https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 09/17/20

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो में विश्वकर्मा शिल्प ग्रंथ प्रदाता करता है ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो में विश्वकर्मा शिल्प ग्रंथ प्रदाता करता है ।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण सहित अनेक ग्रथो में विश्वकर्मा शिल्प ग्रंथ उल्लेख प्रदाता करता है।

कलाएं कितनी हो सकती हैं? 

सब लोकोपयोगी हों। 

लोक उपयोगी सृजन से बड़ा कोई सृजन नहीं। 

सृजन श्रम, संघर्ष, समय को बचाने वाला और परिश्रम को सार्थक कर आजीविका देने वाला हो।

भारत विश्वकर्मीय ज्ञान के 100 से ज्यादा ग्रंथों से समृद्ध रहा है। 

विश्‍वकर्मा और उनके शास्‍त्र
( संदर्भ : विश्‍वकर्मा ग्रंथों पर निरंतर आयोजन )

यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कल तक जो शिल्प और स्थापत्य के ग्रंथ केवल शिल्पियों के व्यवहार तक सीमित और केन्द्रित थे।

उन पर आज अनेक संस्थानों से लेकर कई विश्व विद्यालयों तक ज्ञान सत्र आयोजित होने लगे हैं।

सेमिनार, राष्ट्रीय, अंतर राष्ट्रीय गोष्ठियां होने लगी हैं। 







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अनेक विद्वानों की भागीदारी होने लगी है। 

शिल्प के ये विषय पाठ्यक्रम के विषय होकर रोजगार और व्यवहार के विषय हुए हैं। 

शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। 

विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय - समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। 

सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया। 

उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़्ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है।

' मिलिन्‍दपन्‍हो ' में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। 

यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है।

इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। 

हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है...।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्णु आदि पुराणों में आया है।

जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया।

किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। 

कहीं - कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया। 

विश्‍वकर्मावतार, 

विश्‍वकर्मशास्‍त्र, 

विश्‍वकर्मसंहिता, 

विश्‍वकर्माप्रकाश, 

विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, 

विश्‍वकर्मशिल्‍पशास्‍त्रम्, 

विश्‍वकर्मीयम् ...!

आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए आवश्यक
सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। 

इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। 

समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। 

ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं। 

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन - पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। 

अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। 

इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। 

यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। 

तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। 

इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। 

मगर, उनको पढ़ा कितना गया। 

भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया...। 

इस पर लगभग सौ ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मैं ने किया है और कर रहा हूं।

विश्‍वकर्मा के चरित्र पर स्‍वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। 

पिछले वर्षों में 'महाविश्‍वकर्मपुराण' का प्रकाशन भी हुआ। 

मेरा मन है कि भारत के ये ग्रंथ विश्व समुदाय के लिए प्रेरक बने देश वास्तु गुरु भी सिद्ध हो।

भगवान विश्वकर्मा सिर्फ शिल्प, नगर और यंत्रादि के ही सृजनकर्ता नहीं रहे बल्कि उन्होंने कई आयुधों और अस्त्र शस्त्रों का निर्माण भी किया है। 

कई दिव्यास्त्र जैसे सुदर्शन चक्र, शारंग धनुष, वरुणपास कुबेर की गदा आदि के निर्माण की कहानियां प्रचलित हैं। 

कला शास्‍त्र के प्रवर्तक विश्‍वकर्मा:

विश्‍वकर्मा को कला - शिल्‍प का आदि आचार्य माना जाता है। 

यूं तो विश्‍वकर्मा का जिक्र वेदों में हैं मगर, शिल्‍प शास्‍त्रकार के रूप में उनके मतों का प्रारंभिक उद्धरण नाट्यशास्‍त्र में मिलता है। 

मत्‍स्‍यपुराण में उनके शास्‍त्र को उद्धृत किया गया है और उनके परिचय में कहा गया है।

कि वे प्रभास के पुत्र और शिल्‍प के प्रजापति हैं, प्रासाद, भवन, उद्यान, कूप, जलाशय, बगीचा, प्रतिमा, आभूषण आदि के निर्माता के रूप में उनकी ख्‍याति रही है।

वह देवताओं के वर्धकि हैं -

विश्‍वकर्मा प्रभासस्‍य पुत्र: शिल्‍पी प्रजापति:।
प्रासाद भवनोद्यानप्रतिमाभूषणादिषु।।
तडागारामकूपेषु स्‍मृत: सोsमरवर्धकि:।। (मत्‍स्‍यपुराण 5, 27-28)

उनके लिए प्रजापति, अमरवर्धकि, शिल्‍पाचार्य, कलाविद, स्‍थापत्‍य विशारद आदि कई नाम मिलते हैं।

हाल ही संपादित एक विश्‍वकर्मापुराण और शिल्‍पशास्‍त्र में उनके सौ नाम मिलते हैं।

उत्‍तरी, पश्चिमी भारत में शिल्‍प के प्रवर्तक के रूप में विश्‍वकर्मा की परंपरा हमें र्इसापूर्व से उपलब्‍ध होती है। 

विश्‍वकर्मा प्रकाश जिसे मूलत: वास्‍तुतंत्र कहा गया था, प्रारंभिक ग्रंथ है।

किंतु बाद में यह मुहूर्त से ही अधिक संबंद्ध हो गया। 

इसकी एक पांडुलिपि मुझे कश्‍मीर की डॉ. सुषमादेवी गुप्‍ता के सहयोग से 'विश्‍वकर्मासंहिता' के नाम से भी मिली है। 

" अपराजितपृच्‍छा " ग्रंथ के संपादन, अनुवाद के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि उसके रचनाकाल, 1230 ई. के आसपास तक विश्‍वकर्मा के नाम से चार ग्रंथ प्रकाश में आ चुके थे। 

ये चार ही ग्रंथ विश्‍वकर्मा के मानसपुत्रों के नाम पर लिखे गए थे - 

1. जयपृच्‍छा, 

2. विजयपृच्‍छा, 

3. अपराजितपृच्‍छा,

4. सिद्धार्थपृच्‍छा।

वैसे विश्‍वकर्मा के इन चारों ही पुत्रों का नाम सबसे पहले 'समरांगण सूत्रधार', रचनाकाल 1010 ई. में मिलता है।

समरांगण स्‍वयं जय-विश्‍वकर्मा संवाद के रूप में लिखा गया है। 

इसमें कई पूर्ववर्ती ग्रंथों की सामग्री संजोई गई है।

" अपराजितपृच्‍छा " अपने आपमें अनूठा ग्रंथ है जिसमें लगभग 7 हजार श्‍लोकों में कला के नाना रूपों का न केवल परिचय मिलता है।

बल्कि उनके प्रयोग और विधि - विधान की भी जानकारी मिलती है। 

भारत को ही नहीं, विश्‍व को इस विश्‍वकर्मीय कृति पर गर्व है। 

विश्‍वकर्मा के अन्‍य ग्रंथ भी जानकारी में आए हैं। 

इनमें से न केवल उत्‍तर भारत बल्कि दक्षिण भारत में भी विश्‍वकर्मीयम्, वास्‍तुविद्या, विश्‍वकर्माशिल्‍पादि ग्रंथ मौजूद है। 

कुछ का संपादन मुझे करने का अवसर मिला है। 

इनमें उत्‍तर और पूर्व भारतीय ग्रंथों में शिल्‍प की बहुतेरी जानकारियां हैं।

मुझे जर्मनी से प्रकाशित 'विश्‍वकर्मापुराण' का तामिल और तेलुगु पाठ में देखने को मिला है।

हालांकि मैं इसे पढ नहीं पा रहा था किंतु मेरे मित्र वर ब्रहृम श्री कोल्‍लोजु श्रीकांताचार्य स्‍वामि, महबूब नगर, तेलंगाण और परमकुड़ी , तामिलनाडु ने इसे मेरे लिए हिंदी, देवनागरी में अनूदित कर दिए थे और इसी आधार पर कुछ समय पहले उस पुराण का तामिल अनुवाद सहित प्रकाशन हो गया है। 

हिंसा विद्वानों का ध्‍येय नहीं :

  महाविश्‍वकर्म पुराण

क्रोधेपि चाश्रुपाते च शोके, चापि जलं स्‍पृशेत्।
कुर्यान्‍न लोहितं विद्वान्, विश्‍वकर्मा सदाशुचि:।।

इस श्‍लोक का सामान्‍य आशय है कि क्रोध करने पर, आंसु बहाने पर ओर शोक होने पर जलस्‍नान करना चाहिए।

विद्वान कभी रक्‍तपात नहीं करता, वह ऐसा सोचता ही नहीं है और जो विश्‍व के लिए सृजन कर्म में लगे रहते हैं, वे सदा ही पवित्र हृदय होते है।

यह श्‍लोक महाविश्‍वकर्म पुराणम् (32, 15) का है जिसका अनुवाद आज ही पूरा हुआ है। 

यह पुराण मूलत: आंध्रलिपि में था जिसको जर्मनी में संरक्षित पाठ से तैयार किया गया तमिल और तेलुगु में यह वृत्ति सहित वर्षों पहले निकला। 

इस संस्‍कृत उपपुराण में कई अद्भुत बातें है।

विशेषकर सृष्टि रचना में विश्‍वकर्मा के योगदान सहित विश्‍व के विकास में सहयोग देने वालों के लिए सोलह संस्‍काराें की जरूरत पर बल दिया गया है। 

क्‍योंकि, पुराणकार मानता है कि जन्‍म से सभी संस्‍कारहीन होते हैं और संस्‍कार हो जाने के बाद वे पाण्डित्‍य के धनी हो सकते हैं।

इस के लिए पठन - पाठन जरूरी है। 

अपने अपने कुलगत कर्मों को करने वाल निरंतर दक्षता अर्जित करता है और वह कभी भूखा नहीं मरता। 

उसको अपने कुलगत कर्मों के कारण कोई दोष नहीं लगता। 

एक तरह से इसमें कई व्‍यावहारिक बातें हैं जो सर्वथा प्रासंगिक है।

विश्‍वकर्मा की पांच संतानें बताई गई है- 

मनु, मय, त्‍वष्‍टा, शिल्‍पी और विश्‍वज्ञ। 

इनके वंशजों की गोत्रों और प्रवर पर भी प्रकाश डाला गया था। 

मुनि कालहस्ति और राजा सुव्रत के संवाद रूप में लिखे गए इस पुराण का तामिल और तेलुगु पाठ बहुत सीमित था। 

इसी कारण ब्रह्मश्री कोल्‍लोजु श्रीकान्‍ताचार्य स्‍वामि ने इसका देवनागरी पाठ तैयार किया। 

इस पाठ का संशोधन, संपादन और अनुवाद हिन्‍दी में आज पूरा हुआ। 

करीब पांच सौ ग्रंथों के मतों के उद्धरणों का पाद टिप्‍पणियाें के रूप में उपयोग किया गया है। 

इनमें ऋग्‍वेद, यजुर्वेद सहित गृहसूत्रों, धर्मसूत्रों, स्‍मृतियों, पुराणों और ज्‍योतिषीय ग्रंथों के उद्धरण शामिल हैं। 

पहली बार यह देवनागरी में देशवासियों को मिलेगा...!

मूर्ति और चित्र शास्त्र में वेदों की छवि बनाने की परम्परा लगभग एक हजार साल पुरानी है। 

विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र में चारों वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण आदि के स्वरूप तय हुए जिसे अपराजित पृच्छा, जय पृच्छा में उद्धृत किया गया। 

बाद में हेमाद्रि ने 1270 में इन मतों को महत्व देकर व्रत खंड में रखा और इसी आधार पर सूत्रधार मंडन ने देवता मूर्ति प्रकरण में दिया। 

उसी काल में चितौड़ गढ़ के विजय स्तंभ में चारों वेदों का अंकन हुआ और फिर उदयपुर में महाराणा संग्राम सिंह के शासनकाल में मेवाड़ शैली में चारों ही वेद के स्वरूप चित्रित हुए। 






ये चित्र पारम्परिक स्वरूप से भिन्न हैं।

आएये जाने कौन है विश्वकर्मा जी...!

एक परिचय..!!

आप अपने  प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें।

कि आदि काल से ही "विश्वकर्मा शिल्पी" अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है।

भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है । 

पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । 

कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है ।

भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया । 

श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण - पोषण का कार्य सौप दिया। 

प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और राज्य करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया। 

बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की। 

उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया। 

यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग - रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया।

हमारे धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है।

विराट विश्वकर्मा – सृष्टि के रचेता

धर्मवंशी विश्वकर्मा – महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र

अंगिरावंशी विश्वकर्मा – आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र

सुधन्वा विश्वकर्म – महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र

भृंगुवंशी विश्वकर्मा – उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य ( शुक्राचार्य के पौत्र )

देवगुरु बृहस्पति की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा अत्यंत वृध्द है।

सृष्टि के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विष्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से सामना दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से प्रत्न और पाँचवे ईशान नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्णा की उत्पत्ति शास्त्रो में वर्णित है। 

इन्ही सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ।

शिल्पशास्त्रो के प्रणेता बने स्वंय भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है।

शिल्पो कें आचार्य शिल्पी प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस ,काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव दैवज्ञा के रुप में जाने गये । 

ये सभी ऋषि वेंदो में पारंगत थे ।

कन्दपुराण के नागर खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है । 

ब्रम्ह स्वरुप विराट श्री.विश्वकर्मा पंचमुख है। 

उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है । 

उनके नाम है – 

मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ ।

ऋषि मनु विष्वकर्मा – 

ये “सानग गोत्र” के कहे जाते है । 

ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है । 

इनके वशंज लोहकार के रुप मे जानें जाते है ।

सनातन ऋषि मय – 

ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है । 

ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। 

इनके वंशंज काष्टकार के रुप में जाने जाते है।

अहभून ऋषि त्वष्ठा – 

इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है। 

इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है ।

प्रयत्न ऋषि शिल्पी – 

इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है। 

इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं ।

देवज्ञ ऋषि – 

इनका गोत्र है सुर्पण। 

इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं। 

ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है, ।

परमेश्वर विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है। 

लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर ,मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की रचना करने वाले है । 

इनकी सारी रचनाये लोक हित कारणी हैं । 

इस लिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है। 

इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता ।






मनु ऋषि ये भगनान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र थे । 

इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है । 

इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है ।

भगवान विश्वकर्मा के दुसरे पुत्र मय महर्षि थे।

इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था। 

इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है। 

इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है ।

भगवान विश्वकर्मा के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे। 

इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था। 

इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है। 

वे देवताओं में पूजित ऋषि थे ।

भगवान विश्वकर्मा के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे। 
इनका विवाह भृगु ऋषि की करूणाके साथ हुआ था । 

इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है। 

इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है ।

भगवान विश्वकर्मा के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे। 
इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चन्र्दिका के साथ हुआ था । 

इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी ऋषि हुये।

इन पाँच पुत्रो के अपनी छीनी, हथौडी और अपनी उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है। 

उन्होन् अपने वशंजो को कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने - अपने कार्य को सभालते चले आ रहे है।

विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। 

आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। 

उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक कहा माना गया है। 

वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं-

देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।

वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है। 

उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है। 

वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।

विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव - बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। 

यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। 

स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। 

कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।

सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया। 

राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका ज़िक्र मिलता है। 

यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। 

विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—

कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥

उनका अष्टगंधादि से पूजन लाभदायक है।

विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। 

विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। 

विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। 

इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। 

मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। 

संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। 

इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया।
✍🏻प्रभु  राज्यगुरू
जय श्री कृष्ण....

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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श्री ऋगवेद श्री सामवेद और श्री विष्णु पुराण आधारित क्रोध का संपूर्ण खानदान , गुरु केसा हो केसा नही होना चाहिए और नाम जप का महिमा के सुंदर प्रर्वचन...! 

क्या आपको पता है? 

क्रोध का भी पूरा ही खांनदान होता है......!

क्रोध का दादा है....          

उनका नाम द्वेष....!

क्रोध का बाप जिससे वह डरता है.....

उनका नाम भय...!

क्रोध की मां है ......

उनका नाम उपेक्षा...!

क्रोध की एक लाडली बहन है...







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उनका नाम जिद...!

क्रोध की पत्नी है.....

उनका नाम हिंसा...!

क्रोध का बडा भाई है...

उनका नाम अंहकार...!

क्रोध की दो बेटिया हैं....

उनका नाम निंदा और चुगली....!

क्रोध का बेटा है..

उनका नाम बैर....!

इस खानदान की नकचडी बहू है.....

उनका नाम ईर्ष्या...!

क्रोध की पोती है......

उनका नाम घृणा....!
  
तो मेरा आपसे निवेदन है कि इस खानदान से हमेशा ज्यादा हो उतना ज्यादा दूर से दूर रहें और सदा खुश रहो।

जो लोग सतगुरु से नाम लेकर कमाई नहीं करते , उनको मौत से पहले सतगुरु दर्शन नहीं देते । 

मगर सम्भाल उनकी भी होती है । 

कैसे 

जब आत्मा शरीर से बाहर निकलती है तो आगे तीन रास्ते हैं । 

दांया  , बांया  और दरमियाना ( बीच का ) । 

दरम्यान के रास्ते को शाहरग  या सुषमना भी कहते हैं । 

बांई तरफ काल , भगवान के एजेंट ,यमदूत या फरिश्ते  , मौजूद होते हैं और दांई तरफ सतगुरु खड़े होते हैं ।

बांई तरफ जमदूत मरने वाले को आवाज देते हैं , इधर आ जाओ । 

इधर रास्ता है । 




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उस वक्त सतगुरु उस रूह , आत्मा को पकड़ लेते हैं और बांए रास्ते नहीं जाने देते । 

जिसको गुरु नहीं मिला वह यमदूतों  के साथ जाता है और उसका बुरा हाल होता है । 

यमदूत उसके किसी मरे हुए रिश्तेदार का रूप धारण करके आवाज देते हैं कि ऐ , फलाना  , यार , बेटा , ऐ भाई आदि बोलकर आवाज देते हैं कि इस तरफ आ जा , इधर रास्ता है । 

उस बेचारे को क्या खबर कि यह धोखा है । 

वह उधर जाता है और मारा जाता है । 

आगे काल मूंह खोले बैठा है , जीव उसमें जाता है , काल दाढों  से चबाता है । 

काल का रूप देखकर कईयों का टट्टी,  पेशाब निकल जाता है डर के मारे , रोता चिल्लाता  है । 

विष्णु पुराण में नारद मुनि ने कहा है कि जगत चबीना  काल का , कुछ मुख में , कुछ गोद । 

सतगुरु अपने जीवों को काल से छुड़ा लेता है और अपने साथ ऊपर के रूहानी मंडलों में ले जाता है । 

किसी को सहंसदल कमल , किसी को त्रिकुटी लोक , किसी को पार ब्रह्म लोक में ठहरा कर भजन सिमरन करवा कर , काल का लेखा जोखा खत्म करवा कर आगे सतलोक  पहूंचाते हैं । 

सूक्ष्म व कारण मंडलों में , उन देशों में , हजारों सालों तक भजन सिमरन करना पड़ता है । 

जो कोई इस दुनियां की आस , अधूरी इच्छा होगी तो उसको धर्मराज से सजा दिलाकर फिर से मनुष्य शरीर में भेज देते हैं।

उसको नए सिरे से गुरु की खोज करके भक्ति करनी पडे़गी । 

सतगुरु उसको 1 - 2 - 3 - 4 जन्म तक बार बार मनुष्य शरीर में भेजते हैं । 

संत दो से ज्यादा जन्म देना पसंद नहीं करते । 

भजन सिमरन करके ही कर्मों का लेखा जोखा खत्म होगा ।

नाशवान दुनियां के प्रति इच्छाएं ही जन्म का कारण बनती हैं । 

जो जीते जी शब्द अभ्यास,  कमाई करेगा वो पहले सतलोक पहूंचेगा । 








श्री सामवेद में नारद मुनि कहते हैं कि --- 

एक जन्म गुरु भक्ति कर , जन्म दूसरे नाम । तीसरे जन्म मुक्ति पद , चौथे में निज धाम । । 

लेकिन अब परम संत ज्यादा पावर लेकर ही आये हैं । 

एक जन्म में ही मुक्ति पद को प्राप्त किया जा सकता है । 

धनी धर्म दास जी ने आठ जन्मों तक  कबीर जी का संग किया था , तब मुक्ति पाई । 

परमार्थी पत्र भाग 2 में सावन शाह महाराज जी का वचन लिखा है । 

संत ही एक जन्म में पांचों मंडलों की रसाई ( पहूंच ) करता है । 

एक जन्म की भक्ति वाले को संत की देह के दर्शन होते हैं । 

तीन जन्म की भक्ति वाले को नाम दान ( नाम का भेद , रास्ता  ) मिलता है । 

चार जन्म की भक्ति वाले को दरबार की सेवा मिलती है । 

पांच जन्म की भक्ति वाले को संत की देही की सेवा मिलती है । 

छः जन्म की भक्ति वाला संत बनता है । 

भक्ति कई  जन्मों का कोर्स ( पढाई  ) होता है । 

जिस देह में शब्द नाम का ताकत प्रकट होती है ।

जिससे गुरुवाई  की सेवा लेनी है सतगुरु ने वहीं एक जन्म में भक्ति सिमरन का कोर्स पूरा कर लेता है । 

नतीजा -- 

हमने तो सतगुरु के बताये हुए रास्ते पर चलना है।

सतगुरु जानें कब भव सागर रूपी दरिया से पार करें ।

आज का शब्द-:

ऐसा जग देखिया जुआरी…!

अर्थ - : गुरु नानक साहब द्वारा उच्चारण किया हुआ यह शब्द जिसमें गुरुजी साफ समझा रहे हैं।

इस संसार में ऐसे जुआरी ही भरे हैं।

जो बिना पैसा लगाए जीतना चाहते हैं।

अर्थ यह है कि नाम जपे बिना सुखी होना चाहते है।

हम सुख ढूंढते हैं।

पैसा , बंगला , गाड़ी , संसारी साधनों में पर गुरुजी समझा रहे हैं ।

चाहे जितना मर्जी पैसा कमा लो आप सुखी नहीं हो सकते आपके मन को शांति नहीं मिल सकती।

असल सुख चाहते हो तो अमृतवेले में ही उठकर नाम जपना होगा संगत की सेवा करनी होगी ।

दुनियावी सुख पैसा गाड़ी घोड़ा तो आएगा जाएगा पर नाम यह एक मात्र ऐसा सुख है।

जिसको जपने से मन शांत एवं प्रमेनेट ही आनंद की प्राप्ति होगी। 

नाम जपने से संसार के सभी सुख प्राप्त होते और अंत में सचखंड दरबार में हाजिरी लगेगी मुक्ति प्राप्त होगी।

इस लिए असल सुख चाहते हो तो अमृतवेले उठो मन की तृष्णा को शांति मिलेगी नाम जपो सिमरन करो संगत की सेवा….!

💐💐जय जय श्री राधे💐💐

🌳 चोरी का दंड 🌳

एक समय कांचीपुर नामक गांव में वज्र नाम का एक चोर रहता था।

चोर नाम के भांति ही वज्र ह्रदय का था। 

उसे जिसका जो मिलता चुरा लेता। उसे तनिक भी दया नहीं आती थी कि उस सामान के स्वामी को कितना कष्ट होगा !

वह चुराए हुए धन को सिपाहियों के भय से जंगल में जमीन के अंदर छुपा देता था !

एक रात विरदत्त नाम के लकड़हारे ने ये घटना देख ली। 

और चोर के जाने के पश्चात जमीन खोद कर उसके चुराए हुए धन का दसवां हिस्सा निकाल लिया और गड्ढे को पहले की भांति ढक दिया।

लकड़हारा इतनी चालाकी से सामान निकलता की चोर को इस चोरी का पता ही नहीं चल पता था।

एक दिन लकड़हारा अपनी पत्नी को धन देते हुए बोला, कि तुम रोज धन माँगा करती थी, लो आज पर्याप्त धन इक्कठा हो गया है।

उसकी पत्नी ने कहा, जो धन अपने परिश्रम से उपार्जित न किया गया हो वह स्थाई नहीं होता है। 

इस लिए इस धन को जनता की भलाई में लगा दीजिये।

विरदत्त को भी ये बात जच गयी ! 

इस लिए उसने इस धन से एक बहुत बड़ा तालाब खुदवाया जिसका पानी कभी भी नहीं सूखता था।

लेकिन इसमें सीढ़िया लगनी रह गयी थी और सारे पैसे समाप्त हो गये थे।

तो वह फिर से छिपकर चोर का अनुसरण करने लगा की वह धन कहा छुपाता है। 

इस के बाद फिर उससे दसवां हिस्सा निकाल कर तालाब का काम पूरा करवाया !

तथा उसने भगवान शंकर और भगवान विष्णु के भव्य मंदिर बनवाए। 

बंजर जमीन पर खेत बनवाये और गरीबों में वितरित कर दिया।

गरीबों ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसका नाम द्विजवर्मा रखा ।

जब द्विजवर्मा की मृत्यु हुई तब एक ओर से यमदूत आये और एक ओर से भगवान शंकर के गण आये। 

उनमे आपस में विवाद होने लगा इसी बीच वहां नारद जी पधारे।

नारद जी ने उनको समझाया, आप विवाद न करें इस लकड़हारे ने चोरी के धन से परोपकार के कामों को कराया है...!

इस लिए जब तक यह कुमार्ग से अर्जित धन का प्रायश्चित नहीं कर लेता तब तक वायु रूप में अंतरिक्ष में विचरण करता रहेगा।

नारद जी की बात सुनकर सभी दूत वापस लौट गए तथा द्विजवर्मा बारह वर्षों तक प्रेत बनकर घूमता रहा।

नारद जी ने लकड़हारे की पत्नी से कहा...! 

तुम ने अपने पति को सदमार्ग दिखाया 

इस लिए तुम ब्रम्ह्लोक जाओगी।

लेकिन लकड़हारे की पत्नी अपने पति के दुःख से दुखी थी। 

वह देवर्षि से बोली, जब तक मेरे पति को देह नहीं मिलती तब तक मैं यही रहूंगी।

जो गति मेरे पति की हुई वही गति मैं भी चाहती हूँ !

ये बातें सुनकर देवर्षि बहुत प्रसन्न हुए। 

उन्होंने बताया की तुम अपने पति की मुक्ति के लिए शिव की आराधना करो।

उसने अपने पति की मुक्ति के लिए अथक मेहनत से भगवान शिव की आराधना की।

इससे उसके पति के चोरी का सारा पाप धूल गया। 

फिर दोनों पति पत्नी को उत्तम लोक मिला।

इस पौराणिक सत्य कथा का निष्कर्ष यही है की कोई भला काम करने का अच्छा फल जरूर मिलता है....! 

लेकिन कोई भला काम करने के लिए कभी किसी गलत काम का सहारा नही लेना चाहिए...!

अन्यथा उस गलत काम का भी दंड जिंदा रहते या मरने के बाद जरूर भुगतना पड़ता है !

जय श्री कृष्ण....!!!






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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। विश्वकर्मा की पूजा करने की विधि, मंत्र, स्तुति, आरती उतपत्ति ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। विश्वकर्मा की पूजा करने की विधि, मंत्र, स्तुति, आरती उतपत्ति  ।।


विश्वकर्मा पूजा हर साल 17 सितंबर को मनाई जाती है।

इस बार देश के कुछ हिस्सों में 16 सितंबर दिन बुधवार को विश्वकर्मा पूजा की गयी।

तो वहीं गुजरात राजस्थान महाराष्ट मध्यप्रदेश उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में आज 17 सितंबर को विश्वकर्मा पूजा की जाएगी। 

बता दें कि इसी दिन भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ था।

विश्वकर्मा को दुनिया का पहला इंजीनियर और वास्तुकार माना जाता है।

इस लिए इस दिन उद्योगों, फैक्ट्र‍ियों और हर तरह के मशीन की पूजा की जाती है।







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भगवान विश्वकर्मा ने ही देवी-देवताओं के लिए अस्त्रों, शस्त्रों, भवनों और मंदिरों का निर्माण किया था।

विश्वकर्मा ने सृष्टि की रचना में भगवान ब्रह्मा की सहायता की थी।

ऐसे में इंजीनियरिंग काम में लगे लोग उनकी पूजा करते हैं।

यह पूजा सभी कलाकारों, बुनकर, शिल्पकारों और औद्योगिक घरानों द्वारा की जाती है।

आइए जानते है।

विश्वकर्मा पूजा करने के लिए शुभ समय और इस पूजा से जुड़ी पूरी जानकारी.....!

यूपी, बिहार, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान एवं पश्चिम बंगाल में प्रमुख रूप से भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है।

इन स्थानों में भजन गाने बनाने, आरती से लेकर स्तुति भी काफी प्रचलित है।

ऐसे में आइये देखते हैं विश्वकर्मा पूजा के आरती और भोजपुरी गुजराती हिंदी मारवाड़ी भजन व गानें।

विश्वकर्मा पूजन 

री विश्वकर्मा विश्व के भगवान सर्वाधारणम् ।

शरणागतम् शरणागतम् शरणागतम् सुखाकारणम् ।।

कर शंख चक्र गदा मद्दम त्रिशुल दुष्ट संहारणम् ।

धनुबाण धारे निरखि छवि सुर नाग मुनि जन वारणम् ।।

डमरु कमण्डलु पुस्तकम् गज सुन्दरम् प्रभु धारणम् ।

संसार हित कौशल कला मुख वेद निज उच्चारणम् ।।

त्रैताप मेटन हार हे ! कर्तार कष्ट निवारणम् ।

नमस्तुते जगदीश जगदाधार ईश खरारणम् ।।

सर्वज्ञ व्यापक सत्तचित आनंद सिरजनहारणम् ।

सब करहिं स्तुति शेष शारदा पाहिनाथ पुकारणम् ।।

श्री विश्वपति भगवत के जो चरण चित लव लांइ है ।

करि विनय बहु विधि प्रेम सो सौभाग्य सो नर पाइ है ।।

संसार की सुख सम्पदा सब भांति सो नर पाइ है ।

गहु शरण जाहिल करि कृपा भगवान तोहि अपनाई है ।।

प्रभुदित ह्रदय से जो सदा गुणगान प्रभु की गाइ है ।

संसार सागर से अवति सो नर सुपध को पाइ है ।।

विश्वकर्मा आरती

हे विश्वकर्मा विश्व के भगवान सर्वा धारणम् ।

शरणागतम् । शरणागतम् । शरणागतम् । शरणागतम् ।।

श्री विश्वकर्मा भगवान की मुरति अजब विशाल ।

भरि निज नैन विलोकिये तजि नाना जंजाल ।।

आरती गाऊं जगदीश हरी को । विश्वकर्मा स्वामी परम श्री की ।

तन मन धन सब अर्पण तेरे । करो वास हिये मेँ प्रभु मेरे ।

शिव विरंची तुमरे गुण गावें । घनश्याम राम सिया मां ध्यावें । ।

कलियुग में कर साधन कीन्हां । चतुरानन वेद पढयो मुनि चारा ।

शिल्प कला शुभ मार्ग दीन्हा । साम यजु ऋग शिल्प भडारा । 2 ।

विश्वकर्मा नाम सदा अविनाशी । अगम अगोचर घट घट वासी ।

कल्पतरु पद सब सुख धामा । सत्य सनातन मुद मगंल नामा । 3 ।

करें अर्चन सुमरण पूजा किसकी । नहीं तुम बिन दूजा करे आसा जिसकी ।

विषय विकार मिटाओ मन के । दुख व्याधा रोग कटें तब तन के । 4 ।

माता पिता तुम शरणा गत स्वामी । तुम पूरण प्रभु नित्य अन्तर्यामी ।

हम पावन पाठ करेंहिं चितलाई । करो संकट नाश सदा सुख दाई । 5 ।

परम विज्ञानी सत्य लोक निवासी । देव तनु धर आयो ,ख राशी ।

तुम बिन जग में कौन गोसाँई । विश्वप्रताप की अब जो करे सहाई । 6 ।

कैसे हुई थी भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति

विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए।

कहते हैं...!

कि धर्म की ‘वस्तु’ नामक स्त्री से उत्पन ‘वास्तु’ के सातवें पुत्र थें।

जो शिल्पशास्त्र के प्रवर्तक थे।

वास्तुदेव की ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा भगवान का जन्म हुआ था।

अपने पिता की तरह विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने।

गलती से भी न करें इसका सेवन

आपको विश्वकर्मा पूजा के दिन भूलकर भी मांस और मदिरा का सेवन नहीं करना चाहिए।

भगवान विश्वकर्मा जी की महाआरती

हम सब उतारे आरती तुम्हारी हे विश्वकर्मा, हे विश्वकर्मा।

युग – युग से हम हैं तेरे पुजारी, हे विश्वकर्मा...।।

मूढ़ अज्ञानी नादान हम हैं, पूजा विधि से अनजान हम हैं।

भक्ति का चाहते वरदान हम हैं, हे विश्वकर्मा...।।

निर्बल हैं तुझसे बल मांगते, करुणा का प्यास से जल मांगते हैं।

श्रद्धा का प्रभु जी फल मांगते हैं, हे विश्वकर्मा...।।

चरणों से हमको लगाए ही रखना, छाया में अपने छुपाए ही रखना।

धर्म का योगी बनाए ही रखना, हे विश्वकर्मा...।।

सृष्टि में तेरा है राज बाबा, भक्तों की रखना तुम लाज बाबा।

धरना किसी का न मोहताज बाबा, हे विश्वकर्मा...।।

धन, वैभव, सुख – शान्ति देना, भय, जन – जंजाल से मुक्ति देना।

संकट से लड़ने की शक्ति देना, हे विश्वकर्मा...।।

तुम विश्वपालक, तुम विश्वकर्ता, तुम विश्वव्यापक, तुम कष्टहर्ता।

तुम ज्ञानदानी भण्डार भर्ता, हे विश्वकर्मा...।।

आज इनकी होती है पूजा

विश्‍वकर्मा पूजा के दिन घर और कारखाने में प्रयोग होने वाले औजार और हथियारों की पूजा की जाती है।

इन सबके बीच सभी औजार और अस्‍त्र-शस्‍त्र की साफ-सफाई की जाती है और उनमें तेल डालकर इनकी ग्रीसिंग की जाती है।

विश्‍वकर्मा पूजा के बाद कारखाने के सभी कर्मचारियों में प्रसाद का वितरण किया जाता है और सभी मजदूर एक - दूसरे को विश्‍वकर्मा जयंती की बधाई देते हैं।

दरअसल विश्‍वकर्मा भगवान को ब्रह्मांड के पहले शिल्‍पकार, वास्‍तुकार और इंजीनियर की उपाधि दी गई है.

जानें कहां - कहां मनायी जाती है विश्वकर्मा पूजा

विश्वकर्मा पूजा खासकर देश के पश्चिम ओर पूर्वी प्रदेशों में मनाई जाती है।

जैसे गुजरात राजस्थान महाराष्ट्र , मध्यप्रदेश , उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, असम, त्रिपुरा, वेस्ट बंगाल और ओड़िशा।

मान्यता हैं कि विश्वकर्मा भगवान ने ही ब्रह्मा जी की सृष्टि के निर्माण में मदद की थी और पूरे संसार का नक्शा बनाया था।

शास्त्रों के अनुसार विश्वकर्मा वास्तुदेव के पुत्र हैं.

विश्वकर्मा पूजा का धार्मिक महत्व...!

विश्वकर्मा पूजा उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो कलाकार, शिल्पकार और व्यापारी हैं।

ऐसी मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने से व्यापार में वृद्धि होती है।

धन - धान्य और सुख - समृद्धि की अभिलाषा रखने वालों के लिए भगवान विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है.







विश्वकर्मा पूजा विधि-1

आज सुबह उठकर स्नानादि कर पवित्र हो जाएं।

फिर पूजन स्थल को साफ कर गंगाजल छिड़क कर उस स्थान को पवित्र करें।

एक चौकी लेकर उस पर पीले रंग का कपड़ा बिछाएं।

पीले कपड़े पर लाल रंग के कुमकुम से स्वास्तिक बनाएं।

भगवान गणेश का ध्यान करते हुए उन्हें प्रणाम करें।

इसके बाद स्वास्तिक पर चावल और फूल अर्पित करें।

फिर चौकी पर भगवान विष्णु और ऋषि विश्वकर्मा जी की प्रतिमा या फोटो लगाएं।

एक दीपक जलाकर चौकी पर रखें. भगवान विष्णु और ऋषि विश्वकर्मा जी के मस्तक पर तिलक लगाएं।

विश्वकर्मा जी और विष्णु जी को प्रणाम करते हुए उनका स्मरण करें।

साथ ही यह प्रार्थना करें कि वह आपके नौकरी - व्यापार में तरक्की करवाएं।

विश्वकर्मा जी के मंत्र का 108 बार जप करें।

फिर श्रद्धा से भगवान विष्णु की आरती करने के बाद विश्वकर्मा जी की आरती करें।

आरती के बाद उन्हें फल-मिठाई का भोग लगाएं।

इस भोग को सभी लोगों और कर्मचारियों में जरूर बांधें।

पूजा विधि-2

विश्वकर्मा भगवान की पूजा करने के लिए सुबह स्नान करने के बाद अच्छे कपड़े पहनें और भगवान विश्वकर्मा की पूजा करें।

पूजा के समय अक्षत, हल्दी, फूल, पान का पत्ता, लौंग, सुपारी, मिठाई, फल, धूप, दीप और रक्षासूत्र जरूर रखें।

आप जिन चीजों की पूजा करना चाहते हैं उन पर हल्दी और चावल लगाएं।

साथ में धूप और अगरबत्ती भी जलाएं।

इसके बाद आटे की रंगोली बनाएं।

उस रंगोली पर 7 तरह का अनाज रखें।

फिर एक लोटे में जल भरकर रंगोली पर रखें।

फिर भगवान विष्णु और विश्वकर्मा जी की आरती करें।

आरती के बाद विश्वकर्मा जी और विष्णु जी को भोग लगाकर सभी को प्रसाद बांटें।

इसके बाद कलश को हल्दी और चावल के साथ रक्षासूत्र चढ़ाएं।

इसके बाद पूजा करते वक्त मंत्रों का उच्चारण करें. जब पूजा खत्म हो जाए उसके बाद सभी लोगों में प्रसाद का वितरण करें।

भगवान विश्वकर्मा की पूजा का मंत्र...!

ॐ आधार शक्तपे नम: और ॐ कूमयि नम:, ॐ अनन्तम नम:, ॐ पृथिव्यै नम:

आज औजारों की होती है पूजा...!

विश्वकर्मा पूजा आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को की जाती है।

मान्यताएं हैं कि इसी दिन भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ था।

इस दिन भगवान विश्वकर्मा के साथ ही कारखानों और फैक्ट्रियों में औजारों की पूजा की जाती है।

क्या है पूजा का महत्व...!

विश्वकर्मा भगवान की पूजा इस लिए की जाती है। 

क्योंकि उन्हें पहला वास्तुकार माना गया था, मान्यता है।

कि हर साल अगर आप घर में रखे हुए लोहे और मशीनों की पूजा करते हैं।

तो वो जल्दी खराब नहीं होते हैं।

मशीनें अच्छी चलती हैं क्योंकि भगवान उनपर अपनी कृपा बनाकर रखते हैं।

भारत के कई हिस्सों में हिस्से में बेहद धूम धाम से मनाया जाता है।

आज ये काम जरूर करना चाहिए...!

श्री विश्वकर्मा पूजा करने वाले सभी लोगों को इस दिन अपने अपने कारखाने, फैक्ट्रियां बंद रखनी चाहिए।

श्री विश्वकर्मा पूजा के दिन अपनी मशीनों, उपकरणों और औजारों की पूजा करने से घर में बरकत होती है।

श्री विश्वकर्मा पूजा के दिन औजारों और मशानों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

श्री विश्वकर्मा पूजा के दिन तामसिक भोजन ( मांस - मदिरा ) का सेवन नहीं करना चाहिए।

श्री विश्वकर्मा पूजा के दिन अपने रोजगार में वृद्धि करने के लिए गरीब और असहाय लोगों को दान - दक्षिणा जरूर दें।

श्री विश्वकर्मा पूजा के दिन अपने बिजली उपकरण, गाड़ी की सफाई भी करें।

घर में ऐसे करें पूजा...!

इस दिन दफ्तर के साथ ही घर में भी सभी मशीनों की पूजा करनी चाहिए।

चाहे बिजली के उपकरण हो या फिर बाहर खड़ी गाड़ी, विश्वकर्मा पूजा के दिन सभी की सफाई करें।

अगर जरूरी हो तो ऑयलिंग और ग्रीसिंग करें। 

इस दिन इनकी देखभाल किसी मशीन की तरह न करके इस प्रकार करें जिससे प्रतीत हो कि आप भगवान विश्वकर्मा की ही पूजा कर रहे हों।

विश्वकर्मा जयंती पूजाके शास्त्रीय मत...!

श्री भगवान विश्वकर्मा की जयंती को लेकर कुछ मान्यताएं हैं।

कुछ ज्योतिषाचार्यो के अनुसार भगवान विश्वकर्मा जी का जन्म आश्विन कृष्णपक्ष का प्रतिपदा तिथि को हुआ था।

वहीं कुछ लोगों का मनाना है कि भाद्रपद की अंतिम तिथि को भगवान विश्वकर्मा की पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है।

वैसे विश्वकर्मा पूजा सूर्य के पारगमन के आधार पर तय किया जाता है।

भारत में कोई भी तीज व्रत और त्योहारों का निर्धारण चंद्र कैलेंडर के मुताबिक किया जाता है।

लेकिन विश्वकर्मा पूजा की तिथि सूर्य को देखकर की जाती है। 

जिसके चलते हर साल विश्वकर्मा पूजा 17 सितंबर को आती है।

कौन हैं भगवान विश्वकर्मा...!

ऐसी मान्यता है...!

कि पौराणिक काल में देवताओं के अस्त्र-शस्त्र और महलों का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया था। 

भगवान विश्वकर्मा को निर्माण और सृजन का देवता माना जाता है।

भगवान विश्वकर्मा ने सोने की लंका, पुष्पक विमान, इंद्र का व्रज, भगवान शिव का त्रिशूल, पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ नगर और भगवान कृष्ण की नगरी द्वारिका को बनाया था।

भगवान विश्वकर्मा शिल्प में गजब की महारथ हासिल थी जिसके कारण इन्हें शिल्पकला का जनक माना जाता है।

भगवान विश्वकर्मा के पूजन - अर्चन किए बिना कोई भी तकनीकी कार्य शुभ नहीं माना जाता।

मान्यता है....!

कि भगवान विश्वकर्मा के पूजन - अर्चन किए बिना कोई भी तकनीकी कार्य शुभ नहीं माना जाता।

इसी कारण विभिन्न कार्यों में प्रयुक्त होने वाले औजारों, कल-कारखानों में लगी मशीनों की पूजा की जाती है।

भगवान विश्वकर्मा के जन्म को लेकर शास्त्रों में अलग - अलग कथाएं प्रचलित हैं।

जय श्री कृष्ण...!!!!

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भगवान शिव ने एक बाण से किया था :

भगवान शिव ने एक बाण से किया था : तारकासुर के तीन पुत्रों को कहा जाता है त्रिपुरासुर, भगवान शिव ने एक बाण से किया था तीनों का वध : तीनों असुर...

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