https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन https://sarswatijyotish.com/India
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।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।



श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित विस्तृत प्रवचन 

ग्रन्थ - मानस चिन्तन-१   ( भाग-३ )

संदर्भ - प्रार्थना!! प्रार्थना के लक्षण।

सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।

अस्तुति करत जोरि कर सावधान मति धीर।।



"नयन बह नीर" का तात्पर्य है - ब्रह्मा की आँखों से अश्रुपात हो रहा है। 

अश्रुपात कई प्रकार की भावनाओं को अपने-आप में समेटे हुये है। दु:ख और सुख की समान अभिव्यक्ति का यदि कोई संकेत है तो वह है आँसू।

 असमर्थता और व्याकुलता के क्षणों में आँसू बह निकलते ही हैं, पर आनन्दातिरेक के क्षणों में भी आँसू छलक उठते हैं‌

हृदय की भावनाओं को व्यक्त करने के लिये वाणी और नेत्र दो केन्द्र हैं। 

परन्तु वाणी के द्वारा अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रगट करने के लिये भाषा का आश्रय लेना पड़ता है। 

भाषा देश-काल की सीमाओं में बँधी हुई है, सम्भव है हमारी भाषा को दूसरे न समझ सकें, किन्तु भावनाओं की अभिव्यक्ति का दूसरा केन्द्र नेत्र इतना सशक्त है कि वह देश-काल की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है।

ईश्वर तक अपनी बात किस माध्यम से पहुँचाना उचित होगा ?

 यदि वाणी के द्वारा भाषा का प्रयोग करें तो वह कौन-सी भाषा है, जो ईश्वर तक अपनी बात पहुँचाने के लिये उपयुक्त होगी ?

 प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही भाषा का प्रयोग इसके लिये करे, यह स्वाभाविक है।

पर ईश्वरीय भाषा तो नेत्र के माध्यम से ही पूरी तरह प्रतिफलित होती है। 

यदि आँखों में असमर्थता और प्रीति से भरे अश्रु बोल न पड़े तो ईश्वर हमारी बात अस्वीकार कर सके, यह सम्भव नहीं है। 

आँखों के आँसू इसी असमर्थता और प्रीति के परिचायक हैं।

ब्रह्मा सृष्टि के निर्माता हैं, उनके सामर्थ्य की सीमाएँ बहुत विशाल हैं‌, पर रावण के रूप में जिस महान् संकट का उदय हुआ है, वहाँ वे इस असमर्थता का अनुभव करते हैं। 

उनके आँसुओं में असमर्थता झलक रही है, पर उसमें प्रीति और प्रसन्नता भी मिश्रित हैं।

 उन्हें आनन्द और गौरव की अनुभूति होती है कि इन निर्णायक क्षणों में सृष्टि की बात ईश्वर तक पहुँचाने का सौभाग्य उन्हें मिला है। 

फिर भगवान शिव ने यह कह कर एक नवरस की सृष्टि कर दी थी कि ईश्वर सर्वव्यापक है। 

मानों यहीं खड़ा हुआ वह सारी बातें सुन रहा हो, पर सामने नहीं आता। 

जैसे आँखमिचौली का खेल खेल रहा हो। ब्रह्मा की आँखें आँसू बहाती हुई मानो उसी को चारों ओर ढ़ूढ़ रही है।

ब्रह्मा के दोनों हाथ जुड़े हुये हैं।

 यह प्रार्थना द्वारा कर्म के समर्पण का प्रतीक है‌। 

हाथ कर्मशक्ति के प्रतीक हैं। 

हाथ जोड़कर पितामह इसी समग्रता को प्रगट करते हैं।

दोहे में ब्रह्मा के लिये "सावधान" का भी विशेषण दिया गया है।

 किसी श्रेष्ठ पुरुष के सामने होने पर व्यक्ति सावधान हो जाता है।


 महापुरुष की अनुपस्थिति में सजगता भी समाप्त हो जाती है।

 वैसे तो भौतिक दृष्टि से ब्रह्मा के सामने प्रभु नहीं हैं, पर ब्रह्मा की यह सावधानी सच्ची आस्तिक वृत्ति का परिणाम है।

भगवान शिव ने ईश्वर की सर्वव्यापकता का पक्ष प्रस्तुत किया था। 

जिसे ईश्वर की अनुभूति सर्वत्र हो रही है, उसका जीवन में प्रतिक्षण सावधान रहना भी स्वाभाविक ही है। 

जिसका स्वामी सामने खड़ा हो, भले ही वह दृष्टिगोचर न हो, उसके जीवन में प्रमाद का अवसर कहाँ ?

आगे - शेष भाग‌
दोहे का अंतिम शब्द है "मतिधीर"। 
मतिधीर का तात्पर्य है - 
जिसकी बुद्धि स्थिर हो।

।। श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ।।



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*तांबे का सिक्का*


एक राजा का जन्मदिन था। 

सुबह जब वह घूमने निकला, तो उसने तय किया कि वह रास्ते मे मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा।



उसे एक भिखारी मिला। 

भिखारी ने राजा से भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया।
.
सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा। 

भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा।
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राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया। 

भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा।
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राजा को लगा की भिखारी बहुत गरीब है, उसने भिखारी को चांदी का एक सिक्का दिया।
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भिखारी राजा की जय जयकार करता फिर नाली में सिक्का ढूंढ़ने लगा।
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राजा ने अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया।
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भिखारी खुशी से झूम उठा और वापस भाग कर अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा।
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राजा को बहुत खराब लगा। 

उसे खुद से तय की गयी बात याद आ गयी कि पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं संतुष्ट करना है।
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उसने भिखारी को बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें अपना आधा राज - पाट देता हूं, अब तो खुश व संतुष्ट हो ?
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भिखारी बोला : 


मैं खुश और संतुष्ट तभी हो सकूंगा, जब नाली में गिरा तांबे का सिक्का मुझे मिल जायेगा।
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हमारा हाल भी उस भिखारी जैसा ही है। 

हमें भगवान ने हमे मानव योनि के रूप में सामाजिक / धार्मिक एवं आध्यात्मिकता रूपी अनमोल खजाना दिया है ।

और हम उसे भूलकर संसार रूपी नाली में तांबे के सिक्के निकालने के लिए जीवन गंवाते जा रहे है।



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|| जय श्रीमन्नारायण ||

सत्कर्म कर उसे भूल जाना चाहिए अन्यथा व्यक्ति अभिमान से बच नहीं सकेगा। 

अपने दाहिने हाथ से तुम जो कुछ देते हो उसका बाएं हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए। 

' नेकी कर दरिया में डाल।’ 

सफल एवं सार्थक जीवन के लिए कर्म जरूरी है, लेकिन उसके साथ विवेक भी जरूरी है। 

कर्म मनुष्य के स्वभाव में निहित है। 

गीता में कहा गया है कि हम कर्म करें, वह हमारा अधिकार है, किंतु फल की इच्छा न करें। 

हमारा शरीर दरवाजा है। 

उस खुले दरवाजे से सभी तरह के कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है। 

एक मनीषी ने लिखा है कि यह शरीर नौका है।

यह डूबने भी लगता है और तैरने भी लगता है, क्योंकि हमारे कर्म सभी तरह के होने से यह स्थिति बनती है। 

इसी लिए बार - बार अच्छे कर्म करने की प्रेरणा दी जाती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। 

हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक डाल पर बैठा व्यक्ति उसी डाल को काटता है तो उसका नीचे गिर जाना अवश्यंभावी है, ठीक उसी प्रकार गलत काम करने वाला व्यक्ति अंततोगत्वा गलत फल पाता है।

उदाहरण के लिए हम किसी पर क्रोध करते हैं तो उसका प्रत्यक्ष फल हमारी आंखों के सामने आ जाता है। 

हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, सब कुछ उत्तेजित हो उठता है जिससे हमारी शक्ति का अपव्यय होता है।

साथ ही हम उस व्यक्ति को भी क्षुब्ध करते हैं जो हमारे क्रोध का भाजन होता है। 

हम कोई बुरा शब्द मुंह से निकालते हैं तो हमारी जबान गंदी हो जाती है। 

हम चोरी करते हैं तो हमारे भीतर बड़ी अशांति और बेचैनी होती है। 

इस के विपरीत जब हमारे हाथों से कोई अच्छा काम होता है तो तत्काल हमें बड़े ही आत्मिक संतोष और प्रसन्नता की अनुभूति होती है।

मनुष्य के हाथ में कर्तव्य करना है, लेकिन उसका फल नहीं है। 

वह अनेक कारणों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 

सच्चाई यह भी है कि कर्म कराने वाला और कोई है। हम तो निमित्त मात्र हैं। 

हममें से अधिकांश व्यक्ति इस सत्य को भूल जाते हैं। 

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि हम फल की आशा रखते हैं तो अनुकूल फल होने से हमें हर्ष होता है और प्रतिकूल फल होने से विषाद होता है। 

इससे राग और द्वेष पैदा होते हैं।

इसी लिए कहा गया है कि कर्म करो, किंतु तटस्थ भाव से करो। 

हममें से अधिकतर लोग सत्कर्म करके उसका हिसाब रखते हैं। 

यह उचित नहीं है। 

इससे पुण्य क्षीण हो जाता है। 

हाथ से तुम जो कुछ देते हो उसका बाएं हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए। हमारे यहां भी कहावत है।

‘नेकी कर दरिया में डाल।’

इस का तात्पर्य यह है कि सत्कर्म करके भी उसे भूल जाना चाहिए। अन्यथा व्यक्ति अभिमान से बच नहीं सकेगा।

        || जय श्री श्याम श्रीं कृष्ण ||

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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