सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्रीमद्भागवत सत्संग ।।
सत्संग:-
एक बार एक युवक पुज्य कबीर साहिब जी के पास आया और कहने लगा...!
‘गुरु महाराज!
मैंने अपनी शिक्षा से पर्याप्त ज्ञान ग्रहण कर लिया है।
मैं विवेकशील हूं और अपना अच्छा - बुरा भली - भांति समझता हूं....!
किंतु फिर भी मेरे माता-पिता मुझे निरंतर सत्संग की सलाह देते रहते हैं।
जब मैं इतना ज्ञानवान और विवेकयुक्त हूं, तो मुझे रोज सत्संग की क्या जरूरत है?’
कबीर ने उसके प्रश्न का मौखिक उत्तर न देते हुए एक हथौड़ी उठाई और पास ही जमीन पर गड़े एक खूंटे पर मार दी।
युवक अनमने भाव से चला गया।
अगले दिन वह फिर कबीर के पास आया और बोला...!
‘मैंने आपसे कल एक प्रश्न पूछा था...!
किंतु आपने उत्तर नहीं दिया।
क्या आज आप उत्तर देंगे?’
कबीर ने पुन: खूंटे के ऊपर हथौड़ी मार दी।
किंतु बोले कुछ नहीं।
युवक ने सोचा कि संत पुरुष हैं।
शायद आज भी मौन में हैं।
वह तीसरे दिन फिर आया और अपना प्रश्न दोहराया।
कबीर ने फिर से खूंटे पर हथौड़ी चलाई।
अब युवक परेशान होकर बोला....!
‘आखिर आप मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं?
मैं तीन दिन से आपसे प्रश्न पूछ रहा हूं।’
तब कबीर ने कहा....!
‘मैं तो तुम्हें रोज जवाब दे रहा हूं।
मैं इस खूंटे पर हर दिन हथौड़ी मारकर जमीन में इसकी पकड़ को मजबूत कर रहा हूं।
यदि मैं ऐसा नहीं करूंगा तो इस से बंधे पशुओं द्वारा खींचतान से या किसी की ठोकर लगने से अथवा जमीन में थोड़ी सी हलचल होने पर यह निकल जाएगा।"
यही काम सत्संग हमारे लिए करता है।
वह हमारे मनरूपी खूंटे पर निरंतर प्रहार करता है ।
ताकि हमारी पवित्र भावनाएं दृढ़ रहें।
युवक को कबीर ने सही दिशा - बोध करा दिया।
सत्संग हर रोज नित्यप्रति हृदय में सत् को दृढ़ कर असत् को मिटाता है ।
इस लिए सत्संग हमारी दैनिक जीवन चर्या का अनिवार्य अंग होना चाहिए।
हे गोविन्द...!
हे मेरे नाथ मेरी जिंदगी के मालिक अपनी शरण मे रखना मै हो गया हूँ ।
तेरा अपना बना के रखना जब मोह माया ने घेरा तब तेरी याद आई घनघोर था ।
अन्धेरा तूनें ही किरण दिखाई मेरी जिन्दगी कि राह पे ज्योति जगा के रखना मेरी जिंदगी के मालिक अपनी शरण मे रखना जगत और आत्मा दोनों ही हैं ।
एक ही तत्व के दो छोर, जड़़ हैं ।
अप्रकट चेतन इस ओर तो चेतन है ।
संपूर्ण नेत्र बंद हो तो समग्र जग से संबंध जाता टूट, और पूरे नेत्र खुले रहे तो इंद्रियों का रस सकता नहीं छूट, एक में स्वयं की अनुभूति होकर जगत हो जाता असत्य,और दूसरे में आत्मा विलीन होकर जगत लगता सत्य।
बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।।
मनुष्य अपने विचारों के कारण ही अपने आपको बन्धनों में फंसा हुआ मानता है ।
अपने विचारों के कारण ही अपने आपको बंधनों से मुक्त समझता है।
मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का करण हैं।
मन न तो कभी तृप्त होता है और न ही एक क्षण के लिये शांत बैठता है।
यह अभाव और दुःख की ओर बार-बार ध्यान आकर्षित कराता रहता है।
अपमान न होने पर भी अकारण ही यह अपमान होने का अहसास कराता है।
मन ही मान-अपमान का बोध कराता है।
सहस्रं वर्तन्ते जगति विबुधाः क्षुद्रफलदा न मन्ये स्वप्ने वा तदनुसरणं तत्कृतफलम् ।
हरिब्रह्मादीनामपि निकटभाजामसुलभं
चिरं याचे शम्भो शिव तव पदाम्भोजभजनम् ॥
विद्या त्वमेव सुखदासुखदाप्यविद्या
मातस्त्वमेव जननार्तिहरा नराणाम्।
मोक्षार्थिभिस्तु कलिता किल मन्दधीभि - र्नाराधिता जननि भोगपरैस्तथाज्ञै:।।
ब्रह्मा हरश्च हरिरप्यनिशं शरण्यं पदाम्बुजं तव भजन्ति सुरास्तथान्ये।
तद्वै न येऽल्पमतयो मनसा भजन्ति भ्रान्ता: पतन्ति सततं भवसागरे ते ।।
(श्रीमद्देवीभागवत)
हे माता!
आप ही सुखदायिनी विद्या तथा दुखदायिनी अविद्या हैं और आप ही मनुष्यों के जन्म - मृत्यु का दु:ख दूर करने वाली हैं।
हे जननि!
मोक्ष की कामना करने वाले लोग तो आपकी आराधना करते हैं।
किन्तु मन्दबुद्धि अज्ञानी तथा विषय भोग परायण मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवता गण आपके शरणदायक चरणकमल की निरंतर उपासना करते हैं ।
किन्तु जो अल्पबुद्धि मनुष्य भ्रमित होकर मन से आपकी आराधना नहीं करते है।
वे संसार - सागर में बार-बार गिरते हैं।
मां आपकी जय हो, आपको बार-बार प्रणाम है।
|| जय मां भगवती ||