सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री ऋगवेद श्री विष्णु महा पुराण से पुरुषोत्तम मास माहात्म्य की कथा ।।
कल्पवृक्ष के समान भक्तजनों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावन बिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को में नमस्कार करता हूँ ।
नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ।
यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे गये बहुत से मुनि आये।
जैसे, असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत, आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य, गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु, कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद, जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गव, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द, विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि, महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय, ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु, शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग, श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि।
शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले।
ब्रह्मनिष्ठ, संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले।
नैमिषारण्य में आकर यज्ञ करने को तत्पर हुए।
इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूत जी अपने आश्रम से निकले, और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए।
उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा।
संसार समुद्र से पार करने वाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये।
पहले से जहाँ वे इकट्ठे थे वहीं प्रसन्नचित्त सूतजी भी जा पहुँचे।
इसके अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण करने वाले, प्रसन्नमुख, शान्त, परमार्थ विशारद, समग्र गुणों से युक्त, सम्पूर्ण आनन्दों से परिपूर्ण, ऊर्ध्वपुण्ड्रघारी, राम नाम मुद्रा से युक्त, गोपीचन्दन मृत्तिका से दिव्य, शँख, चक्र का छापा लगाये।
तुलसी की माला से शोभित, जटा - मुकुट से भूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले, अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले, भगवान् के परम मन्त्र को जपते हुए समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेन्द्रिय तथा क्रोध को जीते हुए।
जीवन्मुक्त, जगद्गुरु श्री व्यास की तरह और उन्हीं की तरह निःस्पृह् आदिगुणों से युक्त उनको देख उस नैमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षिगण सहसा उठ खड़े हुए।
विविध प्रकार की विचित्र कथाओं को सुनने की इच्छा प्रगट करने लगे।
तब नम्रस्वभाव सूतजी प्रसन्न होकर सब ऋषियों को हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करने लगे।
ऋषि लोग बोले...!
हे सूतजी!
आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो।
हम लोगों ने आपके योग्य सुन्दर आसन लगाया है।
हे महाभाग....!
आप थके हैं, यहाँ बैठ जाइये।'
ऐसा सब ब्राह्मणों ने कहा...!
इस प्रकार बैठने के लिए कहकर जब सब तपस्वी और समस्त जनता बैठ गयी तब विनयपूर्वक तपोवृद्ध समस्त मुनियों से बैठने की अनुमति लेकर प्रसन्न होकर आसन पर सूतजी बैठ गये।
तदनन्तर सूत को सुखपूर्वक बैठे हुए और श्रमरहित देखकर पुण्यकथाओं को सुनने की इच्छा वाले समस्त ऋषि यह बोले...!
हे सूतजी...!
हे महाभाग...!
आप भाग्यवान् हैं....!
भगवान् व्यास के वचनों के हार्दि्क अभिप्राय को गुरु की कृपा से आप जानते हैं।
क्या आप सुखी तो हैं?
आज बहुत दिनों के बाद कैसे इस वन में पधारे?
आप प्रशंसा के पात्र हैं।
हे व्यासशिष्यशिरोमणे! आप पूज्य हैं।
इस असार संसार में सुनने योग्य हजारों विषय हैं।
परन्तु उनमें श्रेयस्कर, थोड़ा - सा और सारभूत जो हो वह हम लोगों से कहिये।
हे महाभाग...!
संसार - समुद्र में डूबते हुओं को पार करने वाला तथा शुभफल देने वाला।
आपके मन में निश्चित विषय जो हो वही हम लोगों से कहिये।
हे अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुओं को ज्ञानरूप चक्षु देने वाले!
भगवान् के लीलारूपी रस से युक्त, परमानन्द का कारण, संसाररूपी रोग को दूर करने में रसायन के समान जो कथा का सार है वह शीघ्र ही कहिये।'
इस प्रकार शौनकादिक ऋषियों के पूछने पर हाथ जोड़कर सूतजी बोले....!
'हे समस्त मुनियों...!
मेरी कही हुई सुन्दर कथा को आप लोग सुनिये।
हे विप्रो..!
पहले मैं पुष्कर तीर्थ को गया।
वहाँ स्नान करके पवित्र ऋषियों, देवताओं तथा पितरों को तर्पणादि से तृप्त करके तब समस्त प्रतिबन्धों को दूर करने वाली यमुना के तट पर गया।
फिर क्रम से अन्य तीर्थों को जाकर गंगा तट पर गया।
पुनः काशी आकर अनन्तर गयातीर्थ पर गया।
पितरों का श्राद्ध कर तब त्रिवेणी पर गया।
तदनन्तर कृष्णा के बाद गण्डकी में स्नान कर पुलह ऋषि के आश्रम पर गया।
धेनुमती में स्नान कर फिर सरस्वती के तीर पर गया।
वहाँ हे विप्रो...!
त्रिरात्रि उपवास कर गोदावरी गया।
फिर कृतमाला, कावेरी, निर्विन्ध्या, ताम्रपर्णिका, तापी, वैहायसी, नन्दा, नर्मदा, शर्मदा, नदियों पर गया।
पुनः चर्मण्वती में स्नान कर पीछे सेतुबन्ध रामेश्वर पहुँचा।
तदनन्तर नारायण का दर्शन करने के हेतु बदरी वन गया।
तब नारायण का दर्शन कर, वहाँ तपस्वियों को अभिनन्दन कर, पुनः नारायण को नमस्कार कर और उनकी स्तुति कर सिद्धक्षेत्र पहुँचा।
इस प्रकार बहुत से तीर्थों में घूमता हुआ कुरुदेश तथा जांगल देश में घूमता - घूमता फिर हस्तिनापुर में गया।
हे द्विजो....!
वहाँ यह सुना कि राजा परीक्षित राज्य को त्याग बहुत ऋषियों के साथ परम पुण्यप्रद गंगातीर गये हैं।
और उस गंगातट पर बहुत से सिद्ध, सिद्धि हैं भूषण जिनका ऐसे योगिलोग और देवर्षि वहाँ पर आये हैं।
उसमें कोई निराहार, कोई वायु भक्षण कर, कोई जल पीकर, कोई पत्ते खाकर, कोई श्वास ही को आहार कर, कोई फलाहार कर और कोई - कोई फेन का आहार कर रहते हैं।
हे द्विजो...!
उस समाज में कुछ पूछने की इच्छा से हम भी गये।
वहाँ ब्रह्मस्वरूप भगवान् महामुनि, व्यास के पुत्र, बड़े तेजवाले, बड़े प्रतापी, श्रीकृष्ण के चरण - कमलों को मन से धारण किये हुए श्रीशुकदेव जी आये।
उन १६ वर्ष के योगिराज, शँख की तरह कण्ठवाले, बड़े लम्बे, चिकने बालों से घिरे हुए मुखवाले, बड़ी पुष्ट कन्धों की सन्धिवाले, चमकती हुए कान्तिवाले, अवधूत रूपवाले, ब्रह्मरूप, थूकते हुए।
लड़कों से घिरे हुए मक्षिकाओं से जैसे मस्त हस्ती घिरा रहता है।
उसी प्रकार धूल हाथ में ली हुई स्त्रियों से घिरे हुए।
सर्वांग धूल रमाए महामुनि शुकदेव को देख सब मुनि प्रसन्नता पूर्वक हाथ जोड़ कर सहसा उठकर खड़े हो गये।
इस प्रकार महामुनियों द्वारा सत्कृत भगवान् शुक को देखकर पश्चात्ताप करती ( पछताती ) हुई स्त्रियाँ और साथ के बालक जो उनको चिढ़ा रहे थे।
दूर ही खड़े रह गये और भगवान् शुक को प्रणाम करके अपने - अपने घरों की ओर चले गये।
इधर मुनि लोगों ने शुकदेव के लिए बड़ा ऊँचा और उत्तम आसन बिछाया।
उस आसन पर बैठे हुए भगवान् शुक को कमल की कर्णिका को जैसे कमल के पत्ते घेरे रहते हैं।
उसी प्रकार मुनि लोग उनको घेर कर बैठ गये।
यहाँ बैठे हुए ज्ञानरूप महासागर के चन्द्रमा भगवान् महामुनि व्यासजी के पुत्र शुकदेव ब्राह्मणों द्वारा की हुई पूजा को धारण कर तारागणों से घिरे हुए चन्द्रमा की तरह शोभा पा रहे थे।
"योगी निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रुप अनंत आनंद का अनुभव करता है।।"
सभी यही तो चाहते हैं।
आनंद की तलाश सबको है।
संसार में सुख है,आनंद नहीं।
मगर सुख से आनंद की पूर्ति होती प्रतीत होती है।
इसलिए आदमी वहीं अटक जाता है।
अटका वह भटका।
तब सुख जरुरी हो जाता है वर्ना स्थिरता अनुभव नहीं होती।
बेचैनी रहती है।
फिर वह कोशिश करता है...!
संसार में जहां जैसे सुख मिले धन से,रुप से,बल से,पद से।
अधिकांश लोगों को लोगों से सुख चाहिये,लोगों का सुख चाहिये।
उनकी शिकायत रहती है वे सुख चाहते हैं,सुख मिलता नहीं।
लोग सुख नहीं देते।
कैसे दें?
उनके पास सुख है नहीं, उन्हें दूसरों से सुख चाहिए।
दूसरे सुख नहीं दे सकते तो वे विरक्त हो जाते हैं,मुंह फेर लेते हैं।
आपको जिससे सुख चाहिये वह आपसे मुंह फेर ले तो आपको कैसा लगेगा?
आप उदासी,निराशा,क्रोध या घृणा से भर सकते हैं।
प्रेम न मिलने से कई लोग साधु बन गये।
क्या उन्होंने यह सही किया?
नि:संदेह वहां समझ की कमी है।
किसी भी समस्या को पूरा समझना चाहिए।
समझ ही समाधान है।
लोग हमें सुख नहीं दे सकते क्योंकि उनके पास सुख नहीं है।
उन्हें हमसे सुख चाहिये।
क्या हम उन्हें सुख दे सकते हैं?
हमारे पास भी नहीं है तो कैसे दे सकते हैं?
फिर भी संभावनाएं तो हैं।
हम दूसरों को सुख देना शुरू करें जैसा वह चाहें प्रेम से,आदर से, वस्तु से, सद्व्यवहार से,सुखद संभाषण से।
उस समय स्थिति भिन्न होती है।
अगर हम सुख चाहते हैं तो हम निर्भर, आक्रामक होते हैं।
दूसरा अपना बचाव करेगा ही।
अगर हम सुख देना चाहते हैं तो अब हम आक्रामक नहीं होंगे।
अब ठहराव आयेगा।
हम मैत्री पूर्ण होंगे।
हमारी यह स्थिति दूसरे को अच्छी लगेगी।
उसे प्रसन्नता होगी और तब वह हमारे अनुकूल होने लगेगा।
यही तो हम चाहते हैं कि वह हमारे अनुकूल हो ताकि हमें सुख मिले।
सीधा सुख नहीं मिल सकता,वह अनुकूलता के जरिए ही मिल सकता है।
आक्रामकता अनुकूल नहीं होने देती।
ठहरना होगा इस भाव के साथ कि...!
"मैं तुमसे सुख नहीं चाहता, मैं तुम्हें सुख देना चाहता हूं।"
हमारा यही भाव परिवर्तन उसे हमारे अनुकूल बनायेगा।
आदमी को सुख मिले तो वह स्वस्थ होता है।
गहरा कारण यह है कि सुख स्व में से ही आता है।
बाहर से मिलता सुख उसे स्वस्थ होने में मदद करता है।
स्वस्थ आदमी हमें क्यों सुख देगा?
वह स्वस्थ है।
अभावग्रस्त भी सुख कैसे देगा,वह अभावग्रस्त है।
इसकी गहराई को समझना चाहिए।
उपकारी लोग इस मामले में बडे फायदे में रहते हैं।
वे दूसरों को सुख देकर रचनात्मक वातावरण निर्मित करते हैं।
उन्हें सुख नहीं चाहिए मगर उनके द्वारा निर्मित रचनात्मक वातावरण उनके लिए अनुकूल तो होता ही है।
वस्तु आदि से सुख देना एक उपाय है।
स्वयं सुखी हो उसकी बात अलग है।
सुखी आदमी को किसीको सुख नहीं देना पड़ता,दूसरे स्वत:सुखी होते हैं उसके सानिध्य में।
धनपदप्रतिष्ठा से सुखी नहीं।
ऐसे सुखी से कोई सुखी नही होता।
बहुत सारे लोगों के पास धन,पद आदि है मगर उससे दूसरों को कोई सुख नहीं मिलता।
सुख आत्मा का सुख है।
अकारण प्रसन्न,सहज सदा आनंदित।
उससे सभी सुखी होते हैं।
उसे किसीको सुखी करने की जरूरत नहीं पड़ती।
निरहंकार आनंद के संप्रेषण से दूसरे को भी निरहंकार आनंद की अनुभूति होती है।
( सफलता,आनंद की कुंजी नहीं है।
आनंद, सफलता की कुंजी है।
दुखी होकर सफलता न खोजें,सम रहकर सफलता खोजें।
समता, स्वस्थता है।
बल है, ऊर्जा है। )
कृष्ण जब कहते हैं आत्मा को परमात्मा में लगाने की बात तब उसकी सार्थकता को समझना चाहिए।
यह अपने भीतर संभव है।
बाहर ध्यान है तो उसके भी कई उपाय हैं।
कोई ईश्वरीय प्रतिमा की भक्ति कर सकता है।
कोई गुरु को देखकर उसकी तरह आत्मस्थ होने की कोशिश कर सकता है।
अंतर्मुखी होने पर फिर सत्य भीतर उद्घाटित होने लगता है।
सत्य के लिए बाहर,भीतर का भेद नहीं है।
फिर भी देहाभिमान के कारण से पहले बाहर, फिर भीतर आने की व्यवस्था है-
केंद्र में।
केंद्र में स्थित हो गये फिर कुछ नहीं।
केंद्र परिधि रहित है।
अभी हमारा चित्त परिधि पर है,बाहर है,लोगों पर केंद्रित है।
ऐसे में उन्हें अपने अनुकूल बनाना बडी महत्वपूर्ण बात हो जाती है।
थोडा राग द्वेष से परहेज करने की जरूरत है।
राग अनुकूल बनायेगा,द्वेष प्रतिकूल बनायेगा।
इससे तो द्वंद्व बना रहता है।
बात रचनात्मकता की है,सही समझने की है।
सही समझ चोट से बचा लेती है।
एक वाक्य पढा -
"Never let your feelings get too deep, people can change anytime."
आहत हो जाएं तो इतने आहत न हो जाएं कि सब छोड छाडकर वैरागी बन जायें।
ऐसे लोग मिलते हैं।
ऐसे लोग भी होते हैं जो जीवन भर दिल पर लगी चोट और उससे बने घाव को ढोते हैं।
वह कभी अच्छा होता ही नहीं।
कहना चाहिए नासमझ आदमी उसे अच्छा होने देता नहीं।
वह देखता नहीं कि लोग बदलते हैं।
बदल सकते हैं।
किसी तात्कालिक घटना को जिंदगी भर ढोने की जरूरत नहीं।
समझदारी चाहिए।
समझदार आदमी का अपमान करके उससे बंधना खतरनाक है।
क्योंकि वह छोडेगा नहीं।
बदलना पडेगा अगर उससे बंधे।
इसलिए तो कहते हैं-दुश्मनी भी करनी हो तो संत से करो।
भगवान का तो प्रसिद्ध है कि उनसे शत्रुता करनेवाले भी तर गये।
हम अपनी बात करते हैं।
हम किसीके शब्दों को, व्यवहार को इतनी गंभीरता से न लें कि हम ही विक्षिप्त हो जायें।
निद्रा,भोजन भी गंवा बैठे।
लोग बदल सकते हैं।
घटनाएं, परिस्थितियां अस्थायी होती हैं।
स्थायी हम बनाते हैं।
हम समझें।
लोग हमसे अनुकूलता चाहते हैं।
दुर्व्यवहार करनेवाला भी हमारी प्रतिक्रिया देखता ही है।
क्या वही सब कुछ है,हम कुछ नहीं हैं?
ताली भी दो हाथ से बजती है।
हम सभी को सुख देना चाहते हैं।
हमें किसीसे सुख नहीं चाहिए तो हमारे स्वरुप में ठहराव आयेगा।
भाव रचनात्मक होने से उसका अच्छा असर पडेगा।
हम उसे अनुकूल जान पडेंगे तो स्वत:उसका विरोध छूटने लगेगा।
एक मित्र अपने तथाकथित शत्रुओं से भयभीत हैं।
तथा कथित इसलिए क्योंकि वे वास्तविक शत्रु नहीं है, खुद के बनाये हैं।
मैं मेरे मित्र का उदाहरण दूं।
वह शत्रुता करनेवाले को भी डांट देता।
कारण?
खुद उसके भीतर शत्रुता नहीं थी।
वह सबके अनुकूल था।
उसकी समझ साफ थी।
जब डांट खाने वाला सीधा होता तो मित्र प्रेम से, हंसकर बात करता।
मन की मलीनता धुल जाती।
दूसरे का रागद्वेष मिटाना हो तो पहले खुद का रागद्वेष मिटाना जरूरी है।
लोग तो अपने राग द्वेष को बनाये रखते हुए दूसरे के रागद्वेष मिटाना चाहते हैं।
ऐसा नहीं है।
अपना राग द्वेष दूसरे में भी रागद्वेष जगायेगा।
हमारी अनुकूलता हमारा सुख देने का प्रयास उसे अनुकूल बनायेगा।
इसका प्रयोग भी किया जा सकता है।
यद्यपि यह प्रयोग की चीज नहीं फिर भी यह सत्प्रयास के अंतर्गत है रचनात्मक वातावरण लाने की दृष्टि से इस लिए उसके अच्छे परिणाम आने की संभावना अधिक होती है।
तत्काल न हो तो डटे रहें,प्रयोग जारी रखें।उसके परिणाम होते हैं।
यह क्रोध,घृणा,वैर, विरोध का प्रयोग नहीं है।
चाहे तो कोई करले उसके भी प्रयोग।
यद्यपि उसकी जरूरत नहीं।
आम आदमी का जीवन ऐसा ही है।
रचनात्मक समझ रखने वाले लोग कम ही मिलते हैं।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏