श्रीहरिः
एक लोटा पानी।
मूर्तिमान् परोपकार...!
वह आपादमस्तक गंदा आदमी था।
मैली धोती और फटा हुआ कुर्ता उसका परिधान था।
सिरपर कपड़ेकी एक पुरानी गोल टोपी लगाता था, जिसमें एक सुराख भी था।
उसकी कमर कमान बन गयी थी।
बाल चाँदी और मुँह वेदान्ती।
SAF Ram Darbar Sparkle Coated Framed Home Decorative Gift Item Painting (13.25 inch x 9.25 inch) SAFR3276 (Religious)-Multicolour
चेहरे पर झुर्रियाँ थीं।
दो भूरी आँखें गहरे गड्ढोंमेंसे झाँकती थीं।
उसके शरीरकी हड्डियाँ और नसें उभरी हुई थीं।
कहीं - कहीं मांस सिकुड़कर लटक गया था।
स्कूलके सामने वाली झोपड़ीमें उसने एक छोटी - सी दूकान बना रखी थी, जहाँसे बच्चोंको स्याही, कलम, पेंसिल, कापी आदि छोटी - छोटी चीजें प्राप्त हो जाया करती थीं।
उसी दूकानसे उसका जीवन - निर्वाह होता था।
सुना जाता था कि उसके पास कुछ खेती भी थी और वह एक गाँवमें रहता था।
उससे लड़कोंने खेती छीन ली थी और उसे घरसे निकाल दिया था।
उसने भी कभी अच्छे दिन देखे थे।
अब तो वह किसी प्रकार जीवनके दिन पूरे कर रहा था।
सभ्यताके नाते मैं उस गंदे और गरीब आदमीको ‘बाबाजी’ कहा करता था।
वास्तवमें मुझे उसकी सूरतसे, चाल - ढाल से और उसकी बोल-चालसे अत्यन्त घृणा थी।
हाथमें एक चिलम लिये, जिसमें एक छोटा - सा चिमटा बँधा रहता था, जब शामको वह धीरे - धीरे चलता हुआ मेरे पास स्कूलमें आता था, तब मैं अपने मनमें उसे कई दर्जन गालियाँ दिया करता था।
कई बार मैं ऐसी हरकतें करता जिससे वह स्कूलके चबूतरे पर बैठकर चिलम पीना और खाँसना छोड़ दे।
मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे पास आया करे।
जब वह आकर बैठता, तब मैं उठकर अलहदा टहलने लगता था।
जब वह मुझसे बातें करने लगता, तब मैं कोई किताब पढ़ने लगता।
मगर मेरी इस बेजारीका कोई असर उसपर नहीं पड़ता था।
जहाँ शाम हुई, वह चिलम लेकर आ बैठता! कभी - कभी कहता—
‘मास्टर साहबने रोटी तो बना ली होगी ?’
‘हाँ बना ली।’
‘सब्जी क्या बनायी थी ?’
‘आलू बनाये थे।’
‘थोड़ी सब्जी बची भी होगी!’
इस प्रकार वह रोजाना मुझसे कुछ सब्जी या दाल ले लिया करता था।
फिर एक काले रूमालमें बँधे दो बाजरेके टिक्कड़ निकालता और बैठकर खाने लगता।
यह देखकर मेरा जी जल उठता। गंदे कपड़े, गंदी रोटियाँ और खाने का गंदा तरीका।
वह यह तो जानता ही न था कि सफाई क्या वस्तु होती है।
उस बूढ़ेने मेरा जीवन दूभर कर डाला था।
जितना खून रोजाना बनता था, उससे दूना जल जाता था।
उसे स्कूलमें आनेसे कैसे रोकूँ, यही चिन्ता मुझे दिन - रात सताती रहती थी।
अन्तमें मैंने एक तरकीब सोच निकाली।
शाम को जब वह स्कूलके चबूतरेपर आकर बैठा, तब मैं गरजकर बोला—
‘बाबाजी!
कल शामको जब तुम आये थे तब मेज पर दस रुपये का एक नोट रखा था।’
‘ना महाराज! मुझे तो पता नहीं!’
हाथ जोड़कर रुलासे स्वरमें उसने उत्तर दिया।
‘इस प्रकार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ानेसे तुम यह साबित नहीं कर सकते कि तुमने नोट नहीं उठाया।
मैं तुम - सरीखे नीच लोगोंको खूब पहचानता हूँ।
‘पहचानते होंगे महाराज! भगवान् जाने जो मैंने वह नोट देखा भी हो।’
‘बगला भगतोंवाली बातें छोड़ो।
अगर तुम बुरे न होते तो तुम्हारे लड़के तुमको घरसे क्यों निकालते?
कमीना कहींका — भाग जा यहाँसे।
खबरदार जो फिर कभी इधरको रुख किया!’
वह मेरी तरफ देखता हुआ, चिलम उठाकर चल दिया।
मैंने उसका चेहरा देखा।
वहाँ पर दिल हिला देनेवाला एक दु:खी दिखलायी पड़ा।
उसका दिल टूट गया था।
उसकी आँखें कह रही थीं — ‘मैं गरीब हूँ, असहाय हूँ, निर्बल हूँ; परंतु इतना नीच नहीं हूँ कि किसीकी चोरी करूँ।’
उस दिनसे उसका आना - जाना बंद हो गया।
बोल - चालका तो प्रश्न ही नहीं उठता।
इस तरह से मेरे दिन आराम से कटने लगे।
दिल - दिमाग की बेचैनी खतम हो गयी।
मैं प्रसन्न रहने लगा।
कुछ दिनों बाद वर्षा-ऋतु शुरू हो गयी।
प्राय: प्रति दिन रातको वर्षा होने लगी।
खैर, कोई बात नहीं।
वर्षा - ऋतुमें वर्षा तो होगी ही; परंतु एक रातको तो वर्षाने सीमा तोड़ दी।
संध्या - समय से जो वर्षा शुरू हुई तो थमने का नाम ही न लिया।
मैंने जल्दीसे भोजन बनाया और स्कूलके बराम दे में चार पाई पर लेट गया।
नींद नहीं आ रही थी।
तीन घंटे बीत गये, परंतु वर्षा समाप्त न हुई।
न मालूम क्यों आज पहली बार मुझे भय लगा।
वर्षा के शोर के अति रिक्त कोई आवाज नहीं आ रही थी।
उस स्कूल से गाँव आधा मील दूर था।
न तो किसी आदमी की आवाज सुनायी पड़ती थी और न कोई रोशनी ही दृष्टि गोचर हो रही थी।
कुत्ते भी नहीं भौंक रहे थे।
चारों तरफ घोर सन्नाटा छाया हुआ था।
झींगुरों की झाँझ बज रही थी।
मेढकों का तबला बज रहा था और बरसात झमाझम नाच रही थी।
केवल बाबाजी की झोपड़ी अवश्य सामने थी, परंतु शायद आज वह भी सबेरे सो गया था।
खाँस ने की भी आवाज नहीं आ रही थी।
मुझे जो भयका वातावरण घेरे हुए था, वह अकारण न था।
थोड़ी देर बाद जब मैं लघु शंका के लिये उठकर चार पाईसे नीचे उतरा तो मेरी चीख निकल गयी।
मैं उछल कर चार पाई पर जा बैठा।
मेरा हृदय जोर - जोर से धक् - धक् करने लगा।
चार पाई के नीचे एक साँप लेटा हुआ था।
मैंने तकिये के नीचे से दिया सलाई निकाली।
वह सरदी खा गयी थी।
कई तीलियाँ रगड़ीं, परंतु वह जली नहीं।
लाचारी से मैंने जोरसे दूसरी चीख मारी।
शायद बाबाजीने सुनी हो।
परंतु वह बेचारा मेरी सहायताके लिये क्यों आने लगा ?
मरता क्या न करता ?
मैंने भगवान् का नाम लिया।
हिम्मत बाँध कर चार पाई के सिरहा ने से उतर कर कमरे में गया।
बक्स में से नयी दिया सलाई निकाली और लालटेन जलायी।
एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में लालटेन लेकर बाहर निकला, परंतु साँप गायब था।
मैं लालटेन फर्श पर रख कर चार पाई पर बैठ गया, परंतु भय के कारण हृदय काँप रहा था।
उधर वर्षा ने और भी जोर पकड़ रखा था।
क्षण - क्षणमें बिजली चमक रही थी।
बादल भी खूब गरज रहे थे।
अन्त में सोच - विचार कर शर्म को एक तरफ रख कर लालटेन उठायी और मैं लाठी लिये हुए बाबाजी की झोपड़ीके सामने जा खड़ा हुआ।
मैंने धीरेसे पुकारा — ‘बाबाजी!’
परंतु कोई उत्तर न मिला।
‘बाबाजी - बाबाजी’ लगातार जोरसे मैंने दूसरी और तीसरी आवाज लगायी।
शायद बाबाजी गहरी नींदमें सो रहे थे।
फिर मुझे यह भी विचार आया कि कहीं किसी साँप ने उसे काट न खाया हो।
चटाई पर जमीन पर सोता था बेचारा।
परंतु यह असम्भव था, क्योंकि वह एक माना हुआ सँपेरा था।
तब मैंने जोर से झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
अंदर से आवाज आयी —
‘कौन है?’
‘मैं हूँ।’
‘कौन ?
मास्टरजी।’
‘हाँ।’
‘क्या बात है ?’
बाहर आकर वह बोला।
‘मुझे वहाँ डर लगता है।
तुम वहाँ चलो।’
‘कहाँ चलूँ?’
‘स्कूलमें।’
‘क्यों?’
‘अभी - अभी एक भयानक साँप मेरी चार पाई के नीचे लेटा था।’
‘न महाराज!
मैं स्कूलमें नहीं जाता।
मैं तो चोर हूँ।’
‘बाबाजी!
वह बात और ही थी, मुझे मुसीबत से बचाओ।’
‘चले जाओ यहाँ से!’
उसने गरज कर कहा।
मैं निराश हो कर लौट चला।
मुझे बाबाजी पर बड़ा क्रोध आ रहा था।
सहसा वह बोला — ‘मास्टरजी!
जरा सुनो तो।’
मैंने सोचा कि दयालु भगवान् ने उस के दिल में दया भर दी।
मैं लौट कर उसके पास जा खड़ा हुआ।
वह बोला—
‘कितना बड़ा साँप था?’
‘होगा कोई दो गज लंबा!’
‘हूँ’ कह कर उसने मुँह फेर लिया।
‘हूँ’ क्या बाबाजी ?’
मैंने नम्रता से पूछा।
‘कुछ नहीं।
कौड़िया नाग होगा।
उस का काटा पानी नहीं माँगता।’
‘तो फिर?
मैंने गिड़गिड़ा कर कहा।
‘तो फिर मैं क्या करूँ!
तुम जाओ।’
उस की जीभ लड़खड़ा रही थी।
मुझे बड़ी निराशा हुई।
उस ने वापस बुला कर मेरा भय और भी बढ़ा दिया था।
मैंने सोचा कि इस बूढ़े का शरीर जितना गंदा है, उससे भी ज्यादा इस का मन गंदा है।
मेरे जीमें आया कि इस स्वार्थी बूढ़े की गरदन मरोड़ दूँ।
मैं फिर मुड़ा।
उसका चेहरा देखा तो उसके आँसू बह रहे थे।
मैं पश्चात्ताप की आग में जल ने लगा।
वह कठोर हृदय न था — भावुक हृदय था।
मैंने पास जा कर कहा — ‘मुझे क्षमा करो, बाबाजी!
मैंने चोरी की बात झूठ कही थी।’
मेरी आवाज आँसुओं में डूब गयी।
‘रोते हो मास्टरजी!
भला, इसमें तुम्हारा क्या अपराध ?
जब मेरे लड़कों ने ही मुझे घर से निकाल दिया, तब दूसरों की क्या शिकायत ?
अपना - अपना भाग्य है बाबू!’
उसने चुप के से अपने आँसू पोछ लिये।
‘नहीं बाबाजी!
मैं बड़ा पापी हूँ।’
मेरी हिचकी बँध गयी।
‘पागल हो गये हो मास्टरजी!’
वह बातें करता हुआ मेरे साथ स्कूल में आ गया।
काफी देर तक बैठा - बैठा मुझे साँपों के किस्से सुनाता रहा।
अन्तमें वह बोला—
‘कितना ही जहरीला साँप हो मैं उसे हाथ से पकड़ सकता हूँ।’
‘तो साँप काटेका मन्त्र भी है आपके पास बाबाजी!’
‘मन्त्र होता तो है मास्टरजी!
परंतु मुझे मालूम नहीं।
मैं तो मुँह से चूस कर जहर बाहर निकाल देता हूँ।’
‘मुहँ से ?
और जहर तुम पर असर नहीं करता ?’
बाबाजीने हँस कर उत्तर दिया — असर अवश्य करता है बाबू!
परंतु उस के लिये मेरे पास एक दवा है।
झोपड़ी में एक काली - सी बोतल रखी है।
उसमें एक बूटीका अर्क भरा है।
जहर चूस कर उसे थूक देता हूँ और उस अर्क से तुरंत दो कुल्ले कर डालता हूँ फिर कोई असर नहीं होता।
जब मैं किसीका जहर खींचने जाता हूँ तब वह काली बोतल साथ लेता जाता हूँ।
बातें करते - ही - करते बाबाजी वहीं फर्शपर लेट गये और तुरंत सो गये।
उनकी नाक बजने लगी।
परंतु मुझे नींद कहाँ।
चार पाई पर करवटें बदलते - बदलते काफी देर हो गयी।
मुझे प्यास लग आयी।
पानी का घड़ा कमरे के अन्दर था।
साँपके डर से एक बार फिर कलेजा काँप गया।
लेकिन यह सोच कर साहस बाँधा कि बाबाजी तो पास ही हैं।
मैं पानी पीने के लिये उठा।
चारपाईसे उतर कर जूता पहिना।
लेकिन यह क्या!
पैर पर मानो किसी ने जलता हुआ अँगारा रख दिया।
उसी साँप ने कहीं से आकर मेरे पैर में जोरसे डँस लिया था।
मेरी आत्मा ने कहा — ‘तुम ने चोरी का मिथ्या दोष लगा कर बाबाजी का दिल बेकार दुखाया था, उसका बदला महामाया ने ले लिया।
दिल दुखा ने की सजा बड़ी भयानक होती है, क्योंकि दिल में दिलदार का निवास होता है।’
इसके बाद मैं बेहोश हो गया।
जब मैं होश में आया तो धूप फैल रही थी।
आकाश साफ था।
मेरे आस - पास स्कूली बच्चों का और कुछ किसानों का जमाव था।
स्कूल के आस - पास जिनके खेत थे, वे किसान लोग जमा थे।
मेरा सिर घूम रहा था।
निर्बलता के कारण उठा नहीं जाता था।
पैर में अब भी कुछ जलन हो रही थी।
मैंने किसानों से पूछा — ‘बाबाजी कहाँ हैं ?’
‘बाबाजी भगवान् के पास पहुँच गये!
एक किसान बोला।
‘कैसे क्या हुआ ?
मैंने अचक चाकर पूछा।’
वही किसान कहने लगा — ‘सुबह जब लड़के स्कूल आ रहे थे तो उन की लाश झोपड़ी के पास पड़ी मिली।
जहर से सारा शरीर नीला पड़ गया था।
जीभ सूज कर बाहर निकल आयी थी।
मालूम होता है कि रात में आपको साँप ने काटा था।
बाबाजी ने जहर खींच लिया।
परंतु दवा की बोतल झोपड़ी में थी।
वहाँ तक जाते - जाते जहर अपना काम कर गया।’
‘बेशक मुझे साँप ने काटा था।
लेकिन उन को चाहिये था कि बोतल ले आकर जहर खींचते।’—
मैंने कहा।
‘तब तक आप मर भी जाते मास्टरजी!’—
वही किसान बोला।
मैं फिर बेहोश हो गया।
मैंने बाबाजी की लाश जलायी।
उस स्थान पर पक्का चबूतरा बनवा दिया।
वहाँ एक पत्थर लगवा दिया, जिस पर लिखा था—
‘मूर्ति मान् परोपकारी बाबाजी’
जिनको मैंने झूठी चोरी लगायी थी।
पर जिन्होंने मेरे पैर का जहर खींचकर अपने प्राण दे दिये।
इसे बलिदान की पराकाष्ठा कह सकते हैं।
परमात्मा उनकी आत्माको शान्ति दें।
किसी का शरीर गंदा देख कर यह नहीं सोचना चाहिये कि उसका हृदय भी गंदा होगा मास्टरजी!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
जय श्री राधे .......!
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