https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: पौराणिक कथा।

पौराणिक कथा।

पौराणिक कथा। 

पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की कथा :  प्रभु - मिलन की आस जगत में : ठाकुर जी का चमत्कार : बेंट बिल्वामृतेश्वर महादेव :

पिता के वीर्य और माता के गर्भ के बिना जन्मे पौराणिक पात्रों की कथा। 

हमारे सनातन धर्म ग्रंथो वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में कई ऐसे पात्रों का वर्णन है जिनका जन्म बिना माँ के गर्भ और पिता के वीर्य के हुआ था। 

ऐसे ही पौराणिक पात्रो क़े ज़न्म की कहानी बतायेँगे। 

इन मे से कई पात्रो के ज़न्म मे माँ के गर्भ का कोई योगदान नहीं था तो कुछ पात्रों के ज़न्म में पिता क़े वीर्य का जबकि कुछ मैं दोनो क़ा हीं।



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माँ के गर्भ में बच्चा -

1 - धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के जन्म कि कथा : 

हस्तिनापुर नरेश शान्तनु और रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। 

शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इस लिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। 

भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। 

अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई।

उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। 

उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। 

बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन - मन राज शाल्व को अर्पित कर चुकी है। 

उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।

राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, हे आर्य ! 

आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें। 

किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। 

अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। 

परशुराम ने अम्बा से कहा, हे देवि! 

आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा। 

परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। 

इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। 

दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार - जीत का फैसला नहीं हो सका। 

आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।

विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। 

अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, “ पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो। 

माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता। "

यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। 

तब  उन्हें अपने ज्येष्ठ पुत्र वेदव्यास का स्मरण किया।

स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। 

सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, हे पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निः सन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। 

अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम नियोग विधि से उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो। 

वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वो मेरे सामने से निवस्त्र हॉकर गुजरें जिससे की उनको गर्भ धारण होगा।  

सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी छोटी रानी अम्बालिका गई पर अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई।

वेदव्यास लौट कर माता से बोले, माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से  पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा ।  

यह जानकार इससे माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। 

इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। 

दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। 

इस बार वेद व्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, माते! इस दासी के गर्भ से वेद - वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा। 

इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।


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प्रभु - मिलन की आस जगत में :

व्यक्ति अपनी रुचि, स्वभाव एवं सुविधा के अनुसार विभिन्न साधन अपनाकर मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है, किंतु ये सब ज्ञान - प्राप्ति के साधन मात्र हैं, जिनकी अंतिम उपलब्धि ज्ञान ही है। 

सृष्टि, जगत, जीव, आदि का स्पष्ट अनुभव आत्मानुभूति द्वारा ही होता है, जिससे वह असत्य, भ्रम, माया, अज्ञान, प्रकृति आदि से मुक्त होकर यह अनुभव करता है कि मैं शुद्ध चेतन तत्व ब्रम्ह ही हूं।

अज्ञानवश ही अथवा माया के भ्रम में पड़कर मैं अपने को क्षुद्र जीव समझ बैठा था। यह अज्ञान ग्रंथि जब खुल जाती है तो जीव शिव हो जाता है, ब्रम्ह हो जाता है। 

वेदांत के अनुसार जीव ईश्वर बनता नहीं, बल्कि वह ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं ईश्वर ही है। 

अज्ञान अथवा अविद्या के कारण वह अपने को उससे भिन्न क्षुद्र जीव समझ बैठा था। 

इस भ्रांति का निवारण आत्मानुभूति के बिना नहीं हो पाता तथा आत्मानुभूति के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

संसार में अनेक प्रकार के दुख हैं, अशांति है, राग, द्वेष, घृणा,आसक्ति, मोह, वासना, प्रेम, संघर्ष आदि सब कुछ है। 

इससे जीवन में न तो शांति का अनुभव होता है और न ही आनंद का। 

पैदा होकर जीवन भर इन संघर्षो में उलझ कर अपने प्राण गंवा देता है, तथा फिर दोबारा भोगने के लिए पैदा हो जाता है। 

उसके हाथ में कुछ भी नहीं आता। 

यही उसकी नियति बन गई है तथा यही उसका भाग्य। 

इसके आगे जीवन में कुछ पाने योग्य भी है, जो उसे शाश्वत सुख व शांति दे सकता है। 

हमारे चारों ओर एक अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है, एक झूठी माया का आवरण है, जिससे हम इस सत्य एवं शाश्वत ज्ञान से वंचित हैं। 

ऐसा अनेक जन्मों से होता आ रहा है कि इतने जन्मों के अनुभव के बाद भी कुछ नहीं सीख पाया है कि इसका अंत भी किया जा सकता है। 

जिस क्षण हमें संसार की असारता, अस्थिरता तथा इसके मिथ्यात्व का बोध हो जाता है उसी क्षण ज्ञान - प्राप्ति के द्वारा खुल जाते हैं।



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ठाकुर जी का चमत्कार :

ठाकुर जी के हस्ताक्षर जो भक्त का रूप धारण कर के न्यायालय में किये , आज भी उसकी प्रतिलिपि भगत अपने साथ एवंले जाते है आइये जाने पूरी कहानी.....!

मध्यप्रदेश में आगर मालवा नाम का जिला हैं। वहाँ के न्यायालय में सन 1932 ई. में जयनारायण शर्मा नाम के वकील थे। 

उन्हें लोग आदर से बापजी कहते थे। वकील साहब बड़े ही धार्मिक स्वभाव के थे और रोज प्रातःकाल उठकर स्नान करने के बाद स्थानीय बैजनाथ मन्दिर में जाकर बड़ी देर तक पूजा व ध्यान करते थे। 

इस के बाद वे वहीं से सीधे कचहरी जाते थे ...!

एक दिन रोजाना की तरह पूजा करने के बाद न्यायलय जाना था बापजी का मन ध्यान में इतना लीन हो गया कि उन्हें समय का कोई ध्यान ही नहीं रहा। 

जब उनका ध्यान टूटा तब वे यह देखकर सन्न रह गये कि दिन के 11 बज गये थे। 

वे परेशान हो गये क्योंकि उस दिन उनका एक जरूरी केस बहस में लगा था और सम्बन्धित जज बहुत ही कठोर स्वभाव का था। 

इस बात की पूरी सम्भावना थी कि उनके मुवक्किल का नुकसान हो गया हो। 

ये बातें सोचते हुए बापजी न्यायालय 12 बज....!

पहुँचे और जज साहब से मिलकर निवेदन किया कि यदि उस केस में निर्णय न हुआ हो तो बहस के लिए अगली तारीख दे दें ...!

जज साहब ने आश्चर्य से कहा ....!

” यह क्या कह रहे हैं। सुबह आपने इतनी अच्छी बहस की। 

मैंने आपके पक्ष में निर्णय भी दे दिया और अब आप बहस के लिए समय ले रहे हैं ...! “

जब बापजी ने कहा कि मैं तो था ही नहीं .... !

तब जज साहब ने फाइल मँगवाकर उन्हें दिखायी। 

वे देखकर सन्न रह गये कि उनके हस्ताक्षर भी उस फाइल पर बने थे। 

न्यायालय के कर्मचारियों, साथी वकीलों और स्वयं मुवक्किल ने भी बताया कि ....!

आप सुबह सुबह ही न्यायालय आ गये थे और अभी थोड़ी देर पहले ही आप यहाँ से निकले हैं ...!

बापजी की समझ में आ गया कि उनके रूप में कौन आया था? समझ गए टेढ़ी टांग वाला काम कर गया.

उन्होंने उसी दिन संन्यास ले लिया और फिर कभी न्यायालय या अपने घर नहीं आये ...!

इस घटना की चर्चा अभी भी आगर मालवा के निवासियों और विशेष रूप से वकीलों तथा न्यायालय से सम्बन्ध रखनेवाले लोगों में होती है। 

न्यायालय परिसर में बापजी की मूर्ति स्थापित की गयी है। 

न्यायालय के उस कक्ष में बापजी का चित्र अभी भी लगा हुआ है जिसमें कभी भगवान बापजी का वेश धरकर आये थे। 

यही नहीं लोग उस फाइल की प्रतिलिपि कराकर ले जाते हैं जिसमें बापजी के रूप मे आये भगवान ने हस्ताक्षर किये थे और उसकी पूजा करते हैं ....!

बिहारी जी के प्रेमियो यह घटना बताती है विश्वास पूरा हो तो ठाकुर जी काम भी पूरा करते है अधूरा नहीं रहने देते भगत की जिम्मेदारी को..!!

विश्व चकित है। 

होना भी चाहिये। 

ना कोई मास्क हैं!

 ना कोई दूरियां हैं!

ना कोई हाइजीन है!

ना कोई सैनिटाइजर्स !

करोड़ों मानव एक ही नदी में, एक सीमित जगह पर स्नान कर रहे हैं और कोई महामारी नहीं फैल रही। 

सारे कीटाणु और जीवाणु दुम दबाये पड़े हैं। 

कैसी श्रद्धा है। 

कैसी गंगा मां है। 

कैसी आस्था है 

और कैसा कुंभ है। 

कैसा धर्म है। 

कैसा विज्ञान है। 

कैसा सितारों का योग है। 

जन सैलाब एक ही उद्देश्य को लेकर उमड़ रहा है। 

पापों का क्षय, नाश और मोक्ष की प्राप्ति। 

ना कोई जात - पात का भेद, ना कोई वर्ण का भेद, ना कोई ब्राह्मण, ना क्षत्रिय, ना वैश्य और ना शूद्र, ना कोई ऊंचा ना कोई नीचा। 

सब समान। 

हे आधुनिक विज्ञान...!

एक बार फिर से बैठ कर गहन चिंतन करो। 

क्यों नहीं फैल रही महामारी ? 

क्या होता है मोक्ष, कोशिश करो जानने की ? 

क्या होते हैं पाप और पुण्य ? 

क्या होता है पुनर्जन्म ? 

जानो आधुनिक विज्ञान। तुम्हें अभी बहुत कुछ जानना है..। 

झुको आस्था के आगे। 

धर्म के आगे। 

हो सकता है आस्था का विज्ञान, धर्म का विज्ञान तुमसे बड़ा हो ? 

थोड़ा झुकना सीखो आधुनिक विज्ञान। 

कहते हैं झुकने से ज्ञान बढ़ता है।


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बेंट बिल्वामृतेश्वर महादेव :

ऋषि दधीचि ने इस संसार को बचाने के लिए अपनी अस्थियों को दान किया था। 

ऐसे महान ऋषि जिस मंदिर में महादेव की पूजा करते थे वे बिल्वामृतेश्वर कहलाए।

नर्मदा की दो धाराओं के बीच तीन किमी लंबे टापू पर बेंट के नाम से पहचाना जाता है। 

इस टापू पर 30 हजार वर्गफीट में श्री बिल्वामृतेश्वर महादेव का विशाल मंदिर है। 

मंदिर के पास ही महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी की समाधि है। 

टापू के दक्षिण भाग में ही मंदिर में भगवान दत्तात्रेय एवं नर्मदा देवी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। 

दधीचि ऋषि ने बेंट पर ही विश्व कल्याण के लिए बज्र बनाने अपनी अस्थियों का दान किया था।

यहां पर पांडव भी अज्ञातवास में रुके थे। 

तभी से इस जगह का नाम धर्मराज युधिष्ठिर के नाम पर धर्मपुरी रखा गया जो धार जिला मध्यप्रदेश में स्थित है। 

यहां पर स्थित बिल्वामृतेश्वर महादेव मंदिर रामायण कालीन है। 

यहां भगवान भोलेनाथ स्वयंभू शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं। 

यहां पर प्रत्येक सावन सोमवार को बिल्वामृतेश्वर महादेव के दर्शन पूजन के लिए सैकड़ों श्रद्धालु पहुंचते हैं। 

इस मंदिर की मान्यता महाभारत काल से है कि यहां सभी श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी होती है। 

महाशिवरात्रि पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। 

जिसमें हजारों श्रद्धालु बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।

मंदिर प्रभु श्रीराम के पूर्वज राजा रंतिदेव ने मानव और धर्म के उत्थान के लिए यज्ञ का आयोजन किया था, उस यज्ञ में विघ्न डालने के लिए शुभाउ और महाभाउ नाम के असुरों ने ब्राह्मणों पर हमला किया था, तब यज्ञ कुंड में ब्राह्मणों ने बिल्वफल और आमफल की आहुति दी, तब यज्ञ कुंड में से स्वयंभू श्री बिल्वामृतेश्वर महादेव प्रकट हुए और उन्होंने शुभाउ और महाभाउ असुरों का नाश किया, तब से ही स्वयंभू श्री बिल्वामृतेश्वर महादेव यहां पर विराजे हैं। 

यज्ञ कुंड में आम और बिल्व फल की आहुति देने से महादेव प्रकट हुए थे, जिससे महादेव का नाम श्री बिल्वामृतेश्वर महादेव पड़ा।

ऐसा कहा जाता है कि स्वयंभू श्री बिल्वामृतेश्वर महादेव के नाम स्मरण मात्र से ही बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन बराबर ही उतना ही पुण्य मिलता है।

  || बिल्वामृतेश्वर महादेव की जय हो ||

जय जय  महाकुंभ 

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

तमिल / द्रावीण ब्राह्मण

जय जय सनातन।

🙏🙏🙏🙏🙏


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