https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 10/05/20

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन में श्रीराम के विरह में दशरथ जी की मृत्यु का कारण श्राप और वरदान दोनों है।

श्राप श्रवण पिता ने दिया।

वरदान स्वयं दशरथ जी ने मांगा था।

सुत विषयिक तव पद रति होउ।
मोहि बड़ मूढ़ कहहि किन कोउ।।
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना।
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना।।

दो बातें कहीं तो घटना भी दो बार घटी।

दशरथ जी का राम से वियोग दो बार हुआ।

पहले बार में उनकी मृत्यु नहीं हुई...!

क्योंकि यह पहली स्थति थी, कौन सी ?

 मनि बिनु फनि।

मणियारा सर्प रात्रि के समय मणि अपने से अलग पृथ्वी पर रख देता है और उसके प्रकाश में भोजन प्राप्त कर पुनः मणि लेकर चला जाता है।

दशरथ जी ने भी अपनी राम रुप मणि विश्वामित्र रुपी धरती पर रख दिए,समय आने पर मणि वापस प्राप्त हो गया।







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वापस तो चौदह वर्षों बाद राम रुप मणि दशरथ जी को प्राप्त हो सकते थे, लेकिन कारण में अंतर है।

पहले कारण में स्वेक्षा है।

सौंपेहुं भूप ऋषिहिं सुत बहु बिधि देहिं असीष।

सौंपना में स्वेक्षा है।

दूसरी स्थति...!

जिमि जल बिनु मीना।

यहां दशरथ रुप मछली को राम रुप सरोवर से कैकेई रुप केंवट ने बरबस अलग कर दिया।

यहां मृत्यु होना स्वाभाविक है।

मछली भला जल से अलग होकर आखिर कितनी देर तक जीवित रहेगी।

तो उक्त प्रसंग में राम के वियोग में दशरथ जी के प्राण त्याग को नारद जी को काम मोहित बता कर, तूलना करना उचित नहीं।

नारद जी के प्रसंग को समझे बिना लेखक ने तूलना कर दी।

नारद ने ध्यान लगाया तो श्राप की गति टल गई।

दक्ष श्राप से नारद किसी एक स्थान में गो दोहन काल से अधिक समय तक रुक नहीं सकते थे।

उस दिन श्राप की गति टल गई और मन ध्यानस्थ हो गया।

इंद्र को संदेह हो गया।

इंद्र है ही बड़ा डरपोक।

इसी लिए तुलसी दास जी ने इन्द्र की तूलना यहां स्वान से कर दी।

सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृग राज।
छीन लेई झनि जान जड़ तिमि सुरपतिहिं न लाज।।

कामदेव आये, पराजित होकर चले गए।

नारद जी के मन में अहंकार हो गया कि मैंने काम को जीत लिया।

जगह जगह ये बात बताते फिरने लगे।

शिवजी से कहे तो शिव जी ने समझाया कि नारद ये बात मुझे बताया यहां तक ठीक है।

लेकिन बात चलने पर भी भूलकर रमापति से ये बात मत बताना ।

नारद जी वहां से चले गए।

वैकुंठ में पहुंचे और ये प्रसंग बोल ही दीए।

भगवान ने कुछ नहीं कहा केवल मुस्कुरा दिए।

उनकी एक मुस्कान में ही सारा खेल हों गया, क्योंकि भगवान की हंसी ही तो माया है।

माया हास बाहु दिगपाला।

भगवान ने अपने अवतार लेने के कारण का बीजारोपण करने और भक्त के मन में उपजे अहंकार को समूल नाश करने का निर्णय लिया, और विश्वमोहिनी की रचना हों गई।

यहां नारद कहीं पर दोषी नहीं है।

साधरण कामी पुरुषों से नारद की तूलना करना अज्ञानता है।

कारण में प्रभु इच्छा है।

श्राप स्वीकार किए।

बंचेहु हमहिं जवन धरि देहा।

सोइ तनु धरहुं श्राप मम ऐहा।

कपि आकृति तुम कीन्ह हमारी।

करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।

मम अपकार किन्ह तुम भारी।
नारि बिरह तुम होब दुखारी।।

यहां रामावतार के कारण का बीजारोपण हो गया।

भगवान ने कहा भी नारद दुखी मत होना सब मेरी इच्छा से ही हुआ है।

मम इच्छा कह दीन दयाला।।

नारद जी के मन में ये पछतावा बना रहा।

सीता हरण के बाद जब पंपासरोवर पर भगवान आनंद के साथ बैठे थे।

थोड़ी देर पहले सीता जी के विरह में सामान्य कामी पुरुषों की भांति पत्नि वियोग में रोने वाले राम यहां प्रशन्न चित्त दिखाई दे रहे हैं।

हे खग मृग है मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता भी मृगनयनी।।

ना तो भगवान को अयोध्या के राज्य मिलने की प्रशन्नता है न ही वन गमन का शोक।

वे तो सुख दुख से परे हैं।

गोस्वामी जी ने वन गमन के समय क्या बात लिखी है,वाह!

नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गमन सुनी उर आनंद अधिकान।।

किसी हांथी के बच्चे को पकड़ कर जंजीर से बांध दिया जाय और कहीं वह छूट जाय, तब पुनः वन जाने की बात जानकर उस हाथी के बच्चे की जो मन की दशा होगी वही स्थति राम जी के मन की थी।

अयोध्या का राज्य उनके लिए बेड़ी के समान था।

आज इसी लिए सीता हरण के बाद भी बड़े प्रशन्न दिखाई दे रहे हैं।

नारद जी ने देखा अरे भगवान मेरे श्राप को स्वीकार कर नारि विरह से बड़े दुखी हैं...!

चलो यही अवसर अच्छा है थोड़ा उनसे मिल लिया जाए।

आये , एक दूसरे का अभिवादन हुआ...!

नारद जी यथोचित आसान पर बैठ गए...!

क्या देखते हैं कि भगवान तो रत्ती भर दुखी नहीं जान पड़ रहे हैं।

अति प्रशन्न रघुनाथहिं जानी।
पुनि नारद बोलेउ मृदु बानी।।

भगवान प्रशन्न नहीं....!

अति प्रशन्न जान पड़ रहे थे।

नाथ जबहिं प्रेरेउ निज माया।
मोहेउ मोहि सुनहु रघुराया।।

मोहेउ मोहि, से स्पष्ट हो गया कि नारद जी के साथ जो हुआ उसमें माया का खेल था।

तब बिबाह मैं चाहहुं किन्हा।
प्रभु केहि कारन करहिं न दिन्हा।।

भगवान ने कहा---









सुनि मुनि कहहुं तोहि सहरोसा।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।

तिन्ह कै करौं सदा रखवारी।
जिमि बालक राखहिं महतारी।।

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई।
तहं राखहिं जननी अरगाई।।

प्रौढ़ भये तेहि सुत पर माता।
प्रीति करहिं नहिं पाछिल बाता।।

मोरे प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी।
बालक सुत सम दास अमानी।।
जनहिं मोर बल निज बल ताही।
दुहुं कह काम क्रोध रिपु आही।।

अस बिचारी पंडित मोहि भजहिं।
पावहिं ज्ञान भगति नहिं तजहिं।।

मोह मूल बहु सूल प्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मै अस जिय जानि।।

अपने निस्काम भक्त को काम से दूर रखना यही भगवान का काम है।

इस दिव्य कथा को काम का रुप देकर दशरथ जी की कथा के साथ माता शबरी का स्वाद की कथा।

शबरी बोली....!

" यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो राम तुम यहाँ कहाँ से आते? "

राम गंभीर हुए। और कहा...!

कि " भ्रम में न पड़ो माते ! "

राम क्या रावण का वध करने आया है ?  

अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है। 

राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है।

माते , ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई भी पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे।

तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे।

कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था। 

जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं ! 

यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है।

जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है। 

राम वन में बस इस लिए आया है।

ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है। 

राम वन में इस लिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतिक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं।

सबरी एकटक राम को निहारती रहीं। 

राम ने फिर कहा : - 

कि राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! 

राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए आदर्श की स्थापना के लिए। 

राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है l 

राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाय, और खर - दूषणो का घमंड तोड़ा जाय। 

और राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि " वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।"
      
सबरी की आँखों में जल भर आया था। 

उसने बात बदलकर कहा - कन्द खाओगे राम..?

राम मुस्कुराए, " बिना खाये जाऊंगा भी नहीं माँ ...! "








गोरा राम, काला राम, :

एक समय की बात है एक गुरु के २ शिष्ये थे....! 

एक का नाम ( गोरा राम ) और दुसरे का नाम ( काला राम ) था....! 

गुरु जी का ज्यादा लगाव ( काले राम ) के साथ था और गुरु जी उसको ज्यादा अहमियत देते थे....!

एक दिन एक शख्स ने उनसे से पुछा गुरु जी आप ( गोरे ) से ज्यादा ( काले ) को तवज्जह क्यूँ देते है....! 

जब कि ( गोरा ) सुबह शाम पाठ पूजा करता है और रोज रामायण भी पड़ता है और डेरे मे खूब सेवा भी करता है...!

तब गुरु जी ने कहा कल सुबह आप हमारे डेरे मे एक ऊंट लेकर आईयेगा फिर मै आपकी बात का जवाब दुंगा....! 

वो शख्स दुसरे दिन एक ऊंट लेकर डेरे पहुँच गया....! 

और कहा लीजिए हुजूर मै ऊंठ ले आया....!

गुरु जी ने ( गोरे ) को आवाज दी और कहा के गोरेराम यह ऊंट छत पर चढ़ा दो.....!

गोरे राम ने कहा हुजूर यह कैसे हो सकता है यह ऊंट बहुत बड़ा है और मुझमे ईतना बल नही के मै इसे उठा सकूँ.....! 

गुरु जी ने कहा ठीक है आप जाओ अपना काम करो.....!

थोड़ी देर बाद गुरु जी ने ( कालेराम ) को आवाज दी और कहा कालेराम: 

यह ऊँट जरा छत पर चढ़ा दो....! 

कालेराम ने बिना कोई सवाल किए ऊँट की टाँगो मे अपना सिर फँसा कर अपने कँधों से ऊठ उठाने के लिए जोर लगाने लगा....!

इस पर गुरु जी ने उस शख्स की और देखकर कहा यही आपके सवाल का जवाब है....!

सच्चा शिष्य वही है जो तन से नही मन् से जुड़े.....! 

अपने सतगुरु के हुक्म की परख न करें.....! 

संत मार्ग मे बुद्धि से काम नही चलता, बल्कि बुद्धु बनना पड़ता है....!
 
जय जय श्री राम ॥ॐ॥ जय श्री कृष्ण राधे राधे।

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित सुंदर प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित सुंदर प्रवचन ।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित सुंदर प्रवचन


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्र मानस आधारित सुंदर प्रवचन श्रीतुलसी श्रीराम किंकर उवाच.........!

रावण और कुंभकर्ण को भगवान राम और मेघनाथ को लक्ष्मणजी मारते हैं लेकिन मारने के क्रम में भिन्नता है। 

मेघनाथ की मृत्यु हृदय पर बाण के प्रहार से और कुंभकर्ण की सिर काटने से हुई।

 मेघनाथ के हृदय पर लक्ष्मणजी ने बाण का प्रहार किया और उसकी मृत्यु हो गई। 









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कुंभकर्ण की मृत्यु हृदय पर प्रहार करने से नहीं हुई बल्कि भगवान राम ने पहले उसकी दोनों भुजाओं को काट दिया, और जब वह गर्जना करता हुआ उनकी ओर दौड़ा तो उसके मुंह को बाणों से भर दिया। 

इसके पश्चात जब वह मौन होकर उनके सम्मुख आया तो श्रीराघवेंद्र ने उसका सिर काटकर रावण के सामने फेंक दिया और इस तरह कुंभकर्ण की मृत्यु हुई। 

पर रावण की मृत्यु न तो हृदय पर प्रहार करने से, न सिर पर प्रहार करने से और न भुजा पर प्रहार करने से हुई। 

अब तनिक प्रहार के इन केंद्रों पर विचार कीजिए। 

इन्हें मारने में जो अंतर किया गया है क्या उसका कोई अर्थ है ?

दुशरा सुंदर प्रर्वचन अद्भुत ज्ञान...!

सुंदरकांड पढ़ते हुए 25 वें दोहे पर ध्यान रुक गया ।  

तुलसीदास ने सुन्दर कांड में,  जब हनुमान जी ने लंका मे आग लगाई थी, उस प्रसंग पर लिखा है -

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।।

अर्थात : -

जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो -- 

भगवान की प्रेरणा से " उनचासों पवन " चलने लगे।

हनुमान जी अट्टहास करके गर्जे और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे।

मैंने सोचा कि इन उनचास मरुत का क्या अर्थ है ? 

यह तुलसी दास जी ने भी नहीं लिखा। 

फिर मैंने सुंदरकांड पूरा करने के बाद समय निकाल कर 49 प्रकार की वायु के बारे में जानकारी खोजी और अध्ययन करने पर सनातन धर्म पर अत्यंत गर्व हुआ।

तुलसीदासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य हुआ...!

जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ है ।
        
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि " वेदों में वायु की 7 शाखाओं के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। "









अधिकतर लोग यही समझते हैं कि वायु तो एक ही प्रकार की होती है।

लेकिन उसका रूप बदलता रहता है।

जैसे कि ठंडी वायु , गर्म वायु और समान वायु , लेकिन ऐसा नहीं है। 

दरअसल , जल के भीतर जो वायु है उसका वेद - पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। 

अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। 

नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। 

इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।

ये सात प्रकार हैं : - 

1.प्रवह...!

2.आवह...!

3.उद्वह...!

4. संवह...!

5.विवह...!

6.परिवह...!

और 

7.परावह...!
 
1. प्रवह : -

पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। 

इस प्रवह के भी प्रकार हैं। 

यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर - उधर उड़ाकर ले जाती है। 

धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है।

जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 
 
2. आवह : -

आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। 

उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
 
3. उद्वह : -

वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। 

इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 
 
4. संवह : -

वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। 

उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
 
5. विवह : -

पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। 

उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 
 
6. परिवह : -

वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। 

इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
 
7. परावह : -

वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। 

इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
 
इन सातो वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं....!

ब्रह्मलोक...!

इंद्रलोक...!

अंतरिक्ष...!

भूलोक की पूर्व दिशा...!

भूलोक की पश्चिम दिशा...!

भूलोक की उत्तर दिशा...!

और 

भूलोक कि दक्षिण दिशा...!

इस तरह  7 x 7 = 49। 

कुल 49 मरुत हो जाते हैं ।

जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं....!
  
हम अक्सर वेद पुराण और रामायण, भगवद् गीता में पढ़ तो लेते हैं।

परंतु उनमें लिखी छोटी - छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं ...!

( राम का दण्डकवन में प्रवेश ))...!

और यदि वाण से मारकर ला दो तो मैं उसके चमड़े की चोली बनाऊँगी। 

सीता के वचन सुन तथा कुछ सोच - समझकर रघूत्तम राम सीता की रक्षा के लिये भाई लक्ष्मण को नियुक्त करके शीघ्र मृगके पोछे चल दिये। 

हरिण भी रामके आगे दौड़ता हुआ उन्हें बहुत दूर जंगलमें दौड़ा ले गया ॥ ९० ॥ ६१ ॥ 

वहां बाण से घायल होकर वह जोर से राम के स्वर में चिल्लाने लगा 'हा लक्ष्मण ! 

मै बनम मारा गया, शीघ्र आओ' ।। १२ ।।

इतना कहकर मारीच रक्त वमन करता हुआ मर गया। 

उस शब्द को सुनकर जानकी ने लक्ष्मण को जाने के लिये कहा ॥ ६३ ॥ 

लक्ष्मण बोले - हे सीते! 

यह राम का वाक्य नहीं है, मत डरो। 

सीता फिर कहने लगीं कि में अव तुम्हारे अभिप्राय को जान गयी ॥ ६४ ॥ 

तुम भरत के कहने के अनुसार राम का मरण अथवा राम के मर जाने पर मुझे भोगना चाहते हो। 

परन्तु याद रखो, मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी नहीं होने दूंगी और अभी मर जाऊँगी ।। ६५ ।।

सीता के इस वचनको सुनकर सुमित्रापुत्र लक्ष्मण जानकी से बोले- हे माता ! मेरी बात सुनो ॥ ६६ ॥ 

राम की आज्ञा से तुम्हारी रक्षा में तत्पर मुझको तुमने जो वाणीस्थ्यी बाणों से ताडित किया है, उसका फल तुम शीघ्र पाओगी ॥ ६७ ॥ 

तो भी मेरे कहे हुए इस हितकारी वचन को सुन लो। 
मैं धनुष से तुम्हारे चारों ओर यह रेखा खींचे देता हूँ ॥ ६८ ॥ 

यह तुम्हारी रक्षा के लिए और दुष्टों के लिये दुर्लघनीय तथा महान् भय उत्पन्न करने वाली होगी। 
प्राणों के कण्ठ में आ जाने पर भी तुम इस रेखा का उल्लंघन नहीं करना ।। १६ ।। 

ऐसा कहकर धनुष की कोर से लक्ष्मण ने पञ्चवटी के बाहर खाई की भाँति सीता की चारों ओर रेखा खींच दी ।। १०० ।। 

तदनन्तर सीता को प्रणाम करके चुपचाप शीघ्र राम की ओर चल दिये। 

इसी समय रावण भिक्षुक का रूप धारण करके पंचवटी के द्वार पर जाकर रेखा के बाहर खड़ा हो गया और "नारायणहरि" कहकर चुप हो रहा ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ 

तब छायामयी सीता उसको भिक्षा देनेके लिये बाहर आयी और हाथ बढ़ाकर भिक्षु से 'भिक्षा लो' ऐसा कहा ॥ १०३ ॥ 

तब कमल के समान नेत्रों वाली सीता से भिक्षु ने कहा कि मैं रेखा के भीतर से फ़ेंकी हुई भीख नहीं लेता ॥ १०४ ॥ 

यदि तुम राम के गृहस्थाश्रम की रक्षा करना चाहती होओ तो रेखा के बाहर आकर भिक्षा दो ॥ १०५ ॥ 

भिक्षु के इस वचन को सुनकर 'कहीं पाप न लगे' इस शंका से बायें पाव को रेखा से बाहर रख और लम्बा हाथ करके ।। १०६ ॥ 


जय श्री राम.....!

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भगवान शिव ने एक बाण से किया था : तारकासुर के तीन पुत्रों को कहा जाता है त्रिपुरासुर, भगवान शिव ने एक बाण से किया था तीनों का वध : तीनों असुर...

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