|| गुरु और शिष्य ||
गुरु और शिष्य :
ज्ञान हमेशा झुककर ही हासिल किया
जा सकता है खुद को ज्ञानी समझने से नहीं।।
एक शिष्य गुरू के पास आया।
शिष्य पंडित था और प्रसिद्ध भी, गुरू से भी ज्यादा।
सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे।
समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था।
ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की।
संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुंचा।
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गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो।
तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है।
तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।'
शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे।
वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा।
कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया।
गुरू ने फिर कहा, 'यह बहुत ज्यादा है।
मैं बूढ़ा हो गया।
मेरी मृत्यु करीब है।
इतना न पढ़ सकूंगा।
तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।
पंडित फिर चला गया।
तीन महीने लग गए।
अब केवल सौ पृष्ठ थे।
गुरू ने कहा, मैं 'यह भी ज्यादा है।
इसे और संक्षिप्त कर लाओ।'
कुछ समय बाद शिष्य लौटा।
एक ही पन्ने पर सार - सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे।
कहा, 'तुम्हारे लिए ही रूका हूं।
तुम्हें समझ कब आएगी ?
और संक्षिप्त कर लाओ।'
शिष्य को होश आया।
भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया।
गुरू के हाथ में खाली कागज दिया।
गुरू ने कहा, 'अब तुम शिष्य हुए।
मुझ से तुम्हारा संबंध बना रहेगा।'
कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं।
जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।
निष्कर्ष: -
गुरू तो ज्ञान - प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत है, उसे अज्ञानी बनकर ही हासिल किया जा सकता है।
पंडित बनने से गुरू नहीं मिलते।
व्यक्ति जिस शक्ति और ऊर्जा के साथ पैदा होता है,वो उसके जीवन के विकास के लिये होती है।
जो उसे औरों से अलग बनाती है।
पर जाने अनजाने व्यक्ति अपनी ऊर्जा को बेमतलब के लडाई - झगड़ो और मन मुटावों में लगा कर अपना समय और ऊर्जा दोनों को व्यर्थ करता रहता है।
यदि व्यक्ति अपनी ऊर्जा को सही से उपयोग करना सीख जायें तो उसके जीवन की आधी से ज्यादा समस्याएं वैसे ही समाप्त हो जाती है।
व्यक्ति अपनी ऊर्जा को सही दिशा देकर खुद के जीवन को बेहतरीन तरीके से बिता सकता है,और दूसरों के लिये प्रेरणा स्त्रोत भी बन सकता है।
पर उसके लिए विवेकशीलता बहुत जरूरी है।
शरीरं स्वरूपं नवीनं कलत्रं
धनं मेरुतुल्यं यशश्चारु चित्रम् ।
हरेरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम्।।
शरीर चाहे कितना भी सुन्दर हो,पत्नी चाहे कितनी भी मनमोहिनी हो,धन चाहे कितना भी सुमेरु पर्वत की भांति असीम हो और सारे संसार में चाहे कितना भी नाम प्रख्यात हो चुका हो।
लेकिन जब तक जीवन प्रदान करने वाले श्रीहरि के चरण कमलों में मन नहीं लगा,तब तक क्या प्राप्त किया ?
क्या पाया ?
अर्थात् सब व्यर्थ है!
नीरोग रहना, ऋणी न होना,
परदेस में न रहना, अच्छे लोगों के साथ मेल होना,
अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निडर होकर रहना-
ये छः मनुष्य लोक के सुख हैं।
कमल का कीचड़ में खिलना प्रकृति का शाश्वत नियम है, कीचड़ में कमल का खिलना कीचड़ की किस्मत नही अपितु कमल की स्वयं सिद्धता होती है यदि आपमें क्षमता है कमल जैसे खिलने की तो कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप किन लोगों के बीच काम कर रहें हैं।
आप अपनी प्रतिभा के दम पर विकट परिस्थितियों में भी अपने आचरण की सौन्दर्यता के गुण के साथ,अपनें मूल्य को बरकरार रखते हुए भी अपना अस्तित्व स्थापित कर सकतें हैं।
कीचड़ या विपरित स्थिति को दोष देने की जगह उसे उपयोगी बना सकतें हैं।
यदि जीवन में सच में श्रेष्ठ होना है कमल जैसे खिलना है,तो कीचड़ से परहेज न करें बल्कि स्वयं को साबित करके बतायें।
जैसे पारस और लोहे को टकराते रहो तो पहले लोहे पर लगी हुई मिट्टी, जंग आदि व्यवधान दूर होंगे और बाद में स्पर्श होने पर लोह स्वर्ण बन जाएगा।
बस इसी प्रकार बार - बार के सत्संग से परम सेवा से पापरुपी मल दूर हो जाएगा और अन्त में कल्याण हो जाएगा
जिस प्रकार शुद्ध लोहे को ही चुंबक खिचता है अपने तरफ उसी प्रकार शुद्ध जीवात्मा ही वास्तविक महापुरुषों के तरफ खिंचा चला आता है और सहजता से परमात्मा की प्राप्ति कर पाता है
निष्काम भाव से की गई सेवा करने वाले साधक सांसारिक राग द्वेष से मुक्त हो कर शुद्ध हो जाते हैं और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर सरलता से आगे बढ़ते चले जाते हैं*
सेवा अमूल्य सेवा है जो बहुत बड़े सौभाग्य से प्राप्त होती है।भगवान की कृपा से प्राप्त होती है
सेवा का फल निष्फल नही जाता
*गुरु घर में एक नौ साल का लडका
बहुत भाग भाग कर प्रेम से सेवा कर रहा था*
*उस लडके को सेवा करते हुए
संत महापुरुष देख रहे थे। उन्होंने एक
सेवादार को उस लडके को बुलाने भेजा।
उस लडके ने सेवादार भाई को उसके साथ
जाने से मना कर दिया,
उसने सेवादार भाई को कहा कि जिनकी
आज्ञा से मैं यहाँ पर सेवा कर रहा हूँ वो
अभी यहाँ नही है, उनकी आज्ञा के बिना मै आपके साथ नही चल सकता। यही बात सेवादार भाई ने महापुरुषों को बताई,
थोडे समय बाद जब लडके को सेवा पर
लगाने वाले भगत जी वापिस आये तो
उस सेवादार भाई ने सारी बात बताई।
वो तुरंत उस लडके के पास गये और
उसे संत महापुरुषों के पास ले गये*
*संत महापुरुषों ने एक पैन लेकर उस
लडके के माथे पर 0 लिख दिया।
ये देखकर सभी सेवादार महापुरुषों से पूछने
लगे कि हम सब को इस 0 का राज बताए।
सभी की जिज्ञासा को शाँत करने के लिए संत महापुरुषों ने कहा कि इस लडके की आयु सिर्फ नौ साल थी, मगर इस लडके ने गुरु-घर की सेवा बहुत लगन और प्रेम से की है,
इसकी सेवा से खुश होकर सतगुरु की
दया मेहर से अब इस लडके की
आयु 90 साल की हो गई है*
*इसलिए सेवा बहुत अनमोल है,
हमे सेवा की कद्र करनी चाहिए।
जब भी सेवा मिले इसे प्रभु की दया
समझ कर करनी चाहिए। क्या पता कौन
सा कर्म कौन सी सेवा करके कट जाना है ।
सेवा के महत्व को समझना चाहिए।
सकारात्मक सोच &सकारात्मक परिणाम :
पुराने समय की बात है, एक गाँव में दो किसान रहते थे। दोनों ही बहुत गरीब थे, दोनों के पास थोड़ी थोड़ी ज़मीन थी, दोनों उसमें ही मेहनत करके अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाते थे।
अकस्मात कुछ समय पश्चात दोनों की एक ही दिन एक ही समय पर मृत्यु हो गयी। यमराज दोनों को एक साथ भगवान के पास ले गए। उन दोनों को भगवान के पास लाया गया।
भगवान ने उन्हें देख के उनसे पूछा, "अब तुम्हें क्या चाहिये, तुम्हारे इस जीवन में क्या कमी थी, अब तुम्हें क्या बना कर मैं पुनः संसार में भेजूं।”
भगवान की बात सुनकर उनमें से एक किसान बड़े गुस्से से बोला, ” हे भगवान! आपने इस जन्म में मुझे बहुत घटिया ज़िन्दगी दी थी।
आपने कुछ भी नहीं दिया था मुझे।
पूरी ज़िन्दगी मैंने बैल की तरह खेतो में काम किया है, जो कुछ भी कमाया वह बस पेट भरने में लगा दिया, ना ही मैं कभी अच्छे कपड़े पहन पाया और ना ही कभी अपने परिवार को अच्छा खाना खिला पाया।
जो भी पैसे कमाता था, कोई आकर के मुझसे लेकर चला जाता था और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं आया।
देखो कैसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जी है मैंने।”
उसकी बात सुनकर भगवान कुछ समय मौन रहे और पुनः उस किसान से पूछा, "तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।”
भगवान का प्रश्न सुनकर वह किसान पुनः बोला, "भगवन आप कुछ ऐसा कर दीजिये, कि मुझे कभी किसी को कुछ भी देना ना पड़े। मुझे तो केवल चारों तरफ से पैसा ही पैसा मिले।”
अपनी बात कहकर वह किसान चुप हो गया।
भगवान ने उसकी बात सुनी और कहा, "तथास्तु, तुम अब जा सकते हो मैं तुम्हे ऐसा ही जीवन दूँगा जैसा तुमने मुझसे माँगा है।”
उसके जाने पर भगवान ने पुनः दूसरे किसान से पूछा, "तुम बताओ तुम्हें क्या बनना है, तुम्हारे जीवन में क्या कमी थी, तुम क्या चाहते हो?”
उस किसान ने भगवान के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, "हे भगवन।
आपने मुझे सबकुछ दिया, मैं आपसे क्या मांगू। आपने मुझे एक अच्छा परिवार दिया, मुझे कुछ जमीन दी जिसपर मेहनत से काम करके मैंने अपने परिवार को एक अच्छा जीवन दिया।
खाने के लिए आपने मुझे और मेरे परिवार को भरपेट खाना दिया।
मैं और मेरा परिवार कभी भूखे पेट नहीं सोया।
बस एक ही कमी थी मेरे जीवन में, जिसका मुझे अपनी पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहा और आज भी हैं।
मेरे दरवाजे पर कभी कुछ भूखे और प्यासे लोग आते थे, भोजन माँगने के लिए, परन्तु कभी - कभी मैं भोजन न होने के कारण उन्हें खाना नहीं दे पाता था, और वो मेरे द्वार से भूखे ही लौट जाते थे।
ऐसा कहकर वह चुप हो गया।”
भगवान ने उसकी बात सुनकर उससे पूछा, ”तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।
किसान भगवान से हाथ जोड़ते हुए विनती की, "हे प्रभु! आप कुछ ऐसा कर दो कि मेरे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये।”
भगवान ने कहा, “तथास्तु, तुम जाओ तुम्हारे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा नहीं जायेगा।”
अब दोनों का पुनः उसी गाँव में एक साथ जन्म हुआ। दोनों बड़े हुए।
पहला व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था, कि उसे चारों तरफ से केवल धन मिले और मुझे कभी किसी को कुछ देना ना पड़े, वह व्यक्ति उस गाँव का सबसे बड़ा भिखारी बना।
अब उसे किसी को कुछ देना नहीं पड़ता था, और जो कोई भी आता उसकी झोली में पैसे डालके ही जाता था।
और दूसरा व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, केवल इतना हो जाये की उसके द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये, वह उस गाँव का सबसे अमीर आदमी बना।
हर बात के दो पहलू होते हैं
सकारात्मक और नकारात्मक,
अब ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप चीज़ों को नकारत्मक रूप से देखते हैं या सकारात्मक रूप से।
अच्छा जीवन जीना है तो अपनी सोच को अच्छा बनाइये, चीज़ों में कमियाँ मत निकालिये बल्कि जो भगवान ने दिया है उसका आनंद लीजिये और हमेशा दूसरों के प्रति सेवा का भाव रखिये !!!
क्यों विलासी भावना से
तुम मलिन मन कर रही हो ?
प्रेम दर्शन का विषय है
तुम प्रदर्शन कर रही हो !
क्या नही तुमने सुनी है प्रीत की पावन कहानी ?कृष्ण की बनकर रही हैं राधिका , मीरा दीवानी ?
राम ने मां जानकी हित सिंधु पर था सेतु बाँधा।क्या नही तुमने पढ़ी है शिव सती की पुण्य गाथा ?
तुम समय के केंद्र में क्यों
व्यर्थ नर्तन कर रही हो ?
प्रेम दर्शन का विषय है
तुम प्रदर्शन कर रही हो !
प्रीत के सच्चे उपासक प्रेयसी सब जानते हैं।
एक स्नेहिल दृष्टि को वो सृष्टि अपनी मानते हैं।
हाथ के स्पर्श तक को पाप की संज्ञा बताते।
आह !
ये निश्छल रसिक अब हैं कहां जीवन बिताते ?
क्यों प्रणय की इस प्रथा का
मान मर्दन कर रही हो ?
प्रेम दर्शन का विषय है
तुम प्रदर्शन कर रही हो !
जानते हो , इस सदी के ये युगल क्या कर रहे हैं ?
चेतना की पीठि का पर वासना को धर रहे हैं।
प्रेमियों ! सच में तुम्हारी मर चुकी संवेदना है।
नेह में क्यों देह का ही ध्येय तुमको भेदना है ?
नेह से निर्मित भवन का
क्यों प्रभंजन कर रही हो ?
प्रेम दर्शन का विषय है
तुम प्रदर्शन कर रही हो !
धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर यिद।पौरुषेचाप्रतिद्वन्द्वः शरणं जहि रावणिम्॥
अर्थात् हे मेरे प्रिय बाण, यदि यह सत्य है कि दशरथ जी के पुत्र राम ने अपने मन में केवल पुण्य केन्द्रित किया है और यदि यह भी सत्य है कि वे सदैव अपने वचनों की ओर अग्रसर हैं और यदि वे अपने कौशल में किसी से पीछे नहीं हैं तो इन्द्रजीत को नष्ट कर दो।
इस श्लोक के मन में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अधर्मी और विधर्मी इसमें एक कुतर्क जोड़ देते हैं कि क्या कोई दुर्जन व्यक्ति भी इन शब्दों के साथ किसी सज्जन व्यक्ति पर वार करके उसकी हत्या करने में सफल हो सकता है ?
नहीं, केवल लक्ष्मण धार्मिक पुरुष के रूप में इन शब्दों में राममंत्र की शक्ति समाहित कर किसी दुर्जन का वध कर सकती है।
|| जय श्री राम जय हनुमान ||
|| जय श्री हरि विष्णु ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
|| जय गुरुदेव प्रणाम आपको ||