सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
संतो की महिमा , सर्मपण और अहंकार , ईश्वरीय अवतार , सूर्य नारायण की कहानी:
संतो की महिमा
एक दिन एक संत अपने प्रवचन में कह रहे थे अतीत
में तुमसे जो पाप हो गए हैं उनका प्रायश्चित करो और
भविष्य में पाप न करने का संकल्प लो ।
प्रवचन समाप्त होने के बाद जब सभी लोग चले गए,
एक व्यक्ति थोड़ा सकुचाते हुए संत के पास पहुंचा ।
उसने संत से पूछा-
महाराज, मन में एक जिज्ञासा है।
प्रायश्चित करने से पापों से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है ?
संत ने उसे दूसरे दिन आने को कहा ।
दूसरे दिन वह उसे एक नदी के किनारे ले गए ।
नदी तट पर
एक गड्ढे में भरा
पानी सड़ रहा था,
Prestige IRIS Toughened Glass-Top 3 Brass Burner LPG Gas Stove | Black Spill Proof Design | Ergonomic Knob | Tri-Pin Burners |Open
https://amzn.to/4nDw3Va
जिसके कारण उससे बदबू आ रही ती
और उसमें कीड़े भी चल रहे थे।
संत उस व्यक्ति को सड़ा पानी दिखाकर बोले-
भइया, यह पानी देख रहे हो ?
बताओ यह क्यों सड़ा ?
व्यक्ति ने पानी को ध्यान से देखा और कहा -
स्वामी जी,
प्रवाह रुकने के कारण पानी एक जगह ठहर गया
है और इस कारण सड़ रहा है ।
इस पर संत ने कहा-
ऐसे ही सड़े हुए पानी की तरह पाप भी इकट्ठे हो जाते हैं और वे कष्ट पहुंचाते रहते हैं।
जिस तरह वर्षा का पानी इस सड़े....!
पानी....!
को बहाकर हटा देता है और नदी को पवित्र बना देता है...!
उसी प्रकार प्रायश्चित रूप अमृत वर्षा इन पापों को नष्ट कर मन को पवित्र बना देती है।
इससे मन शुभ और सद्कार्यों के लिए तैयार हो जाता है ।
जब एक बार मन में परिवर्तन होता है तो व्यक्ति आगे कभी गलतियां नहीं दोहराता ।
इस लिए प्रायश्चित से व्यक्ति का अतीत और भविष्य दोनों ही पवित्र होता है...!
सर्मपण और अहंकार
पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर लटक रहा नारियल रोज नीचे नदी में पड़े पत्थर पर हंसता और कहता...!
" तुम्हारी तकदीर में भी बस एक जगह पड़े रह कर नदी की धाराओं के प्रवाह को सहन करना ही लिखा है।
देखना एक दिन यूं ही पड़े पड़े घिस जाओगे।
मुझे देखो कैसी शान से उपर बैठा हूं।
पत्थर रोज उसकी अहंकार भरी बातों को अनसुना कर देता।
समय बीता एक दिन वही पत्थर घिस घिस कर गोल हो गया और विष्णु प्रतीक शालिग्राम के रूप में जाकर एक मन्दिर में प्रतिष्ठित हो गया।
एक दिन वही नारियल उन शालिग्राम जी की पूजन सामग्री के रूप में मन्दिर में लाया गया।
शालिग्राम ने नारियल को पहचानते हुए कहा "
भाई...!
देखो घिस घिस कर परिष्कृत होने वाले ही प्रभु के प्रताप से इस स्थिति को पहुँचते हैं।
सबके आदर का पात्र भी बनते हैं जबकि अहंकार के मतवाले अपने ही दम्भ के डसने से नीचे आ गिरते हैं।
तुम जो कल आसमान मे थे आज मेरे आगे टूट कर कल से सड़ने भी लगोगे पर मेरा अस्तित्व अब कायम रहेगा।
* भगवान की दृष्टि में, मूल्य...!
समर्पण का है...!
अहंकार का नहीं....!
ईश्वरीय अवतार
एक बार अकबर ने बीरबल से पूछाः
" तुम्हारे भगवान और हमारे खुदा में बहुत फर्क है।
हमारा खुदा तो अपना पैगम्बर भेजता है जबकि तुम्हारा भगवान बार - बार आता है।
यह ईश्वर का बार बार अवतार लेना, ये क्या बात हुई ? "
बीरबल जोकि एक ज्ञानी हिन्दू था:
" जहाँपनाह ! "
इस बात का कभी व्यवहारिक तौर पर अनुभव करवा दूँगा।
" आप जरा थोड़े दिनों की मोहलत दीजिए। "
चार - पाँच दिन बीत गये।
बीरबल ने एक आयोजन किया।
अकबर को यमुनाजी में नौकाविहार कराने ले गये।
कुछ नावों की व्यवस्था पहले से ही करवा दी थी।
उस समय यमुनाजी छिछली न थीं।
उनमें अथाह जल था।
बीरबल ने एक युक्ति की कि जिस नाव में अकबर बैठा था...,
उसी नाव में एक दासी को अकबर के नवजात शिशु के साथ बैठा दिया गया।
सचमुच में वह नवजात शिशु नहीं था।
मोम का बालक पुतला बनाकर उसे राजसी वस्त्र पहनाये गये थे ताकि वह अकबर का बेटा लगे।
दासी को सब कुछ सिखा दिया गया था।
नाव जब बीच मझधार में पहुँची और हिलने लगी तब....!
'अरे.... रे... रे.... ओ.... ओ.....' कहकर दासी ने स्त्री चरित्र करके बच्चे को पानी में गिरा दिया और रोने बिलखने लगी।
अपने बालक को बचाने - खोजने के लिए अकबर धड़ाम से यमुना में कूद पड़ा।
खूब इधर - उधर गोते मारकर, बड़ी मुश्किल से उसने बच्चे को पानी में से निकाला।
वह बच्चा तो क्या था मोम का पुतला था।
अकबर कहने लगाः
" बीरबल !
यह सारी शरारत तुम्हारी है।
तुमने मेरी बेइज्जती करवाने के लिए ही ऐसा किया। "
बीरबलः
" जहाँपनाह !
आपकी बेइज्जती के लिए नहीं, बल्कि आपके प्रश्न का उत्तर देने के लिए ऐसा ही किया गया था।
आप इसे अपना शिशु समझकर नदी में कूद पड़े।
उस समय आपको पता तो था ही इन सब नावों में कई तैराक बैठे थे, नाविक भी बैठे थे और हम भी तो थे !
आपने हमको आदेश क्यों नहीं दिया ?
हम कूदकरआपके बेटे की रक्षा करते !"
अकबरः "बीरबल ! यदि अपना बेटा डूबता हो तो अपने मंत्रियों को या तैराकों को कहने की फुरसत कहाँ रहती है?
खुद ही कूदा जाता है।"
बीरबलः *"जैसे अपने बेटे की रक्षा के लिए आप खुद कूद पड़े, ऐसे ही हमारे भगवान जब अपने बालकों को संसार एवं संसार की मुसीबतों में डूबता हुआ देखते हैं तो वे किसी ऐैरे गैरों को नहीं भेजते, वरन् खुद ही प्रगट होते हैं।
वे अपने बेटों की,धर्म की रक्षा के लिए आप ही अवतार ग्रहण करते है और संसार को धर्म, आनंद तथा प्रेम के प्रसाद से धन्य करते हैं।*
जहाँपनाह आपके उस दिन के सवाल का यही जवाब है।
सूर्य नारायण की कहानी :
धर्मानुसार भगवान सूर्य देव एक मात्र ऐसे देव हैं जो साक्षात लोगों को दिखाई देते हैं।
सूर्य देव का वर्णन वेदों और पुराणों में भी किया गया है।
इसके अलावा एक प्रत्यक्ष देव के रूप में सूर्य देव का वर्णन कई जगह किया गया है।
इनकी पत्नी का नाम अदिति और छाया है तथा उनके पुत्र शनि देव है जिन्हें न्याय का देवता कहा जाता है। इन्हें कई नामों से जाना जाता है आइए जाने सूर्य देव के 108 नाम अर्थ सहित:-
सूर्य देव के 108 नाम (108 Names of Lord Surya in Hindi)
अरुण- तांबे जैसे रंग वाला
शरण्य- शरण देने वाला
करुणारससिन्धु- करुणा- भावना के महासागर
असमानबल- असमान बल वाले
आर्तरक्षक- पीड़ा से रक्षा करने वाले
आदित्य- अदिति के पुत्र
आदिभूत- प्रथम जीव
अखिलागमवेदिन- सभी शास्त्रों के ज्ञाता
अच्युत- जिसता अंत विनाश न हो सके (अविनाशी )
अखिलज्ञ- सब कुछ का ज्ञान रखने वाले
अनन्त- जिसकी कोई सीमा नहीं है
इना- बहुत शक्तिशाली
विश्वरूप- सभी रूपों में दिखने वाला
इज्य- परम पूजनीय
इन्द्र- देवताओं के राजा
भानु- एक अद्भुत तेज के साथ
इन्दिरामन्दिराप्त- इंद्र निवास का लाभ पाने वाले
वन्दनीय- स्तुती करने योग्य
ईश- इश्वर
सुप्रसन्न- बहुत उज्ज्वल
सुशील- नेक दिल वाल
सुवर्चस्- तेजोमय चमक वाले
वसुप्रद- धन दान करने वाले
वसु- देव
वासुदेव- श्री कृष्ण
उज्ज्वल- धधकता हुआ तेज वाला
उग्ररूप-क्रोद्ध में रहने वाले
ऊर्ध्वग- आकार बढ़ाने वाला
विवस्वत्-चमकता हुआ
उद्यत्किरणजाल- रोशनी की बढ़ती कड़ियों का एक जाल उत्पन्न करने वाले
हृषीकेश- इंद्रियों के स्वामी
ऊर्जस्वल- पराक्रमी
वीर- (निडर) न डरने वाला
निर्जर- न बिगड़ने वाला
जय- जीत हासिल करने वाला
ऊरुद्वयाभावरूपयुक्तसारथी- बिना जांघों वाले सारथी
ऋषिवन्द्य- ऋषियों द्वारा पूजे जाने वाले
रुग्घन्त्र्- रोग के विनाशक
ऋक्षचक्रचर- सितारों के चक्र के माध्यम से चलने वाले
ऋजुस्वभावचित्त- प्रकृति की वास्तविक शुद्धता को पहचानने वाले
नित्यस्तुत्य- प्रशस्त के लिए तैयार रहने वाला
ऋकारमातृकावर्णरूप- ऋकारा पत्र के आकार वाला
उज्ज्वलतेजस्- धधकते दीप्ति वाले
ऋक्षाधिनाथमित्र- तारों के देवता के मित्र
पुष्कराक्ष- कमल नयन वाले
लुप्तदन्त- जिनके दांत नहीं हैं
शान्त- शांत रहने वाले
कान्तिद- सुंदरता के दाता
घन- नाश करने वाल
कनत्कनकभूष- तेजोमय रत्न वाले
खद्योत- आकाश की रोशनी
लूनिताखिलदैत्य- असुरों का नाश करने वाला
सत्यानन्दस्वरूपिण्- परमानंद प्रकृति वाले
अपवर्गप्रद- मुक्ति के दाता
आर्तशरण्य- दुखियों को अपने शरण में लेने वाले
एकाकिन्- त्यागी
भगवत्- दिव्य शक्ति वाले
सृष्टिस्थित्यन्तकारिण्- जगत को बनाने वाले, चलाने वाले और उसका अंत करने वाले
गुणात्मन्- गुणों से परिपूर्ण
घृणिभृत्- रोशनी को अधिकार में रखने वाले
बृहत्- बहुत महान
ब्रह्मण्- अनन्त ब्रह्म वाला
ऐश्वर्यद- शक्ति के दाता
शर्व- पीड़ा देने वाला
हरिदश्वा- गहरे पीले के रंग घोड़े के साथ रहने वाला
शौरी- वीरता के साथ रहने वाला
दशदिक्संप्रकाश- दसों दिशाओं में रोशनी देने वाला
भक्तवश्य- भक्तों के लिए चौकस रहने वाला
ओजस्कर- शक्ति के निर्माता
जयिन्- सदा विजयी रहने वाला
जगदानन्दहेतु- विश्व के लिए उत्साह का कारण बनने वाले
जन्ममृत्युजराव्याधिवर्जित- युवा,वृद्धा, बचपन सभी अवस्थाओं से दूर रहने वाले
उच्चस्थान समारूढरथस्थ- बुलंद इरादों के साथ रथ पर चलने वाले
असुरारी- राक्षसों के दुश्मन
कमनीयकर- इच्छाओं को पूर्ण करने वाले
अब्जवल्लभ- अब्जा के दुलारे
अन्तर्बहिः प्रकाश- अंदर और बाहर से चमकने वाले
अचिन्त्य- किसी बात की चिन्ता न करने वाले
आत्मरूपिण्- आत्मा रूपी
अच्युत- अविनाशी रूप वाले
अमरेश- सदा अमर रहने वाले
परम ज्योतिष्- परम प्रकाश वाले
अहस्कर- दिन की शुरूआत करने वाले
रवि- भभकने वाले
हरि- पाप को हटाने वाले
परमात्मन्- अद्भुत आत्मा वाले
तरुण- हमेशा युवा रहने वाले
वरेण्य- उत्कृष्ट चरित्र वाला
ग्रहाणांपति- ग्रहों के देवता
भास्कर- प्रकाश के जन्म दाता
आदिमध्यान्तरहित- जन्म, मृत्यु, रोग आदि पर विजय पाने वाले
सौख्यप्रद- खुशी देने वाला
सकलजगतांपति- संसार के देवता
सूर्य- शक्तिशाली और तेजस्वी
कवि- ज्ञानपूर्ण
नारायण- पुरुष की दृष्टिकोण वाले
परेश- उच्च देवता
तेजोरूप- आग जैसे रूप वाले
हिरण्यगर्भ्- संसार के लिए सोनायुक्त रहने वाले
सम्पत्कर- सफलता को बनाने वाले
ऐं इष्टार्थद- मन की इच्छा पूरी करने वाले
अं सुप्रसन्न- सबसे अधिक प्रसन्न रहने वाले
श्रीमत्- सदा यशस्वी रहने वाले
श्रेयस्- उत्कृष्ट स्वभाव वाले
सौख्यदायिन्- प्रसन्नता के दाता
दीप्तमूर्ती- सदा चमकदार रहने वाले
निखिलागमवेद्य- सभी शास्त्रों के दाता
नित्यानन्द- हमेशा आनंदित रहने वाले
।।।।।।।।। हर हर महादेव हर।।।।।।।
|| राम के चरण कमलों में प्रेम ||
जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है।
भगवान को छोड़कर किया गया सभी कर्म धर्म जप तप क्रिया या यहाँ तक कि श्वास लेना भी पाप ही की श्रेणी में आता है, और उनके निमित्त किया गया सभी कर्म पुण्य की श्रेणी में आता है।
हमारा मानना है कि अपने कर्तव्य पथ से भागना और दूसरों की निजता का हनन करना ही पाप है और अपने कर्तव्यों का पालन सम्पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से करना ही पुण्य है।
परोपकार पुण्य है और दूसरों को किसी भी प्रकार से पीड़ा देना, दुःख देना पाप है।
कुछ लोग अभी भी शास्त्रों के उन शब्दों को पकड़कर गलत अर्थ निकाल लेते हैं, जिनमें कहा गया है कि कर्म के बंधन से भी मुक्त हो जाओ।
परमात्मा यह नहीं कहता कि कर्म को बंधन मानो।
कर्म बंधन हो ही नहीं सकता। मुक्त होना है कर्म के फल की आसक्ति से।
इस लिए भगवान यह नहीं बताते हैं कि किस तरह से कर्म करते हुए मुझसे जुड़ जाएं।
जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है।
ऐसा सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है।
भगवान का सीधा संदेश है मेरे लिए कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है, जरूरत है मुझसे जुड़ने की।
इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं।
इस प्रकार मैंने संतों और असंतों के गुण कहे।
जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म - मरण के चक्कर में नहीं पड़ते।
सभी शुभ अशुभ कर्म अर्थात क्या पाप है क्या पुण्य है सबका त्याग कर देना है।
मतलब पूर्ण शरणागति।
तो भगवान अनंतानंत जन्मों के सभी कर्मों को नष्ट कर देंगे भगवदप्राप्ति के पश्चात्।
अन्यथा तो कर्मफल भोगने ही पड़ेंगे भले आप परमहंस ही क्यों न बन गए हों।
भगवान अपने भक्तों के अनंतानंत जन्मों के क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध सभी क्षण मात्र में नष्ट कर देते हैं।
लेकिन किसका?
जो उनकी शरण में चला गया।
शरण यानी भगवद प्राप्त हो जाना।
शुभाशुभ कर्मों से निवृत्त हो जाना।
भगवदप्राप्त सन्त बन जाना, माया से उत्तीर्ण हो जाना।
मन्दिर में जाना और थोड़ी देर के लिए भगवान के सामने नतमस्तक हो कर श्लोकों के माध्यम से यह कह देना कि भगवान मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ यह शरणागति नहीं है।
शरणागति का अर्थ है कुछ न करना।
मन बुद्धि सबका समर्पण।
उसका उपयोग ही नहीं करना।
वह स्थिति कब आयेगी?
जब पूर्ण समर्पण होगा भगवान के क्षेत्र में।
जब आनंद इतना मिलने लगेगा कि कुछ करना शेष नहीं रह जाएगा।
तब भगवान की कृपा से हमारे अनंतानंत जन्मों के शुभ अशुभ कर्म अर्थात पाप और पुण्य नष्ट हो जाते हैं, पंचक्लेश, त्रिदोष इत्यादि सब नष्ट हो जाते हैं।
|| जय श्री राम जय हनुमान ||
/////////जय श्री कृष्ण//////////
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
-: 25 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏








