सखियों के श्याम , तुलसीदास और श्री राम मिलन..!
श्रीहरिः
सखियों के श्याम
(अकथ कथा)
'इला कहाँ है काकी! दो दिनसे नहीं देखा उसे, रुग्ण है क्या ?'
'ऊपर अटारी में सोयी है बेटी!
जाने कहाँ भयो है, न पहले सी खावे — खेले, न बतरावै।
तू ही जाकर पूछ लाली।
मुझे तो कुछ बताती ही नहीं।'
मैंने लेटे - लेटे ही मैया और श्रियाकी बात सुनी।
श्रिया मेरी एक मात्र बाल सखी है।
यों तो मैया - बाबा की एकलौती संतान होनेके कारण अकेली ही खेलने - खानेकी आदी रही हूँ, किंतु श्रियाको मेरा और मुझे उसका साथ प्रिय लगता है।
eSplanade - Latón Radha Krishna - Tamaño grande - Escultura de estatua de ídolo de Radha de latón (21 pulgadas) (21 pulgadas) (color Radha Krishna)
यदि एक - दो दिन भी हम आपसमें न मिले, तो उसे जाने कितनी असुविधा होने लगती है कि साँझ - सबेरा कुछ नहीं देखती, भाग आती है घरसे मेरे पास।
सीढ़ियाँ चढ़कर वह मेरे पास आयी और पलंगपर ही बैठ गयी।
मेरी पीठपर हाथ धरकर बोली- 'क्या हुआ तुझे ?
ज्वर है क्या ?'
हाथ और ललाट छूकर बोली — 'नहीं ज्वर तो नहीं है, फिर क्या बात है ?
लेटी क्यों है भला तू ?
यमुनातट, टेढ़ा - तमाल, वंशीवट सभी स्थान देख लियो!
कितने दिनसे नहीं मिली तू?
अरे जानती है; कल जल भर ने को कलशी लेकर माधवी जलमें उतरी तो पता नहीं कहाँसे आकर श्यामसुन्दरने भीतर – ही – भीतर उसका पाँव खींच लिया।
वह 'अरी मैया' कहती डूबकी खा गयी।
हम सब घबरायीं, यों कैसे डूब गयी माधवी ?
तभी श्यामसुन्दर उसे उठाये हुए बाहर निकले, उसकी कलशी लहरों पर नृत्य करती दूर - दूर होती चली गयी ।
ए, इला!
तू बोलती क्यों नहीं ?'
उसकी बकर – बकर से ऊबकर मैंने पीठ फेर ली, पर माधवी के सौभाग्य ने हृदय से गहरी कराह उठा दी, लाख दबा ने पर भी हलका - सा स्वर मुख से बाहर निकल ही पड़ा।
'क्या है कहीं पीड़ा है ?' –
श्रियाने पूछा।
मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया।
'तब क्यों सोई है ?
उठ चल, टेढ़ा तमाल चले।'
मैं चुप रही।
'ए इला! बोलती क्यों नहीं?
मुझे नहीं बतायेगी मन की बात ?'
मैं चुप थी, कैसे क्या कहूँ।
कैसे किन शब्दोंमें समझाऊँ कि — 'मेरा बचपन मुझसे बरबस छीन लिया गया है।
उसकी ठौर जिस दस्युने बलात् अधिकृत कर ली है, उससे मैं भयभीत हूँ।
कौन मानेगा कि सदाकी निर्द्वन्द – निर्भय – निरपेक्ष इला इस आंधी तूफान जैसे दस्युसे भयभीत हो गयी है।
आह मेरा सोने जड़ा वह बचपन जाने किस दिशामें ठेल दिया गया।
उसीके साथ मेरा सर्वस्व चला गया....!
सब कुछ लूट गया मेरा।'
पुनः गहरी निश्वास छूट गयी।
ए इला! कुछ तो बोल।
देख न कैसी हो गयी है तू ?
सोने जैसा तेरा रंग कैसा काला काला हो गया री ?"
एका एक उसके मनमें मान जागा बोली—'
पर क्यों कुछ कहेगी मुझसे मैं लगती क्या हूँ तेरी ?
यह तो मैं ही बावरी हूँ कि भीतरकी एक - एक पर्त खोलकर दिखा देती हूँ तुझे।
यदि परायी न समझती तो क्या स्वयं नहीं दौड़ी आती मेरे पास अपना हृदय - रहस्य सुनाने ?
चलो आज ज्ञात हो गया है कि मैं तेरी कितनी अपनी हूँ।'
वह व्यथित हो जाने को उठने लगी।
मैंने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया, किंतु कहनेको कुछ नहीं सुझा, केवल आँखें झरने लगी।
यह देख श्रिया मुझसे लिपट गयी-
'जाने भी नहीं देगी और कुछ कहेगी भी नहीं?
मैं पाहन हूँ क्या कि यों तुझे रोती देखती बैठी रहूँ?
उसने भरे कंठसे कहा और अपनी ओढ़नीके आँचलसे मेरे आँसु पोंछते हुए बोली –
‘पहले कुछ खा ले, अन्यथा निश्चित जान ले कि मैं भी अन्न - जल त्याग दूंगी।'
वह मेरा हाथ छुड़ाकर नीचे गयी और भोजन सामग्री लाकर मेरे सम्मुख रख दी- 'चल उठ थोड़ा खा ले नहीं तो....!'
वाक्य अधूरा छोड़ उसने कौर मेरे मुखमें दिया —
'तेरे संग खानेकी साध लिये आयी थी, अभी तक मैंने भी कुछ नहीं खाया है।
जो तू न खाये तो क्या मेरे गले उतरेगा कुछ ?'
आँसुओंकी बरसात के मध्य जैसे - तैसे उसका मन रखने को मैंने कौर निगल लिया और उसे खानेका संकेत किया।
'कैसे खाऊँ ?
तेरे आँसू तो मेरी भूखको भगाये देत है।
अरी तू तनिक धैर्य धरे तो मेरा भी खानेका मन बने न !'
ज्यों - त्यों थोड़ा बहुत दोनोंने खाया, हाथ - मुँह धो बर्तन यथास्थान रखकर उसने कहा —
'चल मेरे साथ।'
मैंने केवल दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखा और चुपचाप साथ चल दी।
यमुना तटपर इस समय कोई नहीं था, घाटकी कुछ सीढ़ियाँ उतरकर उसने मुझे बैठा दिया और एक सीढ़ी नीचे उतरकर वह स्वयं भी अपने दोनों हाथ मेरी गोदमें धरकर बैठ गयी।
मेरे हाथ पकड़ उसने मेरी ओर देखा, उस दृष्टिका सामना न कर पाकर मैंने पलकें झुका लीं।
भगवान् आदित्य देवी प्रतीचीकी ओर देख मुस्करा दिये और वे महाभागा अपना लज्जारुण मुख झुकाकर भवन द्वारमें नीराजन थाल उठाये ठिठकी रह गयी थी।
चारों ओरकी वृक्षावलियोंपर पक्षी चहचहा रहे थे।
कालिन्दी धीमी मन्थर गतिसे बह रही थी शीतल समीर प्रवहमान था, सौन्दर्य सुषमाका अपार वैभव चारों ओर पसरा हुआ था; किंतु यह सब मेरे लिये तनिक भी सुखप्रद नहीं थे।
जी करता था उठ जाऊँ यहाँसे यमुना जल और गगन- दोनों ही की ओर दृष्टि जाते ही प्राण हाहाकार कर उठते थे।
भीतर ऐसी टीस उठती कि कहते नहीं बनता।
पलकें झुकाये मैं बैठी रही।
'न बोलनकी सौगन्ध खा रखी है?'–
उसने पूछा।
मैंने आँसू भरी आँखोंसे उसकी ओर देखते हुए 'नहीं' में सिर हिला दिया।
'तब मैं सुनने योग्य नहीं ?'–
उसने भरे कंठसे कहा।
उसकी पलकों पर ओसकण - सी बूंदे तैर उठीं।
मैंने असंयत हो उसे बाँहों में भर लिया, किसी प्रकार मुखसे निकला — 'क्या कहूँ ?'
'मेरी इलाको हुआ क्या है ?'
'तुझे मैं 'इला' दिखायी देती हूँ!'-
मेरे नेत्र टपकने लगे।
'ऐसा क्यों कहती है सखी ?
'इला' नहीं तो फिर तू कौन है भला?"
'तेरी 'इला' की हत्यारी हूँ मैं?
मैंने ही 'इला' को मारा है।'
'क्या कहती है ?
भला ऐसी बातमें क्या तुक है।
तू कौन है कह तो ?'
'कौन हूँ यह तो नहीं जानती। पर 'इला' मर गयी बहिन!
तू मुझसे घृणा कर —
धिक्कार मुझे!'
'अहा, सचमुच तुझे मारनेको जी करता है।
क्या हुआ, कैसे हुआ; कुछ कहेगी भी कि यों ही बिना सिर-पैरकी बातें करती जायेगी ?"
'तेरी 'इला' क्या मेरे ही जैसी थी ?'
'चेहरा मोहरा तो वही लगता है, पर यह चुप्पी — गम्भीरता उसकी नहीं लगती।
वह तो महा - चुलबुली और हँसने - हँसानेवाली थी।
तू तो दुबली पतली हो गयी है, पहले कैसी मोटी, सदा वस्त्राभूषणोंसे लदी - सजी रहती थी।
एक तू ही तो श्याम सुन्दर से धींगा - मस्ती कर सकती थी।
ऐसी कैसे हो गयी री तू ?
बस यही बता दे मुझे।'
जय श्री राधे....
तुलसीदास और श्री राम मिलन :
काशी में एक जगह पर तुलसीदास रोज रामचरित मानस को गाते थे वो जगह थी अस्सीघाट।
उनकी कथा को बहुत सारे भक्त सुनने आते थे।
लेकिन एक बार गोस्वामी प्रातःकाल शौच करके आ रहे थे तो कोई एक प्रेत से इनका मिलन हुआ।
उस प्रेत ने प्रसन्न होकर गोस्वामीजी को कहा कि मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ।
आपने जो शौच के बचे हुए जल से जो सींचन किया है मैं तृप्त हुआ हूँ।
मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ।
गोस्वामीजी बोले –
भैया, हमारे मन तो केवल एक ही चाह है कि ठाकुर जी का दर्शन हमें हो जाए।
राम की कथा तो हमने लिख दी है, गा दी है।
पर दर्शन अभी तक साक्षात् नहीं हुआ है।
ह्रदय में तो होता है पर साक्षात् नहीं होता।
यदि दर्शन हो जाए तो बस बड़ी कृपा होगी।
उस प्रेत ने कहा कि महाराज!
मैं यदि दर्शन करवा सकता तो मैं अब तक मुक्त न हो जाता?
मैं खुद प्रेत योनि में पड़ा हुआ हूँ, अगर इतनी ताकत मुझमें होती कि मैं आपको दर्शन करवा देता तो मैं तो मुक्त हो गया होता अब तक।
तुलसीदास जी बोले –
फिर भैया हमको कुछ नहीं चाहिए।
तो उस प्रेत ने कहा –
सुनिए महाराज! मैं आपको दर्शन तो नहीं करवा सकता लेकिन दर्शन कैसे होंगे उसका रास्ता आपको बता सकता हूँ।
तुलसीदास जी बोले कि बताइये।
बोले आप जहाँ पर कथा कहते हो, बहुत सारे भक्त सुनने आते हैं, अब आपको तो मालूम नहीं लेकिन मैं जानता हूँ आपकी कथा में रोज हनुमानजी भी सुनने आते हैं।
मुझे मालूम है हनुमानजी रोज आते हैं।
बोले कहाँ बैठते हैं?
बताया कि सबसे पीछे कम्बल ओढ़कर, एक दीन हीन एक कोढ़ी के स्वरूप में व्यक्ति बैठता है और जहाँ जूट चप्पल लोग उतारते हैं वहां पर बैठते हैं।
उनके पैर पकड़ लेना वो हनुमान जी ही हैं।
गोस्वामीजी बड़े खुश हुए हैं।
आज जब कथा हुई है गोस्वामीजी की नजर उसी व्यक्ति पर है कि वो कब आएंगे?
और जैसे ही वो व्यक्ति आकर बैठे पीछे, तो गोस्वामीजी आज अपने आसन से कूद पड़े हैं और दौड़ पड़े।
जाकर चरणों में गिर गए हैं।
वो व्यक्ति बोला कि महाराज आप व्यासपीठ पर हो और मेरे चरण पकड़ रहे हो।
मैं एक दीन हीन कोढ़ी व्यक्ति हूँ।
मुझे तो न कोई प्रणाम करता है और न कोई स्पर्श करता है।
आप व्यासपीठ छोड़कर मुझे प्रणाम कर रहे हो?
गोस्वामीजी बोले कि महाराज आप सबसे छुप सकते हो मुझसे नहीं छुप सकते हो।
अब आपके चरण मैं तब तक नहीं छोडूंगा जब तक आप राम से नहीं मिलवाओगे।
जो ऐसा कहा तो हनुमानजी अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए।
आज तुलसीदास जी ने कहा कि कृपा करके मुझे राम से मिलवा दो।
अब और कोई अभिलाषा नहीं बची।
राम जी का साक्षात्कार हो जाए हनुमानजी, आप तो राम जी से मिलवा सकते हो।
अगर आप नहीं मिलवाओगे तो कौन मिलवायेगा?
हनुमानजी बोले कि आपको रामजी जरूर मिलेंगे और मैं मिलवाऊँगा लेकिन उसके लिए आपको चित्रकूट चलना पड़ेगा, वहाँ आपको भगवन मिलेंगे।
गोस्वामीजी चित्रकूट गए हैं। मन्दाकिनी जी में स्नान किया, कामदगिरि की परिकम्मा लगाई।
अब घूम रहे हैं कहाँ मिलेंगे?
कहाँ मिलेंगे?
सामने से घोड़े पर सवार होकर दो सुकुमार राजकुमार आये।
एक गौर वर्ण और एक श्याम वर्ण और गोस्वमीजी इधर से निकल रहे हैं।
उन्होंने पूछा कि हमको रास्ता बता तो हम भटक रहे हैं।
गोस्वामीजी ने रास्ता बताया कि बेटा इधर से निकल जाओ और वो निकल गए।
अब गोस्वामीजी पागलों की तरह खोजते हुए घूम रहे हैं कब मिलेंगे?
कब मिलेंगे?
हनुमानजी प्रकट हुए और बोले कि मिले?
गोस्वामीजी बोले – कहाँ मिले?
हनुमानजी ने सिर पकड़ लिया और बोले अरे अभी मिले तो थे।
जो घोड़े पर सवार राजकुमार थे वो ही तो थे।
आपसे ही तो रास्ता पूछा और कहते हो मिले नहीं।
चूक गए और ये गलती हम सब करते हैं।
न जाने कितनी बार भगवान हमारे सामने आये होंगे और हम पहचान नहीं पाए।
कितनी बार वो सामने खड़े हो जाते हैं हम पहचान नहीं पाते।
न जाने वो किस रूप में आ जाये।
गोस्वामीजी कहते हैं हनुमानजी आज बहुत बड़ी गलती हो गई।
फिर कृपा करवाओ।
फिर मिलवाओ।
हनुमानजी बोले कि थोड़ा धैर्य रखो।
एक बार और फिर मिलेंगे।
गोस्वामीजी बैठे हैं।
मन्दाकिनी के तट पर स्नान करके बैठे हैं।
स्नान करके घाट पर चन्दन घिस रहे हैं।
मगन हैं और गा रहे हैं।
श्री राम जय राम जय जय राम।
ह्रदय में एक ही लग्न है कि भगवान कब आएंगे।
और ठाकुर जी एक बार फिर से कृपा करते हैं।
ठाकुर जी आ गए और कहते हैं बाबा.. बाबा… चन्दन तो आपने बहुत प्यारा घिसा है।
थोड़ा सा चन्दन हमें दे दो… लगा दो।
गोस्वामीजी को लगा कि कोई बालक होगा। चन्दन घिसते देखा तो आ गया।
तो तुरंत लेकर चन्दन ठाकुर जी को दिया और ठाकुर जी लगाने लगे, हनुमानजी महाराज समझ गए कि आज बाबा फिर चूके जा रहे हैं।
आज ठाकुर जी फिर से इनके हाथ से निकल रहे हैं।
हनुमानजी तोता बनकर आ गए शुक रूप में और घोषणा कर दी कि चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।
हनुमानजी ने घोसणा कर दी कि अब मत चूक जाना।
आज जो आपसे चन्दन ग्रहण कर रहे हैं ये साक्षात् रघुनाथ हैं और जो ये वाणी गोस्वामीजी के कान में पड़ी तो गोस्वामीजी चरणों में गिर गए ठाकुर जी तो चन्दन लगा रहे थे।
बोले प्रभु अब आपको नहीं छोडूंगा।
जैसे ही पहचाना तो प्रभु अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए हैं और बस वो झलक ठाकुर जी को दिखाई दी है।
ठाकुर जी अंतर्ध्यान हो गए और वो झलक आखों में बस गई ह्रदय तक उतरकर।
फिर कोई अभिलाषा जीवन में नहीं रही है।
परम शांति।
परम आनंद जीवन में आ गया ठाकुर जी के मिलने से।
आराम की तलब है तो एक काम करले आ राम की शरण में और राम राम करले।
और इस तरह से आज तुलसीदास जी का राम से मिलन हनुमानजी ने करवाया है।
जय सियाराम!! पंडारामा प्रभु राज्यगुरु जय सियाराम!!