https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 09/18/20

।। श्री ऋगवेद श्री विष्णु महा पुराण से पुरुषोत्तम मास माहात्म्य की कथा ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री विष्णु महा पुराण से पुरुषोत्तम मास माहात्म्य की कथा ।।

कल्पवृक्ष के समान भक्तजनों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावन बिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को में नमस्कार करता हूँ ।

नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ।



यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे गये बहुत से मुनि आये। 

जैसे, असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत, आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य, गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु, कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद, जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गव, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द, विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि, महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय, ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु, शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग, श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि।

शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले।

ब्रह्मनिष्ठ, संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले। 

नैमिषारण्य में आकर यज्ञ करने को तत्पर हुए। 

इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूत जी अपने आश्रम से निकले, और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए। 

उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा। 

संसार समुद्र से पार करने वाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये।

पहले से जहाँ वे इकट्‌ठे थे वहीं प्रसन्नचित्त सूतजी भी जा पहुँचे।

इसके अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण करने वाले, प्रसन्नमुख, शान्त, परमार्थ विशारद, समग्र गुणों से युक्त, सम्पूर्ण आनन्दों से परिपूर्ण,  ऊर्ध्वपुण्ड्रघारी, राम नाम मुद्रा से युक्त, गोपीचन्दन मृत्तिका से दिव्य, शँख, चक्र का छापा लगाये।

तुलसी की माला से शोभित, जटा - मुकुट से भूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले, अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले, भगवान् के परम मन्त्र को जपते हुए समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेन्द्रिय तथा क्रोध को जीते हुए। 

जीवन्मुक्त, जगद्गुरु श्री व्यास की तरह और उन्हीं की तरह निःस्पृह्‌ आदिगुणों से युक्त उनको देख उस नैमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षिगण सहसा उठ खड़े हुए।

विविध प्रकार की विचित्र कथाओं को सुनने की इच्छा प्रगट करने लगे। 

तब नम्रस्वभाव सूतजी प्रसन्न होकर सब ऋषियों को हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करने लगे।

ऋषि लोग बोले...!

हे सूतजी! 

आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो। 

हम लोगों ने आपके योग्य सुन्दर आसन लगाया है। 

हे महाभाग....!

आप थके हैं, यहाँ बैठ जाइये।'

ऐसा सब ब्राह्मणों ने कहा...!

इस प्रकार बैठने के लिए कहकर जब सब तपस्वी और समस्त जनता बैठ गयी तब विनयपूर्वक तपोवृद्ध समस्त मुनियों से बैठने की अनुमति लेकर प्रसन्न होकर आसन पर सूतजी बैठ गये।

तदनन्तर सूत को सुखपूर्वक बैठे हुए और श्रमरहित देखकर पुण्यकथाओं को सुनने की इच्छा वाले समस्त ऋषि यह बोले...!

हे सूतजी...!

हे महाभाग...!

आप भाग्यवान् हैं....!

भगवान् व्यास के वचनों के हार्दि्‌क अभिप्राय को गुरु की कृपा से आप जानते हैं। 

क्या आप सुखी तो हैं? 

आज बहुत दिनों के बाद कैसे इस वन में पधारे?

आप प्रशंसा के पात्र हैं। 

हे व्यासशिष्यशिरोमणे! आप पूज्य हैं। 

इस असार संसार में सुनने योग्य हजारों विषय हैं।

परन्तु उनमें श्रेयस्कर, थोड़ा - सा और सारभूत जो हो वह हम लोगों से कहिये। 

हे महाभाग...!

संसार - समुद्र में डूबते हुओं को पार करने वाला तथा शुभफल देने वाला।

आपके मन में निश्चित विषय जो हो वही हम लोगों से कहिये।

हे अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुओं को ज्ञानरूप चक्षु देने वाले! 

भगवान् के लीलारूपी रस से युक्त, परमानन्द का कारण, संसाररूपी रोग को दूर करने में रसायन के समान जो कथा का सार है वह शीघ्र ही कहिये।' 

इस प्रकार शौनकादिक ऋषियों के पूछने पर हाथ जोड़कर सूतजी बोले....!

'हे समस्त मुनियों...!

मेरी कही हुई सुन्दर कथा को आप लोग सुनिये।

 हे विप्रो..!

पहले मैं पुष्कर तीर्थ को गया।

वहाँ स्नान करके पवित्र ऋषियों, देवताओं तथा पितरों को तर्पणादि से तृप्त करके तब समस्त प्रतिबन्धों को दूर करने वाली यमुना के तट पर गया।

फिर क्रम से अन्य तीर्थों को जाकर गंगा तट पर गया। 

पुनः काशी आकर अनन्तर गयातीर्थ पर गया।

पितरों का श्राद्ध कर तब त्रिवेणी पर गया। 

तदनन्तर कृष्णा के बाद गण्डकी में स्नान कर पुलह ऋषि के आश्रम पर गया। 

धेनुमती में स्नान कर फिर सरस्वती के तीर पर गया।

वहाँ हे विप्रो...!

त्रिरात्रि उपवास कर गोदावरी गया। 

फिर कृतमाला, कावेरी, निर्विन्ध्या, ताम्रपर्णिका, तापी, वैहायसी, नन्दा, नर्मदा, शर्मदा, नदियों पर गया। 

पुनः चर्मण्वती में स्नान कर पीछे सेतुबन्ध रामेश्वर पहुँचा। 

तदनन्तर नारायण का दर्शन करने के हेतु बदरी वन गया। 

तब नारायण का दर्शन कर, वहाँ तपस्वियों को अभिनन्दन कर, पुनः नारायण को नमस्कार कर और उनकी स्तुति कर सिद्धक्षेत्र पहुँचा। 

इस प्रकार बहुत से तीर्थों में घूमता हुआ कुरुदेश तथा जांगल देश में घूमता - घूमता फिर हस्तिनापुर में गया।

हे द्विजो....!

वहाँ यह सुना कि राजा परीक्षित राज्य को त्याग बहुत ऋषियों के साथ परम पुण्यप्रद गंगातीर गये हैं।

और उस गंगातट पर बहुत से सिद्ध, सिद्धि हैं भूषण जिनका ऐसे योगिलोग और देवर्षि वहाँ पर आये हैं।

उसमें कोई निराहार, कोई वायु भक्षण कर, कोई जल पीकर, कोई पत्ते खाकर, कोई श्वास ही को आहार कर, कोई फलाहार कर और कोई - कोई फेन का आहार कर रहते हैं। 

हे द्विजो...!

उस समाज में कुछ पूछने की इच्छा से हम भी गये। 

वहाँ ब्रह्मस्वरूप भगवान् महामुनि, व्यास के पुत्र, बड़े तेजवाले, बड़े प्रतापी, श्रीकृष्ण के चरण - कमलों को मन से धारण किये हुए श्रीशुकदेव जी आये। 

उन १६ वर्ष के योगिराज, शँख की तरह कण्ठवाले, बड़े लम्बे, चिकने बालों से घिरे हुए मुखवाले, बड़ी पुष्ट कन्धों की सन्धिवाले, चमकती हुए कान्तिवाले, अवधूत रूपवाले, ब्रह्मरूप, थूकते हुए।

लड़कों से घिरे हुए मक्षिकाओं से जैसे मस्त हस्ती घिरा रहता है।

उसी प्रकार धूल हाथ में ली हुई स्त्रियों से घिरे हुए। 

सर्वांग धूल रमाए महामुनि शुकदेव को देख सब मुनि प्रसन्नता पूर्वक हाथ जोड़ कर सहसा उठकर खड़े हो गये।


इस प्रकार महामुनियों द्वारा सत्कृत भगवान् शुक को देखकर पश्चात्ताप करती ( पछताती ) हुई स्त्रियाँ और साथ के बालक जो उनको चिढ़ा रहे थे।

दूर ही खड़े रह गये और भगवान् शुक को प्रणाम करके अपने - अपने घरों की ओर चले गये।

इधर मुनि लोगों ने शुकदेव के लिए बड़ा ऊँचा और उत्तम आसन बिछाया। 

उस आसन पर बैठे हुए भगवान् शुक को कमल की कर्णिका को जैसे कमल के पत्ते घेरे रहते हैं।

उसी प्रकार मुनि लोग उनको घेर कर बैठ गये।

यहाँ बैठे हुए ज्ञानरूप महासागर के चन्द्रमा भगवान् महामुनि व्यासजी के पुत्र शुकदेव ब्राह्मणों द्वारा की हुई पूजा को धारण कर तारागणों से घिरे हुए चन्द्रमा की तरह शोभा पा रहे थे।

"योगी निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रुप अनंत आनंद का अनुभव करता है।।"

सभी यही तो चाहते हैं।

आनंद की तलाश सबको है।

संसार में सुख है,आनंद नहीं।

मगर सुख से आनंद की पूर्ति होती प्रतीत होती है।

इसलिए आदमी वहीं अटक जाता है।

अटका वह भटका।

तब सुख जरुरी हो जाता है वर्ना  स्थिरता अनुभव नहीं होती। 

बेचैनी रहती है। 

फिर वह कोशिश करता है...!

संसार में जहां जैसे सुख मिले धन से,रुप से,बल से,पद से।

अधिकांश लोगों को लोगों से सुख चाहिये,लोगों का सुख चाहिये।

उनकी शिकायत रहती है वे सुख चाहते हैं,सुख मिलता नहीं।

लोग सुख नहीं देते।

कैसे दें?

उनके पास सुख है नहीं, उन्हें दूसरों से सुख चाहिए।

दूसरे सुख नहीं दे सकते तो वे विरक्त हो जाते हैं,मुंह फेर लेते हैं।

आपको जिससे सुख चाहिये वह आपसे मुंह फेर ले तो आपको कैसा लगेगा?

आप उदासी,निराशा,क्रोध या घृणा से भर सकते हैं।

प्रेम न मिलने से कई लोग साधु बन गये। 

क्या उन्होंने यह सही किया?

नि:संदेह वहां समझ की कमी है।

किसी भी समस्या को पूरा समझना चाहिए।

समझ ही समाधान है।

लोग हमें सुख नहीं दे सकते क्योंकि उनके पास सुख नहीं है। 

उन्हें हमसे सुख चाहिये।

क्या हम उन्हें सुख दे सकते हैं? 

हमारे पास भी नहीं है तो कैसे दे सकते हैं?

फिर भी संभावनाएं तो हैं।

हम दूसरों को सुख देना शुरू करें जैसा वह चाहें प्रेम से,आदर से, वस्तु से, सद्व्यवहार से,सुखद संभाषण से।

उस समय स्थिति भिन्न होती है।

अगर हम सुख चाहते हैं तो हम निर्भर, आक्रामक होते हैं।

दूसरा अपना बचाव करेगा ही।

अगर हम सुख देना चाहते हैं तो अब हम आक्रामक नहीं होंगे।

अब ठहराव आयेगा।

हम मैत्री पूर्ण होंगे। 

हमारी यह स्थिति दूसरे को अच्छी लगेगी।

उसे प्रसन्नता होगी और तब वह हमारे अनुकूल होने लगेगा। 

यही तो हम चाहते हैं कि वह हमारे अनुकूल हो ताकि हमें सुख मिले।

सीधा सुख नहीं मिल सकता,वह अनुकूलता के जरिए ही मिल सकता है।

आक्रामकता अनुकूल नहीं होने देती। 

ठहरना होगा इस भाव के साथ कि...!

"मैं तुमसे सुख नहीं चाहता, मैं तुम्हें सुख देना चाहता हूं।"

हमारा यही भाव परिवर्तन उसे हमारे अनुकूल बनायेगा।

आदमी को सुख मिले तो वह स्वस्थ होता है।

गहरा कारण यह है कि सुख स्व में से ही आता है।

बाहर से मिलता सुख उसे स्वस्थ होने में मदद करता है।

स्वस्थ आदमी हमें क्यों सुख देगा?

वह स्वस्थ है।

अभावग्रस्त भी सुख कैसे देगा,वह अभावग्रस्त है।

इसकी गहराई को समझना चाहिए। 

उपकारी लोग इस मामले में बडे फायदे में रहते हैं।

वे दूसरों को सुख देकर रचनात्मक वातावरण निर्मित करते हैं। 

उन्हें सुख नहीं चाहिए मगर उनके द्वारा निर्मित रचनात्मक वातावरण उनके लिए अनुकूल तो होता ही है।

वस्तु आदि से सुख देना एक उपाय है।

 स्वयं सुखी हो उसकी बात अलग है।

सुखी आदमी को किसीको सुख नहीं देना पड़ता,दूसरे स्वत:सुखी होते हैं उसके सानिध्य में।

धनपदप्रतिष्ठा से सुखी नहीं।

ऐसे सुखी से कोई सुखी नही होता। 

बहुत सारे लोगों के पास धन,पद आदि है मगर उससे दूसरों को कोई सुख नहीं मिलता।

सुख आत्मा का सुख है। 

अकारण प्रसन्न,सहज सदा आनंदित। 

उससे सभी सुखी होते हैं।

उसे किसीको सुखी करने की जरूरत नहीं पड़ती।

निरहंकार आनंद के संप्रेषण से दूसरे को भी निरहंकार आनंद की अनुभूति होती है।

( सफलता,आनंद की कुंजी नहीं है।

आनंद, सफलता की कुंजी है।

दुखी होकर सफलता न खोजें,सम रहकर सफलता खोजें।

समता, स्वस्थता है।

बल है, ऊर्जा है। )

कृष्ण जब कहते हैं आत्मा को परमात्मा में लगाने की बात तब उसकी सार्थकता को समझना चाहिए।

यह अपने भीतर संभव है।

बाहर ध्यान है तो उसके भी कई उपाय हैं।

कोई ईश्वरीय प्रतिमा की भक्ति कर सकता है।

कोई गुरु को देखकर उसकी तरह आत्मस्थ होने की कोशिश कर सकता है।

अंतर्मुखी होने पर फिर सत्य भीतर उद्घाटित होने लगता है।

सत्य के लिए बाहर,भीतर का भेद नहीं है। 

फिर भी देहाभिमान के कारण से पहले बाहर, फिर भीतर आने की व्यवस्था है-

केंद्र में।

केंद्र में स्थित हो गये फिर कुछ नहीं।

केंद्र परिधि रहित है। 

अभी हमारा चित्त परिधि पर है,बाहर है,लोगों पर केंद्रित है।

ऐसे में उन्हें अपने अनुकूल बनाना बडी महत्वपूर्ण बात हो जाती है।

थोडा राग द्वेष से परहेज करने की जरूरत है।

राग अनुकूल बनायेगा,द्वेष प्रतिकूल बनायेगा।

इससे तो द्वंद्व बना रहता है।

बात रचनात्मकता की है,सही समझने की है।

सही समझ चोट से बचा लेती है।

एक वाक्य पढा -

"Never let your feelings get too deep, people can change anytime."

आहत हो जाएं तो इतने आहत न हो जाएं कि सब छोड छाडकर वैरागी बन जायें।

ऐसे लोग मिलते हैं।

ऐसे लोग भी होते हैं जो जीवन भर दिल पर लगी चोट और उससे बने घाव को ढोते हैं।

वह कभी अच्छा होता ही नहीं।

कहना चाहिए नासमझ आदमी उसे अच्छा होने देता नहीं।

वह देखता नहीं कि लोग बदलते हैं।

बदल सकते हैं।

किसी तात्कालिक घटना को जिंदगी भर ढोने की जरूरत नहीं। 

समझदारी चाहिए। 

समझदार आदमी का अपमान करके उससे बंधना खतरनाक है।

क्योंकि वह छोडेगा नहीं। 

बदलना पडेगा अगर उससे बंधे।

इसलिए तो कहते हैं-दुश्मनी भी करनी हो तो संत से करो।

भगवान का तो प्रसिद्ध है कि उनसे शत्रुता करनेवाले भी तर गये।

हम अपनी बात करते हैं।

हम किसीके शब्दों को, व्यवहार को इतनी गंभीरता से न लें कि हम ही विक्षिप्त हो जायें।

निद्रा,भोजन भी गंवा बैठे।

लोग बदल सकते हैं। 

घटनाएं, परिस्थितियां अस्थायी होती हैं।

स्थायी हम बनाते हैं।

हम समझें।

लोग हमसे अनुकूलता चाहते हैं। 

दुर्व्यवहार करनेवाला भी हमारी प्रतिक्रिया देखता ही है। 

क्या वही सब कुछ है,हम कुछ नहीं हैं?

ताली भी दो हाथ से बजती है।

हम सभी को सुख देना चाहते हैं। 

हमें किसीसे सुख नहीं चाहिए तो हमारे स्वरुप में ठहराव आयेगा।

भाव रचनात्मक होने से उसका अच्छा असर पडेगा।

हम उसे अनुकूल जान पडेंगे तो स्वत:उसका विरोध छूटने लगेगा।

एक मित्र अपने तथाकथित शत्रुओं से भयभीत हैं। 

तथा कथित इसलिए क्योंकि वे वास्तविक शत्रु नहीं है, खुद के बनाये हैं।

मैं मेरे मित्र का उदाहरण दूं।

वह शत्रुता करनेवाले को भी डांट देता।

कारण?

खुद उसके भीतर शत्रुता नहीं थी।

वह सबके अनुकूल था।

उसकी समझ साफ थी।

जब डांट खाने वाला सीधा होता तो मित्र प्रेम से, हंसकर बात करता।

मन की मलीनता धुल जाती।

दूसरे का रागद्वेष मिटाना हो तो पहले खुद का रागद्वेष मिटाना जरूरी है।

लोग तो अपने राग द्वेष को बनाये रखते हुए दूसरे के रागद्वेष मिटाना चाहते हैं।

ऐसा नहीं है।

अपना राग द्वेष दूसरे में भी रागद्वेष जगायेगा।

हमारी अनुकूलता हमारा सुख देने का प्रयास उसे अनुकूल बनायेगा।

इसका प्रयोग भी किया जा सकता है। 

यद्यपि यह प्रयोग की चीज नहीं फिर भी यह सत्प्रयास के अंतर्गत है रचनात्मक वातावरण लाने की दृष्टि से इस लिए उसके अच्छे परिणाम आने की संभावना अधिक होती है।

तत्काल न हो तो डटे रहें,प्रयोग जारी रखें।उसके परिणाम होते हैं।

यह क्रोध,घृणा,वैर, विरोध का प्रयोग नहीं है।

चाहे तो कोई करले उसके भी प्रयोग। 

यद्यपि उसकी जरूरत नहीं।

आम आदमी का जीवन ऐसा ही है। 

रचनात्मक समझ रखने वाले लोग कम ही मिलते हैं।

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य और इंद्र का शनि से बहस।।

सभी मित्रों के मेरा लेख में हे ज्योतिष आप मेरा हुवा की कोपी ना करे किसी लेख की कोपी नही करते, किसी का लेखको कोपी तो वाही विद्या आगे बठने की नही हेपी को हो आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता ભાઈ અને આગળ भी नही बढ़ता , તમે તમારા મહંત થી તૈયાર થવાથી ખૂબ આગળ વધો તમારો આભાર ........
જય દ્વારકાધીશ

 श्री ऋग्वेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य और इंद्र का शनि से बहस।

                         
श्री ऋग्वेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य।

નારદ જી બોલે...!

'हे महाभाग...! 

हे तपोनिधे....!

આ પ્રકારનો અતિમાસના વચનો સાંભળવા માટે હરિના તબક્કામાં આગળ ઉમેરાતાં વધારામાં શું કહ્યું?'

શ્રીનારાયણ બોલે...! 


'હે પાપ રહિત! 

हे નારદ....!

जो हरि ने मलमास के प्रति कहा वह हम कहते हैं सुन! हे मुनिश्रेष्ठ! 

તમે જે સત્कथा हमसे पूछते हैं, आपको धन्य है।'

શ્રીકૃષ્ણ બોલે...!

'હે અરજીન...!

बैकुण्ठ का वृत्तान्त हम आपको सम्मुख कहते हैं..!

સુન! 

મલमास के मूर्छित हो जाने पर हरि के नेत्र से संकेत पाये हुए गरुड़ मूरछित मलमास को पंख से हवा तो लगेंगे। 

હવા લગને પર વધુ માસ ઊઠવું ફરી બોલા હે વિભો! 

यह मुझको नहीं रुचता है.

अधिक मास बोला....!

'हे जगत्‌ को उत्पन्न करने वाले! 

हे विष्णो! 

हे जगत्पते! 

મારી રક્ષા કરો! 

બચાવ કરો! 

हे नाथ! 

मुझ शरण आये की आज कैसे उपेक्षा कर रहे हैं।'

इस प्रकार कहकर काँपते हुए घड़ी - घड़ी विलाप करते हुए अधिमास से...!

बैकुण्ठ में रहने वाले हृषीकेश हरि, बोले।

श्रीविष्णु बोले...!

'उठो - उठो तुम्हारा कल्याण हो....!

हे वत्स! 

विषाद मत करो। 

हे निरीश्वर! 

तुम्हारा दुःख मुझको दूर होता नहीं ज्ञात होता है।'

ऐसा कहकर प्रभु मन में सोचकर क्षणभर में उपाय निश्चय करके पुनः अधिक मास से मधुसूदन बोले।

श्रीविष्णु बोले....!

'हे वत्स! 

योगियों को भी जो दुर्लभ गोलोक है वहाँ मेरे साथ चलो जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम, ईश्वर रहते हैं।

गोपियों के समुदाय के मध्य में स्थित, दो भुजा वाले, मुरली को धारण किए हुए नवीन मेघ के समान श्याम, लाल कमल के सदृश नेत्र वाले, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अति सुन्दर मुख वाले, करोड़ों कामदेव के लावण्य की मनोहर लीला के धाम, पीताम्बर धारण किये हुए।

माला पहिने, वनमाला से विभूषित, उत्तम रत्ना भरण धारण किये हुए, प्रेम के भूषण, भक्तों के ऊपर दया करने वाले, चन्दन चर्चित सर्वांग, कस्तूरी और केशर से युक्त, वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह से शोभित, कौस्तुक मणि से विराजित, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रत्नों के सार से रचित किरीट वाले, कुण्डलों से प्रकाशमान, रत्नोंल के सिंहासन पर बैठे हुए।

पार्षदों से घिरे हुए जो हैं।

वही पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं। 

वे सर्वतन्त्रर स्वतन्त्रउ हैं।

ब्रह्माण्ड के बीज, सबके आधार, परे से भी परे, निस्पृह, निर्विकार, परिपूर्णतम, प्रभु, माया से परे, सर्वशक्तिसम्पन्न, गुणरहित, नित्यशरीरी। 

ऐसे प्रभु जिस गोलोक में रहते हैं।

वहाँ हम दोनों चलते हैं।

वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।'

श्रीनारायण बोले...!

'ऐसा कहकर अधिमास का हाथ पकड़ कर हरि, गोलोक को गये। 

हे मुने! 

जहाँ पहले के प्रलय के समय में वे अज्ञानरूप महा अन्धकार को दूर करने वाले, ज्ञानरूप मार्ग को दिखाने वाले केवल ज्योतिः स्वरूप थे। 

जो ज्योति करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाली, नित्य, असंख्य और विश्वप की कारण थी तथा उन स्वेच्छामय विभुकी ही वह अतिरेक की चरम सीमा को प्राप्त थी। 

जिस ज्योति के अन्दर ही मनोहर तीन लोक विराजित हैं। 

हे मुने! 

उसके ऊपर अविनाशी ब्रह्म की तरह गोलोक विराजित है।

तीन करोड़ योजन का चौतरफा जिसका विस्तार है और मण्डलाकार जिसकी आकृति है।

लहलहाता हुआ साक्षात् मूर्तिमान तेज का स्वरूप है।

जिसकी भूमि रत्नमय है। 

योगियों द्वारा स्वप्न में भी जो अदृश्य है।

परन्तु जो विष्णु के भक्तों से गम्य और दृश्य है।

ईश्वर ने योग द्वारा जिसे धारण कर रखा है ऐसा उत्तम लोक अन्तरिक्ष में स्थित है।

आधि, व्याधि, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भय आदि से रहित है।

श्रेष्ठ रत्नों से भूषित असंख्य मकार्नो से शोभित है। 

उस गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन के विस्तार के भीतर दाहिने बैकुण्ठ और बाँयें उसी के समान मनोहर शिवलोक स्थित है। 

एक करोड़ योजन विस्तार के मण्डल का बैकुण्ठ, शोभित है।

वहाँ सुन्दर पीताम्बरधारी वैष्णव रहते हैं।

उस बैकुण्ठ के रहने वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए लक्ष्मी के सहित चतुर्भुज हैं। 

उस बैकुण्ठ में रहने वाली स्त्रियाँ, बजते हुए नूपुर और करधनी धारण की हैं।

सब लक्ष्मी के समान रूपवती हैं।

गोलोक के बाँयें तरफ जो शिवलोक है उसका करोड़ योजन विस्तार है और वह प्रलयशून्य है।

सृष्टि में पार्षदों से युक्त रहता है।

बड़े भाग्यवान्‌ शंकर के गण जहाँ निवास करते हैं।

शिवलोक में रहने वाले सब लोग सर्वांग भस्म धारण किये, नाग का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं।

अर्धचन्द्र जिनके मस्तक में शोभित है।

त्रिशूल और पट्टिशधारी, सब गंगा को धारण किये वीर हैं और सबके सब शंकर के समान जयशाली हैं।

गोलोक के अन्दर अति सुन्दर एक ज्योति है। 

वह ज्योति परम आनन्द को देने वाली और बराबर परमानन्द का कारण है। 

योगी लोग बराबर योग द्वारा ज्ञानचक्षु से आनन्द जनक, निराकार और पर से भी पर उसी ज्योति का ध्यान करते हैं। 

उस ज्योति के अन्दर अत्यन्त सुन्दर एक रूप है।


जो कि नीलकमल के पत्तों के समान श्याम, लाल कमल के समान नेत्र वाले करोड़ों शरत्पूर्णिमा के चन्द्र के समान शोभायमान मुख वाले, करोड़ों कामदेव के समान सौन्दर्य की, लीला का सुन्दर धाम दो भुजा वाले, मुरली हाथ में लिए, मन्दहास्य युक्त, पीताम्बर धारण किए।


श्रीवत्स चिह्न से शोभित वक्षःस्थल वाले, कौस्तुभमणि से सुशोभित, करोड़ों उत्तम रत्नों से जटित चमचमाते किरीट और कुण्डलों को धारण किये, रत्नों के सिंहासन पर विराजमान्‌, वनमाला से सुशोभित। 

वही श्रीकृष्ण नाम वाले पूर्ण परब्रह्म हैं।

अपनी इच्छा से ही संसार को नचाने वाले, सबके मूल कारण, सबके आधार, पर से भी परे छोटी अवस्था वाले, निरन्तर गोपवेष को धारण किये हुए।

करोड़ों पूर्ण चन्द्रों की शोभा से संयुक्त, भक्तों के ऊपर दया करने वाले निःस्पृह, विकार रहित, परिपूर्णतम, स्वामी रासमण्डप के बीच में बैठे हुए। 

शान्त स्वरूप, रास के स्वामी,  मंगलस्वरूप, मंगल करने के योग्य, समस्त मंगलों के मंगल, परमानन्द के राजा, सत्यरूप, कभी भी नाश न होने वाले विकार रहित, समस्त सिद्धों के स्वामी, सम्पूर्ण सिद्धि के स्वरूप, अशेष सिद्धियों के दाता, माया से रहित, ईश्वनर, गुणरहित, नित्यशरीरी, आदिपुरुष, अव्यक्त, अनेक हैं।

नाम जिनके, अनेकों द्वारा स्तुति किए जाने वाले, नित्य, स्वतन्त्र, अद्वितीय, शान्त स्वरूप, भक्तों को शान्ति देने में परायण ऐसे परमात्मा के स्वरूप को शान्तिप्रिय, शान्त और शान्ति परायण जो विष्णुभक्त हैं।

वे ध्यान करते हैं। 

इस प्रकार के स्वरूप वाले भगवान्‌ कहे जाने वाले।

वही एक आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र हैं।'

श्रीनारायण बोले....!

'ऐसा कहकर भगवान्, सत्त्व स्वरूप विष्णु अधिमास को साथ लेकर शीघ्र ही परब्रह्मयुक्त गोलोक में पहुँचे।'

सूतजी बोले....!

'ऐसा कहकर सत्क्रिया को ग्रहण किये हुए।

नारायण मुनि के चुप हो जाने पर आनन्द सागर पुरुषोत्तम से विविध प्रकार की नयी कथाओं को सुनने की इच्छा रखने वाले नारद मुनि उत्कण्ठा पूर्वक बोले।'

इति श्रीबृहन्नारदीय पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये  पञ्चमोऽध्यायः  ॥५॥

 
इंद्र देव का अहंकार।

नारदजी देवताओं के प्रभाव की चर्चा कर रहे थे।

देवराज इंद्र अपने सामने दूसरों की महिमा का बखान सुनकर चिढ़ गए ।

वह नारद से बोले- 

आप मेरे सामने दूसरे देवों का बखान कर कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते।

नारद तो नारद ही हैं।

किसी को अगर मिर्ची लगे तो वह उसमें छौंका भी लगा दें।

उन्होंने इंद्र पर कटाक्ष किया यह आपकी भूल है।

आप सन्मान और सम्मान चाहते हैं।

तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए।

अन्यथा उपहास के पात्र बन जाएंगे।

इंद्रदेव चिढ़ गए- 

मैं राजा बनाया गया हूँ।

तो दूसरे देवों को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा।

मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है ।

मैं वर्षा का स्वामी हूँ।

जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा।

देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे ।

नारद ने इंद्र को समझाया-

वरुण, अग्नि, सूर्य आदि।

सभी देवता अपनी - अपनी शक्तियों के स्वामी हैं।

सबका अपना सामर्थ्य है। 

आप उनसे मित्रता रखिए।

बिना सहयोगियों के राजकार्य नहीं चला करता ।

आप शंख मंजीरा बजाने वाले राज काज क्या जानें ? 

मैं देवराज हूँ, मुझे किसका डर ? 

इंद्र ने नारद का मजाक उड़ाया ।

नारदजी ने कहा- 

किसी का डर हो न हो।

शनि का भय आपको सताएगा।

कुशलता चाहते हों तो शनिदेव से मित्रता रखें।

वह यदि कुपित हो जाएं तो सब कुछ तहस नहस कर डालते हैं ।

इंद्र का अभिमान नारद को खटक गया।

नारद शनि लोक गए।

इंद्र से अपना पूरा वार्तालाप सुना दिया।

शनिदेव को भी इंद्र का अहंकार चुभा शनि और इंद्र का आमना − सामना हो गया।

शनि तो नम्रता से इंद्र से मिले।

मगर इंद्र तो अपने ही अहंकार में चूर ही रहते थे।

इंद्र को नारद की याद आई तो अहंकार जाग उठा शनि से बोले- 

सुना है...!

आप किसी का कुछ भी अहित कर सकते हैं । 

लेकिन मैं आपसे जरा भी नहीं डरता।

मेरा आप कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।

शनि को इंद्र की बातचीत का ढंग खटका,शनि ने कहा-

मैंने कभी श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश नहीं की है।

फिर भी समय आने पर देखा जाएगा।

कि कौन कितने पानी में है ।

इंद्र तैश में आ गए- 

अभी दिखाइए ! 

मैं आपका सामर्थ्य देखना चाहता हूँ।

देवराज इंद्र पर आपका असर नहीं होगा । 

शनि को भी क्रोध आया।

वह बोले- 

आप अहंकार में चूर हैं।

कल आपको मेरा भय सताएगा।

आप खाना पीना तक भूल जाएंगे।

कल मुझसे बचकर रहें ।

उस रात इंद्र को भयानक स्वप्न दिखाई दिया।

विकराल दैत्य उन्हें निगल रहा था।

उन्हें लगा यह शनि की करतूत है।

वह आज मुझे चोट पहुँचाने की चेष्टा कर सकता है । 

क्यों न ऐसी जगह छिप जाऊं जहाँ शनि मुझे ढूँढ़ ही न सके ।

इंद्र ने भिखारी का वेश बनाया और निकल गए।

किसी को भनक भी न पड़ने दी।

इंद्राणी को भी कुछ नहीं बताया इंद्र को शंका भी होने लगी।

कि उनसे नाराज रहने वाले देवता कहीं शनि की सहायता न करने लगें ।

वह तरह - तरह के विचारों से बेचैन रहे।

शनि की पकड़ से बचने का ऐसा फितूर सवार हुआ।

कि इंद्र एक पेड़ की कोटर में जा छुपे।

लेकिन शनि तो इंद्र को खोजने निकले ही नहीं ।

उन्होंने इंद्र पर केवल अपनी छाया भर डाल दी थी।

कुछ किए बिना ही इंद्र बेचैन रहे।

खाने - पीने की सुध न रही।

रात हुई तब इंद्र कोटर से निकले।

इंद्र खुश हो रहे थे।

कि उन्होंने शनिदेव को चकमा दे दिया।

अगली सुबह उनका सामना शनिदेव से हो गया।

शनि अर्थपूर्ण मुद्रा में मुस्कराए...!

इंद्र बोले-कल का पूरा समय निकल गया और आप मेरा बाल भी बांका नहीं कर सके।

अब तो कोई संदेह नहीं है।

कि मेरी शक्ति आपसे अधिक है ? 

नारद जैसे लोगों ने बेवजह आपको सर चढ़ा रखा है।

शनि ठठाकर हँसे- 

मैंने कहा था कि कल आप खाना− पीना भूल जाएंगे।

वही हुआ।

मेरे भय से बिना खाए - पीए पेड़ की कोटर में छिपना पड़ा।

यह मेरी छाया का प्रभाव था।

હું जो आप पर डाली थी.

जब मेरी छाया ने भी इतना भय दिया।

જો હું પ્રત્યક્ષ કુપત હો તો શું થશે ?

ઇંદ્ર का गर्व चूर हुआ. તેઓ માફ માंगी.

★★

         !!!!! શુભમસ્તુ !!!

🙏 હર હર મહાદેવ હર ...!!
जय माँ अंबे...!!! 🙏🙏
🙏🙏🙏【【【【【{{{{((((મારી પોસ્ટ પર આપવી પડશે) પરશુરામજી ))))) }}}}}】】】】】🙏🙏🙏

પંડિત રાજ્યગુરુ પ્રભુલાલ પી. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जडेजा कुल गुर:-
વ્યવસાયિક જ્યોતિષી નિષ્ણાત:- 
-: 1987 વર્ષનો જ્યોતિષ શાસ્ત્રનો અનુભવ :-
(જ્યોતિષ અને વાસ્તુ વિજ્ઞાનમાં 2 ગોલ્ડ મેડલિસ્ટ) 
શ્રી ધનલક્ષ્મી સ્ટ્રીટ્સ સામે, મારવાડ સ્ટ્રીટ્સ, રામેશ્વરમ - 623526 (તમિલનાડુ)
સેલ નંબર: +91- 7010668409 
વોટ્સએપ નંબર:+ 91- 7598240825 ( तमिलनाडु )
સ્કાયપે: જ્યોતિષ 85
વેબ: https://sarswatijyotish.com
ઈમેલ: prabhurajyguru@gmail.com
आप ही नंबर પર સંપર્ક/સંદેશ કરો...धन्यवाद.. 
નોટ એ મારો શોખ નથી હે મારો જોબ હેકૃપ્યા તમારી મુક્ત સેવા માટે દુઃખ ના દે.....
જય દ્વારકાધીશ....
જય જય પરશુરામજી...🙏🙏🙏

।।श्रीमद् भागवत के प्रसंग की एक सुंदर कहानी राधारानी जी को सौ वर्षों का वियोग।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।।श्रीमद् भागवत के प्रसंग की एक सुंदर कहानी राधारानी जी को सौ वर्षों का वियोग।।


जब श्रीदामा जी को श्राप लगा तो भगवान कृष्ण श्रीदामा जी से बोले-  

कि तुम एक अंश से असुर होगे और वैवत्सर मनमंतर में द्वापर में अवतार लूगाँ और मै गोपियों के साथ रास करूगाँ।



तो तुम अवहेलना करोगे।

तो मै वध करूगाँ।

इस प्रकार श्री दामा जी यक्ष के यहाँ शंखचूर्ण  नाम के दैत्य हो गए।

कुबेर के सेवक हो गए।

जब द्वापर में भगवान ने अवतार लिए ब्रज की लीलाओं में भगवान ने रासलीला की तो यही शंखचूर्ण नामक दैत्य जो कंस का मित्र था।

उस समय वह कंस से मिलकर लौट रहा था।

बीच में रास मंडल देखा उस समय राधा कृष्ण की अलौकिक शोभा है।

गोपियाँ चवर डूला रही है।

भगवान के एक हाथ में बंशी है।

सिर पर मोर मुकुट है।

गले में मणी है।

पैरों में नुपर है।

उसी समय ये शंखचूर्णने गोपियों को हरने की सोची उसका मुख बाघ के समान है,

शरीर से काला है।

उसे देखकर गोपियाँ भागने लगी। 

तो उनमे से एक गोपी शतचंद्र्नना को उसने पकड़ा,

और पूर्व दिशा में ले जाने लगा,गोपी कृष्ण - कृष्ण पुकारने लगी।

तो भगवान कृष्ण भी शाल का वृक्ष हाथ में लेकर उसकी ओर दोडे।

अब डर से उसने गोपी को तो छोड़ दिया और भगवान को आते देख अपने प्राण बचाने के लिए भागने लगा।

और हिमालय की घाटी पर पहुँच गया तो भगवान ने एक ही मुक्के में उसमें सिर को तोड दिया और उसकी चूडामणी निकाल ली।

शंखचूड़ के शरीर से एक दिव्य ज्याति निकली और भगवान के सखा श्रीदामा जी में विलीन हो गई तो शंखचूर्ण का वध करके भगवान  ब्रज में आ गए।

ये राक्षस श्रीदामा जी के अंश् था।

इस लिए शंख चूड़ की आत्मज्योति निकलकर श्री दामा में ही समां गई।

यहाँ जो श्राप श्री राधा रानी जी ने श्री दामा जी को दिया था वह तो पूर्ण हो गया।

अब जो श्राप राधा रानी जो को श्री दामा जी ने दिया था।

उसका समय भी निकट आ गया था और श्राप वश राधाजी केा सौ वर्ष का विरह हुआ।

तो भगवान ने कहा कि मै अपने भक्त का संकल्प कभी नहीं छोड सकता है.

इसलिए राधा जी को तो वियोग होना ही है।

फिर जब भगवान मथुरा चले गए तो वो लौट के नहीं आए सौ वर्ष बाद कुरूक्षेत्र में सारे गोप ग्वालों की भगवान से भेंट हुई राधा जी से मिले।

गौलोक धाम का प्राकट्य सबसे पहले विशालकाय शेषनाग का प्रादुर्भाव हुआ।

जो कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के है।

उन्ही की गोद में लोकवंदित महालोक “गोलोक” प्रकट हुआ।

जिसे पाकर भक्ति युक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता।

फिर असंख्य ब्रह्माण्डो के अधिपति गोलोक नाथ भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से “त्रिपथा गंगा” प्रकट हुई।

आगे जब भगवान से ब्रह्माजी प्रकट हुए।

तब उनसे देवर्षि नारद का प्राकट्य हुआ।

वे भक्ति से उन्मत होकर भूमंडल पर भ्रमण करते हुए भगवान के नाम पदों का कीर्तन करने लगे।

ब्रह्माजी ने कहा – 

नारद ! 

क्यों व्यर्थ में घूमते फिरते हो ? 

प्रजा की सृष्टि करो।

इस पर नारद जी बोले – 

मै सृष्टि नहीं करूँगा।

क्योकि वह “शोक और मोह” पैदा करने वाली है।

बल्कि मै तो कहता हूँ।

आप भी इस सृष्टि के व्यापार में लगकर दुःख से अत्यंत आतुर रहते है।

अतः आप भी इस सृष्टि को बनाना छोड़ दीजिये.

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया और उन्होंने नारद जी को श्राप दे दिया।

ब्रह्मा जी बोले -

हे दुर्मति नारद तु एक कल्प तक गाने-बजाने में लगे रहने वाले गन्धर्व हो जाओ।

नारद जी गन्धर्व हो गए...!

और गन्धर्वराज के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।

स्त्रियों से घिरे हुए एक दिन ब्रह्मा जी के सामने वेसुर गाने लगे।

फिर ब्रह्मा जी ने श्राप दिया तू शूद्र हो जा...!

दासी के घर पैदा होगा।

 

और इस तरह नारदजी दासी के पुत्र हुए।

और सत्संग के प्रभाव से उस देह हो छोड़कर फिर से ब्रह्मा जी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

और फिर भूतल पर विचरण करते हुए वे भगवान के पदों का गान व कीर्तन करने लगे.

एक दिन बिभिन्न लोको का दर्शन करते हुए।

“वेद - नगर” में गए,नारद जी ने देखा वहाँ सभी अपंग है।

किसी के हाथ नहीं किसी के पैर नहीं।

कोई कुबड़ा है।

किसी के दाँत नहीं है।

बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने पूँछा – 

बड़ी विचित्र बात है ! 

यहाँ सभी बड़े विचित्र दिखायी पड़ते है?

इस पर वे सब बोले – 

हम सब “राग - रगनियाँ” है।

ब्रह्मा जी का पुत्र है -

“नारद” वह वेसमय धुवपद गाता हुआ इस पृथ्वी पर विचरता है।

इस लिए हम सब अपंग हो गए है।

( जब कोई गलत राग,पद गाता है तो मानो राग रागनियो के अंग - भंग हो जाते है )

नारद जी बोले – 

मुझे शीघ्र बताओ ! 

नारद को किस प्रकार काल और ताल का ज्ञान होगा ?

राग-रागनियाँ – 

यदि सरस्वती शिक्षा दे।

तो सही समय आने पर उन्हें ताल का ज्ञान हो सकता है.

नारद जी ने सौ वर्षों तक तप किया।

तब सरस्वती प्रकट हुई और संगीत की शिक्षा दी।

नारद जी ज्ञान होने पर विचार करने लगे की इसका उपदेश किसे देना चाहिये? 

तब तुम्बुरु को शिष्य बनाया, दूसरी बात मन में उठी।

कि किन लोगो के सामने इस मनोहर राग रूप गीत का गान करना चाहिये?

खोजते-खोजते इंद्र के पास गए, इंद्र तो विलास में डूबे हुए थे।

उन्होंने ध्यान नहीं दिया, शंकरजी के पास गए।

वे नेत्र बंद किये ध्यान में डूबे हुए थे।

तब अंत में नारदजी “गोलोक धाम” में गए।

जब भगवान श्रीकृष्ण के सामने उन्होंने स्तुति करके भगवान के गुणों का गान करने लगे।

और वाद्य यंत्रो को दबाकर देवदत्त स्वरामृतमयी वीणा झंकृत की।

तब भगवान बड़े प्रसन्न हुए और अंत में प्रेम के वशीभूत हो।

अपने आपको देकर भगवान जल रूप हो गए।

भगवान के शरीर से जो जल प्रकट हुआ उसे “ब्रह्म - द्रव्य”के नाम से जानते है।

उसके भीतर कोटि - कोटि ब्रह्माण्ड राशियाँ लुढकती है।

जिस ब्रह्माण्ड में सभी रहते है।

उसे “पृश्निगर्भ” नाम से प्रसिद्ध है जो वामन भगवान के पाद - घात से फूट गया।

उसका भेदन करके जो ब्रह्म-द्रव्य का जल आया, उसे ही हम सब गंगा के नाम से जानते है।

गंगा जी को धुलोक में “मन्दाकिनी”,पृथ्वी पर “भागीरथी”,और अधोलोक पाताल में “भोगवर्ती” कहते है।

इस प्रकार एक ही गंगा को त्रिपथ गामिनी होकर तीन नामो से विख्यात हुई.

इसमें स्नान करने के लिए प्रणत-भाव से जाते हुए मनुष्य के लिए पग - पग पर राजसूर्य और अश्वमेघ यज्ञो का फल दुर्लभ नहीं रह जाता।

फिर भगवान के “बाये कंधे” से सरिताओ में श्रेष्ठ – 

“यमुना जी” प्रकट हुई...!

भगवान के दोनों “गुल्फो से” दिव्य “रासमंडल” और “दिव्य श्रृंगार” साधनों के समूह का प्रादुर्भाव हुआ।

भगवान की “पिंडली” से “निकुंज” प्रकट हुआ. जो सभा, भवनों, आंगनो गलियों और मंडलों से घिरा हुआ था।

“घुटनों” से सम्पूर्ण वनों में उत्तम “श्रीवृंदावन” का आविर्भाव हुआ.

“जंघाओं” से “लीला-सरोवर” प्रकट हुआ. “कटि प्रदेश” से दिव्य रत्नों द्वारा जड़ित प्रभामायी “स्वर्ण भूमि” का प्राकट्य हुआ.

उनके “उदर” में जो रोमावालिया है, वे विस्तृत “माधवी लताएँ”बन गई. गले की “हसुली” से “मथुरा-द्वारका” इन दो पूरियो का प्रादुर्भाव हुआ,

दोनों “भुजाओ” से “श्रीदामा”आदि. आठ श्रीहरि के “पार्षद” उत्पन्न हुए. “कलाईयों” से “नन्द” और “कराग्र-भाग” से “उपनंद” प्रकट हुए.

“भुजाओ” के मूल भागो से “वृषभानुओं” का प्रादुर्भाव हुआ।

समस्त गोपगण श्रीकृष्ण के “रोम” से उत्पन्न हुए।

भगवान के “बाये कंधे” से एक परम कान्तिमान गौर तेज प्रकट हुआ,

जिससे “श्री भूदेवी”,”विरजा” और अन्यान्य “हरिप्रियाये”आविभूर्त हुई.

फिर उन श्रीराधा रानीजी के दोनों भुजाओ से “विशाखा” “ललिता” इन दो सखियों का आविभार्व हुआ,

और दूसरी सहचरी गोपियाँ है वे सब राधा के रोम से प्रकट हुई, इस प्रकार मधुसूदन ने गोलोक की रचना की

भगवान् की शरण के महिमा अपार है।

बहुत-सी भेड़ - बकरियाँ जंगल में चरने गयीं। 

उनमें से एक बकरी
 चरते - चरते एक लता में उलझ गयी।

उसको उस लता में से निकलने में बहुत देर लगी।

तब तक अन्य सब भेड़ - बकरियाँ अपने घर पहुँच गयीं।

अँधेरा भी हो रहा था। 

वह बकरी घूमते -  घूमते एक सरोवर के किनारे पहुँची। 

वहाँ किनारे की गीली जमीन पर सिंह का एक चरण - चिह्न मँढा हुआ था। 

वह उस चरण - चिह्न के शरण होकर उसके पास बैठ गयी। 

रात में जंगली सियार , भेड़िया ,  बाघ आदि प्राणी बकरी को खाने के लिये पास में जाते हैं तो वह बकरी बता देती है.....!

पहले देख लेना कि मैं किसकी शरण में हूँ; 

तब मुझे खाना !’

वे चिह्न को देखकर कहते हैं.....!

अरे....!

यह तो सिंह के चरण - चिह्न के शरण है।

जल्दी भागो यहाँ से ! 

सिंह आ जायगा तो हमको मार डालेगा।

’इस प्रकार सभी प्राणी भयभीत होकर भाग जातें हैं। 

अन्त में जिसका चरण - चिह्न था।

वह सिंह स्वयं आया और बकरी से बोला...!

तू जंगल में अकेली कैसे बैठी है ? 

बकरी ने कहा.....!

यह चरण - चिह्न देख लेना...!

फिर बात करना। 

जिसका यह चरण - चिह्न है।

उसी के मैं शरण हुई बैठी हूँ।

सिंह ने देखा....!

ओह ! 

यह तो मेरा ही चरण - चिह्न है।

यह बकरी तो मेरे ही शरण हुई !

सिंह ने बकरी को आश्वासन दिया कि अब तुम डरो मत...!

निर्भय होकर रहो।

रात में जब जल पीने के लिये हाथी आया तो सिंह ने हाथी से कहा....!

तू इस बकरी को अपनी पीठ पर चढ़ा ले। 

इसको जंगल में चराकर लाया कर और हरदम अपनी पीठ पर ही रखा कर, नहीं तो तू जानता नहीं, मैं कौन हूँ ? 

मार डालूँगा ! 

सिंह की बात सुनकर हाथी थर - थर काँपने लगा। 

उसने अपनी सूँड़ से झट बकरी को पीठ पर चढ़ा लिया। 

अब वह बकरी निर्भय होकर हाथी की पीठ पर बैठे - बैठे ही वृक्षों की ऊपर की कोंपलें खाया करती और मस्त रहती।

खोज पकड़ सैंठे रहो,धणी मिलेंगे आय।
अजया गज मस्तक चढ़े,निर्भय कोंपल खाय॥

ऐसे ही जब मनुष्य भगवान्‌ के शरण हो जाता है।

उनके चरणों का सहारा ले लेता है।

तो वह सम्पूर्ण प्राणियों से, विघ्न बाधाओं  से निर्भय हो जाता है। 

उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता।

कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

जो जाको शरणो गहै,वाकहँ ताकी लाज।
उलटे जल मछली चले बह्यो जात गजराज॥

भगवान्‌ के साथ काम, भय, द्वेष, क्रोध, स्‍नेह आदि से भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय।

वह भी जीव का कल्याण करने वाला ही होता है। 
तात्पर्य यह हुआ कि काम, क्रोध, द्वेष आदि किसी तरह से भी जिनका भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध जुड़ गया।

उनका तो उद्धार हो ही गया।

पर जिन्होंने किसी तरह से भी भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा।

उदासीन ही रहे।

वे भगवत्प्राप्ति से वंचित रह गये।

श्री ठाकुरजी के चरणों का भक्त कुछ हो न हो पर धैर्यवान जरूर होगा। 

तिलक लगा हो माथे पर न लगा हो।

अभी हाथ लगे तो मिट जाएगा।

कपड़ा फट सकते हैं।

छूट सकते हैं।

माला छूट सकती है सब हो सकता है। 

बहुत सफल ऊर्जा है धैर्य की। 

भगवान बड़े धैर्य से बैठे हैं। 

राधारमण पाँच सौ वर्ष से धैर्य से बैठे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

वासुदेव सर्वं इति स महात्मा सुदुर्लभ॥ 

भगवान कह रहे हैं वो महात्मा तो मेरे लिए भी दुर्लभ है। 

उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। 

परमात्मा भी मन्दिरों में बैठे -  बैठे महात्मा की प्रतीक्षा करता है।

प्रेम डोर अदृश्य है...!

देख सके नहीं कोय !

प्रेम में बांध प्रभु राखिये।
प्रभु भी तेरा होय !!

श्री भगवान कहते है मेरी जिस पर कृपा होती है।

उस भक्त का मैं वित्त  हरण करता हूँ।

उसको रोगी बना देता हूँ।

वह उसके निजी जनों का मरण करा देता हूँ।

उसको पग पग पर कष्ट और दुःख का अनुभव कराता हूँ। 

भक्त को जब दुःख मिलता है तो वह मुझे पुकारने लगता है।

उसकी हर प्रार्थना मुझसे ही होने लगती है।

और यही उसको मेरे समीप ले आती है।

अतः भक्त को चाहिए कि वह इसे मेरा अनूठा कृपा प्रसाद मानकर धैर्य के साथ सहन करते हुए मेरे पथ पर चलता रहे। 

यह तपस्या उसकी व्यर्थ नहीं जाएगी और एक दिन ऐसा रंग लायेगी जिसकी कल्पना भी भक्त को नहीं होगी। 

सारे गिले शिकवे सब दूर हो जायेंगे। 

वह मुझमें ही रमण करने लगेगा।

इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध दन्तकथा भी है।

एक बार भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। 

रास्ते में उनको प्यास लगी। 

उन्होंने एक धनी आदमी के घर जाकर उनसे पानी माँगा।

उसने उन्हें बगैर पानी दिये निकाल दिया। 

श्री कृष्ण भगवान ने उसके घर से निकलते निकलते कहा - तेरी धन दौलत और बढ़े। 

आगे चलकर वे एक गरीब की झोपड़ी में गये। 

उसके पास एक गाय के सिवाय कुछ भी नहीं था।

उसने उन दोनों का बड़े प्रेम से स्वागत किया।

पीने को ठंडा पानी दिया।

ऊपर से गाय का दूध पिलाया। 

वहाँ से निकलते निकलते श्री कृष्ण भगवान बोले - तेरी गाय मरे।

यह सुनकर अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

उसने श्री कृष्ण महाराज से पूछा- 

महाराज यह कैसा न्याय है?

भगवान ने उसको समझाया कि उस धनी व्यक्ति की मुझमें भक्ति नहीं। 

उसकी भक्ति सिर्फ उसकी सम्पत्ति पर है।

जबकि उस गरीब की मुझ पर अनन्य भक्ति है। 

मेरे सिवाय उसकी थोड़ी सी आसक्ति उसकी गाय में है। 

परमेश्वर प्राप्ति में उसकी गाय रोड़ा बनी हुई है।

परमेश्वर प्राप्ति का रास्ता खुलने हेतु ही मैने ऐसा कहा।।

जीवन जीने की दो शैलियाँ हैं। 

एक जीवन को उपयोगी बनाकर जिया जाए और दूसरा इसे उपभोगी बनाकर जिया जाए। 

जीवन को उपयोगी बनाकर जीने का मतलब है।

उस फल की तरह जीवन जीना जो खुशबू और सौंदर्य भी दूसरों को देता है।

और टूटता भी दूसरों के लिए हैं।        

अर्थात कर्म तो करना मगर परहित की भावना से करना। 

साथ ही अपने व्यवहार को इस प्रकार बनाना कि हमारी अनुपस्थिति दूसरों को रिक्तता का एहसास कराए।         

जीवन को उपभोगी बनाने का मतलब है।

उन पशुओं की तरह जीवन जीना केवल और केवल उदर पूर्ति ही जिनका एक मात्र लक्ष्य है। 

अर्थात लिवास और विलास ही जिनके जिन्दा रहने की शर्त हो। 

मानव जीवन की सार्थकता के नाते यह परमावश्यक है।

कि जीवन केवल उपयोगी बने उपभोगी नहीं।

तपस्या बने तमाशा नहीं।

सार्थक बने, निरर्थक नहीं।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे 
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

🔸〰️जय श्री कृष्ण〰️🔸〰जय श्री कृष्ण️〰️🔸〰️जय श्री कृष्ण〰️🔸

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

aadhyatmikta ka nasha

महाभारत की कथा का सार

महाभारत की कथा का सार| कृष्ण वन्दे जगतगुरुं  समय नें कृष्ण के बाद 5000 साल गुजार लिए हैं ।  तो क्या अब बरसाने से राधा कृष्ण को नहीँ पुकारती ...

aadhyatmikta ka nasha 1