https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 09/28/20

।।श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद्भागवत आधारित श्रीराधा माधव चिन्तन भाग में स्वयं भगवानका दिव्य जन्म के प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।।श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद्भागवत आधारित श्रीराधा माधव चिन्तन भाग में स्वयं भगवानका दिव्य जन्म के प्रवचन ।।


श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद्भागवत आधारित श्रीराधा माधव चिन्तन भाग में स्वयं भगवानका दिव्य जन्म के प्रवचन

गुणावतार..!

श्रीविष्णु, श्रीब्रह्मा और श्रीरुद्र गुणावतार ( सत्त्व, रज और तमकी लीला के लिये ही प्रकट ) हैं। 

इनका आविर्भाव गर्भोदकशायी द्वितीय पुरुषावतार ‘प्रद्युम्र’ से होता है। 

द्वितीय पुरुषावतार लीला के लिये स्वयं ही इस विश्व की स्थिति, पालन तथा संहार के निमित्ता तीनों गुणों को धारण करते हैं।




परंतु उनके अधिष्ठाता होकर ‘विष्णु’, ‘ब्रह्मा’ और ‘रुद्र’  नाम ग्रहण करते हैं। 

वस्तुतः ये कभी गुणों के वश नहीं होते। 

नित्य स्वरूप स्थित होते हुए ही त्रिविधगुणमयी लीला करते हैं।

लीलावतार...!

भगवान जो अपनी मंगलमयी इच्छा से विविध दिव्य मंगल - विग्रहों द्वारा बिना किसी प्रयास के अनेक विविध विचित्रताओं से पूर्ण नित्य - नवीन रसमयी क्रीड़ा करते हैं, उस क्रीड़ा का नाम ही ‘लीला’ है। 

ऐसी लीला के लिये भगवान जो मंगल विग्रह प्रकट करते हैं, उन्हें ‘लीलावतार’ कहा जाता है। 

चतुस्सन ( सनकादि चारों मुनि ), नारद, वराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, हयग्रीव, हंस, धु्रवप्रिय विष्णु, ऋषभदेव, पृथु, श्रीनृसिंह, कुर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, वामन, परशुराम, श्रीराम, व्यासदेव, श्रीबलराम, बुद्ध और कल्कि लीलावतार है। 

इन्हें ‘कल्पावतार’ भी कहते हैं। 


मन्वन्तरावतार...!

स्वायम्भुव आदि चौदह मन्वन्तरों में होने वाले मन्वन्तरावतार माने गये हैं। 

प्रत्येक मन्वन्तर के काल तक प्रत्येक अवतार का लीला कार्य होने से उन्हें ‘मनवन्तरावतार’ कहा गया है।

शक्ति-अभिव्यंक्ति के भेद से नामभेद...!

भगवान के सभी अवतार परिपूर्णतम हैं, किसी में स्वरूपतः तथा तत्त्वतः न्यूनाधिकता नहीं है; तथापि शक्ति की अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता को लेकर उनके चार प्रकार माने गये हैं- ‘आवेश’, ‘प्राभव’, ‘वैभव’  और ‘परावस्थ’।

उपर्युक्त अवतारों में चतुस्सन, नारद, पृथु और परशुराम  आवेशावतार हैं। 

कल्किको भी आवेशावतार कहा गया हैं।

प्रभाव’ अवतारों के दो भेद हैं, जिनमें एक प्रकार के अवतार तो थोड़े ही समय तक प्रकट रहते हैं- जैसे ‘मोहिनी - अवतार’ और ‘हंसावतार’ आदि, जो अपना - अपना लीला कार्य सम्पत्र करके तुरंत अन्तर्धान हो गये। 

दूसरे प्रकार के प्राभव अवतारों में शास्त्रनिर्माता मुनियों के सदृश चेष्टा होती है। 

जैसे महाभारत - पुराणादि के प्रणेता भगवान वेदव्यास, सांख्यशास्त्र प्रणेता भगवान कपिल एंव दत्तात्रेय, धन्वन्तरि और ऋषभदेव- ये सब प्राभव अवतार हैं इनमें अवेशावतारों से शक्ति - अभिव्यक्ति की अधिकता तथा प्राभवावतारों की अपेक्षा न्यूनता होती है। 

वैभवावतार ये हैं- कूर्म, मत्स्य, नर-नारायण, वराह, हयग्रीव, पृश्रिगर्भ, बलभद्र और चतुर्दश मन्वन्तरावतार। 

इनमें कुछ की गणना अन्य अवतार-प्रकारों में भी की जाती है।

 परावस्थावतार प्रधानतया तीन हैं- 


श्रीनृसिंह, श्रीराम और श्रीकृष्ण। 

ये षडैश्वर्यपरिपूर्ण हैं ।

नृसिंहरामकृष्णेषु षाड्गुण्यं परिपूरितम्।

परावस्थास्तुते ..........!

इनमें श्रीनृसिंहावतार का कार्य एक मात्र प्रहृाद - रक्षण एवं हिरण्यकशिपु-वध ही है तथा इनका प्राकट्य भी अल्पकालस्थायी है। 

अतएव मुख्यतया श्रीराम और श्रीकृष्ण ही परावस्थावतार हैं।

इनमें भगवान श्रीकृष्ण को...!

" एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम ’। 
कहा गया हैं। 

अर्थात 

उपर्युक्त सनकादि - लीलावतार भगवान के अशं - कला - विभूति रूप हैं। 

श्रीकृष्ण  साक्षात स्वयं भगवान हैं।

भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु पुराण में...!

 ‘ सित - कृष्ण - केश ’ 

कह कर पुरुषावतार के केश रूप अंशावतार बताया गया है।

महाभारत में कई जगह इन्हें नर के साथी नारायण-ऋषि का अवतार कहा गया है।

कहीं वामनावतार और कहीं भगवान विष्णु का अवतार बताया गया है।

 वस्तुतः ये सभी वर्णन ठीक हैं!

विभित्र कल्पों में भगवान श्रीकृष्ण कें ऐसे अवतार भी होते हैंय परंतु इस सारस्वत कल्प में स्वयं भगवान अपने समस्त अंश कला वैभवों के साथ परिपूर्ण रूप से प्रकट हुए हैं। 

अतएव इनमें सभी का समावेश है। 

ब्रह्माजी ने स्वयं इस पूर्णता को अपने दिव्य नेत्रों से देखा था। 

सृष्टि में प्राकृत-अप्राकृत जो कुछ भी तत्त्व हैं, श्रीकृष्ण सभी के मूल तथा आत्मा हैं। 

वे समस्त जीवों के, समस्त देवताओं के, समस्त ईश्वरों के, समस्त अवतारों के एक मात्र कारण, आश्रय और स्वरूप हैं।

सित - कृष्ण केशावतार, नारायणावतार पुरुषावतार - सभी इनके अन्तर्गत हैं।

वे क्या नहीं हैं? 

वे सबके सब कुछ हैं। 

वे ही सब कुछ हैं। 

समस्त पुरुष, अंश-कला, विभूति, लीला - शक्ति आदि अवतार उन्हीं में अधिष्ठित हैं। 

इसी से स्वयं भगवान हैं -


‘ कृष्णस्तु भगवान स्वयम्। ’

लोचन मीन, लसैं पग कूरम, कोल धराधर की छवि छाजैं।
वे बलि मोहन साँवरे राम हैं दुर्जन राजन कौ हनि भ्राजैं।।

हैं बल में बल, ध्यान में बुद्ध, लखें कलकी बिपदा सब भाजैं।
मध्य नृसिंह हैं, कान्ह जू मैं सिगरे अवतारन के गुन राजैं।।

किन्हीं महानुभावों ने तीन तत्त्व माने हैं - ‘विष्णु’ ‘महाविष्णु’ और ‘महेश्वर’। 

भगवान श्रीकृष्ण में इन तीनों का समावेश है।

ब्रह्मवैवर्तपुराण  ( श्रीकृष्ण खण्ड ) में आया है कि पृथ्वी भाराक्रान्त हो कर ब्रह्माजी की शरण जाती है। 

ब्रह्माजी देवताओं को साथ लेकर महेश्वर श्रीकृष्ण के गोलोक धाम में पहुँचते हैं।

नारायण - ऋषि भी उनके साथ रहते हैं। 

ब्रह्मा तथा देवताओं की प्रार्थना पर भगवान श्रीकृष्ण अवतार ग्रहण करना स्वीकार करते हैं। 

तब अवतार का आयोजन होने लगता है। 

अकस्मात एक मणि - रत्रखचित अपूर्व सुन्दर रथ दिखायी पड़ता है। 

उस रथ पर शंख - चक्र - गदा - पद्मधारण किये हुए महाविष्णु विराजित हैं।

वे नारायण रथ से उतर कर महेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो जाते हैं- 

‘गत्वा नारायणो देवो विलीनः कृष्णविग्रहे।’

परंतु महाविष्णु के विलीन होने पर भी श्रीकृष्णावतार का स्वरूप पूर्णतया नहीं बना तब एक दूसरे स्वर्णरथ पर आरुढ़ पृथ्वी पति श्रीविष्णु वहाँ दिखायी दिये और वे भी श्रीराधिकेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलिन हो गये - 

‘स चापि लीनस्तत्रैव राधिकेश्वरविग्रहे।’

अब अवतार के लिये पार्थिक मानुषी तत्त्व की आवश्यकता हुई। 

नारायण - ऋषि वहाँ थे ही वे भी उन्हीं में विलीन हो गये। 

यों महाविष्णु विष्णु-नारायण रूप स्वयं महेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तथा नारायण के सभी नर-ऋषि अर्जुन रूप से अवतार-लीला में सहायतार्थ अवतरित हुए।

श्रीमद्भागवत के अनुसार असुर रूप दुष्ट राजाओं के भार से आक्रान्त दुःखिनी पृथ्वी गोरूप धारण करके करुण क्रन्दन करती हुई ब्रह्माजी के पास जाती है ।

 और ब्रह्माजी भगवान शंकर तथा अन्याय देवताओं को साथ लेकर क्षीरसागर पर पहुँचते हैं और क्षीराब्धिशायी पुरुष रूप भगवान का स्तवन करते हैं।

ये क्षीरोदशायी पुरुष ही व्यष्टि पृथ्वी के राजा हैं, अतएव पृथ्वी अपना दुःख इन्हीं को सुनाया करती है।

ब्रह्मादि देवताओं के स्तवन करने पर ब्रह्माजी ध्यानमग्र हो जाते हैं और उन समाधिस्थ ब्रह्माजी का क्षीराब्धिशायी भगवान की आकाशवाणी सुनायी देती है।

 तदनन्तर वे देवताओं से कहते हैं -


गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुन-।
र्विधीयतामाशु तथैव मा चिरम्।।

पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरो भवद्धिरंशैर्यदुषूपजन्यताम्।
स यावदुव्र्या भरमीश्वरेश्वरः स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद् भुवि।।

वसुदेवगृह साक्षाद् भगवान पुरुषः परः।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्त्रियः।।

‘देवताओं! मैंने भगवान की आकाशवाणी सुनी है। 

उसे तुम लोग मेरे द्वारा सुनो और फिर बिना विलम्ब इसी के अनुसार करो। 

हम लोगों की प्रार्थना के पूर्व ही भगवान पृथ्वी के संताप को जान चुके हैं। 

वे ईश्वरों के भी ईश्वर अपनी कालशक्ति के द्वारा धरा का भार हरण करने के लिये जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में योग दो। 

वे परम पुरुष भगवान स्वयं वसुदेवजी के घर में प्रकट होंगे।

उनकी तथा उनकी प्रियतमा ( श्रीराधाजी ) की सेवा के लिये देवांगनाएँ भी वहाँ जन्म धारण करें।’

क्षीरोशायी भगवान के इस कथन का भी यही अभिप्राय है कि ‘साक्षात परम पुरुष स्वयं भगवान प्रकट होंगे, वे क्षीराब्धिशायी नहीं।

अतएव स्वयं पुरुषोत्तम भगवान ही, जिनके अंशावतार नारायण हैं, वसुदेवजी के घर प्रकट हुए थे। 

देवकीजी की स्तुति से भी यही सिद्ध है

यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः।
भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गति गता ।।

‘हे आद्य! जिस आपके अंश ( पुरुषावतार ) का अंश ( प्रकृति ) है, उसके भी अंश ( सत्त्वादि गुण ) के भाग ( लेशमात्र ) से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हुआ करते हैं, विश्वात्मन् !

आज मैं उन्हीं आपके शरण हो रही हूँ।’

अब रही 

‘सित-कृष्ण-केश’

की बात, सो यों कहा गया है कि इसका प्रयोग भगवान के श्वेत या श्यामवर्ण की शोभा के लिये किया गया है। 

श्रीबलरामजी  का वर्ण उज्ज्वल है और श्रीकृष्ण का नीलश्याम।

शेष ( दिव्य सत्संग ) अगले भाग में.

जय जय श्री राधे गोविन्द जय जय श्री राधे कृष्णा 

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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