूरे गाँव में फैल गई गाँव के सब लोग सोचने लगे कि आज गाँव में कहाँ उत्सव है...!
जो इतनी अच्छी खाने की खुशबू आ रही है....!
सब लोग एक एक करके खुशबू को सूँघते हुए शोभा के घर तक आ पहुँचे साथ में उसका पति भी था....!
तो उसने आकर पूछा कि आज तुमने खाने में क्या बनाया है...!
तो उसने कहा कि मैंने तो दाल और चावल बनाए हैं....!
तो सब लोग हैरान हो गए की दाल चावल की इतनी अच्छी खुशबू।
सब लोग शोभा का मुँह देखने लगे कि आज तो हम भी तेरे घर से दाल चावल खा कर जायेंगे।
उसने किसी को मना नहीं किया और थोड़ी थोड़ी दाल चावल सब को दिए।
दाल चावल खाकर सब लोग उसको कहने लगे यह दाल चावल नहीं ऐसे लग रहा है...!
कि हम लोग अमृत चख रहे हैं ।
तो शोभा के पति ने कहा कि तुमने आज दाल चावल कैसे बनाये।
उसने कहा कि....!
मैंने तो यह घड़े के जल से ही दाल चावल बनाए हैं।
शोभा का पति बोला तेरी बहन ने तो बहुत अच्छा उपहार दिया है....!
अगले दिन जब शोभा घड़ा भरनेें के लिए जाने जाने लगी तो उसने देखा घड़ा तो पहले से ही भरा हुआ है उसका जल वैसे का वैसा है जितना वो कल लाई थी....!
उसने उसमें से खाना भी बनाया था जल भी पिया था....!
लेकिन घड़ा फिर भरा का भरा था।
शोभा एकदम से हैरान हो गई यह कैसे हो गया।
तभी अचानक से उसी दिन उसकी बहन कीर्ति थी.....!
उसको मिलने के लिए उसके घर आई तो शोभा अपनी बहन को देख कर बहुत खुश हुई।
उसको गले मिली और उस को पानी पिलाया तो उसने अपनी बहन को कहा कि.....!
दीदी यह जो तूने मुझे घड़ा दिया था....!
यह तो बहुत ही चमत्कारी घड़ा है....!
मैंने तो तुच्छ समझ कर रसोई के ऊपर रख दिया था....!
लेकिन कल से जब से यह मैं इस में जल भरा हुआ है...!
तब से जल से भरा हुआ है...!
इसका जल इतना मीठा है और इस के जल से मैंने दाल और चावल बनाए...!
जो कि अमृत के समान बने थे।
उसकी बहन बोली,...!
अरी !
ओ मेरी भोली बहन क्या तू नहीं जानती कि यह घड़ा ब्रज की रज यानी वृंदावन की माटी से बना है....!
जिस पर साक्षात किशोरी जू और ठाकुर जी नंगे पांव चलते हैं....!
उसी रज से यह घड़ा बना है....!
यह घड़ा नहीं साक्षात किशोरी जी और ठाकुर जी के चरण तुम्हारे घर पड़े हैं।
किशोरी जी और ठाकुर जी का ही स्वरूप तुम्हारे घर आया है।
यह सुनकर उसकी बहन अपने आप को कोसती हुई और शर्मिंदा होती हुई....!
अपनी बहन के कदमों में गिर पड़ी और बोली मुझे क्षमा कर दो....!
जो मैं वृंदावन की रज ( माटी ) की महिमा को न जान सकी।
जिसकी माटी में इतनी शक्ति है तो उस बांके बिहारी और लाडली जू मे कितनी शक्ति होगी।
मैं अज्ञानी मूर्ख ना जान सकी।
मुझे ब्रज की रज की महिमा और उसकी महत्वता का नहीं पता था।
मुझे क्षमा कर दो तो उसकी बहन उसको उठाकर गले लगाती हुई बोली....!
की बहन किशोरी जी और ठाकुर जी बहुत ही करुणा अवतार है....!
तुम्हारे ऊपर उनकी कृपा थी.....!
जो इस घड़े के रूप में इस रज के रूप में तुम्हारे घर पधारे।
शोभा बोली बहन तुम्हारे ही कारण मैं धन्य हो उठी हूँ।
तुम्हारा लाख - लाख धन्यवाद।
यह कहकर दोनों बहने आँखों में आँसू भर कर एक दूसरे के गले लग कर रोने लगीं।
नमो नमोऽविशेषस्त्वं त्वं ब्रह्मा त्वं पिनाकधृक्
इन्द्रस्त्वमग्नि: पवनो वरुण: सविता यम:।
वसवो मरुत: साध्या विश्वेदेवगणा: भवान्
योऽयं तवाग्रतो देव समीपं देवतागण:।।
हे प्रभो!
( हे भगवान् विष्णु! )
आपको नमस्कार है, नमस्कार है।
आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि,पवन, वरुण, सूर्य और यमराज हैं।
हे देव!
वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके सम्मुख यह जो देव समुदाय है, हे जगत्स्ष्टा!
वह भी आप ही हैं क्योंकि आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं।'आपको प्रणाम है।
(( 🕉 मेरे विट्ठल ))
कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा-
भगत जी!
आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।
आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं।
शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।
भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया-
देखता हूँ जैसी विठ्ठल जी की कृपा।
अगर कोई अच्छा मूल्य मिला,
तो निश्चय ही घर में आज धन - धान्य आ जायेगा।
पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले,...!
तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना।
घर के बड़े - बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे।
पर बच्चे अभी छोटे हैं,...!
उनके लिए तो कुछ ले ही आना।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट - बाजार को चले गए।
बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा-
वाह मेरा कृष्णा!
कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है।
तेरा परिवार बसता रहे।
ये गरीब ठंड में कांप - कांप कर मर जाएगा।
दया के घर में आ और भगवान के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस गरीब की झोली में डाल दे।
भक्त नामदेव जी-
दो चादरों में कितना कपड़ा लगेगा जी?
भिखारी ने जितना कपड़ा मांगा...!
संयोग से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।
और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस भिखारी को दान कर दिया।
दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे।
फिर पत्नि की कही बात...!
कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है।
दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।
अब दाम तो क्या...!
थान भी दान जा चुका था।
भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।
जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है,..!
तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरि विठ्ठल के भजन में लीन गए।
अब भगवान कहां रुकने वाले थे।
भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।
अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?
नामदेव का घर यही है ना?
भगवान जी ने पूछा।
अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये....!
भगवान सोचने लगे कि धन्य है....!
नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञासा हैl
भगवान बोले दरवाजा खोलिये
लेकिन आप हैं कौन?
भगवान जी ने कहा-
सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?
जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक....!
वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl
ये राशन का सामान रखवा लो।
पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।
फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ,
कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।
इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है?
मुझे नहीं लगता।
पत्नी ने पूछा।
भगवान जी ने कहा-
हाँ भगतानी!
आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।
जगह और बताओ।
सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।
शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।
समान रखवाते -रखवाते पत्नि थक चुकी थीं।
बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे।
वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।
कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर - भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।
उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।
भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे...!
पर सामान आना लगातार जारी था।
आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा-
सेवक जी!
अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।
हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।
भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन - सिमरन कर रहे हैं।
अब परिजन नामदेव जी को देखने गये...!
सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे...!
जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।
इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहते...!
उनकी पत्नी बोल पड़ीं-
कुछ पैसे बचा लेने थे।
अगर थान अच्छे भाव बिक गया था...!
तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?
भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए।
फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया...!
कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।
पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था।
पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।
उन्सें विनती कर के रुकवाया-
बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।
भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- !
वो सरकार है ही ऐसी।
जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।
उसकी दया कभी भी खत्म नहीं होती।
वह सच्ची सरकार की तरह सदा विघमान रहती है..!!
|| समय बहुत बलवान होता है ||
शिखण्डी से भीष्म को मात दिला सकता है !
कर्ण के रथ को फंसा सकता है !
द्रौपदी का चीरहरण करा सकता है !
इस लिये किसी से डरना है तो वह है समय !
महाभारत में एक प्रसंग आता है जब धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में पहुँचकर कहा-
हे राजन !
मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है मैं द्यूत विद्या में निपुण आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।
द्यूत जुआ वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार गए थे अब कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को सिखाने लगे।
जिस बाहुबली के लिये रसोइये भोजन परोसते थे वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर रसोइया बन गये ;
नकुल और सहदेव पशुओं की देखरेख करने लगे ;
दासियों से घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी स्वयं एक दासी सैरन्ध्री बन गयी और धनुर्धर उस युग का सबसे आकर्षक युवक, वह महाबली योद्धा द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य ;
जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही युद्ध का निर्णय हो जाता था वह अर्जुन पौरुष का प्रतीक महानायक अर्जुन एक नपुंसक बन गया।
उस युग में पौरुष को परिभाषित करने वाला अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली और आंखों में काजल लगा कर बृह्नलला बन गया।
परिवार पर एक विपदा आयी तो धर्मराज अपने परिवार को बचाने हेतु कंक बन गया।
पौरुष का प्रतीक एक नपुंसक बन गया एक महाबली साधारण रसोईया बन गया नकुल और सहदेव पशुओं की देख रेख करते रहे ;
और द्रौपदी एक दासी की तरह महारानी की सेवा करती रही।
पांडवों के लिये वह अज्ञातवास का काल उनके लिये अपने परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।
वह जिस रूप में रहे जो अपमान सहा....!
जिस कठिन दौर से गुज़रे उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था अपितु परिस्थितियों को देखते हुये परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने का काल था !
आज भी अज्ञातवास जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा हैं कोई धन्ना सेठ की नौकरी करते उससे बेवजह गाली खा रहा है क्योंकि उसे अपनी बिटिया की स्कूल फीस भरनी है।
बेटी के ब्याह के लिये पैसे इकट्ठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर दर धक्के खा कर सामान बेचता दिखाई देता है।
ऐसे असंख्य पुरुष निरंतर संघर्ष से हर दिन अपना सुख दुःख छोड़ कर अपने परिवार के अस्तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं।
रोज़मर्रा के जीवन में किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू हों तो उसका आदर कीजिये उसका सम्मान करें।
फैक्ट्री के बाहर खड़ा गार्ड होटल में रोटी परोसता वेटर सेठ की गालियां खाता मुनीम वास्तव में कंक , बल्लभ और बृह्नला ही है।
क्योंकि कोई भी अपनी मर्ज़ी से संघर्ष या पीड़ा नही चुनता वे सब यहाँ कर्म करते हैं वे अज्ञात वास जी रहे हैं......!
परंतु वो अपमान के भागी नहीं बल्कि प्रशंसा के पात्र हैं यह उनकी हिम्मत,ताकत और उनका समर्पण है कि विपरीत परिस्थितियों में भी वह डटे हुये हैं।
वो कमजोर नहीं हैं उनके हालात कमज़ोर हैं उनका वक्त कमज़ोर है।
अज्ञातवास के बाद बृह्नला जब पुनः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों के नाश कर दिया।
वक्त बदलते वक्त नहीं लगता इस लिये जिसका वक्त खराब चल रहा हो,उसका उपहास और अनादर ना करें उसका सम्मान करें,उसका साथ दें....!
क्योंकि एक दिन संघर्ष शील कर्मठ ईमानदारी से प्रयास करने वालों का अज्ञातवास अवश्य समाप्त होगा।
समय का चक्र घूमेगा और इतिहास बृह्नला को भूलकर अर्जुन को याद रखेगा।
यही नियति है ;
यही समय का चक्र है।
यही महाभारत की भी सीख है!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
🙏🏾🙏🏿🙏🏼जय श्री कृष्ण🙏🙏🏻🙏🏽