https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 10/06/20

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्रीमद्भागवत प्रवचन श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम: श्रीराधा माधव चिन्तन भाग = [ 102 ] श्रीकृष्ण का परम स्वरूप और उनका प्रेम ।

श्रीकृष्ण - प्रेमी भक्त वैष्णव सचमुच ऐसा ही मानते हैं कि तत्त्वरूप निराकार ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की अगंकान्ति हैं।

परमात्मा उनके अंश हैं और षडैश्वर्य ( समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य ) के पूर्ण आधार स्वरूप भगवान श्रीनारायण श्रीकृष्ण के विलास - विग्रह हैं। 




श्रीकृष्ण और उनकी स्वरूप भूता श्रीराधा सर्वथा अभिन्न्न हैं। 

सर्वथा द्वैतरहित एक ही परम भगवत्तत्त्व लीला - रसास्वादन के लिये दो रूपों में प्रकट है। 

इन्हीं दो रूपों को ‘विषय’ और ‘आश्रय’ कहा गया है। 

श्रीकृष्ण ‘विषय’ हैं और राधाजी ‘आश्रय’। 

विषय ‘भोक्ता’ होता है। 

और आश्रय ‘भोग्य’। 

लीला के लिये कभी - कभी श्रीकृष्ण ‘आश्रय’ बन जाते है और श्रीराधाजी ‘विषय’ सजती हैं।

 श्रीराधाजी भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूपभूत आनन्द का ही मूर्तिमान रूप हैं। 

परंतु लीला के लिये श्रीराधा रानी प्रेम के परिपूर्ण आदर्श हैं और भगवान श्रीकृष्ण आनन्द के। 

इसी से लीलामयी श्रीराधाजी भगवान श्रीकृष्ण की सबसे श्रेष्ठ ‘आराधिका’ हैं, उन्हें निज सुख का बोध नहीं है। 

वे जानती हैं श्रीकृष्ण के सुख को और श्रीकृष्ण को सुखी देखकर ही नित्य परम सुख का अनुभव करती हैं। 

उनकी सगिंनी और सखी समस्त गोपियाँ भी इसी भाव की मूर्तियाँ हैं। 

वे श्रीराधा कृष्ण के सुख से ही सुखी होती हैं। 

उनमें निजेन्द्रिय सुख की वासना कल्पना के लिये भी नहीं है। 

इसी से वे प्रेममय भक्ति मार्ग और प्रेमी भक्तों की परम आदर्श पथप्रदर्शिका हैं।

चोर - जार - शिखामणि...!

व्रजे वसन्तं नवनीतचौरं गोपागंनानां च दुकूलचौरम्।
अनेकजन्मार्जितपापचौरं चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि।।

अहिमकरकरनिकरमृदृमुदितलक्ष्मी- सरसतरसरसिरुहसदृशदृशि देवे।
व्रजयुवतिरतिकलहविजयिनिजलीला- मदमुदितवदनशशिमधुरिमणि लीये।।

एक सज्जन पूछते हैं : -

‘गोपाल सहस्रनाम’ में भगवान का एक नाम ‘चोर - जार - शिखामणि’ आया है। 

चोरी और जारी दोनों ही अत्यन्त नीच वृत्तियाँ हैं। 

भगवान के भक्त की तो बात ही दूर, जब साधरण विवेकवान् पुरुष भी ‘चोरी - जारी’ से बचे रहते हैं, तब फिर भगवान में चोरी - जारी का होना कैसे सम्भव है? 

और यदि उनमें चोरी - जारी नहीं है तो फिर उनको चोर - जारों का मुकुटमणि कहना क्या उन्हें गालियाँ देना नहीं है? 

और यदि वस्तुतः भगवान में चोरी - जारी का होना माना जा सकता है तो फिर वे भगवान कैसे हुए और उनके आदर्श से दुनिया के लोग डूबे बिना कैसे रहेंगे? 

मेरी समझ से बुरी नीयत किसी ने उनका यह नाम रख दिया है। 

इस सम्बन्ध में मैं आपका मत जानना चाहता हूँ।

इसके उत्तर में अल्पमति के अनुसार कुछ लिखने का प्रयन्त किया जाता है। 

प्रश्रन :–

कर्ता महोदय को इससे कुछ संतोष हुआ तो अच्छी बात है। 

नहीं तो, इसी बहाने कुछ समय भगवतच्चर्चा में बीतेगा और इस सुअवसर की प्राप्ति के कारण प्रश्रन कर्ता महोदय हैं, इसी लिये मैं तो उनका कृतज्ञ हूँ ही।

यह सर्वथा सत्य है कि ‘चोरी’ और ‘जारी’ बहुत ही नीच वृत्तियाँ हैं और ऐसी वृत्तियाँ जिन लोगों में हैं, वे कदापि विवेकवान् और सदाचारी नहीं हैं। 

भक्त में ऐसे दुगुर्ण रह ही नहीं सकते; और भगवान में तो इनकी कल्पना करना भी मूर्खता की सीमा है।

 इतना होने पर भी उनके ‘गोपाल सहस्रनाम’ में आया हुआ श्रीभगवान का यह ‘चोर - जार - शिखामणि’ नाम न तो भगवान को गाली देने के लिये है और न किसी ने बुरी नीयत से ही इस नाम को गढ़ लिया है। 

दृष्टि विशेष के अनुसार भगवान में इस नाम की पूर्ण सार्थकता है और इसका रहस्य समझ लेने पर फिर कोई शकां भी नहीं रहती।

सबसे पहले भगवान का स्वरूप समझना चाहिये। 

स्वरूपभूत दिव्यगुण विशिष्ट भगवान में लौकिक गुणों का - 

जो प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुण विकार हैं- 

सर्वथा अभाव है, इस लिये वे निगुर्ण हैं। 

भक्तों के परम आदर्श, लोक संग्रह के आचार्य और विश्व के भरण - पोषण-कर्ता होने से वे समस्त सात्त्विक गुणों को अपने में धारण करते हैं।

इस लिये वे अशेषसद्गुणालंकृत हैं प्रकृति के द्वारा अखिल जगद्रुप में उन्हीं का प्रकाश होने के कारण वे समस्त सदसद्गुण सम्पन्न हैं। 

भगवान ही समस्त विश्व के निमित्त और उपादान कारण हैं।

इस दृष्टि से संसार के सभी भाव उन्हीं से उत्पन्न होते हैं।

सभी भावों का सम्बन्ध उनसे जुड़ा हुआ है।

इतना होने पर भी उनके स्व -स्वरूप में कोई दोष नहीं आता।

उनके द्वारा सब कुछ होने पर भी वे किसी के बन्धन में नहीं हैं।

किसी दृष्टि विशेष के हेतु से उन्हें यदि संसार से सर्वथा पृथक् माना जाय तो फिर यह तो मानना ही पड़ेगा कि संसार में जो कुछ है, सभी भगवान का है; 

 ‘सर्वलोकमहेश्वर...!

क्योंकि वे सर्व व्यापी हैं और संसार में जितने भी पुरुष हैं, सबके देह में ‘देही’ या आत्मा रूप से वे ही स्वयं विराजित हैं। 

इस दृष्टि से समस्त संसार के सम्पूर्ण पदार्थों के स्वत्व पर अधिकार करने से और समस्त स्त्रियों के पति होने से भी उन पर न परधनापहरण का दोष आ सकता है और न औपपत्यका ही।

परंतु यहाँ सर्वलोकमहेश्वर और विश्वात्मा में स्थित भगवान के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं है।

यहाँ तो प्रश्र कर्ता महोदय विश्वात्मा और सर्वलोकमहेश्वर से भिन्न समझकर उन साकर -  मगंलविग्रह भगवान के सम्बन्ध में पूछते हैं।

जो धर्मसंस्थापनार्थ ही धरातल पर अवतीर्ण होते हैं। 

उनका कहना है कि ‘धर्मसंस्थापनार्थ अवतार ग्रहण करने वाले भगवान क्या ऐसा कोई भी कार्य कर सकते हैं।

जो स्वरूपतः धर्मविरुद्ध हो और जिससे शुभ आदर्श नष्ट होने के साथ ही धर्मस्थापना के स्थान पर धर्म की हानि होती हो?’
 
इसके उत्तर में यों तो यह कहना भी सर्वथा युक्तियुक्त और सत्य ही है।

कि भगवान पर माया - जगत् के धर्म का कोई बन्धन लागू नहीं पड़ता, वे सर्वतन्त्रस्वतन्त्र हैं। 

वे जो कुछ करते हैं, वही उनका धर्म है और वे जो कुछ कहते हैं, वही शास्त्र है।

अवश्य ही उनकी क्रिया का अनुकरण करना सबके लिये न तो उचित है और न सम्भव ही।

क्योंकि भगवान की क्रिया भगवान के स्वधर्मानुकूल होती है। 

जीव में भगवत्ता न होने से वह भगवान के धर्म का आचरण नहीं कर सकता। 




गवान श्रीकृष्ण आग पी गये, वे वरुण लोक से नन्द को ले आये।

यमराज के यहाँ से गुरु पुत्र को लौटा लाये, उन्होंने दिन में ही सूर्य को छिपा दिया।

बाल लीला में कनिष्ठिका अँगुली पर पहाड़ उठा लिया और अपने चरित्रों से ब्रह्मा को भी मोहित कर दिया। 

जीव इनमें से कोई-सा भी कार्य नहीं कर सकता। 

इसी लिए भगवान की क्रिया का अनुसरण भी मनुष्य नहीं कर सकता। 

हाँ, उनकी वाणी का– 

उनके उपदेशों का पालन अवश्य करना चाहिये और इसी में जीवों का कल्याण है। 

ऐसा होने पर भी साकर - मगंलविग्रह भगवान की लीला में वस्तुतः ऐसी कोई क्रिया नहीं होती, जो शास्त्र विरुद्ध हो या जिसे हम चोरी - जारी या किसी पाप की श्रेणी में रख सकें।

मोहवश मूढ़लोग उनके स्वरूप को न समझने के कारण ही उनकी क्रियाओं पर दोषारोपण कर बैठते हैं।

 तब फिर इस ‘चोरी - जारी’ का क्या अर्थ है? 

अब इसी पर संक्षेप में विचार करना है। यों तो वेदों में भी भगवान को 

स्तेनानां पतये नमः...!!

चोरों का सरदार कहकर प्रणाम किया गया है भगवान श्रीराम को भी प्राचीन सदग्रन्थों के आधार पर श्रीराम  स्वरूप के अनुभवी गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने 

" लोचन सुखद बिस्व चितचोरा..! "

कहा है। 

परंतु प्रधान रूप से यह

 " चोर-जार-शिखामणि..! "

नाम भगवान श्रीकृष्ण के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। 
श्रीमदभागवत के अनुसार यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं- 

" कृष्णस्तु भगवान स्वयम्। "

गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण अपने ही श्रीमुख से बारम्बार अपने को साक्षात् सर्वाधिपति सच्चिदानन्दघन परात्पर तत्त्व घोषित किया है। 

और इन भगवान का ‘चोर - जार - शिखामणि’ नाम रखा गया है।

उन व्रज - गोपियों के द्वारा, जिनके चरणों की पावन धूलि पाने के लिये देवश्रेष्ठ ब्रह्मा और ज्ञानि श्रेष्ठ उद्धव तिर्यगादि योनि और लता - गुल्मादि जड शरीर धारण करने में भी अपना सौभाग्य समझते हैं तथा स्वयं भगवान जिनका अपने को ऋणी घोषित करते हैं।

"वृंदावन" में एक भक्त रहते थे जो स्वभाव से बहुत ही भोले थे। 

उनमे छल, कपट, चालाकी बिलकुल नहीं थी।

बचपन से ही वे "श्री वृंदावन" में रहते थे, श्री कृष्ण स्वरुप में उनकी अनन्य निष्ठा थी और वे भगवान् को अपना सखा मानते थे। 

बहुत शुद्ध आत्मा वाले थे, जो मन में आता है, वही भगवान से बोल देते है । 

वो भक्त कभी "वृंदावन" से बाहर गए नहीं थे। 

एक दिन भोले भक्त जी को कुछ लोग " श्री जगन्नाथ पुरी " में भगवान् के दर्शन करने ले गए। 

पुराने दिनों में बहुत भीड़ नहीं होती थी। 

अतः वे सब लोग श्री जगन्नाथ भगवान् के बहुत पास दर्शन करने गए । 

भोले भक्त जी ने श्री जगन्नाथजी का स्वरुप कभी देखा नहीं था उसे अटपटा लगा ।

उसने पूछा – 

ये कौन से भगवान् है ? 

ऐसे डरावने क्यों लग रहे है ? 

सब पण्डा पूजारी लोग कहने लगे – 

ये भगवान् श्री कृष्ण ही है, प्रेम भाव में इनकी ऐसी दशा हो गयी है । 

जैसे ही उसने सुना – 

वो जोर जोर से रोने लग गया और ऊपर जहां भगवान् विराजमान हैं वहाँ जाकर चढ़ गया । 

सब पण्डा पुजारी देखकर भागे और उससे कहने लगे कि नीचे उतरो परंतु वह नीचे नहीं उतरा उसने भगवान् को आलिंगन देकर कहा – 

"अरे कन्हैया ! "

ये क्या हालात बना रखी है तूने ? 

ये चेहरा कैसे फूल गया है तेरा , तेरे पेट की क्या हालत हो गयी है । 

यहां तेरे खाने पीने का ध्यान ही नहीं रखा जाता क्या ? 

मैं प्रार्थना करता हूं , तू मेरे साथ अपने ब्रज में वापस चल । 

मै दूध, दही , माखन खिलाकर तुझे बढ़िया पहले जैसा बना दूंगा , सब ठीक हो जायेगा तू चल ।

पण्डा पुजारी उन भक्त जी को नीचे उतारने का प्रयास करने लगे।

कुछ तो नीचे से पीटने भी लगे परंतु वह रो - रो कर बार - बार यही कह रहा था कि कन्हैया , तू मेरे साथ " ब्रज " में चल।

मै तेरा अच्छी तरह ख्याल करूँगा । 

तेरी ऐसी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही । 

अब वहाँ गड़बड़ मच गयी तो भगवान् ने अपने माधुर्य श्रीकृष्ण रूप के उसे दर्शन करवाये और कहा – भक्तों के प्रेम में बंध कर मैंने कई अलग - अलग रूप धारण किये हैं, तुम चिंता मत करो ।

जो जिस रूप में मुझे प्रेम करता है मेरा दर्शन उसे उसी रूप में होता है।

मै तो सर्वत्र विराजमान हूँ । 

उसे श्री जगन्नाथजी ने समझा बुझाकर आलिंगन वरदान किया और आशीर्वाद देकर वृंदावन वापस भेज दिया । 

इस लीला से स्पष्ट है कि जिसमे छल कपट नहीं है। 

जो शुद्ध हृदय वाला भोला भक्त है, 

उसे भगवान् सहज मिल जाते है....!

जय जय श्री श्री राधेकृष्ण जी

( एक सत्य घटना )

एक शिक्षक के पेट में ट्यूमर ( गाँठ ) हो गया ।

उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया । 

अगले दिन ऑपरेशन होना था । 

वे जिस वॉर्ड में थे उसमें एक रोगी की मृत्यु हुई।

 उसकी पत्नी विलाप करने लगी –

 “ अब मैं क्या करूँ, इनको कैसे मेरे गाँव ले जाऊँ ? "

मेरे पास पैसे भी नहीं हैं ! 

" कैसे इनका क्रियाकर्म होगा ” ?  

शिक्षक सत्संगी थे । 

उनको अपने दर्द से ज्यादा उसका विलाप पीड़ा दे रहा था । 

उनसे रहा नहीं गया । 

उन्होंने अपनी चिकित्सा के लिए रखे सारे रुपये उस स्त्री को दे दिये और कहा -

 ‘‘ बहन...! "

" जो हो गया सो हो गया, अब तुम रोओ मत। "

" ये रुपये लो और अपने गाँव जाकर पति का अन्तिम संस्कार करवाओ ” ।

रात में शिक्षक का दर्द बढ़ गया और उन्हें जोर से उलटी हुई। 

नर्स ने सफाई करायी और दवा देकर सुला ही दिया गए। 

सुबह उन्हें ऑपरेशन के लिए ले जाया गया । 

डॉक्टर ने जाँच की तो दंग रह गया - 

‘‘ रात भर में इनके पेट का ट्यूमर कहाँ गायब हो गया ”! 

नर्स ने बताया -

‘‘ इन्हें रात में बड़े जोर की उलटी हुई थी उसमें काफी खून भी निकला था ” । 

डॉक्टर बोला -

 ‘‘उसी में इनका ट्यूमर निकल गया है । "

अब ये बिल्कुल ठीक हैं । 

" ऑपरेशन की जरूरत नहीं है ” ।

“ रामचरितमानस ” में आता है -

" पर हित सरिस धर्म नहिं भाई...! "

 “ परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है ” । 

तुम दूसरे का जितना भला चाहोगे उतना तुम्हारा मंगल होगा । 

जरूरी नहीं कि जिसका तुमने सहयोग किया वही बदले में तुम्हारी सहायता करे । 

गुरु - तत्व व परमात्मा सर्वव्यापी सत्ता वाले हैं । 

वे किसी के द्वारा कभी भी दे सकते हैं । 

परोपकार का बाहरी फल उसी समय मिले या बाद में, ब्रह्मज्ञानी गुरु के सत्संगी साधक को तो सत्कर्म करते समय ही भीतर में आत्मसन्तोष, आत्मतृप्ति का फल प्राप्त हो जाता है। 

परमसेवा से जुडे। 

यह परोपकार का भाव जीव मात्र के कल्याण के लिए है।
  !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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महाभारत की कथा का सार| कृष्ण वन्दे जगतगुरुं  समय नें कृष्ण के बाद 5000 साल गुजार लिए हैं ।  तो क्या अब बरसाने से राधा कृष्ण को नहीँ पुकारती ...

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