https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 07/28/20

।। _*14 प्रकार की तुल्य मृत्यु*_ ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। _*14 प्रकार की तुल्य मृत्यु*_ ।।

*राम और रावण का युद्ध चल रहा था । 

तब अंगद रावण को बोला, तू तो मरा हुआ है । 

तुझे मारने से क्या फायदा ?* 

रावण बोला– मैं जीवित हूँ,  मरा हुआ कैसे ? 



अंगद बोले सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते - साँस तो लुहार का भाता भी लेता है । 
तब अंगद ने 14 प्रकार की मृत्यु बतलाई l

अंगद द्वारा रावण को बतलाई गई, ये बातें आज के दौर में भी लागू होती हैं ।

यदि किसी व्यक्ति में इन 14 दुर्गुणों में से एक दुर्गुण भी आ जाता है तो वह मृतक समान हो जाता है ।

विचार करें कहीं यह दुर्गुण हमारे पास तो नहीं हैं....!

कि हमें मृतक समान माना जाय ।

_*1.कामवश-*_  

जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है । 

जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है । 

वह अध्यात्म का सेवन नही करता है । 

सदैव वासना में लीन रहता है ।

_*2.वाम मार्गी-*_  

जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले । 

जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो । 

नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है । 

ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं ।

_*3.कंजूस-*_  

अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है । 

जो व्यक्ति धर्म के कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याण कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो । 
दान करने से बचता हो । 

ऐसा आदमी भी मृत समान ही है ।

_*4.अति दरिद्र-*_   

गरीबी सबसे बड़ा श्राप है । 

जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वो भी मृत ही है । 

अत्यन्त दरिद्र भी मरा हुआ है । 

दरिद्र व्यक्ति को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है । 

गरीब लोगों की मदद करनी चाहिए ।

_*5.विमूढ़-*_   

अत्यन्त मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ होता है । 

जिसके पास विवेक, बुद्धि नहीं हो । 

जो खुद निर्णय ना ले सके यानि हर काम को समझने या निर्णय  को लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृत के समान ही है । 

मूढ़  अध्यात्म को समझता नहीं है ।

_*6.अजसि-*_   

जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है । 

जो घर, परिवार, कुटुंब, समाज, नगर या राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता है, वह व्यक्ति मृत समान ही होता है ।

_*7.सदा रोगवश-*_  

जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है । 

स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है । 

नकारात्मकता हावी हो जाती है । 

व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है । 

जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है ।

_*8.अति बूढ़ा-*_  

अत्यन्त  वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है । 

शरीर और बुद्धि, दोनों असक्षम हो जाते हैं । 

ऐसे में कई बार स्वयं वह और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके ।

_*9.सतत क्रोधी-*_  

24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृत समान ही है । 

हर छोटी - बड़ी बात पर क्रोध करना, ऐसे लोगों का काम होता है । 

क्रोध के कारण मन और बुद्धि, दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं । 

जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता है । 

पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है । 

क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरक गामी होता है ।

_*10.अघ खानी-*_  

जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन - पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है । 

उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं । 

हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए । 

पाप की कमाई पाप में ही जाती है । 

और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है ।

_*11.तनु पोषक-*_  

ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना ना हो,  तो ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है । 

जो लोग खाने - पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकि किसी अन्य को मिले ना मिले, वे मृत समान होते हैं । 

ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं । 

शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है । 

क्योंकि यह शरीर विनाशी है ।  

नष्ट  होने  वाला है ।

_*12.निंदक-*_  

अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है । 

जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नज़र आती हैं । 

जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है । 

ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी ना किसी की बुराई ही करे, वह इंसान मृत समान होता है ।

परनिंदा करने से नीच गोत्र का बन्ध होता है । 

_*13.परमात्म विमुख-*_   

जो व्यक्ति परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है । 

जो व्यक्ति ये सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं । 

हम जो करते हैं, वही होता है । 

संसार हम ही चला रहे हैं । 

जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता है, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है ।

_*14. श्रुति , संत विरोधी-*_  

जो संत, ग्रंथ, पुराण का विरोधी है, वह  भी  मृत समान होता है । 

श्रुत और सन्त ब्रेक का काम करते हैं । 

अगर गाड़ी में ब्रेक ना हो तो वह कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है । 

वैसे ही समाज को सन्त के जैसे ब्रेक की जरूरत है । 

नहीं तो समाज में अनाचार फैलेगा ।

लंका काण्ड

*कौल  कामबस  कृपिन विमूढ़ा ।*
*अतिदरिद्र  अजसि   अतिबूढ़ा ।।*
*सदारोगबस       संतत     क्रोधी।*
*विष्णु विमूख श्रुति संत विरोधी।।*
*तनुपोषक     निंदक   अघखानी।*
*जिवत  सव  सम  चौदह  प्रानी।।*
🙏🏻🙏🏻जय श्री राम 🙏🏻🙏🏻जय श्री राम🙏🏻🙏🏻जय श्री राम🙏🏻🙏🏻
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्रीरामचरित्रमानस प्रर्वचन / जीवन का रहस्य ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।।  श्रीरामचरित्रमानस प्रर्वचन  / जीवन का रहस्य ।।

*🌷।। श्रीरामचरित्रमानस प्रर्वचन ।। 🌷*

सारे शास्त्रों की मान्यता है कि ईश्वर सर्वव्यापक है , सर्वत्र विद्यमान है । 



यद्यपि यह व्याख्या तत्त्वतः सत्य भले ही हो पर इससे व्यक्ति के अन्तःकरण की समस्याओं का समाधान नहीं होता है । 

यह प्रश्न गोस्वामीजी रामकथा के प्रारम्भ में करते हुए कहते हैं कि ―


*अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी।*

*सकल जीव जग दीन दुखारी।।* 


ऐसा ईश्वर जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में अविकारी के रूप में विद्यमान है , उसके रहते हुए भी व्यक्ति की दीनता और दरिद्रता में कोई अन्तर दिखायी नहीं देता है । 


इसका समाधान देते हुए गोस्वामीजी ने नाम - वन्दना प्रसंग में रत्न का दृष्टान्त दिया ।


 उन्होंने कहा कि केवल होना ही यथेष्ट नहीं है , अपितु उसे प्रकट करने से ही वह उपयोगी होगा ।


 तुलसीदासजी का वाक्य यही है कि ―


*सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें।* 


रत्न आपके पास हो या मार्ग में कहीं पड़ा हुआ मिल जाय पर अगर आपको यह लग रहा हो कि ' यह एक काँच का टुकड़ा है और उसे खिलौना या शोभा के रूप में रख लें , तो रत्न पास होने पर भी उसके द्वारा आप उपयुक्त सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं । 

इस लिये आवश्यकता इस बात की है कि कोई रत्न - पारखी जौहरी मिले जो यह बता सके कि यह काँच का टुकड़ा नहीं बल्कि कीमती रत्न है । 

तब आप उसका अन्तर देखेंगे । 

यद्यपि वही रत्न पहले भी था पर ज्ञान के अभाव में उस समय व्यक्ति को उसमें किसी विशेष प्रकार के आनन्द की अनुभूति नहीं हो रही थी और ज्ञान होते ही हमारे जीवन में प्रसन्नता परिलक्षित होने लगी ।

पर समस्या एक यह भी है कि ' क्या केवल ज्ञान से ही समाधान हो जायगा ? 

क्योंकि हो सकता है , उस रत्न का मूल्य लाखों में हो , पर यदि वह व्यक्ति भूखा है तो उसे यह सोचकर भूख  से छुटकारा नहीं मिलेगा कि ' इस रत्न का मूल्य लाख रुपये है । '

 रत्न पास होने पर भी ठण्ड लगने पर न तो उसके शीत का निवारण होगा , न भूख मिटेगी और न दरिद्रता ही मिटेगी ।

*******शेष कल********

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

🌺👏🌺जय सियाराम🌺👏🌺

।। जीवन का रहस्य ।।


यह संसार एक झूठ का बहुत बड़ा खेल है। 

इस संसार की सारी की सारी लीला हर मानव आत्मा को यहां फंसा कर रखने के उद्देश्य से रची गई है। 

कहीं यह मानव की आत्मा सच्चे परमात्मा की तरफ़ ना लग जाए। 

इस लिए यह शरीर के प्रलोभन बनाए गए हैं। 

ताकि मानव शरीर की आत्मा इन सभी बातों में फंसी रहे। 

क्योंकि सिर्फ मानव शरीर की आत्मा को परमात्मा से मिलने का , परमात्मा के द्वारा ही बनाया गया नियम है। 

यह ताकत या सुविधा देवताओं को भी नही है। 

हालांकि उनके पास मानव शरीर से ज्यादा उम्र और रिद्धि - सिद्धि होती हैं। 

चौरासी लाख योनियों में से निकल कर जब आत्मा मानव शरीर में आती है तो साथ में किसी जगह से इस के साथ मन जुड़ जाता है। 

इस मन का मानव शरीर में आने का सिर्फ एक ही उद्देश्य है और वह है आत्मा को परमात्मा की तरफ़ जाने से रोकना ताकि जीव कर्मों के चक्कर में हमेशा फंसा रहे। 

अब इन कर्मों के कारण हर मानव को अलग अलग कर्मो का सामना करना पड़ता है। 

उन कर्मों के कारण हर आदमी अलग अलग हालात को देखते हुए जीता है। 

घर में एक आत्मा को मानव शरीर मिलता है 



तो हम सभी यह सोचते हैं कि यह मेरा है परन्तु इस दुनिया में कोई भी हमारा नही होता है। 

वह आत्मा अपने कर्मो के कारण एक मानव शरीर धारण करके हमारे साथ घर में या नजदीक में जन्म लेती है। 

हम समझते हैं कि यह मेरा है। 

जबकि जीव अपने और हमारे कर्मो के कारण हम सभी के साथ जुड़ता है। 

यही रिश्ता मेरा मेरे माता-पिता, भाई बहन, जीवन साथी और बच्चों से होता है। 

हर जीव अपने कर्मो के अनुसार हमारे साथ रहता है। 

हम इस सफर में अपने मन की चाल बाज़ी के कारण इन सभी जीवों को अपने से जोड़ते जाते हैं। 

जबकि कोई भी सच्चा जोड़ होता नही है। 

अब इन सभी चीजों को हम अपना समझते जाते हैं और सच्चाई की बात यह है कि हम सभी एक - दूसरे से कर्मों के कारण मिलते हैं। 

कोई भी रिश्ता permanent नही है। 

यह सभी कुछ एक दिन हम से संपर्क तोड़ कर अपने अगले सफ़र पर चले जाते हैं।  

हम भी ऐसे ही जायेंगे। 

अब हम मानव जिस के साथ जुड़ते हैं उसको अपना मानते हैं। 

जब यह सम्बन्ध जो सच्चाई में कभी नहीं था परन्तु मैं उसको इस तरह देखते लगता हूं और जब यह सम्बन्ध किसी एक का सफ़र ख़त्म होने पर टूटता है तब मुझे अपना निजी नुकसान लगता है, परन्तु हर मानव अपना सफर पूरा करने के बाद यहां से चला जाता है। 

यह जो हमारी सोच है यह हमें सच्चाई को समझने नही देती है। 

उसके ऊपर मन एक बहुत बड़ी ताकत अन्दर बैठा है। 

सच्चे संत महात्मा हमें कभी यह नहीं कहते कि मेरे पीछे चलो। 

वे हमेशा यह कहते हैं भाई तेरा बहुत बड़ा नुक़सान हो रहा है। 

तू इस रंगमंच में फंसकर अपना बहुत ही ज्यादा कीमती समय गलत दिशा में लगा रहा है। 

यह संदेश संत हमें धीरे धीरे अपने सत्संग में बताते हैं, की भक्ति करनी है तो अपने शरीर के अंदर जाने का रास्ता किसी भी पूर्ण मुर्शिद से जा कर सीख और उस रास्ते पर तरक्की कर और अपने कर्मो को एक ऊंचे स्थान या मंडल पर पहुंच कर साफ़ कर तब तेरी जन्म और मृत्यु से जान छूटे गी। 

नही तो चौरासी लाख योनियों और नरक तैयार हैं भाई। 

यही बात Lord Jesus Christ ने बताई, पंजाब में से गुरुओं ने बताई, हिन्दू व मुस्लिम संत महात्माओं ने बताई परन्तु हम समझने के लिए तैयार नही है। 

हम तो उनके जाने के बाद उनकी शिक्षा को बाहर के रहने सहन से जोड़ कर अलग अलग धर्म पैदा करने लग जाते हैं। 

सच्चाई की शिक्षा भूल जाते हैं। 

गुरु अर्जुन देव जी महाराज जी पंजाब के संतों में पांचवें स्थान पर गुरु गद्दी पर बैठे थे। 

साफ़ साफ़ कहा है कि, लाख चौरासी योन बनाई, मानव को प्रभु ने दी बड़ाई। 

इस पौड़ी से जो नर चूकें, फिर आवें जावें दुःख पायेंगा।।  

बड़ाई मतलब इजाजत, आवें जावें मतलब चौरासी लाख योनियों में जन्म और मृत्यु का आना जाना।। 

परमात्मा की भक्ति में कोई खास लिबास नही चाहिए, सिर्फ मानव शरीर चाहिए, इच्छा चाहिए ( यह भी बहुत जरूरी है ) और पूर्ण मुर्शिद या सतगुरु चाहिए। 

जो कबीर साहब, गुरु नानक देव महाराज जी,  और सभी महात्माओं के बताये हुए रास्ते का रहस्य समझा सके। 

पंडित, मौलवी, पादरी और गुरुद्वारों के पाईं संतों की वाणी की व्याख्या नहीं कर सकते हैं जी।। 

जितनी मर्जी कथाएं या कहानियां सुन लो जी, कोई लाभ नही होगा जी। 

जब तक खुद नही पाया मुक्त्ति नही होगी जी।  

संत महात्मा ही सही राह बता सकते हैं जी।। आदर सहित।।  🙏जय मुरलीधर🙏जय गोपाला🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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।। गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

*।। गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर ।।*


राम चरित मानस के उत्तरकाण्ड में ज्ञान की बौछार है। उस ज्ञान की बौछार में से निम्न ज्ञानमयी बारिश की बौछार प्रश्नों उतरी के रूप में आप के समक्ष उपस्थित है।




सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है?
सबसे बड़ा दुःख कौन है ?
सबसे बड़ा सुख कौन है ?
संत और असंत का अन्तर क्या है ?
सबसे महान्‌ पुण्य कौन सा है ?
सबसे महान्‌ भयंकर पाप कौन है ?
मानस रोगों कौन कौन से है ?

पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। 
जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। 
सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥

भावार्थ:-पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। 
सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। 
सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥

भावार्थ:-हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए॥

संत असंत मरम तुम्ह जानहु। 
तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। 
कहहु कवन अघ परम कराला॥

भावार्थ:-संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान्‌ पुण्य कौन सा है और सबसे महान्‌ भयंकर पाप कौन है॥

मानस रोग कहहु समुझाई। 
तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। 
मैं संछेप कहउँ यह नीती॥

भावार्थ:-फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजी ने कहा) हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ॥

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। 
जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। 
ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥

भावार्थ:-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। 
होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। 
कर ते डारि परस मनि देहीं॥

भावार्थ:-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। 
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। 
संत सहज सुभाउ खगराया॥

भावार्थ:-जगत्‌ में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत्‌ में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥

संत सहहिं दुख पर हित लागी। 
पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। 
पर हित निति सह बिपति बिसाला॥

भावार्थ:-संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥

सन इव खल पर बंधन करई। 
खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। 
अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥

भावार्थ:-किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥

पर संपदा बिनासि नसाहीं। 
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। 
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥

भावार्थ:-वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है॥

संत उदय संतत सुखकारी। 
बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। 
पर निंदा सम अघ न गरीसा॥

भावार्थ:-और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥

हर गुर निंदक दादुर होई। 
जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। 
जग जनमइ बायस सरीर धरि॥

भावार्थ:-शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत्‌ में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। 
रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। 
मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥

भावार्थ:-जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥


सब कै निंदा जे जड़ करहीं। 
ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। 
जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥

भावार्थ:-जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। 
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। 
क्रोध पित्त नित छाती जारा॥

भावार्थ:-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। 
उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। 
ते सब सूल नाम को जाना॥

भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)॥

ममता दादु कंडु इरषाई।
हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। 
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥

भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥

अहंकार अति दुखद डमरुआ। 
दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। 
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥

भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। 
कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥

भावार्थ:-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥

भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥

भावार्थ:-नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। 
सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। 
हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥

भावार्थ:-इस प्रकार जगत्‌ में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥

जाने ते छीजहिं कछु पापी। 
नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। 
मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥

भावार्थ:-प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। 
जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। 
संजम यह न बिषय कै आसा॥

भावार्थ:-यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो ।।
।।।। जय श्री कृष्ण ।।। जय श्री कृष्ण ।।। जय श्री कृष्ण ।।।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 25 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। स्नान‘ और ‘नहाने’ में बहुत अंतर है। / संतोष कैसे मिलता है.... ? ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। स्नान‘ और ‘नहाने’ में बहुत अंतर है। /  संतोष कैसे मिलता है.... ? ।।


💢‘स्नान‘ और ‘नहाने’ में बहुत अंतर है।💢


क्या आप जानते हैं कि स्नान  और नहाने में क्या अन्तर है :-



एक बार देवी सत्यभामा ने  देवी रुक्मणि से पूछा कि दीदी  क्या आपको मालुम है कि श्री  कृष्ण जी बार बार द्रोपदी                     

से मिलने क्यो जाते है। 

कोई  

अपनी बहन के घर बार बार  मिलने थोड़ी ना जाता है, मुझे तो लगता है कुछ गड़बड़                      
है, ऐसा क्या है ?

जो बार बार द्रोपदी के घर  जाते है । 

तो देवी रुक्मणि ने  कहा :  बेकार की बातें मत  करो ये बहन भाई का पवित्र  सम्बन्ध है जाओ जाकर  अपना काम करो।

ठाकुर जी सब समझ ग्ए ।  

और कहीं जाने लगे तो देवी  सत्यभामा ने पूछा कि प्रभु  आप कहां जा रहे हो ठाकुर  जी ने कहा कि मैं द्रोपदी के  घर जा रहा हूं । 

अब तो  सत्यभामा जी और बेचैन हो  गई और तुरन्त देवी रुक्मणि  से बोली, 'देखो दीदी फिर  वही द्रोपदी के घर जा रहे हैं ‘। 

कृष्ण जी ने कहा कि क्या तुम  भी हमारे साथ चलोगी तो   सत्यभामा जी  फौरन  तैयार  हो गई और देवी रुक्मणि से बोली कि दीदी आप भी मेरे साथ चलो और द्रोपदी को ऐसा मज़ा चखा के आएंगे कि वो जीवन भर याद रखेगी। देवी रुक्मणि भी तैयार हो गई।

जब दोनों देवियां द्रोपदी के  घर पहुंची तो देखा कि द्रोपदी अपने केश संवार रही थी जब द्रोपदी केश संवार रही थी तो             

भगवान श्री कृष्ण ने पूछा :  द्रोपदी क्या कर रही हो तो  द्रोपदी बोली : 

भैया केश  संवार के अभी आई तो  भगवान बोले तुम काहे को केश संवार रही हो, तुम्हारी तो दो दो भाभी आई है ये तुम्हारे केश संवारेगी फिर कृष्ण जी  ने देवी सत्यभामा से कहा कि तुम जाओ और द्रोपदी के सिर  में तेल लगाओ और देवी  रूक्मिणी तुम जाकर द्रोपदी  की चोटी करो।

सत्याभाम जी ने रुक्मणि  जी से कहा बड़ा अच्छा मौका मिला है ऐसा तेल लगाऊंगी कि इसकी खोपड़ी के एक - एक बाल तोड़ के रख दूंगी। 

और जैसे ही सत्यभामा जी ने द्रोपदी के सिर में तेल लगाना शुरु किया और एक बाल को तोड़ा तो बाल तोड़ते ही आवाज आई : 

“हे  कृष्ण” फिर दूसरा बाल तोड़ा फिर आवाज आई  :

“हे कृष्ण” फिर तीसरा बाल तोड़ा तो फिर आवाज आई : “हे  कृष्ण

”सत्यभामा जी को समझ  नहीं आया और देवी रुक्मणि से पूछा, “दीदी आखिर ऐसी क्या बात है द्रोपदी के मस्तक से जो भी बाल तोड़ती हूं तो कृष्ण का नाम क्यों निकल कर आता है,”रुक्मणि जी बोली ,” मैं तो  नहीं जानती “, पीछे से भगवान बोले : 

”देवी सत्यभामा तुम देवी  रुक्मणि से पूछ रही थी कि मैं दौड़ – दौड़ कर इस  द्रोपदी के घर क्यो जाता हूं“, 

क्योंकि पूरे भूमण्डल पर, पूरी पृथ्वी पर कोई सन्त, कोई साधु, कोई संन्यासी, कोई तपस्वी, कोई साधक, कोई उपासक ऐसा नहीं हुआ जिसने एक दिन में साढ़े तीन करोड़ बार मेरा नाम लिया हो और द्रोपदी केवल ऐसी है जो एक दिन में साढ़े तीन करोड़ बार मेरा नाम लेती है।

प्रति दिन स्नान करती है इसलिए उसके हर रोम में  कृष्ण नजर आता है और  इसलिए मैं रोज इसके पास  आता हूं ।”

इसे कहते हैं ‘स्नान‘ जो देवी  द्रोपदी प्रतिदिन किया करती  थी ।

हम जो हर रोज साबुन, शैम्पू और तेल लगा कर अपने तन को स्वच्छ कर  लिया, इसको केवल‘ नहाना ‘कहा गया है ।

स्नान का मतलब है : हमारे  शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम छिद्र है जब नारायण से पूछा गया :  

ये साढ़े तीन करोड़ रोम छिद्र कर्मों के दिए गए हैं तो नारायण ने कहा :  

जब मनुष्य साढ़े तीन करोड़ बार भगवान का नाम ले लेता है तब जीवन में एक बार उसका स्नान हो पाता है “।

“इसको कहते हैं स्नान”

श्री कृष्ण का नाम तब तक जपते रहिए जब तक साढ़े तीन करोड़ बार भगवान का नाम ना जाप लें।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण। कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
हरे राम हरे राम । राम राम हरे हरे।। 🙌🏻
जय श्री श्याम जी 🙏🏻🙏🏻

।। संतोष कैसे मिलता है.... ? ।।


एक राजा का जन्मदिन था। 

सुबह जब वह घूमने निकला, तो उसने तय किया कि वह रास्ते मे मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा। 

रास्ते में उसे एक भिखारी मिला। 

भिखारी ने राजा से भीख मांगी तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया। 

सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा। 

भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा। 

राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया। 

भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा। 

राजा को लगा की भिखारी बहुत गरीब है, उसने भिखारी को चांदी का एक सिक्का दिया। 

भिखारी राजा की जय जयकार करता फिर नाली में सिक्का ढूंढ़ने लगा। 

राजा ने अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया।

भिखारी खुशी से झूम उठा और वापस भाग कर अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा। 

राजा को बहुत खराब लगा। 

उसे खुद से तय की गयी बात याद आ गयी कि पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं संतुष्ट करना है। 

उसने भिखारी को बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें अपना आधा राज - पाट देता हूं, अब तो खुश व संतुष्ट हो? 

भिखारी बोला, मैं खुश और संतुष्ट तभी हो सकूंगा जब नाली में गिरा तांबे का सिक्का मुझे मिल जायेगा।

*हमारा हाल भी उस भिखारी जैसा ही है। 

हमें भगवान ने आध्यात्मिकता रूपी अनमोल खजाना दिया है और हम उसे भूलकर संसार रूपी नाली में तांबे के सिक्के निकालने के लिए जीवन गंवाते जा रहे हैं।*
          *🙏जय श्री कृष्णा🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

🙏 “ सत्य " और फिर चुप हो गये , ज्यादा बोलना ही बंधन है...* 🙏

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🙏 ज्यादा बोलना ही बंधन है...* 🙏


एक राजा के घर एक राजकुमार ने जन्म लिया। 

राजकुमार स्वभाव से ही कम बोलते थे। 


राजकुमार जब युवा हुआ तब भी अपनी उसी आदत के साथ मौन ही रहता था। 

राजा अपने राजकुमार की चुप्पी से परेशान रहते थे कि आखिर ये बोलता क्यों नहीं है। 

राजा ने कई ज्योतिषियों,साधु - महात्माओं एवं चिकित्सकों को उन्हें दिखाया परन्तु कोई हल नहीं निकला। 

संतो ने कहा कि ऐसा लगता है पिछले जन्म में ये राजकुमार कोई साधु थे जिस वजह से इनके संस्कार इस जन्म में भी साधुओं के मौन व्रत जैसे हैं। 

राजा ऐसी बातों से संतुष्ट नहीं हुआ। 

एक दिन राजकुमार को राजा के मंत्री बगीचे में टहला रहे थे। 

उसी समय एक कौवा पेड़ की डाल पर बैठ कर काव - काव करने लगा। 

मंत्री ने सोचा कि कौवे कि आवाज से राजकुमार परेशान होंगे इस लिए मंत्री ने कौवे को तीर से मार दिया। 

तीर लगते ही कौवा जमीन पर गिर गया। 

तब राजकुमार कौवे के पास जा कर बोले कि यदि तुम नहीं बोले होते तो नहीं मारे जाते। 

इतना सुन कर मंत्री बड़ा खुश हुआ कि राजकुमार आज बोले हैं और तत्काल ही राजा के पास ये खबर पहुंचा दी। 

राजा भी बहुत खुश हुआ और मंत्री को खूब ढेर - सारा उपहार दिया। 

कई दिन बीत जाने के बाद भी राजकुमार चुप ही रहते थे। 

राजा को मंत्री कि बात पे संदेह हो गया और गुस्सा कर राजा ने मंत्री को फांसी पर लटकाने का हुक्म दिया। 

इतना सुन कर मंत्री दौड़ते हुए राज कुमार के पास आया और कहा कि उस दिन तो आप बोले थे परन्तु अब नहीं बोलते हैं। 

मैं तो कुछ देर में राजा के हुक्म से फांसी पर लटका दिया जाऊंगा। 

मंत्री की बात सुन कर राजकुमार बोले कि यदि तुम भी नहीं बोले होते तो आज तुम्हे भी फांसी का हुक्म नहीं होता। 

बोलना ही बंधन है। 

जब भी बोलो उचित और सत्य बोलो अन्यथा मौन रहो। 

जीवन में बहुत से विवाद का मुख्य कारण अत्यधिक बोलना ही है। 

एक चुप्पी हजारों कलह का नाश करती है। 

राजा छिप कर राजकुमार की ये बातें सुन रहा था,उसे भी इस बात का ज्ञान हुआ और राजकुमार को पुत्र रूप में प्राप्त कर गर्व भी हुआ। 

उसने मंत्री को फांसी मुक्त कर दिया।

🙏🌹🙏जय श्री कृष्ण🙏🌹🙏

।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।

*🌷श्री तुलसीकृत रामायण से🌷*
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

“ सत्य " और फिर चुप हो गये 


********कल से आगे*********

वर्णन आता है कि द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को धर्म के दश लक्षण बताये । 

फिर एक दिन उन्होंने कौरवों तथा पाण्डवों की परीक्षा लेने के लिये उनसे पूछा कि धर्म के दश लक्षण क्या - 

क्या हैं ? 

अधिकांश छात्रों ने याद किये गये वे दशों लक्षण सुना दिये । 

द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर की ओर देखा - 

तुम कैसे चुप हो ? 

तुम भी बताओ । 

उन्होंने कहा- “ सत्य " और फिर चुप हो गये । 

सब उपस्थित विद्यार्थी हँसने लगे कि ये तो सबसे बड़े हैं पर लगता है कि सबसे बड़े फिसड्डी भी यही हैं । 

दश में से केवल एक ही याद रहा , शेष सब भूल गये । 

चुप देखकर द्रोणाचार्यजी ने कहा कि यह ठीक है कि दश लक्षणों में से एक ' सत्य ' भी है पर आगे के शेष लक्षण भी तो बताओ ! 

किन्तु वे बार - बार सत्य कहकर चुप हो जाते । 

अन्त में द्रोणाचार्यजी ने पूछा कि क्या आगे के लक्षण तुम्हें याद नहीं हैं ? 

युधिष्ठिर ने कहा- 

“ गुरुदेव ! 

अभी तो इस प्रथम शब्द ' सत्य ' के ही लक्षण को जीवन में उतारने की चेष्टा कर रहा हूँ , आगे नौ कौन - कौन से हैं , इसके बारे में बाद में विचार करूँगा । " 

ठीक इसी प्रकार एक ही शब्द ' राम ' की आवृत्ति की जो बात रामचरितमानस में कही गयी , उसका संकेत भी यही है । 

         भगवान् शंकर से कहा गया कि आप सौ करोड़ रामायण का बँटवारा कर दीजिये । 

भगवान् शंकर ने कार्य सम्पन्न कर दिया । 

उनसे पूछा गया कि इस बँटवारे के बदले में आप क्या लेंगे ? 


उन्होंने कहा कि बस एक ' राम ' शब्द हमें दीजिये और पूरी रामायण आप लोग ले लीजिये―

*ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।*
*रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियें जानि।।*

  ' राम ' का अर्थ रामायण भी है । 

क्योंकि भगवान राम के चरित की घटनाएँ ही तो में हैं । 

भगवान राम के गुणों का ही तो वर्णन रामायण में है । 

किन्तु राम शब्द को बार - बार दुहराने के पीछे क्या संकेत है , 

इस पर जरा विचार कीजिये ।

*******शेष कल**********
🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
🍿👏🍿जय राम राम सियाराम🍿👏🍿
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।। करवा चौथ की पूजन और कथा / में कौन हूं.... ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। करवा चौथ की पूजन और कथा / में कौन हूं....  ।।


।। श्री विष्णुपुराण प्रवचन ।।

*इन चीजों के बिना अधूरी है करवा चौथ की पूजन और कथा

करवा चौथ


करवा चौथ दो शब्दों से मिलकर बना है,'करवा' यानि कि मिट्टी का बर्तन व 'चौथ' यानि गणेशजी की प्रिय तिथि चतुर्थी। 



प्रेम,त्याग व विश्वास के इस अनोखे महापर्व पर मिट्टी के बर्तन यानि करवे की पूजा का विशेष महत्व है,जिससे रात्रि में चंद्रदेव को जल अर्पण किया जाता है ।

करवा चौथ'.... 

ये एक ऐसा दिन है जिसका सभी विवाहित स्त्रियां साल भर इंतजार करती हैं और इसकी सभी विधियों को बड़े श्रद्धा-भाव से पूरा करती हैं. करवाचौथ का त्योहार पति-पत्नी के मजबूत रिश्ते, प्यार और विश्वास का प्रतीक है. ( आश्विन ) कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत किया जाता है ।

( आश्विन ) कार्तिक मास की चतुर्थी जिस रात रहती है उसी दिन करवा चौथ का व्रत किया जाता है। 

करवा चौथ के त्‍योहार में पूजापाठ की बहुत ही अहम भूमिका होती है। 

महिलाएं सारे दिन निर्जला व्रत रखकर शाम को समूह में पूजा करती हैं। 

करवा चौथ की पूजा सामान्‍य तौर पर अकेले नहीं की जाती है। 

हालांकि आज के दौर में कई बार महिलाएं परिवार से दूर रहती हैं तो उन्‍हें अकेले ही पूजा करनी पड़ती है।

 ऐसे में यदि पति भी पूजा में पत्‍नी के साथ शामिल हों तो यह बहुत ही अच्‍छा माना जाता है और दोनों के रिश्‍ते में भी मजबूती आती है। 

करवाचौथ की पूजा में इन चीजों का बहुत महत्‍व होता है। 

आइए जानते हैं इनके बारे में…

१ ) : - सींक: मां करवा की शक्ति का प्रतीक

करवाचौथ के व्रत की पूजा में कथा सुनते समय और पूजा करते समय सींक जरूर रखें। 

ये सींक मां करवा की उस शक्ति का प्रतीक हैं, जिसके बल पर उन्होंने यमराज के सहयोगी भगवान चित्रगुप्त के खाते के पन्नों को उड़ा दिया था।

( २ ) : - करवा का महत्‍व

माता का नाम करवा था। 

साथ ही यह करवा उस नदी का प्रतीक है, जिसमें मां करवा के पति का पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। 

आज कल बाजार में पूजा के लिए आपको बेहर खूबसूरत करवे मिल जाते हैं।

( ३ ) : - करवा माता की तस्वीर

करवा माता की तस्वीर अन्य देवियों की तुलना में बहुत अलग होती है। 

इनकी तस्वीर में ही भारतीय पुरातन संस्कृति और जीवन की झलक मिलती है।

 चंद्रमा और सूरज की उपस्थिति उनके महत्व का वर्णन करती है।

( ४ ) : - दीपक के बिना पूजा नहीं होती पूरी

हिंदू धर्म में कोई भी पूजा दीपक के बिना पूरी नहीं होती। 

इस लिए भी दीपक जरूरी है क्योंकि यह हमारे ध्यान को केंद्रित कर एकाग्रता बढ़ाता है।

साथ ही इस पूजा में दीपक की लौ, जीवन ज्योति का प्रतीक होती है।

( ५ ) : - छलनी है पति को देखने को लिए

व्रत की पूजा के बाद महिलाएं छलनी से अपने पति का चेहरा देखती हैं। 

इसका कारण करवा चौथ में सुनाई जानेवाली वीरवती की कथा से जुड़ा है। 

जैसे, अपनी बहन के प्रेम में वीरवती के भाइयों ने छलनी से चांद का प्रतिविंब बनाया था और उसके पति के जीवन पर संकट आ गया था, वैसे कभी कोई हमें छल न सके।

( ६ ) : - लोटे का यह है अर्थ

चंद्रदेव को अर्घ्य देने के लिए जरूरी होता है लोटा। 

पूजा के दौरान लोटे में जल भरकर रखते हैं।

यह जल चंद्रमा को हमारे भाव समर्पित करने का एक माध्यम है। 

वैसे भी हर पूजा में कलश को गणेशजी के रूप में स्‍थापित किया जाता है।

( ७ ) : - थाली है शुभ

पूजा की सामग्री, दीये, फल और जल से भरा लोटा रखने के लिए जरूरी होती है एक थाली की।

 इसी में दीपक रखकर मां करवा की आरती उतारते हैं। 

सच्चे मन से माता से आशीर्वाद मांगें।

करवा चौथ व्रत के नियम

महिलाएं सुबह सूर्योदय के बाद  पूरे दिन भूखी-प्यासी रहती हैं. दिन में शिव, पार्वती और कार्तिक की पूजा की जाती है ।

शाम को देवी की पूजा होती है ।

जिसमें पति की लंबी उम्र की कामना की जाती है ।

चंद्रमा दिखने पर महिलाएं छलनी से पति और चंद्रमा की छवि देखती हैं. पति इसके बाद पत्नी को पानी पिलाकर व्रत तुड़वाते हैं।

करवा चौथ में सोलह श्रृंगार

इस दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं। 

सोलह श्रृंगार में माथे पर लंबी सिंदूर अवश्य हो क्योंकि यह पति की लंबी उम्र का प्रतीक है। 

सिन्दूर,मंगलसूत्र, मांग टीका, बिंदिया ,काजल, नथनी, कर्णफूल, मेहंदी, कंगन, लाल रंग की चुनरी, बिछिया, पायल, कमरबंद, अंगूठी, बाजूबंद और गजरा ये 16 श्रृंगार में आते हैं।

करवा चौथ व्रत विधि

व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें-
 
"मम सुख सौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।''

* दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। 

इसे वर कहते हैं। 

चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। 

* आठ पूरियों की अठावरी बनाएं। 

हलुआ बनाएं। 

पक्के पकवान बनाएं। 

* पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। 

* गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। 

चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। 

गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। 

बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। 

* जल से भरा हुआ लोटा रखें। 

* वायना ( भेंट ) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। 

करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। 

उसके ऊपर दक्षिणा रखें। 

* रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। 

* गौरी - गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। 
पति की दीर्घायु की कामना करें। 

"नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। 
प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥'

* करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। 

* कथा सुनने के बाद अपनी सासुजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। 

* तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। 

* रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें। 

* इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। 

उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। 

बाकी व्रत रखने की सबकी आपनी-अपनी 
परम्परायें और विधि है ।

आप अपनी कुल परम्परा के अनुसार पूजा करें I 

जब चंद्र को अर्घ्य दें तो यह मंत्र बोलें.... 

"करकं क्षीरसंपूर्णा तोयपूर्णमयापि वा। 
ददामि रत्नसंयुक्तं चिरंजीवतु मे पतिः॥"
 
।। ॐ_सोम_सोमाय_नम:॥"

करवा चौथ व्रत कथा

बहुत समय पहले इन्द्रप्रस्थपुर के एक शहर में वेदशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। 

वेदशर्मा का विवाह लीलावती से हुआ था जिससे उसके सात महान पुत्र और वीरावती नाम की एक गुणवान पुत्री थी। 

क्योंकि सात भाईयों की वीरावती केवल एक अकेली बहन थी जिसके कारण वह अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने भाईयों की भी लाड़ली थी।

जब वह विवाह के लायक हो गयी तब उसकी शादी एक उचित ब्राह्मण युवक से हुई। 

शादी के बाद वीरावती जब अपने माता-पिता के यहाँ थी तब उसने अपनी भाभियों के साथ पति की लम्बी आयु के लिए करवा चौथ का व्रत रखा। 

करवा चौथ के व्रत के दौरान वीरावती को भूख सहन नहीं हुई और कमजोरी के कारण वह मूर्छित होकर जमीन पर गिर गई।

सभी भाईयों से उनकी प्यारी बहन की दयनीय स्थिति सहन नहीं हो पा रही थी। 

वे जानते थे वीरावती जो कि एक पतिव्रता नारी है चन्द्रमा के दर्शन किये बिना भोजन ग्रहण नहीं करेगी चाहे उसके प्राण ही क्यों ना निकल जायें। 

सभी भाईयों ने मिलकर एक योजना बनाई जिससे उनकी बहन भोजन ग्रहण कर ले। 

उनमें से एक भाई कुछ दूर वट के वृक्ष पर हाथ में छलनी और दीपक लेकर चढ़ गया। 

जब वीरावती मूर्छित अवस्था से जागी तो उसके बाकी सभी भाईयों ने उससे कहा कि चन्द्रोदय हो गया है और उसे छत पर चन्द्रमा के दर्शन कराने ले आये। 

वीरावती ने कुछ दूर वट के वृक्ष पर छलनी के पीछे दीपक को देख विश्वास कर लिया कि चन्द्रमा वृक्ष के पीछे निकल आया है। 

अपनी भूख से व्याकुल वीरावती ने शीघ्र ही दीपक को चन्द्रमा समझ अर्घ अर्पण कर अपने व्रत को तोड़ा। 

वीरावती ने जब भोजन करना प्रारम्भ किया तो उसे अशुभ संकेत मिलने लगे। 

पहले कौर में उसे बाल मिला, दुसरें में उसे छींक आई और तीसरे कौर में उसे अपने ससुराल वालों से निमंत्रण मिला। 

पहली बार अपने ससुराल पहुँचने के बाद उसने अपने पति के मृत शरीर को पाया।

अपने पति के मृत शरीर को देखकर वीरावती रोने लगी और करवा चौथ के व्रत के दौरान अपनी किसी भूल के लिए खुद को दोषी ठहराने लगी। 

वह विलाप करने लगी। 

उसका विलाप सुनकर देवी इन्द्राणी जो कि इन्द्र देवता की पत्नी है ।

वीरावती को सान्त्वना देने के लिए पहुँची।

वीरावती ने देवी इन्द्राणी से पूछा कि करवा चौथ के दिन ही उसके पति की मृत्यु क्यों हुई ।

और अपने पति को जीवित करने की वह देवी इन्द्राणी से विनती करने लगी। 

वीरावती का दुःख देखकर देवी इन्द्राणी ने उससे कहा कि उसने चन्द्रमा को अर्घ अर्पण किये बिना ही व्रत को तोड़ा था ।

जिसके कारण उसके पति की असामयिक मृत्यु हो गई। 

देवी इन्द्राणी ने वीरावती को करवा चौथ के व्रत के साथ - साथ पूरे साल में हर माह की चौथ को व्रत करने की सलाह दी ।

और उसे आश्वासित किया कि ऐसा करने से उसका पति जीवित लौट आएगा।

इसके बाद वीरावती सभी धार्मिक कृत्यों और मासिक उपवास को पूरे विश्वास के साथ करती। 

अन्त में उन सभी व्रतों से मिले पुण्य के कारण वीरावती को उसका पति पुनः प्राप्त हो गया।
🙏🌹जय माँ अंबे 🌹🙏

।।  मैं कौन हूँ... ।।

एक था भिखारी ! 

रेल सफ़र में भीख़ माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। 

उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख़ माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। 

वह उस सेठ से भीख़ माँगने लगा।

भिख़ारी को देखकर उस सेठ ने कहा.....! 

“ तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो? ”

भिख़ारी बोला, “ साहब मैं तो भिख़ारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ? ”

सेठ:- जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। 

मैं एक व्यापारी हूँ और लेन - देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ।

तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।

इधर भिख़ारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। 

सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। 

वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसी लिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। 

लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ।

लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा।

बहुत सोचने के बाद भिख़ारी ने निर्णय किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले मे वह भी उस व्यक्ति को कुछ जरूर देगा। 

लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिख़ारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है?

इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला।

दूसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस - पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख़ के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ। 

उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए।

वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। 

उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। 

अब भिख़ारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था।

कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। 

वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। 

जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। 

लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब रोज ऐसा ही चलता रहा।

एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी।

वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।

सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिख़ारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। 

उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।

सेठ:- वाह क्या बात है..? 

आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया।

लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह बार - बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। 

उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है।

वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, “मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ..!

मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ..! 

मैं भी अमीर बन सकता हूँ!

लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिख़ारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिख़ारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा।

एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। 

दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा....! 

“ क्या आपने मुझे पहचाना?”

सेठ:- “नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं।

भिखारी:- सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं।

सेठ:- मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे?


अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला:

हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे, मैं वही भिख़ारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ।

नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।

आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था...! 

जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं। 

लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिख़ारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। 

अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ।

भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा -

सोऽहं 
शिवोहम !!

समझ की ही तो बात है...
भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा | 

उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया |
जिस दिन हम समझ लेंगे कि मैं कौन हूँ...

अर्थात मैं भगवान का अंश हूॅ।

फिर जानने समझने को रह ही क्या जाएगा ? 

जयहिंद जयगुरूदेव ।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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