सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्रीमद् भागवत चिन्तनश्रीराधाचरितामृत का एक प्रसंग ।।
( होरी - मधुर_रस_का_अद्भुत_समर्पण )
मधुर रस कहो, या आत्मसमर्पण कहो........!
अद्भुत भाव है ।
पर स्वार्थ कलुषित चित्त मानव ठीक न समझ सके - स्वाभाविक है ।
हे वज्रनाभ !
मधुररस में अपना सुख, अपनी तृप्ति, अपना सम्मान कुछ है ही नही।
इसमें तो अपना उत्सर्ग है...!
अपनें आपका सम्पूर्ण दान ।
श्रृंगार इसलिये कि वे देख कर प्रसन्न होते हैं......!
भोजन इस लिये कि उनका प्रिय यह देह स्वस्थ रहे........!
अरे !
रूठना और मनाना भी इसलिये कि उनके सुख में वृद्धि हो.....!
उन्हें आनन्द मिले ।
उनका सुख, उनका आनन्द, उनका आल्हाद.....!
अपनेंपन का इतना उत्सर्ग कि...!
"अपनी" सत्ता ही समाप्त ।
उनका, उनका , उनका और वे -
"मैं" कहीं खो गया है.......!
और वे इतनें करीब आगये कि....!
अब तो "वे ही रह गए हैं"।
तुम जानते हो वज्रनाभ !
यह बरसाना है.....!
"मधुर रस" का केन्द्र.....!
और इस माधुर्य रस की अधिष्ठात्री देवी हैं -
श्रीराधा रानी ...।
खूब रस बरसा था उस दिन........!
खूब रंग बरसा था बरसानें में ।
महर्षि शाण्डिल्य आज आँखें मूंद कर बोल रहे हैं..........!
मानों उनके हृदय को अभी भी कोई रँग रहा हो........!
अनुराग के रँग से ।
होरी में क्या होता है ?
बरसानें वारी श्रीराधा रानी रँग बरसाती हैं ।
किस पर ?
कृष्ण पर .........!
फिर प्रसादी सब पर...!
महर्षि नें समझाया ।
कौन सा रँग ?
प्रेम का रँग...!
अनुराग का रँग .......!
अच्छा वज्रनाभ !
एक बात तो बताओ...!
रँग का अर्थ क्या होता है ?
फिर स्वयं ही महर्षि "रँग" का अर्थ बतानें लगे।
जिससे हृदय रंग जाए.......!
उसे ही रँग कहते हैं......!
आहा !
पता है बरसानें की होली कैसी होती है ?
महर्षि बतानें लगे -
कृष्ण प्रेम का रँग श्रीराधा रानी दूसरों पर डालती हैं........!
ये इन करुणामयी की कृपा है.....!
फिर कृष्ण, "श्रीराधा प्रेम" का रँग दूसरों पर डालते हैं..........!
अब दोनों तरफ से प्रेम का रँग इतना डलता है कि.....!
चारों और सृष्टि लाल ही लाल हो जाती है।
रँग वृष्टि से बादल रंग गए.....!
धीरे धीरे आकाश भी रंग गए...!
इस तरह सम्पूर्ण जगत ही रंग गया........!
बाह्य जगत ही नही रँगा....!
अंतर जगत भी अनुराग के रँग से रँग गया।
फिर जब अंतर यानि मन बुद्धि इत्यादि रँग गए.........!
तब तो प्रेम में इह लोक भी रँग गया....!
और परलोक भी रँग गया......!
सब प्रेममय हो गया......!
सब प्यार की सृष्टि चारों ओर दीखनें लगी ।
बड़ी गम्भीरता से आज "रस चर्चा" कर रहे थे महर्षि शाण्डिल्य ।
प्यारे !
देखो मेरी ओर......!
ध्यान से देखो इधर.....!
मुझ से आँखें मिलाओ........!
इधर उधर नजरें क्यों चुराते हो.......!
ओह !
समझी अब मैं....!
देख रही हूँ तुम्हारी ये आँखें लाल क्यों हो गयी हैं ?
गुलाल से भी ज्यादा लाल...!
क्या हुआ बताओ ?
कमल और गुलाल को भी तुम्हारे आँखों की लालिमा नें पीछे छोड़ रखा है...!
क्यों ?
बताओ !
कैसे , किसनें बिना किसी साज बाज के लाल कर दीं तुम्हारी आँखें.....!
बोलो ?
हाँ बहुत चतुर होगी वो......!
है ना ?
और ये तो बताओ कि इन आँखों की रंगाई का मोल तुमनें कितना दिया है ?
पकड़ लिया था श्रीराधा नें अपनें श्याम सुन्दर को......!
जब बृषभान जी के महल में चुपके से चढ़ तो गए थे........!
पर "श्रीजी" सामनें.... !
तब प्रश्नों की बौछार कर दी थी श्रीराधारानी नें।
कहाँ खेलकर आये हो होरी ?
किसनें खिला दिया तुम्हे होरी ?
व्यंग बाणों की चोट सह रहे थे श्याम सुन्दर ।
आँखें तो लाल हो गयीं..........!
पर तुम्हारे लाल अधर कैसे काले पड़ गए ?
ये होंठ तो तुम्हारे लाल थे ना........!
फिर कैसे काले पड़े ?
श्रीराधा रानी फिर व्यंग कसती हैं ।
सखी के काजल लगे नयनों को चूमा होगा तुम्हारे अधरों नें......!
मैं सब समझती हूँ ..............!
जाओ !
मेरे पास से जाओ ।
तभी.............!
बाहर से हल्ला शुरू हो गया.....!
"होरी है"....!
नन्द गाँव के सब ग्वाले बृषभान जी के महल में आ खड़े हुए थे ।
श्रीराधा जी नें देखा कन्हैया को......!
सिर झुकाये खड़े हैं......!
नयनों से अश्रु टपकनें लगे.............!
हाथ जोड़ लिए ।
श्रीराधा को दया आगयी.................!
कृष्ण को पकड़ कर अपनें हृदय से लगा लिया..........!
दोनों युगलवर गले मिलते रहे.........।
अब थोड़ा इधर भी तो आओ.............!
हँसते हुए ललिता सखी नें कृष्ण को अपनी तरफ खींचा .............!
रंग देवी सखी लहंगा फरिया ले आई............!
और बड़े प्रेम से.....!
जो जो पहनें हुए थे सब उतार दिया.....!
और लहंगा पहना दिया...!
फरिया पहना दिया..........!
चूनर ओढ़ा दी.......!
लाल टिका लगा दिया.........!
बेसर लगा दी नाक में.............!
पैरों में पायल.......!
बालों को गूँथ दिया......!
बड़े सुन्दर लग रहे हैं अब तो ये ।
लो जी !
सिन्दूर दान भी स्वयं श्रीराधा रानी नें किया....!
कृष्ण की माँग में.......!
आहा ! नजर न लगे....!
श्रीराधा रानी देख रही हैं बड़े प्रेम से ।
"होरी है".........!
फिर चिल्लाये सब नन्दगाँव के ग्वाले.........।
सखियों !
जाओ तो इस बार इन नन्दगाँव के ग्वालों को ठीक करके ही आओ.......!
देखो ज्यादा ही उछल रहे हैं ये सब ।
रँग गुलाल से नही मानते ये.........!
ललिता सखी बोली ।
तो लठ्ठ बजाओ इन सब पर........!
हँसते हुए श्रीराधा रानी बोलीं ।
बस फिर क्या था.........!
ऊपर से कुछ सखियों नें रंगों की वर्षा कर दी.....!
और कुछ नीचे लठ्ठ लेकर तैयार............!
रंग से भींग गए....!
नहा गए.....!
कोई किसी को पहचान नही पा रहा......!
अबीर उड़नें लगे आकाश में..........!
फूलों की वर्षा रंगों के साथ साथ हो रही है.......!
अब तो पिचकारी लेकर खड़ी हैं भानु दुलारी ।
तभी सखियों के पास जानें की जैसे ही कोशिश की ग्वालों नें.......!
सखियों नें लठ्ठ बजानें शुरू कर दिए.........!
ग्वाल बाल भागे.....!
पर सखियाँ भी कहाँ कमजोर थीं.....!
वो भी भागीं पीछे ।
हँसते हुए इस प्रसंग को बता रहे थे महर्षि शाण्डिल्य.........!
पूरे बरसानें में कीच ही कीच मच गयी है.....!
केशर की कीच है चारों ओर.........!
पिचकारी की झरी लग गयी है.........!
और कुछ सखियाँ लगातार लट्ठ बजा रही है नन्दगाँव के ग्वालों के ऊपर.....!
भागते जा रहे हैं ग्वाले.......!
अपनें आपको बचाते जा रहे हैं ।
पर ये क्या ?
श्रीराधा रानी अद्भुत सौन्दर्य के साथ, अपनी अष्ट सखियों के साथ.......!
चली जा रही हैं ।
नन्दगाँव दूर नही है बरसानें से.......!
पैदल ही चलीं नन्दगाँव ।
पर ग्वालों को इस बार मार मारकर भगाया है इन सखियों नें...........!
लट्ठ से खूब पूजा करी है इनकी ।
पर अब श्रीराधा रानी अपनी सखियों के साथ नन्दगाँव पहुँची......!
और बड़ी खुश थीं.......!
गारी गा रही थीं सखियाँ ।
नन्दभवन के सिंह द्वार पर पहुँची श्रीराधिका ।
गीत गा रही थीं सखियाँ.......!
बड़े प्रेम से गीत गाती हुयी पहुँची थीं ।
अरे ! आओ ! आओ...........!
पर तुम यहाँ क्यों आयी हो ?
कन्हैया और उनके सखा तो सब बरसानें ही गए हैं ना ?
बृजरानी यशोदा बोलीं.........!
फिर बोलीं....!
आही गयी हो तो भीतर आजा...................!
श्रीराधा रानी संकोचपूर्वक भीतर गयीं......!
सखियाँ भी साथ में थीं ।
क्या खाओगी तुम लोग ?
बृजरानी नें बड़े प्रेम से पूछा ।
नही...!
आज हम खानें नही आयी हैं.....!
हम तो आज गायेंगीं.....!
नाचेंगी.....!
और आपसे फगुआ लेकर जायेंगी......!
ललिता सखी हँसकर बोली ।
अब कन्हैया तो है नही.....!
मुझ बूढी को नाच दिखाके क्या करोगी ?
हँसते हुये बैठ गयीं बृजरानी.......!
अच्छा !
दिखाओ नाच गाना ।
ये हमारी सखी है.....!
नई बहू है.....!
बढ़िया नाचती है..........!
ललिता सखी उस नई बहु को दिखाती हुयी बोलीं।
बृजरानीजी !
आपको इसका नाच दिखानें के लिये ही हम यहाँ आयी हैं ।
चलो !
नाचो बहू !
विशाखा सखी हँसते हुए बोली ।
सारी सखियाँ हँस रही थीं ।
उस नई बहु नें नाचना शुरू किया........!
और सखियों नें गाना ।
"नारायण कर तारी बजाएके, याहे यशुमति निकट नचावो री"
सब गा रही हैं.......!
ताली बजा रही हैं....!
हँस रही हैं...........!
यशोदा जी नें देखा.........!
ध्यान से देखा......!
एक बहू नाच रही है....!
घूँघट करके नाच रही है..........!
इसकी नाच को देखकर लग रहा है इसको मैं जानती हूँ.......!
बृजरानी बार बार सोचती हैं......!
इस को कहीं मैने देखा है........!
रहा नही गया बृजरानी से........!
पास में गयीं........!
और जैसे ही घूँघट हटाया........!
कन्हैया सखी बनें नाच रहे हैं ।
तू...!
यहाँ क्या नाच रहा है ?
बृजरानी नें भी पीठ में एक थप्पड़ दिया ।
फिर हँसी आगयी........!
अरे !
तू कैसे फंस गया इन बरसानें वारियों के चक्कर में ?
कन्हैया क्या कहते.............!
श्रीराधा रानी मुस्कुराते हुए जानें लगीं तो बृजरानी नें माखन खानें दिया............!
सखियों नें भी खाया ।
अब जा !
छोड़ के आ..........!
बृजरानी नें फिर कृष्ण को भेज दिया ।
गली में चले गए कृष्ण............!.
बस -
अब तो...!
कृष्ण नें एक ताली बजाई जोर से...........!
बस, आगये ग्वाल बाल....!
गली को ही घेर लिया चारों ओर से सखाओं नें.........!
सखियाँ फंस गयीं ।
कन्हैया आगे बढ़ें.....!
और श्रीराधा रानी के गालों में अबीर मल दिया ।
रंग से भरा कलशा लेकर आया मनसुख.....!
कृष्ण नें बड़े प्रेम से श्रीराधा रानी के ऊपर रंग का पूरा कलशा डाल दिया.........।
अब तो ललिता सखी से भी रहा नही गया..........!
उसनें कृष्ण को पकड़ा......!
जोर से पकड़ गालों को रगड़ दिया.........!
रँग, पूरे नीले वदन में लगा दिया......!
गुलचा मारकर.........!
गालों को काट कर.....!
ललिता सखी बोली.......!
"होरी है" ।
कृष्ण हँसे...........!
और अपनी प्यारी श्रीराधा रानी के पास गए.....!
बड़े प्रेम से दोनों गले मिले........!
श्याम सुन्दर नयनों की भाषा में बहुत कुछ बोले थे अपनी प्रिया से....!
और उनकी प्रिया भी सब कुछ कह चुकी थीं ।
तो अब ?
श्रीराधा रानी नें पूछा था ।
श्याम सुन्दर गम्भीर हो गए थे..........!
कुछ नही बोले.........!
पता नही क्यों.........!
नेत्र सजल हो उठे थे उनके ।
- : कर्तव्य : -
जिसे लोग कर्तव्यपरायणता कहते हैं।
वह ' भूमि ' है।
जिसे लोग योग कहते है।
वह ' वृक्ष ' हैं ।
जिसे लोग तत्त्व-ज्ञान कहते हैं।
वह ' फल ' है।
और जिसे लोग रस कहते हैं वह ' प्रेम ' है।
अकर्तव्य के त्याग में तुम्हारा पुरुषार्थ है।
कर्तव्य - पालन तो स्वतः होता है।
उसका अभिमान करने से तो कर्तव्य अकर्तव्य के रूप में बदल जाता है।
वैराग्य होने पर तो सब प्रकार के धर्म और कर्तव्य की समाप्ति हो जाती है।
ऐसे ही आत्म - रति और प्रेम की प्राप्ति होने पर भी कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।
दुःखी का कर्तव्य है त्याग और सुखी का कर्तव्य है सेवा।
कर्तव्यपरायणता आ जाने पर अधिकार बिना माँगे ही आ जाएगा।
चाह - रहित होने से कर्तव्यपरायणता की शक्ति स्वतः आ जाती है।
प्रत्येक मानव बल, योग्यता और परिस्थिति में समान नहीं है।
यह असमानता ही कर्तव्य की जननी है।
समानता में प्रवृत्ति सम्भव नहीं है।
एक सबल दूसरे सबल के क्या काम आ सकता है ?
सबल ही किसी निर्बल के ही काम आ सकता है।
कर्तव्य पूरा करने पर कर्ता का कोई अस्तित्व ही शेष नहीं रहता।
कर्तव्य पूरा होने पर कर्ता की जो आवश्यकता थी, उसकी पूर्ति हो जाती है।
और उसकी पूर्ति हो जाने पर कर्ता का अस्तित्व अपने लक्ष्य से अभिन्न हो जाता है।
दूसरे के अधिकार की रक्षा से कर्तव्यपरायणता स्वतः आ जाती है।
और अपने अधिकार के त्याग से माने हुए सभी सम्बन्ध टूट जाते हैं।
दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार का त्याग ही वास्तव में कर्तव्य है।
वास्तविक कर्तव्य वहीँ है।
जिससे किसी का अहित न हो और कर्तव्यपालन करने पर कर्ता अपने लक्ष्य से अभिन्न हो जाए।
कर्तव्यनिष्ठ होने पर जीवन तथा मृत्यु दोनों ही सरस हो जाते हैं।
और कर्तृत्वच्युत होने पर जीवन नीरस तथा मृत्यु दुःखद एवं भयंकर होती है।
जो नहीं कर सकते उसके...!
और जो नहीं करना चाहिए उसके न करने से जो करना चाहिए।
वह स्वत...!
होने लगता है।
इस दृष्टि से कर्तव्य - परायणता सहज तथा स्वाभाविक है।
कर्तव्य का प्रश्न ' पर ' के प्रति है।
' स्व ' के प्रति नहीं।
कर्तव्य का सम्पादन जो ' पर ' से प्राप्त है।
उसके द्वारा होता है।
' स्व ' के द्वारा नहीं।
इस दृष्टि से कर्तव्य परधर्म है।
जो प्रवृत्ति परहित में हेतु नहीं है।
वह कर्तव्य नहीं है।
कर्तव्य - पालन उतना आवश्यक नहीं है।
जितना अकर्तव्य का त्याग।
कारण कि अकर्तव्य का त्याग किये बिना कर्तव्य की अभिव्यक्ति ही नहीं होती।
किये हुए की फलासक्ति अपने लिये अभिष्ट नहीं है।
इसका कर्तव्य - पालन में कोई स्थान नहीं है।
कर्तव्य - परायणता वह विज्ञान है।
जिससे मानव जगत् के लिए उपयोगी होता है।
और स्वयं योग - विज्ञान का अधिकारी हो जाता है।
सृष्टि की वस्तु को सृष्टि के हित में व्यय करना अनिवार्य है।
जो वास्तव में कर्तव्य का स्वरूप है।
दूसरों के कर्तव्य की स्मृति अपने कर्तव्य की विस्मृति में हेतु है।
और कर्तृत्व की विस्मृति ही अकर्तव्य की जननी है।
इस दृष्टि से दूसरों के कर्तव्य पर दृष्टि रखना ही अपने कर्तव्य से च्युत होना है।
जो विनाश का मूल है।
राग तथा क्रोध के रहते हुए न तो कर्तव्य-पालन की सामर्थ्य ही प्राप्त होती है।
और न कर्तव्य की स्मृति ही जागृत होती है।
तो फिर कर्तव्य-पालन कैसे सम्भव हो सकता है ?
कर्तव्य का अभिमान अकर्तव्य से भी अधिक निन्दनीय है।
कारण कि अकर्तव्य से पीड़ित प्राणी कभी-न - कभी कर्तव्य की राह चल सकता है।
किन्तु कर्तव्य का अभिमानी तो अकर्तव्य को ही जन्म देता है।
- : एकता : -
आज हम स्वरूप से एकता करने की जो कल्पना करते हैं।
वह विवेक की दृष्टि से अपने को धोखा देना है।
अथवा भोली - भाली जनता को बहकाना है।
बाह्य भिन्नता के आधार पर कर्म में भिन्नता अनिवार्य है।
पर आन्तरिक एकता होने के कारण प्रीति की एकता भी अत्यन्त आवश्यक है।
नेत्र से जब देखते हैं।
तब पैर से चलते हैं।
दोनों की क्रिया में भिन्नता है।
पर वह भिन्नता नेत्र और पैर की एकता में हेतु है।
उसी प्रकार दो व्यक्तियों में, दो वर्गों में, दो देशों में एक - दूसरे की उपयोगिता के लिए ही भिन्नता है।
प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग, देश यदि दूसरों की उपयोगिता में प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य एवं योग्यता व्यय करें तो एक - दूसरे के पूरक बन सकते हैं।
और फिर परस्पर स्नेह की एकता बड़ी ही सुगमतापूर्वक सुरक्षित रह सकती है।
जो विकास का मूल है।
आन्तरिक एकता के बिना बाह्य एकता कुछ अर्थ नहीं रखती।
संघर्ष का मूल आन्तरिक भिन्नता है, बाह्य नहीं।
अब यह विचार करना होगा कि आन्तरिक भिन्नता क्या है ?
तो कहना होगा कि बाह्य भिन्नता के आधार पर प्रीति का भेद स्वीकार करना।
प्राकृतिक नियम के अनुसार दो व्यक्ति भी सर्वांश में समान रुचि, योग्यता, सामर्थ्य के नहीं होते और न परिस्थिति ही समान होती है।
देश - काल के भेद से भी रहन-सहन आदि में भेद होता है;
किन्तु मानव मात्र के वास्तविक उद्देश्य में कोई भेद नहीं होता।
इस उद्देश्य की एकता के आधार पर ही मानव - समाज ने मानव मात्र के साथ एकता स्वीकार की है।
शरीर का मिलना वास्तव में मिलन नहीं है।
लक्ष्य तथा स्नेह की एकता ही सच्चा मिलन है।
दो व्यक्तियों की भी रुचि, सामर्थ्य तथा योग्यता एक नहीं है;
किन्तु लक्ष्य सभी का एक है।
यदि इस वैधानिक तथ्य का आदर किया जाये तो भोजन तथा साधन की भिन्नता रहने पर भी परस्पर एकता रह सकती है।
अपने गुण और पराये दोष देखने से पारस्परिक एकता सुरक्षित नहीं रहती।
तात्पर्य :-
प्राप्त परिस्थिति के अनुसार कर्तव्य-पालन का दायित्व तब तक रहता ही है, जब तक कर्ता के जीवन से अशुद्ध तथा अनावश्यक संकल्प नष्ट न हो जाए।
आवश्यक तथा शुद्ध संकल्प पूरे होकर मिट न जाएँ, सहज भाव से निर्विकल्पता न आ जाए।
अपने - आप आयी हुई निर्विकल्पता से असंगता न हो जाए तथा असंगतापूर्वक प्राप्त स्वाधीनता को समर्पित कर जीवन प्रेम से परिपूर्ण न हो जाए।
कर्तव्य - पालन से अपने को बचाना भूल हैं।
अतः प्राप्त परिस्थिति के अनुसार मानव का कर्तव्यनिष्ठ होना अनिवार्य हैं।
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कान जगाई ( गौर्धन पूजन )अन्नकूट महोत्सव
। श्री विष्णुपुराण प्रवचन ।।
जय श्री कृष्ण
कान जगाई ( गौर्धन पूजन )
अन्नकूट महोत्सव के लिए चावल पधराना, श्रीनवनीतप्रियाजी को शिरारहित पान की बीड़ी अरोगाना, गायों का पूजन, कानजगाई इत्यादि महोत्सव की सम्पूर्ण सेवा का निर्वाहन पूज्य श्री तिलकायत महाराजश्री व चि श्री विशाल बावाश्री करते हैं ।
अतः महोत्सव की सम्पूर्ण सेवा सम्भवतया श्री मुखियाजी के द्वारा ही सम्पन्न होगी ।
यद्यपि आलेख में हुज़ूरश्री एवं बावाश्री का ही उल्लेख है ।
क्योंकि भले ही इस विकट परिस्तिथि में वे शशरीर उपस्तिथ ना हो लेकिन वे मानसिक रूप से यही हैं.।
श्री नवनीतप्रियाजी में सायं कानजगाई के व शयन समय रतनचौक में हटड़ी के दर्शन होते हैं ।
कानजगाई -
संध्या समय गौशाला से इतनी गायें लायी जाती है कि गोवर्धन पूजा का चौक भर जाए ।
गायें मोरपंख, गले में घंटियों और पैरों में घुंघरूओं से सुशोभित व श्रृंगारित होती हैं ।
उनके पीठ पर मेहंदी कुंकुम के छापे व सुन्दर आकृतियाँ बनी होती है ।
ग्वाल - बाल भी सुन्दर वस्त्रों में गायों को रिझाते, खेलाते हैं ।
गायें उनके पीछे दौड़ती हैं जिससे प्रभुभक्त, नगरवासी और वैष्णव आनन्द लेते हैं ।
गौधूली वेला में शयन समय कानजगाई होती है ।
श्री नवनीतप्रियाजी के मंदिर से लेकर सूरजपोल की सभी सीढियों तक विभिन्न रंगों की चलनियों से रंगोली छांटी जाती है ।
श्री नवनीतप्रियाजी शयन भोग आरोग कर चांदी की खुली सुखपाल में विराजित हो कीर्तन की मधुर स्वरलहरियों के मध्य गोवर्धन पूजा के चौक में सूरजपोल की सीढ़ियों पर एक चौकी पर बिराजते हैं ।
प्रभु को विशेष रूप से दूधघर में सिद्ध केशर मिश्रित दूध की चपटिया ( मटकी ) का अरोगायी जाती है ।
चिरंजीव श्री विशालबावा कानजगाई के दौरान प्रभु को शिरारहित पान की बीड़ी अरोगाते हैं ।
श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी के कीर्तनिया कीर्तन करते हैं व झालर, घंटा बजाये जाते हैं ।
पूज्य श्री तिलकायत महाराज गायों का पूजन कर, तिलक - अक्षत कर लड्डू का प्रशाद खिलाते हैं. गौशाला के बड़े ग्वाल को भी प्रशाद दिया जाता है ।
तत्पश्चात पूज्य श्री तिलकायत नंदवंश की मुख्य गाय को आमंत्रण देते हुए कान में कहते हैं –
“कल प्रातः गोवर्धन पूजन के समय गोवर्धन को गूंदने को जल्दी पधारना ।”
गायों के कान में आमंत्रण देने की इस रीती को कानजगाई कहा जाता है ।
प्रभु स्वयं गायों को आमंत्रण देते हैं ऐसा भाव है ।
इसके अलावा कानजगाई का एक और विशिष्ट भाव है ।
कि गाय के कान में इंद्र का वास होता है और प्रभु कानजगाई के द्वारा उनको कहते हैं कि –
“हम श्री गिरिराजजी को कल अन्नकूट अरोगायेंगे, तुम जो चाहे कर लेना।”
सभी पुष्टिमार्गीय मंदिरों में अन्नकूट के एक दिन पूर्व गायों की कानजगाई की जाती है ।
सारस्वतकल्प में श्री ठाकुरजी ने जब श्री गिरिराजजी को अन्नकूट अरोगाया तब भी इसी प्रकार कानजगाई की थी ।
श्री ठाकुरजी...!
नंदरायजी एवं सभी ग्वाल - बाल अपनी गायों को श्रृंगारित कर श्री गिरिराजजी के सम्मुख ले आये ।
श्रीनंदनंदन की आज्ञानुसार श्री गिरिराजजी को दूध की चपटिया ( मटकी ) का भोग रखा गया और बीड़ा अरोगाये गये।
श्री गर्गाचार्यजी ने नंदबाबा से गायों का पूजन कराया था।
तब श्री ठाकुरजी और नंदबाबा ने एक - एक गाय के कान में अगले दिन गोवर्धन पूजन हेतु पधारने को आमंत्रण दिया ।
इस प्रसंग पर अष्टसखाओं ने कई सुन्दर कीर्तन गाये हैं ।
परन्तु समयाभाव के चलते उन सबका वर्णन यहाँ संभव नहीं है।
श्रीजी के शयन के दर्शन बाहर नहीं खुलते.
शयन समय श्री नवनीतप्रियाजी रतनचौक में हटड़ी में विराजित हो दर्शन देते हैं ।
हटड़ी में विराजने का भाव कुछ इस प्रकार है ।
कि नंदनंदन प्रभु बालक रूप में अपने पिता श्री नंदरायजी के संग हटड़ी ( हाट अथवा वस्तु विक्रय की दुकान ) में बिराजते हैं ।
और तेजाना, विविध सूखे मेवा व मिठाई के खिलौना आदि विक्रय कर उससे एकत्र धनराशी से अगले दिन श्री गिरिराजजी को अन्नकूट का भोग अरोगाते हैं।
रात्रि लगभग 9.00 बजे तक दर्शन खुले रहते हैं और दर्शन उपरांत श्री नवनीतप्रियाजी श्रीजी में पधारकर संग विराजते हैं।
श्री गुसांईजी, उनके सभी सात लालजी, व तत्कालीन परचारक महाराज काका वल्लभजी के भाव से 9 आरती होती है ।
श्री गुसांईजी व श्री गिरधरजी की आरती स्वयं श्री तिलकायत महाराज करते हैं ।
अन्य गृहों के बालक यदि उपस्थित हों तो वे श्री तिलकायत से आज्ञा लेकर सम्बंधित गृह की आरती करते हैं ।
और अन्य की उपस्थिति न होने पर स्वयं तिलकायत महाराज आरती करते हैं ।
काका वल्लभजी की आरती श्रीजी के वर्तमान परचारक महाराज गौस्वामी चिरंजीवी श्री विशालबावा करते हैं ।
आज श्रीजी में शयन पश्चात पोढावे के व मान के पद नहीं गाये जाते ।
दिवाली की रात्रि शयन उपरांत श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी प्रभु लीलात्मक भाव से गोपसखाओं, श्री स्वामिनीजी, सखीजनों सहित अरस - परस बैठ चौपड़ खेलते हैं.।
अखण्ड दीप जलते हैं ।
चौपड़ खेलने की अति आकर्षक, सुन्दर भावात्मक साज - सज्जा की जाती है ।
दीप इस प्रकार जलाये जाते हैं कि प्रभु के श्रीमुख पर उनकी चकाचौंध नहीं पड़े ।
इस भावात्मक साज - सज्जा को मंगला के पूर्व बड़ाकर ( हटा ) लिया जाता है ।
इसी भाव से दिवाली की रात्रि प्रभु के श्रृंगार बड़े नहीं किये जाते और रात्रि अनोसर भी हल्के श्रृंगार सहित ही होते हैं.।
जय द्वारकाधीश !!
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏