सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। आज का भगवद् चिन्तन , श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
।। आज का भगवद् चिन्तन ।।
तन की अस्वस्थता उतनी घातक नहीं जितनी कि मन की अस्वस्थता है।
तन से अस्वस्थ व्यक्ति केवल अपने को व ज्यादा से ज्यादा अपनों को ही दुखी करता है।
मगर मन से अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं को...!
परिवार को....!
समाज को और अपने सम्पर्क में आने वाले सभी को कष्ट देता है।
तन का रोग मिटाना कदाचित संभव भी है।
मगर मन का रोग मिटाना असम्भव तो नहीं कठिन जरूर है।
तन का रोगी तो रोग को स्वीकार कर लेता है ।
लेकिन मन का रोगी कभी भी रोग को स्वीकार नहीं करता और जहाँ रोग की स्वीकारोक्ति ही नहीं वहाँ समाधान कैसे सम्भव हो सकता है ?
दूसरों की उन्नति से जलन...!
दूसरों की खुशियों से कष्ट...!
दूसरों के प्रयासों से चिन्ता...!
अपनी उपलब्धियों का अहंकार यह सब मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं।
भजन....!
अध्यात्म और भगवद शरणागति ही इस बीमारी का इलाज है।
एक सन्त जीवन के दर्पण
भगवान् पतितपावन भी है...!
भक्तवत्सल भी हैं।
अतः निराश नहीं होना चाहिए।
किसी साधक को निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
साधक...!
प्रभु का हो जाने पर सनाथ हो जाता है।
जिसने प्रभु की महिमा को स्वीकार किया..!
उसका कल्याण है...!
वह सौभाग्यवान है।
दुनियाँ में अभागा वही है जो वस्तु, व्यक्ति...!
परिस्थिति की महिमा को मानता है।
जो वस्तु की अपेक्षा प्रभु की ही महिमा स्वीकार करता है..!
वह भाग्यशाली है।
सब प्रभु का है, सब प्रभु का है और केवल प्रभु ही हैं।
सेवा करो तो इसे ध्यान में रखो।
इस भाव से सेवा किसी की भी करोगे ।
तो वह प्रभु की ही सेवा होगी।
प्रभु - विश्वासी के लिए सेवा महान बल है।
सेवा में लगने से बल स्वतः आ जाता है।
यह महामन्त्र है।
जय प्रभु, जय प्रभु, जय प्रभु...!
तुमने सब कुछ दिया...!
सब कुछ दिया...!
बिना माँगे दिया।
हम सभी उदार हो जायँ तुम्हारी उदारता पाकर...!
हम सभी स्वाधीन हो जायँ...!
तुम्हारी स्वाधीनता पाकर...!
हम सभी प्रेमी हो जायँ तुम्हारे प्रेम को अपनाकर।
सर्व - समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने शरणागत साधकों को साधननिष्ठ बनावें।
प्रभु साधकों को अपनी आत्मीयता से जाग्रत प्रियता प्रदान करें।
सुबह का उजाला सदा आपके साथ हो ।
हर दिन हर पल आपके लिए खास हो ।
दिल से दुआ निकलती है आपके लिए ।
सारी खुशियां आपके पास हो ।
गुरु जी कहां करते हैं -
जब मर्द की आँखो में आंसू छलक जाएं ।
तो समझ जाना की मुसीबत पहाड़ से भी बड़ी है।
इस लिए हमेशा माता पिता की सेवा करते रहो l
मां - बाप के पास बैठने के दो फायदे हैं ।
एक आप कभी बड़े नहीं होते और दुसरा मां - बाप कभी बूढ़े नहीं होते!
और मित्रता की मिसाल तो सुनिए -
"तू गलती से भी कन्धा न देना...!
मेरे जनाजे को ए दोस्त......!
कहीं फिर जिन्दा न हो जाऊ तेरा सहारा देखकर.....!
परमात्मा शब्द नही....!
जो किताब में मिलेगा....!
परमात्मा मूर्ति नही...!
जो तुम्हे मन्दिर मे मिलेगा....!
परमात्मा इन्सान नही...!
जो तुम्हे समाज मे मिलेगा....!
परमात्मा जीवन है...!
जो तुम्हे अपने भीतर मिलेगा...!!
बहुत थोडा पानी पोखर में भरा था और उसके किनारे पर ही मृग का एक जोड़ा मृत पड़ा था।
दो महात्मा उधर से गुजरे।
देखकर हैरान हुए।
एक नए कहा:
पानी है...!
प्यासे नही....!
न कोई मारा तीर....!
जख्म नही दिखे कही...!
केसे तजे शरीर?
दुसरे महात्मा ने समझाया -
पानी थोडा...!
नेह घना...!
लगा प्रेम का बाण तू पी...!
तू पी....!
कहत ही....!
दोनों तज दिए प्राण...!
वास्तविक प्रेम वही है जिसमे लेने की कामना नही...!
देने का उत्साह है।
जिसमे मोह नही त्याग है ।
स्वार्थ नही समर्पण है।
ऐसा निष्काम प्रेम ही जब ठाकुर जी के लिए होता है तो वह भी द्रवित हो उठते है।
इसी को इश्क हकीकी कहा है और अलोकिक व् माया प्रेम को इश्क मजाजी कहा है।
एक प्रेम तारने वाला और दूसरा मारने वाला।
ढूंढा सब जंहा में....!
पाया पता तेरा नही....!
जब पता तेरा लगा....!
अब पता मेरा नही....!
।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
*🌷श्री तुलशीकृत रामायण से 🌷*
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*********कल से आगे*******
जिस समय देवताओं ने भगवान् शंकर से पूछा कि भगवान् कहाँ रहते हैं तो उन्होंने कहा कि वे कहाँ नहीं रहते हैं ?
किन्तु देवताओं ने कहा कि जब ऐसी बात है तो फिर हमारे - आपके सबके हृदय में तथा सर्वत्र रहनेवाला ईश्वर हमारी सहायता क्यों नहीं करता ?
उस समय शंकरजी ने ईश्वर के लिये एक शब्द कहा-
*“ अग जग मय "*
-वह है तो सर्वत्र व्यापक है लेकिन-
*" सब रहित "*
वह सबसे अलग भी है ।
कैसे ?
तो इसे स्पष्ट करने के लिये उन्होंने एक शब्द चुना- “ बिरागी ।
*" अग जग मय सब रहित बिरागी ।*
इसका अर्थ है कि संसार में अनगिनत व्यक्ति हैं ।
न जाने कितनी अच्छी और बुरी घटनाएं हो रही हैं ।
कितने जन्म और कितनी मृत्यु नित्य हो रहे हैं ।
पर इन सबसे दुःख की अनुभूति नहीं होती ।
हमें दुःख उसके कारण होता है कि जिससे हमारी ममता या राग हो ।
वह सुखी हो तो हमें सुख होता है और दुःखी हो तो दुःख ।
*“ बिरागी '*
का तात्पर्य है , जिसका किसी से राग न हो , ममता न हो ।
वेदान्त का ब्रह्म यद्यपि अन्तःकरण में विद्यमान है , पर वह
*' बिरागी '*
और
*' ममता रहित '*
है ।
इसी कारण से उसका कोई प्रभाव दिखायी नहीं देता ।
अब केवल दो ही उपाय हैं ।
या तो जब ईश्वर बिरागी है तो आप भी बिरागी बन जायें या फिर बिरागी ईश्वर को ही रागी बना लीजिये ।
वेदान्त यही कहता है कि आप बिरागी बन जाइये ।
पर उसकी जो पद्धतियाँ कही गयीं उन्हें सुनकर बड़े - बड़े काँप उठते हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कह दिया कि―
*निर्ममो निरहंकारो स शांतिमधिगच्छति । '*
-ममता - रहित तथा निरहंकारी ही शान्ति को प्राप्त करता है ।
किन्तु भक्तों ने कहा कि हम बिरागी बनें , इसके स्थान पर ईश्वर को ही रागी बना दें ।
यदि हम ममता का परित्याग न कर सकें तो भगवान ही ममता वाले हो जायँ ।
अवतार का अर्थ है कि जहाँ पर भगवान में ममता की सृष्टि की जाती है ।
जहाँ पर भगवान् में राग की सृष्टि की जाती है ।
ईश्वर जब अवतार लेता है तो सम्बन्धों की शुरुआत हो जाती है ।
भई !
यह व्यावहारिक भी है ।
क्योंकि ईश्वर जब अवतार लेगा तो किसी न किसी के गर्भ से ही लेगा ।
जिसके गर्भ से लेगा , वह माँ हो जावेगी ।
जिसके माध्यम से वह जन्म लेगा , वह पिता हो जायगा ।
महाराज मनु के सन्दर्भ में यही बात आती है।
**********शेष कल*******
🌹👏🌹जय राम राम राम सियाराम🌹👏🌹
जय श्री कृष्ण।!