https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 12/14/22

। एक संत से एक व्यक्ति ने पूछा कि आप लोगों को उपदेश देते हैं पर मैं पूछना चाहता हूँ ।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीमद्भागवत गीता प्रर्वचन  ।।

एक संत से एक व्यक्ति ने पूछा कि आप लोगों को उपदेश देते हैं पर मैं पूछना चाहता हूँ ।


 कि आप के प्रवचनों से कितने लोग मुक्ति को उपलब्ध हुए हैं। 

संत ने कहा जवाब अवश्य दूंगा पर तुम्हें मेरा एक काम करना होगा ।

गाँव में प्रत्येक व्यक्ति से उसकी एक इच्छा पूछकर लिख लाओ। 

वह व्यक्ति एक-एक व्यक्ति से इच्छा पूछकर लिखने लगा ।

किसी ने पुत्र - प्राप्ति की इच्छा तो किसी ने उत्तम स्वास्थ्य की इच्छा , किसी ने धन - संपत्ति  ऊँचे पदों की।

 युवक इच्छाएं पूछकर संत के पास आया और चरणों में गिर पड़ा ।

संत ने कहा तुमनें इतनें लोगों से इच्छा पूछी पर किसी नें भी मोक्ष या परमात्मा की इच्छा नहीं जताई। 

स्वयं भगवान् भी आकर यदि लोगों से कुछ मांगने को कहें तो भी लोग परमात्मा से परमात्मा नहीं बल्कि संसार ही मांगेंगे। 

परमात्मा वही देता है जो तुम्हारी चाहत है।

ये तुम पर निर्भर है कि तुम उससे क्या मांगते हो ।


ईश्वर से प्रेम करने पर हमारे दुःख की तीव्रता कैसे कम हो जाती है। 

प्रारब्ध पहले रचा..

पीछे रचा शरीर।

तुलसी चिन्ता क्यों करे..।

भज ले श्री रघुबीर।

एक गुरूजी थे।

हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करते थे।

काफी बुजुर्ग हो गये थे।

उनके कुछ शिष्य साथ मे ही पास के कमरे मे रहते थे।

जब भी गुरूजी को शौच,स्नान आदि के लिये जाना होता था ।

वे अपने शिष्यो को आवाज लगाते थे और शिष्य ले जाते थे।

धीरे धीरे कुछ दिन बाद शिष्य दो तीन बार आवाज लगाने के बाद भी कभी आते कभी और भी देर से आते ।

एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही गुरूजी आवाज लगाते है ।

तुरन्त एक बालक आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ गुरूजी को निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है।

अब ये रोज का नियम हो गया ।

एक दिन गुरूजी को शक हो जाता है कि ।

पहले तो शिष्यों को तीन चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे । 

लेकिन ये बालक तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है ।

एक दिन गुरूजी उस बालक का हाथ पकड लेते है और पूछते कि सच बता तू कौन है ?

मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं ।

वो बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे ।

उन्होंने गुरूजी को स्वयं का वास्तविक रूप दिखाया।

गुरूजी रोते हुये कहते है ।

हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ति के कार्य कर रहे है।

यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना!

प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है।

आप मेरे सच्चे साधक है ।

हर समय मेरा नाम जप करते है ।

इस लिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ ।

गुरूजी कहते है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बड़े हैं ? 

क्या आपकी कृपा मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है ?

प्रभु कहते है कि मेरी कृपा सर्वोपरि है ।

ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है ।

लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा।

यही कर्म नियम है । 

इस लिए आपके प्रारब्ध स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म - मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।

शास्त्र कहते है:।

प्रारब्ध तीन तरह के होते है :

मन्द,तीव्र और तीव्रतम।

मन्द प्रारब्ध प्रभु का नाम जपने से कट जाते हैं।

तीव्र प्रारब्ध किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है,

लेकिन तीव्रतम प्रारब्ध भुगतने ही पडते है।

लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं ।

उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ।

वास्तविकता यह है कि ईश्वर शक्ति का अंश आत्मा हमारे भीतर विद्यमान है ।

जिसके उपस्थित रहने तक ही हमारा शरीर चलता है ।

उसके जाते ही यह लाश कहलाता है।

यदि कोई आत्मा अपने पिता परमात्मा का स्मरण करके दुनिया में सुख शान्ति के लिए ।

उसका सच्चे मन सहारा लेती है ।

उसकी रज़ा में राजी रहती है और आगे के लिए सही कर्म करती ।

किसी का बुरा नहीं करती तो ईश्वर उसके सदा अंग - संग रहकर उसकी संभाल करते हैं।

और तो और यदि वह आत्मा निष्काम कर्म करती हुई ईश्वर से ईश्वर का प्रेम और कृपा ही माँगते हुए दुनिया में बार बार आवागमन से छुटकारा चाहती है।

तो उसका स्वार्थ और परमार्थ दोनों संवार जाते हैं।


श्रध्दा हीन व्यक्ति मे ज्ञान उसी तरह नही ठहरता जैसे फूटे घड़े में पानी नही ठहरता । 

ज्ञान के ठहराव के लिए ।

तत्त्वज्ञानी में श्रध्दा होनी चाहिए अथवा तत्त्वज्ञानी द्वारा दिए गये उपदेश में श्रध्दा होनी चाहिए । 

उक्त दोनों प्रकार की श्रध्दा तो उसी मे होती है जो भगवान का भक्त होता है ।

श्रध्दावान व्यक्ति की ही बुध्दि शुध्द होती है ।
           

शुध्द बुध्दि में ही ज्ञान ठहरता है ।

सभी लोग वृक्षों को देखते हैं काल की प्रेरणा से वृक्ष उगते हैं ।

बढ़ते हैं ।

ठहरते हैं ।

फल लगते हैं, पकते हैं ।

नष्ट होते हैं वृक्षों की तरह मानव शरीर मे भी जन्म, अस्त्तित्व की अनुभूति,, वृध्दि, परिणाम, क्षय और विनाश ये छै भाव - विकार देखे जाते हैं।

इनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नही होता है ।
          
इस शरीर मे रहनेवाली आत्मा :

नित्य, अविनाशी, शुध्द, एक, क्षेत्रज्ञ  आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरण रहित है ।

ये बारह आत्मा के उत्क्रष्ट लक्षण है, 
              
आत्मा मे न तो ' मैं ' है और न ही ' मेरा ' है ।

इस लिए उक्त आत्मा के बारह लक्षणों को ध्यान मे रखकर पुरुष को चाहिए कि शरीर आदि मे अज्ञान के कारण ' मै ' और ' मेरा ' का झूठा भाव हो रहा है उसे छोड़ दे ।
            
जिस प्रकार सुवर्ण की खानों मे पत्थर मे मिले हुए स्वर्ण को उसके निकालने की विधि को जानने वाला स्वर्णकार स्वर्ण को पत्थर से अलग कर प्राप्त कर लेता है ।

ठीक उसी प्रकार आत्मा के बारह लक्षणों को जानने वाला आत्मवेत्ता पुरुष अपने शरीर मे आत्मा को शरीर अलग जानकर ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेता है।

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         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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