सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।
श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन
श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन में श्रीराम के विरह में दशरथ जी की मृत्यु का कारण श्राप और वरदान दोनों है।
श्राप श्रवण पिता ने दिया।
वरदान स्वयं दशरथ जी ने मांगा था।
सुत विषयिक तव पद रति होउ।
मोहि बड़ मूढ़ कहहि किन कोउ।।
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना।
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना।।
दो बातें कहीं तो घटना भी दो बार घटी।
दशरथ जी का राम से वियोग दो बार हुआ।
पहले बार में उनकी मृत्यु नहीं हुई...!
क्योंकि यह पहली स्थति थी, कौन सी ?
मनि बिनु फनि।
मणियारा सर्प रात्रि के समय मणि अपने से अलग पृथ्वी पर रख देता है और उसके प्रकाश में भोजन प्राप्त कर पुनः मणि लेकर चला जाता है।
दशरथ जी ने भी अपनी राम रुप मणि विश्वामित्र रुपी धरती पर रख दिए,समय आने पर मणि वापस प्राप्त हो गया।
वापस तो चौदह वर्षों बाद राम रुप मणि दशरथ जी को प्राप्त हो सकते थे, लेकिन कारण में अंतर है।
पहले कारण में स्वेक्षा है।
सौंपेहुं भूप ऋषिहिं सुत बहु बिधि देहिं असीष।
सौंपना में स्वेक्षा है।
दूसरी स्थति...!
जिमि जल बिनु मीना।
यहां दशरथ रुप मछली को राम रुप सरोवर से कैकेई रुप केंवट ने बरबस अलग कर दिया।
यहां मृत्यु होना स्वाभाविक है।
मछली भला जल से अलग होकर आखिर कितनी देर तक जीवित रहेगी।
तो उक्त प्रसंग में राम के वियोग में दशरथ जी के प्राण त्याग को नारद जी को काम मोहित बता कर, तूलना करना उचित नहीं।
नारद जी के प्रसंग को समझे बिना लेखक ने तूलना कर दी।
नारद ने ध्यान लगाया तो श्राप की गति टल गई।
दक्ष श्राप से नारद किसी एक स्थान में गो दोहन काल से अधिक समय तक रुक नहीं सकते थे।
उस दिन श्राप की गति टल गई और मन ध्यानस्थ हो गया।
इंद्र को संदेह हो गया।
इंद्र है ही बड़ा डरपोक।
इसी लिए तुलसी दास जी ने इन्द्र की तूलना यहां स्वान से कर दी।
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृग राज।
छीन लेई झनि जान जड़ तिमि सुरपतिहिं न लाज।।
कामदेव आये, पराजित होकर चले गए।
नारद जी के मन में अहंकार हो गया कि मैंने काम को जीत लिया।
जगह जगह ये बात बताते फिरने लगे।
शिवजी से कहे तो शिव जी ने समझाया कि नारद ये बात मुझे बताया यहां तक ठीक है।
लेकिन बात चलने पर भी भूलकर रमापति से ये बात मत बताना ।
नारद जी वहां से चले गए।
वैकुंठ में पहुंचे और ये प्रसंग बोल ही दीए।
भगवान ने कुछ नहीं कहा केवल मुस्कुरा दिए।
उनकी एक मुस्कान में ही सारा खेल हों गया, क्योंकि भगवान की हंसी ही तो माया है।
माया हास बाहु दिगपाला।
भगवान ने अपने अवतार लेने के कारण का बीजारोपण करने और भक्त के मन में उपजे अहंकार को समूल नाश करने का निर्णय लिया, और विश्वमोहिनी की रचना हों गई।
यहां नारद कहीं पर दोषी नहीं है।
साधरण कामी पुरुषों से नारद की तूलना करना अज्ञानता है।
कारण में प्रभु इच्छा है।
श्राप स्वीकार किए।
बंचेहु हमहिं जवन धरि देहा।
सोइ तनु धरहुं श्राप मम ऐहा।
कपि आकृति तुम कीन्ह हमारी।
करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।
मम अपकार किन्ह तुम भारी।
नारि बिरह तुम होब दुखारी।।
यहां रामावतार के कारण का बीजारोपण हो गया।
भगवान ने कहा भी नारद दुखी मत होना सब मेरी इच्छा से ही हुआ है।
मम इच्छा कह दीन दयाला।।
नारद जी के मन में ये पछतावा बना रहा।
सीता हरण के बाद जब पंपासरोवर पर भगवान आनंद के साथ बैठे थे।
थोड़ी देर पहले सीता जी के विरह में सामान्य कामी पुरुषों की भांति पत्नि वियोग में रोने वाले राम यहां प्रशन्न चित्त दिखाई दे रहे हैं।
हे खग मृग है मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता भी मृगनयनी।।
ना तो भगवान को अयोध्या के राज्य मिलने की प्रशन्नता है न ही वन गमन का शोक।
वे तो सुख दुख से परे हैं।
गोस्वामी जी ने वन गमन के समय क्या बात लिखी है,वाह!
नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गमन सुनी उर आनंद अधिकान।।
किसी हांथी के बच्चे को पकड़ कर जंजीर से बांध दिया जाय और कहीं वह छूट जाय, तब पुनः वन जाने की बात जानकर उस हाथी के बच्चे की जो मन की दशा होगी वही स्थति राम जी के मन की थी।
अयोध्या का राज्य उनके लिए बेड़ी के समान था।
आज इसी लिए सीता हरण के बाद भी बड़े प्रशन्न दिखाई दे रहे हैं।
नारद जी ने देखा अरे भगवान मेरे श्राप को स्वीकार कर नारि विरह से बड़े दुखी हैं...!
चलो यही अवसर अच्छा है थोड़ा उनसे मिल लिया जाए।
आये , एक दूसरे का अभिवादन हुआ...!
नारद जी यथोचित आसान पर बैठ गए...!
क्या देखते हैं कि भगवान तो रत्ती भर दुखी नहीं जान पड़ रहे हैं।
अति प्रशन्न रघुनाथहिं जानी।
पुनि नारद बोलेउ मृदु बानी।।
भगवान प्रशन्न नहीं....!
अति प्रशन्न जान पड़ रहे थे।
नाथ जबहिं प्रेरेउ निज माया।
मोहेउ मोहि सुनहु रघुराया।।
मोहेउ मोहि, से स्पष्ट हो गया कि नारद जी के साथ जो हुआ उसमें माया का खेल था।
तब बिबाह मैं चाहहुं किन्हा।
प्रभु केहि कारन करहिं न दिन्हा।।
भगवान ने कहा---
सुनि मुनि कहहुं तोहि सहरोसा।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
तिन्ह कै करौं सदा रखवारी।
जिमि बालक राखहिं महतारी।।
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई।
तहं राखहिं जननी अरगाई।।
प्रौढ़ भये तेहि सुत पर माता।
प्रीति करहिं नहिं पाछिल बाता।।
मोरे प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी।
बालक सुत सम दास अमानी।।
जनहिं मोर बल निज बल ताही।
दुहुं कह काम क्रोध रिपु आही।।
अस बिचारी पंडित मोहि भजहिं।
पावहिं ज्ञान भगति नहिं तजहिं।।
मोह मूल बहु सूल प्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मै अस जिय जानि।।
अपने निस्काम भक्त को काम से दूर रखना यही भगवान का काम है।
इस दिव्य कथा को काम का रुप देकर दशरथ जी की कथा के साथ माता शबरी का स्वाद की कथा।
शबरी बोली....!
" यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो राम तुम यहाँ कहाँ से आते? "
राम गंभीर हुए। और कहा...!
कि " भ्रम में न पड़ो माते ! "
राम क्या रावण का वध करने आया है ?
अरे रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चला कर कर सकता है।
राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है।
माते , ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई भी पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे।
तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे।
कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।
जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं !
यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है।
जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।
राम वन में बस इस लिए आया है।
ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है।
राम वन में इस लिए आया है ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतिक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं।
सबरी एकटक राम को निहारती रहीं।
राम ने फिर कहा : -
कि राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता!
राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए आदर्श की स्थापना के लिए।
राम आया है ताकि भारत को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है l
राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाय, और खर - दूषणो का घमंड तोड़ा जाय।
और राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि " वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।"
सबरी की आँखों में जल भर आया था।
उसने बात बदलकर कहा - कन्द खाओगे राम..?
राम मुस्कुराए, " बिना खाये जाऊंगा भी नहीं माँ ...! "
जय जय श्री राम ॥ॐ॥ जय श्री कृष्ण
राधे राधे।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏