सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। स्वामी विवेकानंद के इस सवांद " स्वयं पर विश्वास और मनुष्यों की महजब " का सुंदर प्रर्वचन। ।।
स्वामी विवेकानंद के इस सवांद " स्वयं पर विश्वास और मनुष्यों की महजब " का सुंदर प्रर्वचन।
स्वामी विवेकानंद जी से किसी ने पूछा कि वो क्या है सब कुछ चले जाने के बाद जिसके भरोसे पुनः सब कुछ पाया जा सकता है।
उन्होंने कहा " विश्वास "।
स्वयं पर विश्वास, अपने कर्म पर विश्वास, और परमात्मा पर विश्वास रखने से सब कुछ पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
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याद रखना ये दुनिया भी बिना विश्वास के कुछ भी नहीं मिल सकती।
हम हॉस्पीटल जाते हैं और चुपचाप बैड पर लेट जाते हैं।
हमें दिख रहा है कि डाक्टर के हाथों में चाकू, कैंची आदि है फिर भी हमारा उसके प्रति विश्वास ही है।
कि आप्रेशन या अन्य शल्य चिकित्सा के लिए हम बिना घबराहट पड़े रहते हैं।
अपने में विश्वास हो, अपनों में विश्वास हो, और प्रभु में विश्वास हो तो समझ जाना आपका जीवन आनंदमय बनने वाला है।
विश्वास में अदभुत सामर्थ्य है कहते हैं।
कि विश्वास से तो ईश्वर भी प्राप्त हो जाते हैं फिर भला अपनों का प्यार क्यों प्राप्त नहीं होगा ?
अगर विश्वास है तो बंद द्वार भी खुल जाता है।
स्वामी विवेकानंद के इस सवांद में मनुष्यो का महजब ।
मुशीं फैज अली ने स्वामी विवेकानन्द से पूछा।
" स्वामी जी हमें बताया गया है कि अल्लहा एक ही है। "
" यदि वह एक ही है, तो फिर संसार उसी ने बनाया होगा ? "
" स्वामी जी बोले, "सत्य है। ".
मुशी जी बोले...!
" तो फिर इतने प्रकार के मनुष्य क्यों बनाये। "
जैसे कि हिन्दु, मुसलमान, सिख्ख, ईसाइ और सभी को अलग - अलग धार्मिक ग्रंथ भी दिये।
एक ही जैसे इंसान बनाने में उसे यानि की अल्लाह को क्या एतराज था।
सब एक होते तो न कोई लङाई और न कोई झगङा होता।
".स्वामी हँसते हुए बोले...!"
" मुंशी जी वो सृष्टी कैसी होती जिसमें एक ही प्रकार के फूल होते।"
" केवल गुलाब होता, कमल या रंजनिगंधा या गेंदा जैसे फूल न होते! ".
फैज अली ने कहा सच कहा आपने..!
यदि एक ही दाल होती तो खाने का स्वाद भी एक ही होता।
दुनिया तो बङी फीकी सी हो जाती!
स्वामी जी ने कहा...!
मुंशीजी...!
इसी लिये तो ऊपर वाले ने अनेक प्रकार के जीव - जंतु और इंसान बनाए ताकि हम पिंजरे का भेद भूलकर जीव की एकता को पहचाने।
मुशी जी ने पूछा...!
इतने मजहब क्यों ?
स्वामी जी ने कहा....!
" मजहब तो मनुष्य ने बनाए हैं....! "
प्रभु ने तो केवल धर्म बनाया है।
" मुशी जी ने कहा कि...! "
ऐसा क्यों है कि एक मजहब में कहा गया है कि गाय और सुअर खाओ और दूसरे में कहा गया है कि गाय मत खाओ, सुअर खाओ एवं तीसरे में कहा गया कि गाय खाओ सुअर न खाओ...!
" इतना ही नही कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि मना करने पर जो इसे खाये उसे अपना दुश्मन समझो। "
स्वामी जी जोर से हँसते हुए मुंशी जी से पूछे कि ,"क्या ये सब प्रभु ने कहा है ?"
मुंशी जी बोले नही....!
" मजहबी लोग यही कहते हैं। "
स्वामी जी बोले....!
"मित्र!"
किसी भी देश या प्रदेश का भोजन वहाँ की जलवायु की देन है।
सागरतट पर बसने वाला व्यक्ति वहाँ खेती नही कर सकता, वह सागर से पकङ कर मछलियां ही खायेगा।
उपजाऊ भूमि के प्रदेश में खेती हो सकती है।
वहाँ अन्न फल एवं शाक - भाजी उगाई जा सकती है।
उन्हे अपनी खेती के लिए गाय और बैल बहुत उपयोगी लगे।
उन्होने गाय को अपनी माता माना, धरती को अपनी माता माना और नदी को माता माना ।
" क्योंकि ये सब उनका पालन पोषण माता के समान ही करती हैं।"
"अब जहाँ मरुभूमि है वहाँ खेती कैसे होगी? "
खेती नही होगी तो वे गाय और बैल का क्या करेंगे ?
अन्न है नही तो खाद्य के रूप में पशु को ही खायेंगे।
तिब्बत में कोई शाकाहारी कैसे हो सकता है ?
वही स्थिति अरब देशों में है।
जापान में भी इतनी भूमि नही है कि कृषि पर निर्भर रह सकें।
" स्वामी जी फैज अलि की तरफ मुखातिब होते हुए बोले....! "
" हिन्दु कहते हैं कि मंदिर में जाने से पहले या पूजा करने से पहले स्नान करो। "
मुसलमान नमाज पढने से पहले वाजु करते हैं।
क्या अल्लहा ने कहा है कि नहाओ मत,केवल लोटे भर पानी से हांथ - मुँह धो लो ?
"फैज अलि बोला...!"
क्या पता कहा ही होगा!
स्वामी जी ने आगे कहा...!
नहीं, अल्लहा ने नही कहा...!
अरब देश में इतना पानी कहाँ है कि वहाँ पाँच समय नहाया जाए।
जहाँ पीने के लिए पानी बङी मुश्किल से मिलता हो वहाँ कोई पाँच समय कैसे नहा सकता है।
यह तो भारत में ही संभव है, जहाँ नदियां बहती हैं, झरने बहते हैं, कुएँ जल देते हैं।
तिब्बत में यदि पानी हो तो वहाँ पाँच बार व्यक्ति यदि नहाता है तो ठंड के कारण ही मर जायेगा।
यह सब प्रकृति ने सबको समझाने के लिये किया है।
"स्वामी विवेका नंद जी ने आगे समझाते हुए कहा कि," मनुष्य की मृत्यु होती है।
उसके शव का अंतिम संस्कार करना होता है।
अरब देशों में वृक्ष नही होते थे, केवल रेत थी।
अतः वहाँ मृतिका समाधी का प्रचलन हुआ, जिसे आप दफनाना कहते हैं।
भारत में वृक्ष बहुत बङी संख्या में थे, लकडी. पर्याप्त उपलब्ध थी अतः भारत में अग्नि संस्कार का प्रचलन हुआ।
जिस देश में जो सुविधा थी वहाँ उसी का प्रचलन बढा।
वहाँ जो मजहब पनपा उसने उसे अपने दर्शन से जोङ लिया।
"फैज अलि विस्मित होते हुए बोला..! "
"स्वामी जी इसका मतलब है कि हमें शव का अंतिम संस्कार प्रदेश और देश के अनुसार करना चाहिये।"
मजहब के अनुसार नही।
"स्वामी जी बोले , " हाँ! यही उचित है।
" किन्तु अब लोगों ने उसके साथ धर्म को जोङ दिया।
मुसलमान ये मानता है कि उसका ये शरीर कयामत के दिन उठेगा इस लिए वह शरीर को जलाकर समाप्त नही करना चाहता।
हिन्दु मानता है कि उसकी आत्मा फिर से नया शरीर धारण करेगी इस लिए उसे मृत शरीर से
एक क्षंण भी मोह नही होता।
" फैज अलि ने पूछा...! "
कि, "एक मुसलमान के शव को जलाया जाए और एक हिन्दु के शव को दफनाया जाए
तो क्या प्रभु नाराज नही होंगे?
"स्वामी जी ने कहा," प्रकृति के नियम ही प्रभु का आदेश होता हैं। "
वैसे प्रभु कभी रुष्ट नही होते वे प्रेमसागर हैं, करुणा सागर है।
"फैज अलि ने पूछा...! "
तो हमें उनसे डरना नही चाहिए ?
स्वामी जी बोले, "नही!
हमें तो ईश्वर से प्रेम करना चाहिए वो तो पिता समान है, दया का सागर है फिर उससे भय कैसा।
डरते तो उससे हैं हम जिससे हम प्यार नही करते।
" फैज अलि ने हाँथ जोङकर स्वामी विवेकानंद जी से पूछा, " तो फिर मजहबों के कठघरों से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है ?
"स्वामी जी ने फैज अलि की तरफ देखते हुए
मुस्कराकर कहा...! "
"क्या तुम सचमुच कठघरों से मुक्त होना चाहते हो?"
फैज अलि ने स्वीकार करने की स्थिति में अपना सर हिला दिया।
स्वामी जी ने आगे समझाते हुए कहा...!
"फल की दुकान पर जाओ, तुम देखोगे वहाँ
आम, नारियल, केले, संतरे,अंगूर आदि अनेक फल बिकते हैं; किंतु वो दुकान तो फल की दुकान ही कहलाती है।"
वहाँ अलग - अलग नाम से फल ही रखे होते हैं।
" फैज अलि ने हाँ में सर हिला दिया। "
स्वामी विवेकानंद जी ने आगे कहा कि ,"अंश से अंशी की ओर चलो।
तुम पाओगे कि सब उसी प्रभु के रूप हैं।
" फैज अलि अविरल आश्चर्य से स्वामी विवेकानंद जी को देखते रहे और बोले " " स्वामी जी मनुष्य ये सब क्यों नही समझता ? "
" स्वामी विवेकानंद जी ने शांत स्वर में कहा, मित्र! प्रभु की माया को कोई नही समझता। "
मेरा मानना तो यही है कि, " सभी धर्मों का गंतव्य स्थान एक है।"
जिस प्रकार विभिन्न मार्गो से बहती हुई नदियां समुंद्र में जाकर गिरती हैं, उसी प्रकार सब मतमतान्तर परमात्मा की ओर ले जाते हैं।
" मानव धर्म एक है, मानव जाति एक है।" ...
🌹एक प्रेरक एवं प्रेरणा दायक प्रसंग🌹
सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी।
लक्ष्मण के साथ हुए एक भयंकर युद्ध में मेघनाद का वध हुआ।
अपने पति की मृत्यु का समाचार पाकर सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जा कर पति का शीश लाने की प्रार्थना की।
किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ।
उसने सुलोचना से कहा -
कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आये।
क्योंकि राम पुरुषोत्तम हैं, इसी लिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।
रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत ( मेघनाद ) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं -
"लक्ष्मण!
रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण - पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।
परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे।
क्योंकि मेघनाद एक नारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है।
ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी।
लक्ष्मण अपनी सेना लेकर चल पड़े।
समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया।
युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया।
हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।
मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी।
सुलोचना चकित हो गयी।
दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी।
पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया।
उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो।
ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा।
निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा -
"यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे।
भुजा को दासी ने लेखनी पकड़ा दी।
लेखिनी ने लिख दिया - "प्राणप्रिये! यह भुजा मेरी ही है।
युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ।
लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है।
वह तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है।
संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली।
अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया।
मेरा शीश श्रीराम के पास है।
पति की भुजा-लिखित पंक्तियां पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी।
पुत्र - वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा - 'शोक न कर पुत्री।
प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट - कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे।
मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा।
करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली -
"पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी।
सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के अभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे।
सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।'
किंतु पति का शव तो राम - दल में पड़ा हुआ था।
फिर वह कैसे सती होती ?
जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया-
"देवी!
तुम स्वयं ही राम - दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो।
जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एक पत्नी व्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए।
मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"
नागकन्या दैवी सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले -
"देवी! तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सदगुण थे।
किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है।
आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है।
सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी।
श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा -
"देवी!
मुझे लज्जित न करो।
पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है।
मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो।
तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है।
अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ ?
दैवी सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली -
"राघवेन्द्र!
मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आई हूँ।
श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।
पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया।
उस की आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं।
रोते - रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा -
"सुमित्रानन्दन!
तुम भूलकर भी गर्व मत करना कि मेघनाथ का वध मैंने किया है।
मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी।
यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था।
आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ।
पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे...!
इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।
दुसरे उनका वध में चल भी किया गया
सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे।
वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश दुश्मन शिवर में है....!
श्री राम के पास है।
जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुई कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है।
सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया -
"मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुई मेरे पास चली गयी थी।
उसी ने लिखकर मुझे बता दिया।
व्यंग्य भरे शब्दों में लक्ष्मण बोल उठे -
"निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।
श्रीराम ने कहा -
"व्यर्थ बातें मत करो मित्र। पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते।
यदि वह चाहे तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।
श्रीराम की मुखकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी।
उस ने कहा -
"यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हंस उठे।
सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हंसने लगा।
यह देखकर सभी दंग रह गये।
सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया।
सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे।
चलते!
समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की-
"भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ।
अत: आज युद्ध बंद रहे।
श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई।
लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी।
पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई...!!
यहां पर यह भी ज्ञात ही नहीं बल्कि सिद्ध होता है कि दैवी पतिव्रता सुलोचना नागकन्या अपने वंशजों को नाम रोशन कर महानतम शिखर पर आंका जाता है ।
पतिव्रता स्त्रीयों में और वह भी लंकापति रावण की पुत्र वधू नाग कन्या दैवी शक्ति सुलोचना को नमन् करते हैं...!
महामंडलेश्वर बालयोगी स्वामी संगम नाथ जी पिठाध्यक्ष विश्व वाल्मीकि धर्म संसद परिषद रजि विश्व वाल्मीकि महापीठ
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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