https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: एक लोटा पानी
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एक लोटा पानी ,विज्ञान का महाज्ञाता ।

श्रीहरिः

एक लोटा पानी। 

शत्रुताको मारो, शत्रुको नहीं...!

(१)

श्यामगढ़का राजा श्यामसिंह चाहता था — नामवरी; परंतु कीर्तिकारी गुण उसमें नहीं थे। 

रामगढ़का राजा रामसिंह था गुणवान्, उसका नाम देशके कोने - कोनेमें फैलने लगा। 

श्यामसिंहको ईर्ष्या हुई। 

उसने अकारण रामसिंहपर चढ़ाई कर दी।




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रामसिंहने विचार किया—‘यदि मैं सामना करता हूँ तो बेकार हजारों आदमी मारे जायँगे। 

उनके बच्चे अनाथ हो जायँगे। उनकी स्त्रियाँ मुझे शाप देंगी। युद्ध नाना व्याधियोंकी जड़ है।’ 

रामसिंह रातको महलसे निकल गया और एक पहाड़की गुफामें जा बैठा। 

श्यामसिंहने बिना मार - काटके महलपर अधिकार कर लिया।

प्रात: गद्दीपर बैठकर श्यामसिंहने दरबार किया और यह घोषणा की — 

‘जो कोई रामसिंहको पकड़ लायेगा, उसे एक लाख रुपया इनाम दिया जायगा।’


(२)

जिस जंगलमें राजा रामसिंह छिपे थे, वहाँ दो भाई लकड़ी काटने गये। 

वे लोग लकड़ी बेचकर ही जीवन-निर्वाह किया करते थे। 

बड़े भाईका नाम था जंगली, छोटेका नाम था मंगली। जाति चमार। 

अत्यन्त गरीब। 

घरमें दोनोंकी औरतें थीं। एक - एक बच्चा भी। 

कठिन कलेसमें जान थी। 

जिस गुफामें राजा साहब छिपे बैठे थे, उसीके पासवाले वृक्षपर वे दोनों भाई लकड़ी काटने लगे।


मंगली बोला — ‘धत् तेरी तकदीरकी! कहीं अभागा रामसिंह ही मिल जाता तो पकड़ ले जाता। 

एक लाख मिलते। 

एक लाख मिलते तो सात पुस्तका दलिद्दर दूर हो जाता।’


बड़ा भाई जंगली बोला — ‘क्या बकता है? 

ऐसे दयावान्, धरमवान् और मिहरवान् राजाके लिये तेरे ऐसे कमीने विचार? 

लानत है। 

तुझे देखकर नरक भी नाक सिकोड़ेगा।’

मंगलीने कहा — ‘मिल जाता अभागा तो मैं तो ले जाता। 

आखिर कोई तो ले ही जायगा। 


मैं ही क्यों न इनाम मारूँ?’

जंगलीने उत्तर दिया — ‘अगर हमारा राजा हमें मिल भी जाय तो भी हम उन्हें वहाँ न ले जायँ। 

रुपया कितने दिन चलेगा? 

लेकिन हमारी बदनामी एक अमर कहानी बन जायगी। 

राम राम! 

ऐसी बात सोचना भी पाप है। 

न मालूम श्यामसिंह क्या बरताव उनके साथ करे ? 

मार ही डाले तो?’


मंगली — कल मरता हो तो आज मर जाय। 

मेरे लिये उसने क्या किया ? 

श्यामसिंह उसे पातालसे खोज निकालेगा। 

तुम्हारे छोड़ देनेसे वह बच नहीं जायगा। 

मुझीको मिल जाता — फूटी तकदीरवाला! मार देता एक लाखका मैदान! टूट जाती गलेकी फाँसी!

जंगली — नहीं - नहीं! 

राम राम! 

शिव शिव! भगवान् उनकी रक्षा करें। 

वे फिर हमारे राजा होंगे।


(३)

यह बातचीत सुनकर राजा रामसिंह गुफासे बाहर निकलकर उस पेड़के पास चले आये। 

उनको देखकर दोनों भाई अचकचा गये।

राजा — मुझे ले चलो।

जंगली — नहीं महाराज! यह लड़का पागल है। 

इसकी बातोंपर कान मत दीजिये।


राजा — अगर मेरी जानके द्वारा किसीकी भलाई हो जाय तो क्या हर्ज है ? 

पर उपकार सरिस नहिं धर्मा! मुझे ले चलो।

मंगली गुमसुम खड़ा राजाको देखने लगा।

जंगली — हम अपनी जान देकर आपकी आन बचायेंगे महाराज!


राजा — अच्छा तो मैं खुद ही श्यामसिंहके पास जाता हूँ। 

कह दूँगा कि इस लकड़हारेने मुझे गुफामें छिपा दिया था।

जंगली हँसा। 

बोला — ‘यह काम भी आप न कर सकेंगे राजा साहब! जो दूसरे की भलाई किया करता है, उससे दूसरेकी बुराई हो ही नहीं सकती।’


बातचीत सुनकर चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे। 

उन्होंने राजाको पहचान लिया और पकड़ लिया। 

जंगली भी रोता हुआ पीछे - पीछे चला। 

लकड़ी लेकर मंगली घर चला गया। 

मंगलीने मनमें कहा — ‘धत् तेरी तकदीरकी। 

जालमें आकर चिड़िया उड़ गयी।’


(४)

श्यामसिंह — शाबाश! 

तुम लोग पकड़ लाये! 

किसने पकड़ा?

एक बोला — मैंने।

दूसरा बोला—मैंने।

तीसरा बोला—मैंने।

चौथा बोला—मैंने।

श्यामसिंह—सच कहो किसने पकड़ा?

चारों—सच कहते हैं, हमने।


रामसिंह—आप बिलकुल सच बात जानना चाहते हैं?

श्यामसिंह—जी हाँ!

रामसिंह—मुझे इन चारोंमेंसे किसीने नहीं पकड़ा।

श्यामसिंह—फिर किसने पकड़ा?

रामसिंह—वह जो कोनेमें कुल्हाड़ी लिये लकड़हारा खड़ा है, उसने पकड़ा है। 

उसे इनामका एक लाख दीजिये।


श्यामसिंहने इशारेसे जंगलीको अपने पास बुलाया।

श्यामसिंह — सच कहो। मामला क्या है?

जंगलीने आरम्भसे अन्ततक सारा किस्सा सच्चा बयान कर दिया।

श्यामसिंहने कहा—‘इन चारोंपर सौ-सौ जूते फटकार कर दरबारसे बाहर निकाल दिया जाय।’

सिपाही लोग झपटे। 

चारोंको मार-पीटकर बाहर कर दिया। एक लाख रुपये देकर जंगलीको भी विदा कर दिया गया।


(५)

श्यामसिंहने गद्दीपरसे कूदकर रामसिंहको छातीसे लगा लिया। 

फिर बोले —‘जैसा सुना था, वैसे ही आप निकले। 

परोपकारके लिये अपनी जान भी खतरेमें डाल दी! मैं सात जन्म भी आपकी चरणरजकी समानता नहीं कर सकता। 

अपना राज्य कीजिये, अपना महल लीजिये और खजाना सँभालिये। 

मैंने आपकी परीक्षा कर ली। 

आप नामवरीके योग्य हैं।’


तीन दिन मिहमानी खाकर राजा श्यामसिंह अपनी सेना लेकर अपने देशको चला गया।

गद्दीपर बैठकर राजा रामसिंहने दरबारमें कहा — ‘अपने शत्रुको मत मारो। 

उसमें भी जीवात्मा है। 

किसी उपायसे शत्रुताको मार डालो। 

बस, शत्रुको मानो जीत लिया।’

विज्ञान का महाज्ञाता था रावण :

एक समय राजा रावण अश्विनी कुमारों से औषधियों के सम्बन्ध में कुछ विचार विनिमय कर रहे थे।  

वार्ता करते करते रावण का ह्रदय अशांत हो गया।  

रावण ने कहा कि हे मंत्रियों! 

मैं भयंकर वन में किसी महापुरूष के दर्शन के लिए जा रहा हूँ। 

उन्होंने कहा कि प्रभु! 

जैसी आप की इच्छा, क्योंकि आप स्वतन्त्र हैं।  

आप जाइये भ्रमण कीजिये।


राजा रावण मंत्रियों के परामर्श से भ्रमण करते हुए महर्षि शांडिल्य के आश्रम में प्रविष्ट हो गए।  

ऋषि ने पूछा कि कहो, तुम्हारा राष्ट्र कुशल है।  

रावण ने कहा कि प्रभो! आप की महिमा है। 

ऋषि ने कहा कि बहुत सुन्दर, हमने श्रवण किया है कि तुम्हारे राष्ट्र में नाना प्रकार की अनुसन्धान शालाएं हैं।  

रावण ने कहा कि प्रभु! 

यह सब तो ईश्वर की अनुकम्पा है।  

राष्ट्र को ऊँचा बनाना महान पुरुषों व बुद्धिमानो का कार्य होता है, मेरे द्वारा क्या है? 

वहां से भ्रमण करते हुए कुक्कुट मुनि के आश्रम में राजा रावण प्रविष्ट हो गये।  

दोनों का आचार-विचार के ऊपर विचार-विनिमय होने लगा।  

आत्मा के सम्बन्ध में नाना प्रकार की वार्ताएं प्रारम्भ हुईं तो रावण का ह्रदय और मतिष्क दोनों ही सांत्वना को प्राप्त हो गए।  

राजा रावण ने निवेदन किया कि प्रभु! 

मेरी इच्छा है कि आप मेरी लंका का भ्रमण करें।  

उन्होंने कहा कि हे रावण मुझे समय आज्ञा नहीं दे रहा है जो आज मैं तुम्हारी लंका का भ्रमण करूँ।  

मुझे तो परमात्मा के चिंतन से ही समय नहीं होता।  

राजा रावण ने नम्र निवेदन किया, चरणों को स्पर्श किया।  

ऋषि का ह्रदय तो प्रायः उदार होता है।  

उन्होंने कहा कि बहुत सुन्दर, मैं तुम्हारे यहाँ अवश्य भ्रमण करूँगा।  

दोनों महापुरुषों ने वहां से प्रस्थान किया।


राजा रावण नाना प्रकार की शालाओं का दर्शन कराते हुए अंत में अपने पुत्र नारायंतक के द्वार पर जा पहुंचे जो नित्यप्रति चन्द्रमा की यात्रा करते थे और ऋषि से बोले कि भगवन! 

मेरे पुत्र नारायंतक चंद्रयान बनाते हैं।  

महर्षि ने कहा कि कहो आप कितने समय में चन्द्रमा की यात्रा कर लेते हैं।  

उन्होंने कहा कि भगवन! एक रात्रि और एक दिवस में मेरा यान चन्द्रमा तक चला जाता है और इतने ही समय में पृथ्वी पर वापस आ जाता है।  

इसको चंद्रयान कहते हैं , कृतक यान भी कहा जाता है।  मेरे यहाँ भगवन ! 

ऐसा भी यंत्र है जो यान जब पृथ्वी की परिक्रमा करता है तो स्वतः ही उसका चित्रण आ जाता है।  

मेरे यहाँ 'सोमभावकीव किरकिट' नाम के यंत्र हैं।


वहां से प्रस्थान करके राजा रावण चिकित्सालय में जा पहुंचे जहाँ अश्विनीकुमार जैसे वैद्यराज रहते थे।  

ऐसे ऐसे वैद्यराज थे जो माता के गर्भ में जो जरायुज है और माता के रक्त न होने पर, बल न होने पर छः -छः माह तक जरायुज को स्थिर कर देते थे।  

किरकिटाअनाद, सेलखंडा, प्राणनी  व अमेतकेतु आदि नाना औषधिओं का पात बनाया जाता था।

तो ऐसी चिकित्सा रावण के राष्ट्र में होती थी।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

जय श्री राधे .......!


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