https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 09/23/20

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण से गुरु दत्तात्रेय जी की सुंदर कहानी ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........

जय द्वारकाधीश


।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण से गुरु दत्तात्रेय जी की सुंदर कहानी ।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण से गुरु दत्तात्रेय जी की सुंदर कहानी....! 

जीवन में धन के कई रूप हैं....!

भरोसा करने वाला भाई परवाह करने वाला दोस्त दर्द समझने वाला पड़ोसी....!

और...!

इज्जत करने वाले रिश्तेदार यह सभी धन के ही रूप है...!

श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण की अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं -







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राजन्....!

प्राणियोंको जैसे बिना इच्छाके, बिना किसी प्रयत्नके, रोकनेकी चेष्टा करनेपर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं।

वैसे ही स्वर्गमें या नरकमें - कहीं भी रहें।

उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। 

इस लिये सुख और दुःखका रहस्य जानने वाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकारका प्रयत्न न करे।।१।।




सचमुच स्त्री देवताओंकी वह माया है।

जिससे जीव भगवान् या मोक्षकी प्राप्तिसे वञ्चित रह जाता है।।७।।

जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने - कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थोंमें फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोगके लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेकबुद्धि खोकर पतिंगेके समान नष्ट हो जाता है।।८।। (श्रीमद्भागवत ११/८)

विश्वास और अविश्वास....!

अविश्वास- 

उस कमजोर ईंट के समान है जो हमारे संबंधो की मजबूत दिवार को गिराने का कारण बनता है।

इस लिए संबधों की मजबूती के लिए परस्पर विश्वास की प्रथम आवश्यक्ता है। 

विश्वास की ईंट जितनी मजबूत होगी हमारे संबंध भी उतने ही टिकाऊ होंगे।

जिस प्रकार गलती हो जाने पर डायरी नहीं फेंकी जाती, अपितु गलती वाला पन्ना फाड़ दिया जाता है। 

ठीक इसी प्रकार अगर रिश्तों में कभी गलती हो जाए, तो रिश्ते को तोड़ने की बजाए गलती वाले पन्ने को फाड़कर रिश्ते को बचा लेना ही बड़े बुद्धिमानी है। 

विश्वास ही संबंधों को प्रेमपूर्ण बनाता है। 

जब हमारे द्वारा प्रत्येक बात का मुल्यांकन स्वयं की दृष्टि से किया जाता है तो वहाँ अविश्वास जरूर उत्पन्न हो जाता है।

जरूरी नहीं कि हर बार हमारे मुल्यांकन करने का दृष्टि कोण सही हो।

इस लिए संबंधों की मधुरता के लिए अपने दृष्टिकोण के साथ - साथ दूसरे की भावनाओं को महसूस करने का गुण भी हमारे भीतर जरूर होना चाहिए। 

संबध जोड़ना महत्वपूर्ण नहीं अपितु संबंध निभाना महत्वपूर्ण है। 

संबंधों का जुड़ना संयोग हो सकता है मगर संबंधों को निभाना जीवन की एक साधना ही है।

 || एक रहो और नेक रहों  ||

रिश्ते... प्यार... मित्रता...!

हर जगह पाये जाते है।

परंतु ये ठहरते वही है।

जहाँ पर इनको आदर ओर प्यार मिलता है।

कच्चे कान शक्की नजर और कमजोर मन इंसान को अच्छी समृद्धि के बीच भी नरक का अनुभव कराता है।

अगर जिंदगीको कामयाब बनाना हो तो याद रखें पाँव भले ही फिसल जाये।

पर जुबानको कभी मत फिसलने देना आवाज को नहींअपने अलफ़ाज़ को ले जाओ बुलंदी पर बादलों की गरज नहीं बारिश की बौछार फूल खिलाती है।


अक्षमालां च परशुं गदेषुकुलिशानि च पद्मं धनुष्कुण्डिकां च दण्डं शक्तिमसिं तथा।

चर्माम्बुजं तथा घण्टां सुरापात्रं च शूलकम् पाशं सुदर्शनं चैव दधतीमरुणप्रभाम्।।


रक्ताम्बुजासनगतां मायाबीजस्वरूपिणीम् 

महालक्ष्मीं भजेदेवं महिषासुरमर्दिनीम्।।


जो अपने हाथों में अक्षमाला, परशु,गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष,कुण्डिका, दण्ड, शक्ति,खड्ग, ढाल,कमल,  घण्टा, मधुपात्र, शूल,पाश और सुदर्शन चक्र धारण करती हैं; 

जो अरुण प्रभावशाली हैं; रक्तकमल के आसन पर विराजमान हैं तथा मायाबीजस्वरूपिणी हैं ' 

महिषासुर मर्दिनी उन महालक्ष्मी का ध्यान करना चाहिए, उन्हें प्रणाम है।      


   || जय मां महिषासुर मर्दिनी ||


जिंदगी भी "कार" की तरह है समय और

स्थिति देखकर "गियर" बदलने पड़तें हैं।

पेट की भूख थोड़े से भोजन से शांत हो

सकती है, लेकिन मन की भूख पूरी 

सृष्टि को खाकर भी शांत नहीं हो सकती। 

अगर हमने खुद को समझना और समझाना

सीख लिया तो हम संसार पर विजय पा

सकते है। नकारात्मक विचारों की वरमाला

मन को मत पहनाओ, सकारात्मक विचारों

की दीपमाला को मन में जलाओ, निराशा

*का अँधेरा दूर करो उमंग का प्रकाश फैलाओ।


                  ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय


नवरात्रि 2025 ( 22 / 9 / 2025 - 02 / 10 / 2025 )


नवरात्रि के प्रभावशाली उपाय  :


1. एक नारियल लेकर सिर पर से 7 बार वार लें और किसी बहते जल में बहा दें।

यह उपाय तंत्र - मंत्र, नजर दोष और शत्रु बाधा से रक्षा करता है।

2. 1 कटोरी कच्चे चावल रोज माता के सामने चढ़ाएं बिना कुछ बोले ज़रूरतमंद को दान दें। 

अंतिम दिन किसी आपके रुके हुए कार्यों में सफलता मिलेगी।

3. एक सिक्के को माता के चरणों में 9 दिन तक रख कर हल्दी, कुमकुम और अक्षत् से पूजा करें। फिर उसे लाल कपड़े में बांध कर तिजोरी या धन रखने की जगह पर रखें।

धन से जुड़ी बाधाएं दूर होती हैं।

4. रोज़ 9 दिन तक शाम को सरसों के तेल का दीपक घर के मुख्य दरवाजे पर जलाएं।

दीपक जलाते समय माता को श्रद्धा से मन ही मन प्रणाम करें।

घर में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ेगी।

◇ जय माँ बगलामुखी


प्रकृति के तीन कड़वे सत्य नियम :


1. प्रकृति का पहला नियम:

यदि खेत में बीज न डाले जाएं, तो कुदरत उसे घास - फूस से भर देती है।

उसी प्रकार, यदि दिमाग में सकारात्मक विचार न भरे जाएं, तो नकारात्मक विचार अपनी जगह बना लेते हैं।


2. प्रकृति का दूसरा नियम:

जिसके पास जो होता है, वह वही बांटता है:

सुखी व्यक्ति सुख बांटता है।

दुःखी व्यक्ति दुःख बांटता है।

ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान बांटता है।

भ्रमित व्यक्ति भ्रम फैलाता है।

भयभीत व्यक्ति भय बांटता है।


3. प्रकृति का तीसरा नियम:

आपको जीवन में जो भी मिले, उसे पचाना सीखो।

भोजन न पचने पर रोग बढ़ते हैं।

पैसा न पचने पर दिखावा बढ़ता है।

बात न पचने पर चुगली बढ़ती है।

प्रशंसा न पचने पर अहंकार बढ़ता है।

निंदा न पचने पर दुश्मनी बढ़ती है।

राज न पचने पर खतरा बढ़ता है।

दुःख न पचने पर निराशा बढ़ती है।

सुख न पचने पर पाप बढ़ता है।

* जय माँ दुर्गा *


ब्रह्माण्डविजयं नाम दुर्गाकवचम् :


नारायण उवाच :


श्रृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् । 

श्रीकृष्णेनैव यद् दत्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ।।१


ब्रह्मा त्रिपुर-संग्रामे शंकराय ददौ पुरा । 

जघान त्रिपुरं रुद्रो यद् धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ।।२ 


हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः । 

यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ।।३ 


यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मा ज्ञानवाञ्छक्तिमान् भुवि ।

शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।। 

शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ।।४ 


ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनी ।।५ 


ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः । 

पुण्यतीर्थ च महतां कवचं परमाद्भुतम् ।।६ 


ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् । 

ॐ ह्रीं मे पातु कपालं च ॐ ह्रीं श्रीमिति लोचने।।७ 


पातु मे कर्णयुग्मं च ॐ दुर्गायै नमः सदा । 

ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ।।८ 


ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तानि पातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् । 

क्रीं क्रीं क्रीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतु गण्डकम् ।।९ 


स्कन्धं दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा पातु निरन्तरम् । 

वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ।।१० 


दुर्गे दुर्गे रक्षिणीति स्वाहा नाभिं सदावतु । 

दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष पृष्ठं मे पातु सर्वतः ।।११ 


ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदावतु । 

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वांगं मे सदावतु ।।१२ 


प्राच्यां पातु महामाया आग्नेय्यां पातु कालिका । 

दक्षिणे दक्षकन्या च नैऋत्यां शिवसुन्दरी ।।१३ 


पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा । 

कुबेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ।।१४ 


ऊर्ध्वे नारायणी पातु अम्बिकाधः सदावतु । 

ज्ञाने ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदावतु ।।१५ 


इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । 

ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम् ।।१६ 


सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत् फलम् । 

सर्वव्रतोपवासे च तत् फलं लभते नरः ।।१७

 

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः । 

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ।।१८ 


स व त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः । 

इदं कवचमज्ञात्वा भजेद् दुर्गतिनाशिनीम् ।।१९ 


शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ।।२० 


कवचं काण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सुन्दरम् । 

यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सुदुर्लभम् ।।२१ ।।


इति श्रीब्रह्म - वैवर्ते ब्रह्माण्ड - विजयं नाम दुर्गा - कवचं सम्पूर्णम्।। ( गणपतिखण्ड। ३९ । ३ - २३ )

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-

PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 

-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-

(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 

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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 

नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....

जय द्वारकाधीश....

जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो के अनुसार परिक्रमा का महत्व क्या होता है कितनी परिक्रमा होती कैसी परिक्रमा होती है।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........

जय द्वारकाधीश


।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो के अनुसार परिक्रमा का महत्व क्या होता है कितनी परिक्रमा होती कैसी परिक्रमा होती है।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो के अनुसार परिक्रमा का महत्व क्या होता है कितनी परिक्रमा होती कैसी परिक्रमा होती है।

परिक्रमा का महत्व :

जब हम मंदिर जाते है तो हम भगवान की परिक्रमा जरुर लगाते है |

पर क्या कभी हमने ये सोचा है कि देव मूर्ति की परिक्रमा क्यों की जाती है ? 

शास्त्रों में लिखा है जिस स्थान पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई हो, उसके मध्य बिंदु से लेकर कुछ दूरी तक दिव्य प्रभा अथवा प्रभाव रहता है | 

यह निकट होने पर अधिक गहरा और दूर दूर होने पर घटता जाता है ।

इस लिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ति हो जाती है।

कैसे करें परिक्रमा :

देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है । 

बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है | 






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जाने - अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है |

किस देव की कितनी परिक्रमा करनी चाहिये ?

वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी - देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है। 

इस संबंध में धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और इससे हमारे पाप नष्ट होते है|

सभी देवताओं की परिक्रमा के संबंध में अलग-अलग नियम बताए गए हैं।

1.  महिलाओं द्वारा “वटवृक्ष” की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है।

2.  “शिवजी” की आधी परिक्रमा की जाती है  शिव जी की परिक्रमा करने से बुरे खयालात और अनर्गल स्वप्नों का खात्मा होता है।

भगवान शिव की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघे।

3. “देवी मां” की एक परिक्रमा की जानी चाहिए।

4.  “श्रीगणेशजी और हनुमानजी” की तीन परिक्रमा करने का विधान है गणेश जी की परिक्रमा करने से अपनी सोची हुई कई अतृप्त कामनाओं की तृप्ति होती है गणेशजी के विराट स्वरूप व मंत्र का विधिवत ध्यान करने पर कार्य सिद्ध होने लगते हैं। 




5. “ भगवान विष्णुजी ” एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए विष्णु जी की परिक्रमा करने से हृदय परिपुष्ट और संकल्प ऊर्जावान बनकर सकारात्मक सोच की वृद्धि करते हैं।

6. सूर्य मंदिर की सात परिक्रमा करने से मन पवित्र और आनंद से भर उठता है तथा बुरे और कड़वे विचारों का विनाश होकर श्रेष्ठ विचार पोषित होते हैं।

हमें भास्कराय मंत्र का भी उच्चारण करना चाहिए, जो कई रोगों का नाशक है जैसे सूर्य को अर्घ्य देकर “ ॐ भास्कराय नमः ” का जाप करना देवी के मंदिर में महज एक परिक्रमा कर नवार्ण मंत्र का ध्यान जरूरी है; इससे सँजोए गए संकल्प और लक्ष्य सकारात्मक रूप लेते हैं।

परिक्रमा के संबंध में नियम :

1.  परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए; साथ ही परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी  ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती।

2.  परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें  जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें।

3. उलटी अर्थात बाये हाथ की तरफ परिक्रमा नहीं करनी चाहिये।

इस प्रकार देवी-देवताओं की परिक्रमा विधिवत करने से जीवन में हो रही उथल-पुथल व समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाता है। 

इस प्रकार सही परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।

सनातन धर्म परिवार मित्रो 

जय द्वारकाधीश 👏🚩

|| अंत्येष्टि संस्कार क्यों ? ||

मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर अंत्येष्टि संस्कार करने का विधान हमारे ऋषियों ने इस लिए बनाया...! 

ताकि सभी स्वजन, संबंधी, मित्र, परिचित अपनी अंतिम विदाई देने आएं और इससे उन्हें जीवन का उद्देश्य समझने का मौका मिले, साथ ही यह भी अनुभव हो कि भविष्य में उन्हें भी शरीर छोड़ना है।

चूड़ामण्युपनिषट् में कहा गया है कि ब्रह्म से स्वयं प्रकाश रूप आत्मा की उत्पत्ति हुई। 

आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। 

इन पांच तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य शरीर की रचना हुई है। 

हिंदू अंत्येष्टि संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके आकाश, वायु, जल,अग्नि और भूमि इन्हीं पंच तत्त्वों में पुनः मिला दिया जाता है। 

मृतक देह को जलाने यानी शवदाह करने के संबंध में अथर्ववेद में लिखा है।

इमौ युनिज्मि ते वह्नी असुनीताय वोढवे 

ताभ्यां यमस्य सादनं समितीश्चाव गच्छतातू ॥

           {अथर्ववेद 18/2/56}

अर्थात् :

हे जीव! तेरे प्राणविहीन मृतदेह को सद्गति के लिए मैं इन दो अग्नियों को संयुक्त करता हूं अर्थात् तेरी मृतक देह में लगाता हूँ। 

इन दोनों अग्नियों के द्वारा तू सर्व नियंता यम परमात्मा के समीप परलोक को श्रेष्ठ गतियों के साथ प्राप्त हो।

आ रभस्व जातवेदस्तेजस्वद्धरो अस्तु ते।

शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामु लोके ॥

           {अथर्ववेद 18/3/71}

अर्थात् :

हे अग्नि! इस शव को तू प्राप्त हो। 

इसे अपनी शरण में ले। 

तेरा हरण सामर्थ्य तेजयुक्त होवे। 

इस शव को तू जला दे और हे अग्निरूप प्रभो, इस जीवात्मा को तू सुकृतलोक में धारण करा ।

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं

शरीरम् ओ३म् क्रतो स्मर। 

क्लिबे स्मर। 

कृतं स्मर ॥

            {यजुर्वेद 4015}

अर्थात् :

हे कर्मशील जीव, तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ और मुख्य नाम ओम् का स्मरण कर। 

प्रभु को याद कर। 

किए हुए अपने कर्मों को याद कर। 

शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है, परंतु यह भौतिक शरीर भस्म पर्यन्त है। 

भस्मान्त होने वाला है। 

यह शव भस्म करने योग्य है। 

हिंदुओं में यह मान्यता भी है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूल शरीर के आस - पास मंडराती रहती है, इस लिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबंध न रहे।

अंत्येष्टि संस्कार में कपाल- क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख गरुडपुराण में मिलता है। 

जब शवदाह के समय मृतक की खोपड़ी को घी की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है तो उस प्रक्रिया को कपाल - क्रिया के नाम से जाना जाता है। 

चूंकि खोपड़ी की हड्डी इतनी मजबूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। 

वह टूट कर मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंत्र पंचतत्त्व में पूर्ण रूप से विलीन हो जाए, इस लिए उसे तोड़ना जरूरी होता है। 

इसके अलावा अलग - अलग मान्यताएं भी प्रचलित हैं। 

मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढ़ते हैं।

दूसरी मान्यता यह है कि खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इस लिए जलाया जाता है ताकि वह भाग अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। 

हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्ध चंद्रिका में मिलता है। 

चूंकि सिर में ब्रह्मा का वास होना माना गया है इस लिए शरीर को पूर्ण रूप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपाल क्रिया द्वारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। 

पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपाल - क्रिया इस लिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर - परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।




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आगे पढ़े -शोक सभाओ का

        दुर्भाग्यपूर्ण आयोजन

|| शोक सभाओं का दुर्भाग्यपूर्ण आयोजन || 


जैसा देखा जैसा लिखा - ज्योतिषी पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

शोक सभाएं आजकल दुःख बांटने और मृतक के परिवार को सांत्वना देने के अपने मूल उद्देश्य से भटक गईं हैं। 

आजकल शोक सभाओं के आयोजन के लिए विशाल मंडप लगाए जा रहे हैं, सफेद पर्दे और कालीन बिछाई जाती है या किसी बड़े बैंक्वेट हाल में भव्य सभा का आयोजन किया जाता है जिससे यह लगता है कि कोई उत्सव हो रहा है।  

इसमें शोक की भावना कम, और प्रदर्शन की प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई देती है।  

मृतक का बड़ा फोटो सजाकर भव्यता के माहौल में स्टेज पर रखा जाता है।  

यहां तक कि मृतक के परिवार के सदस्य भी अच्छी तरह सज - संवरकर आते हैं।  

उनका आचरण और पहनावा किसी दुःख का संकेत ही नहीं देता। 

समाज में अपनी प्रतिष्ठा दिखाने की होड़ में अब शोक सभा भी शामिल हो गई है। 

सभा में कितने लोग आए, कितनी कारें आईं, कितने नेता पहुंचे,कितने अफ़सर आए - इसकी चर्चा भी खूब होती है । 

ये सब परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार बन गए हैं।  

उच्च वर्ग को तो छोड़िए, छोटे और मध्यमवर्गीय परिवार भी इस अवांछित दिखावे की चपेट में आ गए हैं। 

शोक सभा का आयोजन अब आर्थिक बोझ बनता जा रहा है।  

कई परिवार इस बोझ को उठाने में कठिनाई महसूस करते हैं पर देखा - देखी की होड़ में वे न चाहकर भी इसे करने के लिए मजबूर होते हैं।

इस आयोजन में खाना, चाय, कॉफी, मिनरल वाटर,जैसी चीजों पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है।  

यह पूरी सभा अब शोक सभा की बजाय एक भव्य आयोजन का रूप ले रही है। 

शोकसभा में जाते हैं तब लगता ही नहीं कि हम लोग शोकसभा में आए हैं, रीति रिवाज उठाने की बजाय नए नए रिवाज बनने लगे हैं।


सब से विनम्र प्रार्थना - 

1:- शोक सभाओं को अत्यंत सादगीपूर्ण

       और आडंबर रहित ही होनी चाहिए।


2:- संपन्न परिवार,ऐसा कुछ न करें कि मध्यमवर्गीय पुनरावृत्ति में पीस जाएं, और अनुसरण न कर पाने की स्थिति में अपराध बोध से ग्रसित हो जाएं ।


3:- खूब साधन संपन्न लोग ऐसे अवसरों पर सामाजिक संस्थाओं को खूब दान पुण्य करें, ये संस्थाएं आपकी शोहरत की गाथा का बखान खुद ब खुद कर लेंगी ।


4:- सेवा संस्थाएं भी सभी वर्गों के लिए

    समानता का भाव रखकर उनकी सेवा करें ।


5:- समाजहित में जारी!


      || महादेव शम्भों काशी विश्वनाथ वन्दे ||


|| रहस्यमय जानकारी ||


शिव पार्वती का तीसरा पुत्र 

 अन्धक जो एक दैत्य था -


इस प्रसंग मे बताएगा की क्यों शिवजी और पार्वती के दैत्य पुत्र अंधक ने जन्म लिया और किस कारण शिवजी ने अपने इस पुत्र का वध किया |आइये जानते हैं -


एक बार शिवजी पूर्व दिशा में मुंह करके बैठे हुए थे, तभी पीछे से पार्वतीजी ने अपने हाथो से शिवजी की आँखे बंद कर दी और इस तरह पल भर में समस्त जगत में अन्धकार छा गया | 

दुनिया को रोशन करने के लिए शिवजी ने अपनी तीसरी आँख खोली पर इससे इतनी रोशनी हुई की जगत को प्रकाशमान हो गया पर पार्वती जी पसीने में भीग चुकी थी | 

इन पसीने की बूंदों से एक बालक का जन्म हुआ जो दिखने में दैत्य के समान भयानक मुख वाला था


माँ पार्वती ने जिज्ञासा से शिवजी

 से इसकी उत्पति के बारे में पूछा |


शिवजी ने इसे अपना पुत्र बताया और अंधकार की वजह से इसका जन्म होने के कारण उसका नाम अंधक रख दिया | 

कुछ वर्ष बाद असुरराज हिरण्याक्ष ने शिवजी की घोर तपस्या की और वरदान स्वरुप एक बलशाली पुत्र की कामना की | 

भगवान शिव ने अन्धक को उसे पुत्र रूप में प्रदान कर दिया | 

बालक अन्धक अब दैत्यों के बीच ही पला और बड़ा होने पर असुरो का राजा बना |

अन्धक यह भूल चूका था की शिव और पार्वती ही उसके सगे माँ पिता है | 

अन्धक बहुत बलवान था और बल और शक्ति के लिए उसने ब्रह्मा जी की तपस्या की | 

ब्रह्मा जी ने जब उससे वरदान मांगने को कहा तो उसने कह दिया की वो तब ही मरे जब वो अपनी माँ को काम वाशना की नजर से देखे | ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दे दिया | 

अन्धक खुद को अमर मानकर बहुत खुश हुआ क्योकि उसके कोई माँ नही थी |

वरदान पाकर वो अब तीनो लोको को जीत चुका था |

हर कोई उससे भयभीत होने लगे | 

त्रिलोक जीत कर अब वो एक सबसे सुन्दर कन्या से विवाह करना चाहता था | 

उसने जब पता लगाया तो उसे पता चला की इस समस्त जगत में पार्वती ही सबसे सुन्दर युवती है |

वो तुरंत पार्वती के पास गया और उनकी सुन्दरता को देखकर काम वाशना में अँधा हो गया और उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा। 

पार्वती के मना करने पर वो उसे जबरदस्ती ले जाने लगा तो पार्वती ने शिव का आह्वान किया। 

पार्वती के आह्वान पर शिव वहां उपस्थित हुए और उसने अंधक को बताय की तुम पार्वती के ही पुत्र हो।ऐसा कहकर उन्होंने अंधक का वध कर दिया।

विशेष :- 

वामन पुराण में अंधक को शिव - पार्वती का पुत्र बताया गया है जिसका वध शिव करते है जबकि एक अन्य मतानुसार अंधक, कश्यप ऋषि और दिति का पुत्र था |

और फिर कभी आगे जाने क्योंकि

   अंधक एक बहुविकल्पी शब्द है।


          || शिव शक्ति मात की जय हो ||

*💐🦚 हर हर महादेव🦚💐*

🙏💐🦚जय श्री कृष्ण🦚💐🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-

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