सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री ऋगवेद श्री आर्थवेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित सुंदर प्रवचन ।।
श्री रामचरित्रमानस आधारित सुंदर प्रवचन
श्री ऋगवेद श्री आर्थवेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित सुंदर प्रवचन पर ग्रन्थ - मानस चिन्तन - १ ( भाग - ३ )
संदर्भ - प्रार्थना!!
प्रार्थना के लक्षण।
सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मति धीर।।
" नयन बह नीर " का तात्पर्य है - ब्रह्मा की आँखों से अश्रुपात हो रहा है।
अश्रुपात कई प्रकार की भावनाओं को अपने - आप में समेटे हुये है।
दु:ख और सुख की समान अभिव्यक्ति का यदि कोई संकेत है तो वह है आँसू।
असमर्थता और व्याकुलता के क्षणों में आँसू बह निकलते ही हैं, पर आनन्दातिरेक के क्षणों में भी आँसू छलक उठते हैं।
हृदय की भावनाओं को व्यक्त करने के लिये वाणी और नेत्र दो केन्द्र हैं।
परन्तु वाणी के द्वारा अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रगट करने के लिये भाषा का आश्रय लेना पड़ता है।
भाषा देश - काल की सीमाओं में बँधी हुई है...!
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सम्भव है हमारी भाषा को दूसरे न समझ सकें....!
किन्तु भावनाओं की अभिव्यक्ति का दूसरा केन्द्र नेत्र इतना सशक्त है कि वह देश - काल की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है।
ईश्वर तक अपनी बात किस माध्यम से पहुँचाना उचित होगा ?
यदि वाणी के द्वारा भाषा का प्रयोग करें तो वह कौन - सी भाषा है, जो ईश्वर तक अपनी बात पहुँचाने के लिये उपयुक्त होगी ?
प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही भाषा का प्रयोग इसके लिये करे, यह स्वाभाविक है।
पर ईश्वरीय भाषा तो नेत्र के माध्यम से ही पूरी तरह प्रतिफलित होती है।
यदि आँखों में असमर्थता और प्रीति से भरे अश्रु बोल न पड़े तो ईश्वर हमारी बात अस्वीकार कर सके, यह सम्भव नहीं है।
आँखों के आँसू इसी असमर्थता और प्रीति के परिचायक हैं।
ब्रह्मा सृष्टि के निर्माता हैं, उनके सामर्थ्य की सीमाएँ बहुत विशाल हैं, पर रावण के रूप में जिस महान् संकट का उदय हुआ है, वहाँ वे इस असमर्थता का अनुभव करते हैं।
उनके आँसुओं में असमर्थता झलक रही है, पर उसमें प्रीति और प्रसन्नता भी मिश्रित हैं।
उन्हें आनन्द और गौरव की अनुभूति होती है कि इन निर्णायक क्षणों में सृष्टि की बात ईश्वर तक पहुँचाने का सौभाग्य उन्हें मिला है।
फिर भगवान शिव ने यह कह कर एक नवरस की सृष्टि कर दी थी कि ईश्वर सर्वव्यापक है।
मानों यहीं खड़ा हुआ वह सारी बातें सुन रहा हो, पर सामने नहीं आता।
ब्रह्मा की आँखें आँसू बहाती हुई मानो उसी को चारों ओर ढ़ूढ़ रही है।
ब्रह्मा के दोनों हाथ जुड़े हुये हैं।
यह प्रार्थना द्वारा कर्म के समर्पण का प्रतीक है।
हाथ कर्मशक्ति के प्रतीक हैं।
हाथ जोड़कर पितामह इसी समग्रता को प्रगट करते हैं।
दोहे में ब्रह्मा के लिये " सावधान " का भी विशेषण दिया गया है।
किसी श्रेष्ठ पुरुष के सामने होने पर व्यक्ति सावधान हो जाता है।
महापुरुष की अनुपस्थिति में सजगता भी समाप्त हो जाती है।
वैसे तो भौतिक दृष्टि से ब्रह्मा के सामने प्रभु नहीं हैं, पर ब्रह्मा की यह सावधानी सच्ची आस्तिक वृत्ति का परिणाम है।
भगवान शिव ने ईश्वर की सर्वव्यापकता का पक्ष प्रस्तुत किया था।
जिसे ईश्वर की अनुभूति सर्वत्र हो रही है, उसका जीवन में प्रतिक्षण सावधान रहना भी स्वाभाविक ही है।
जिसका स्वामी सामने खड़ा हो, भले ही वह दृष्टिगोचर न हो, उसके जीवन में प्रमाद का अवसर कहाँ ?
।। श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ।।
कुरुक्षेत्र का युद्ध अपने चरम पर था।
धरती रक्त से लाल हो चुकी थी, और गगन में शंखनाद, रथों की गर्जना व बाणों की टंकार गूँज रही थी।
इस युद्धभूमि के बीच, भीष्म पितामह अपने वचनों के कारण अर्जुन के बाणों की शय्या पर पड़े थे।
उनके शरीर में सैकड़ों बाण धँसे थे, किंतु मुख पर अब भी तेज और शांति की आभा बनी हुई थी।
प्रतिदिन पांडव और कौरव, गुरुजनों की भाँति पितामह से मिलने आते, और वे सभी को धर्म और नीति का उपदेश देते।
एक दिन पांचों पांडव अपने साथ द्रौपदी को लेकर वहाँ पहुँचे।
सभी गहन श्रद्धा से पितामह के उपदेश सुन रहे थे।
वातावरण शांत था, तभी अचानक द्रौपदी का चेहरा बदल गया और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।
उस हँसी ने मानो पूरे वातावरण को रोक दिया।
पांडव अचंभित रह गए।
भीष्म पितामह के मुखमंडल पर पीड़ा और ग्लानि की रेखाएँ खिंच गईं।
उन्होंने गंभीर स्वर में कहा—
“पुत्री, तुम एक सभ्रांत घराने की कुलवधू हो।
धर्म और न्याय की बात करते समय तुम्हारी यह हँसी क्यों?”
द्रौपदी ने गहरी साँस ली।
उसकी आँखें नम हो आईं और स्वर काँप उठा—
“पितामह! आज आप हमें धर्म का उपदेश दे रहे हैं, अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा दे रहे हैं।
किंतु उस समय कहाँ गया था आपका धर्म, जब भरी सभा में मेरे वस्त्र उतारने का घोर प्रयास किया गया?
तब आपकी यह वाणी मौन क्यों हो गई थी?”
उस क्षण ने मानो समय को रोक दिया।
पितामह की आँखें भर आईं।
वे व्याकुल होकर बोले—
“बेटी…!
उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खा रहा था।
वह अन्न अन्याय और प्रजा के शोषण से संचित था।
उसी अन्न ने मेरे विवेक को बाँध दिया था, मेरे संस्कारों को ढक दिया था।
मेरी वाणी रुद्ध हो गई थी।
लेकिन अब…!
यह अन्न मेरे शरीर से रक्त बनकर बह चुका है।
अब मेरे संस्कार लौट आए हैं, इस लिए मेरे मुख से धर्म और नीति की वाणी निकल रही है।
याद रखो पुत्री—
जैसा अन्न खाया जाता है, वैसा ही मनुष्य का मन और आचरण हो जाता है।”
द्रौपदी की आँखों से आँसू झरने लगे।
पितामह का उत्तर सुनकर पाँचों पांडव भी स्तब्ध हो उठे।
वहाँ उपस्थित सभी को यह शिक्षा मिल गई कि अन्न केवल शरीर का पोषण नहीं करता, वह हमारी वाणी, विचार और कर्म तक को प्रभावित करता है।
शिक्षा :
यह कथा हमें यह सिखाती है कि अन्न केवल भोजन नहीं है, वह संस्कार है।
जिस अन्न का स्रोत अन्याय और अधर्म हो, वह अंततः मनुष्य की आत्मा को बाँध देता है।
इस लिए सदैव शुद्ध, सत्य और धर्मसम्मत अन्न का सेवन करना चाहिए।
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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Ramanath Swami Car Parking Ariya , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C.Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏
