https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2948214362517194
https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2948214362517194 लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2948214362517194 लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा , चंदन तिलक का महत्त्व‼️

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथाचंदन  , तिलक का महत्त्व‼️


श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा

हमारे सनातन हिन्दू  हनुमान जी की पत्नी के साथ दुर्लभ कथा दिया जाता है ।

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं।



आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में खास है। 

यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।

हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आए हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और वाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। 

लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है। 

इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का।

यह मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। 

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। 

पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।

कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा। 

दरअसल हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।

हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 

सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता 

और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। 

लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।

कुल 9 तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।

हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। 

इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वह धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे।

ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी। 

और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। 

लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहां से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे।

सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। 

इसके बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।

इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।

पाराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की – 

यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ।
🙏जय श्री बालाजी की🙏👇

॥॥सबसे बड़ा तीर्थ॥॥ 

एक बार एक चोर जब मरने लगा तो उसने अपने बेटे को बुलाकर एक नसीहत दी:-

” अगर तुझे चोरी करनी है तो किसी गुरुद्वारा, धर्मशाला या किसी धार्मिक स्थान में मत जाना बल्कि इनसे दूर ही रहना और दूसरी बात अगर कभी पकड़े जाओ।

तो यह मत स्वीकार करना कि तुमने चोरी की है।

चाहे कितनी भी सख्त मार पड़े”

चोर के लड़के ने कहा:- 

“सत्य वचन” 

इतना कहकर वह चोर मर गया और उसका लड़का रोज रात को चोरी करता रहा।

एक बार उस लड़के ने चोरी करने के लिए किसी घर के ताले तोड़े, लेकिन घर वाले जाग गए और उन्होंने शोर मचा दिया आगे पहरेदार खड़े थे उन्होंने कहा:- 

“आने दो, बच कर कहां जाएगा”? 

एक तरफ घरवाले खड़े थे और दूसरी तरफ पहरेदार
अब चोर जाए भी तो किधर जाए वह किसी तरह बच कर वहां से निकल गया रास्ते में एक धर्मशाला पड़ती थी धर्मशाला को देखकर उसको अपने बाप की सलाह याद आ गई कि धर्मशाला में नहीं जाना।

लेकिन वह अब करे भी तो क्या करे ? 

उसने यह सही मौका देख कर वह धर्मशाला में चला गया जहाँ सत्संग हो रहा था।

वह बाप का आज्ञाकारी बेटा था।

इस लिए उसने अपने कानों में उंगली डाल ली जिससे सत्संग के वचन उसके कानों में ना पड़ जाए।

लेकिन आखिरकार मन अडियल घोड़ा होता है।

इसे जिधर से मोड़ो यह उधर नही जाता है कानों को बंद कर लेने के बाद भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इस से मुझे क्या लेना देना घर वाले और पहरेदार पीछे लगे हुए थे।

किसी ने बताया कि चोर, धर्मशाला में है।

जांच पड़ताल होने पर वह चोर पकड़ा गया.

सिपाही ने चोर को बहुत मारा लेकिन उसने अपना अपराध कबूल नहीं किया।

उस समय यह नियम था कि जब तक मुजरिम, अपराध ने स्वीकार कर ले तो सजा नहीं दी जा सकती.

उसे राजा के सामने पेश किया गया वहां भी खूब मार पड़ी, लेकिन चोर ने वहां भी अपना अपराध नहीं माना वह चोर देवी की पूजा करता था।

इस लिए सिपाही ने एक ठगिनी को सहायता के लिए बुलाया ठगिनी ने कहा कि मैं इसको मना लूंगी उसने देवी का रूप भर कर दो नकली बांहें लगाई, चारों हाथों में चार मशाल जलाई और नकली शेर की सवारी की।

क्योंकि वह सिपाही के साथ मिली हुई थी इस लिए जब वह आई तो उसके कहने पर जेल के दरवाजे कड़क कड़क कर खुल गए जब कोई आदमी किसी मुसीबत में फंस जाता है तो अक्सर अपने इष्ट देव को याद करता है।

इस लिए चोर भी देवी की याद में बैठा हुआ था कि अचानक दरवाजा खुल गया और अंधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई.

देवी ने खास अंदाज में कहा:-

” देख भक्त! तूने मुझे याद किया और मैं आ गई| 

तूने बड़ा अच्छा किया कि तुमने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया अगर तू ने चोरी की है तो मुझे सच - सच बता दे मुझसे कुछ भी मत छुपाना| 

मैं तुम्हें फौरन आजाद करवा दूंगी..

चोर, देवी का भक्त था अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ और मन में सोचने लगा कि मैं देवी को सब सच सच बता दूंगा वह बताने को तैयार ही हुआ था।

कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ गई उसको फौरन सत्संग का वचन याद आ गया।

कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उसने देखा कि इसकी तो परछाई है।

वह समझ गया कि यह देवी नहीं बल्कि मेरे साथ कोई धोखा है।

वह सच कहते कहते रुक गया और बोला:-

“ मां! मैंने चोरी नहीं की अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता।

जेल के कमरे के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत नोट कर रहे थे।

उनको और ठगिनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है.

अगले दिन उन्होंने राजा से कह दिया कि यह चोर नहीं है।

राजा ने उस को आजाद कर दिया जब चोर आजाद हो गया तो सोचने लगा कि सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया हूं।

अगर मैं अपनी सारी जिंदगी सत्संग सुनने में लगाऊं तो मेरा तो जीवन ही बदल जाएगा।

अब वह प्रतिदिन सत्संग में जाने लगा और चोरी का धंधा छोड़ कर महात्मा बन गया.

 शिक्षा:- 

कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है.

         !!!!! शुभमस्तु !!!

=================

चंदन तिलक का महत्त्व


हमारे धर्मं में चन्दन के तिलक 
का बहुत महत्व बताया गया है। 

शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है।

यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। 

माना जाता है ।

कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है ।

तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
 
भगवान को चंदन अर्पण :

भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है।
 
हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। 

अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। 

चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। 

चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। 

माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है ।

जहां सबकी नजर अटकती है।

उसके मध्य में तिलक लगाकर, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।

तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है ।

इस को सात्विकता का प्रतीक माना जाता है । 

मस्तिष्क के भ्रु - मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । 

शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं ।

तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । 

इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है ।

हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । 

इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा - पाठ उपासना व नामकरण , सगाई या लग्न जैसा शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार - बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल - सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें ।

इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।

शास्त्रों के अनुसार :

शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है ।

हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे ।

इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर ।

ताकि मन में उस केन्द्र बिन्दु की स्मृति हो सकें । 

शरीर व्यापी चेतना शनैःशनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे ।

 चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । 

अतः इसे तिलक या टीके के माध्यम से आज्ञाचक्र
 पर एकत्रित करके तीसरे नेत्र को जागृत करा सकते है । 

ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकते है ।


चन्दन लगाने के प्रकार:


स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त  वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, लगाते हैं।

शैव ललाट पर त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक लगाते हैं।

शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। 

धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है।

जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है।

नारद पुराण में उल्लेख आया है-

ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र ।

क्षत्रिय को त्रिपुण्ड ।

वैश्य को अर्धचन्द्र ।

शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये।

योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है।

चन्दन के प्रकार :

हरि चन्दन - 

पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर  के मिलाने से हरिचन्दन बनता है।

गोपीचन्दन- 

गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है ।

जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। 

श्री स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है ।

श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था ।

जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। 

इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है।

कमल' कहत जगदम्ब से,माई राखहु लाज।
सतबुद्धि और प्रेम बन,सबके हृदय विराज।।

कमल' की एकहि प्रार्थना,एक आस बिस्वास।
आजीवन अरु अंत समय,रहे चरण में वास।।

शिव शंकर विन्ध्येश्वरी,शत शत तोहि प्रणाम।
तुमसे तुमको मांगता,भक्ति भाव निष्काम।।

     ।| जय मां भगवती ||

ये वा स्तुवन्ति मनुजा अमरान्विमूढा
  मायागुणैस्तव चतुर्मुखविष्णुरुद्रान्।
शुभ्रांशुवह्नियमवायुगणेशमुख्यान्
  किं त्वामृते जननि ते प्रभवन्ति कार्ये।।

       (श्रीमद्देवीभागवत)

हे जननि!जो मनुष्य माया के गुणों से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि,यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओं के स्तुति करते हैं ।

वे अज्ञानी ही हैं; 

क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपा शक्ति के बिना उन मनुष्यों को कार्य - फल प्रदान करने में समर्थ हो सकते हैं?

'मां आपकी जय हो, आपको बार - बार प्रणाम है।
 
त्वामेकमाद्यं पुरुषं पुराणं
 जगत्पतिं कारणमच्युतं प्रभुम्।
जनार्दनं जन्मजरार्तिनाशनं
सुरेश्वरं सुन्दरमिन्दिरापतिम्।।

बृहद्भुजं‌श्यामलकोमलं शुभं
वराननं वारिजपत्रनेत्रम्।
तरंगभङ्गायतकुन्तलं हरिं सुकान्तमीशं 
प्रणतोऽस्मि शाश्वतम्।।

आज मैं एक ( अद्वितीय ), आदि, पुराण पुरुष,जगदीश्वर, जगत् के कारण,अच्युत स्वरूप,सबके स्वामी और जन्म - जरा एवं पीड़ा को नष्ट करने वाले,देवेश्वर ,परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूं।

जिनकी भुजाएं बड़ी हैं,जो श्याम वर्ण,कोमल ,सुशोभन,सुमुख और कमल दल लोचन हैं।

क्षीरसागर की तरंग भङ्गी के समान जिनके लम्बे - लम्बे घुंघराले केश हैं।

उन परम कमनीय ,सनातन ईश्वर भगवान श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।

 !!!!! शुभमस्तु !!!

जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409
WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
Web: https://sarswatijyotish.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

। श्रीमद् भागवत चिन्तन श्रीराधाचरितामृत का एक प्रसंग ।( होरी मधुर_रस_का_अद्भुत_समर्पण ) कान जगाई ( गौर्धन पूजन )अन्नकूट महोत्सव

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीमद् भागवत चिन्तनश्रीराधाचरितामृत का एक प्रसंग ।।


( होरी - मधुर_रस_का_अद्भुत_समर्पण  )

मधुर रस कहो,   या आत्मसमर्पण कहो........!

अद्भुत भाव है  ।

पर स्वार्थ कलुषित चित्त मानव ठीक न समझ सके -  स्वाभाविक है ।

हे वज्रनाभ !  




मधुररस में  अपना सुख, अपनी तृप्ति, अपना सम्मान  कुछ है ही नही।  

इसमें तो अपना उत्सर्ग है...!

अपनें आपका सम्पूर्ण दान ।

श्रृंगार इसलिये कि  वे देख कर प्रसन्न होते हैं......!

भोजन इस लिये कि उनका प्रिय  यह देह स्वस्थ रहे........!

अरे ! 

रूठना और मनाना भी इसलिये कि उनके सुख में वृद्धि हो.....!

उन्हें आनन्द मिले  ।

उनका सुख, उनका आनन्द, उनका आल्हाद.....!

अपनेंपन का इतना उत्सर्ग कि...!

"अपनी" सत्ता ही समाप्त ।

उनका, उनका , उनका  और वे -  

"मैं" कहीं खो गया है.......!

और वे इतनें करीब आगये  कि....!

अब तो   "वे ही रह गए हैं"।

तुम जानते हो वज्रनाभ !    

यह बरसाना है.....!

"मधुर रस" का केन्द्र.....!

और इस माधुर्य रस की अधिष्ठात्री देवी हैं  - 

श्रीराधा रानी ...।

खूब रस बरसा था उस दिन........!

खूब रंग बरसा था  बरसानें में  ।

महर्षि शाण्डिल्य आज आँखें मूंद कर बोल रहे हैं..........!

मानों उनके हृदय को अभी भी कोई रँग रहा हो........!

अनुराग के रँग से  ।

होरी में क्या होता है ?   

बरसानें वारी श्रीराधा रानी  रँग बरसाती हैं ।

किस पर  ?    

कृष्ण पर .........!

फिर  प्रसादी सब पर...!

महर्षि नें समझाया ।

कौन सा रँग ?     

प्रेम का रँग...!

अनुराग का रँग .......!

अच्छा  वज्रनाभ !    

एक बात तो बताओ...!

रँग का अर्थ क्या होता है ?

फिर स्वयं ही महर्षि  "रँग" का अर्थ बतानें लगे।

जिससे हृदय रंग जाए.......!

उसे ही रँग कहते हैं......!

आहा !

पता है बरसानें की होली  कैसी होती है ? 

महर्षि बतानें लगे -  

कृष्ण प्रेम का रँग श्रीराधा रानी  दूसरों पर डालती हैं........!

ये इन करुणामयी की कृपा है.....!

फिर कृष्ण,  "श्रीराधा प्रेम" का रँग दूसरों पर डालते हैं..........!

अब दोनों तरफ से प्रेम का रँग इतना डलता है कि.....!

चारों और सृष्टि लाल ही लाल हो जाती है।

रँग वृष्टि से   बादल रंग गए.....!

धीरे धीरे  आकाश भी रंग गए...!

इस तरह  सम्पूर्ण जगत ही रंग गया........!

बाह्य जगत ही नही रँगा....!

अंतर जगत भी अनुराग के रँग से रँग गया।

फिर जब अंतर यानि मन बुद्धि इत्यादि  रँग गए.........!

तब तो  प्रेम में इह लोक भी रँग गया....!

और परलोक भी रँग गया......!

सब  प्रेममय हो गया......!

सब  प्यार की सृष्टि  चारों ओर दीखनें लगी  ।

 

बड़ी गम्भीरता से   आज "रस चर्चा" कर रहे थे  महर्षि शाण्डिल्य  ।

प्यारे !   

देखो मेरी ओर......!

ध्यान से देखो  इधर.....!

मुझ से आँखें मिलाओ........!

इधर उधर  नजरें क्यों चुराते हो.......!

ओह ! 

समझी अब  मैं....!

देख रही हूँ तुम्हारी ये आँखें लाल क्यों हो गयी  हैं  ? 

गुलाल से भी ज्यादा लाल...!

क्या हुआ  बताओ ? 

कमल और गुलाल को भी  तुम्हारे आँखों की लालिमा नें पीछे छोड़ रखा है...!

क्यों  ?      

बताओ !   

कैसे , किसनें  बिना  किसी साज बाज के  लाल कर दीं   तुम्हारी आँखें.....!

बोलो   ?

हाँ  बहुत चतुर होगी वो......!

है ना ?     

और ये तो बताओ कि  इन आँखों की रंगाई का मोल तुमनें कितना दिया है  ?    

पकड़ लिया था श्रीराधा नें अपनें श्याम सुन्दर को......!

जब  बृषभान जी के महल में  चुपके से चढ़ तो  गए थे........!

पर  "श्रीजी" सामनें.... !

तब प्रश्नों की  बौछार कर दी थी श्रीराधारानी  नें।

कहाँ खेलकर आये हो  होरी ?      

किसनें खिला दिया तुम्हे होरी ? 

व्यंग बाणों की चोट सह रहे थे श्याम सुन्दर  ।

आँखें  तो लाल हो गयीं..........!

पर  तुम्हारे  लाल अधर कैसे काले पड़ गए ?        
ये होंठ तो तुम्हारे लाल थे ना........!

फिर कैसे काले पड़े ? 

श्रीराधा रानी फिर व्यंग कसती हैं ।

सखी के काजल लगे नयनों को चूमा होगा तुम्हारे अधरों नें......!

मैं सब समझती हूँ ..............!

जाओ ! 

मेरे पास से जाओ  ।

तभी.............!

बाहर  से  हल्ला शुरू हो गया.....!

"होरी है"....!

नन्द गाँव के  सब ग्वाले बृषभान जी के महल में आ खड़े हुए थे  ।

श्रीराधा जी नें   देखा कन्हैया को......!

सिर झुकाये खड़े हैं......!

नयनों से अश्रु टपकनें लगे.............!

हाथ जोड़ लिए  ।

श्रीराधा को दया आगयी.................!

कृष्ण को पकड़ कर अपनें हृदय से लगा लिया..........!

दोनों  युगलवर  गले मिलते रहे.........।

अब थोड़ा इधर भी तो आओ.............!

हँसते हुए ललिता सखी नें  कृष्ण को अपनी तरफ खींचा .............!

रंग देवी सखी  लहंगा फरिया ले आई............!

और बड़े प्रेम से.....!

जो जो पहनें हुए थे सब उतार दिया.....!

और लहंगा पहना दिया...!

फरिया पहना दिया..........!

चूनर  ओढ़ा दी.......!

लाल टिका लगा दिया.........!

बेसर लगा दी नाक में.............!

पैरों में पायल.......!

बालों को गूँथ दिया......!

बड़े सुन्दर लग रहे हैं अब तो ये ।

लो जी !  

सिन्दूर दान भी  स्वयं श्रीराधा रानी नें किया....!

कृष्ण की माँग में.......!

आहा  ! नजर न लगे....!

श्रीराधा रानी देख रही हैं  बड़े प्रेम से ।

"होरी है".........!

फिर चिल्लाये  सब नन्दगाँव के ग्वाले.........।

सखियों  !  

जाओ  तो  इस बार इन नन्दगाँव के ग्वालों को ठीक करके ही आओ.......!

देखो  ज्यादा ही  उछल रहे हैं ये सब  ।

रँग गुलाल से नही मानते ये.........!

ललिता सखी बोली  ।

तो लठ्ठ बजाओ इन सब पर........!

हँसते हुए   श्रीराधा रानी बोलीं  ।

बस फिर क्या था.........!

ऊपर से कुछ सखियों नें रंगों  की वर्षा कर दी.....!

और कुछ  नीचे लठ्ठ लेकर तैयार............!

रंग से भींग गए....!

नहा गए.....!

कोई  किसी को पहचान नही पा रहा......!

अबीर उड़नें लगे आकाश में..........!

फूलों की वर्षा रंगों के साथ साथ हो रही है.......!

अब तो पिचकारी लेकर खड़ी हैं  भानु दुलारी ।

तभी   सखियों के पास जानें की जैसे ही कोशिश की ग्वालों नें.......!

सखियों नें  लठ्ठ बजानें शुरू कर दिए.........!

ग्वाल बाल भागे.....!

पर सखियाँ भी कहाँ कमजोर थीं.....!

वो भी भागीं  पीछे  ।

हँसते हुए  इस प्रसंग को बता रहे थे  महर्षि शाण्डिल्य.........!

पूरे बरसानें में कीच ही कीच मच गयी है.....!

केशर की कीच है  चारों ओर.........!

पिचकारी की झरी  लग गयी है.........!

और कुछ  सखियाँ  लगातार लट्ठ बजा रही है  नन्दगाँव के ग्वालों के ऊपर.....!

भागते जा रहे हैं ग्वाले.......!

अपनें आपको बचाते जा रहे हैं ।

पर ये क्या ?     

श्रीराधा रानी  अद्भुत सौन्दर्य के साथ, अपनी अष्ट सखियों के साथ.......!

चली जा रही हैं  ।

नन्दगाँव  दूर नही है बरसानें से.......!

पैदल ही चलीं नन्दगाँव  ।

पर ग्वालों को  इस बार मार मारकर भगाया है इन सखियों नें...........!

लट्ठ से  खूब   पूजा करी है इनकी  ।

पर अब  श्रीराधा रानी अपनी सखियों के साथ नन्दगाँव पहुँची......!

और बड़ी खुश थीं.......!

गारी गा रही थीं सखियाँ  ।

नन्दभवन के सिंह द्वार पर पहुँची श्रीराधिका ।

गीत गा रही थीं सखियाँ.......!

बड़े प्रेम से गीत गाती हुयी पहुँची थीं   ।

अरे ! आओ ! आओ...........!

पर तुम यहाँ क्यों आयी हो  ? 

कन्हैया और उनके सखा तो सब बरसानें ही गए हैं ना  ? 

बृजरानी यशोदा बोलीं.........!

फिर  बोलीं....!

आही गयी हो  तो  भीतर आजा...................!

श्रीराधा रानी संकोचपूर्वक भीतर गयीं......!

सखियाँ भी साथ में थीं ।

क्या खाओगी  तुम लोग ?   

बृजरानी नें बड़े प्रेम से पूछा ।

नही...!

आज हम खानें नही आयी हैं.....!

हम तो आज गायेंगीं.....!

नाचेंगी.....!

और आपसे फगुआ लेकर जायेंगी......!

ललिता सखी हँसकर बोली ।

अब कन्हैया तो है नही.....!

मुझ बूढी को नाच दिखाके क्या करोगी  ?

हँसते हुये  बैठ गयीं  बृजरानी.......!

अच्छा ! 

दिखाओ नाच  गाना ।

ये हमारी सखी है.....!

नई बहू है.....!

बढ़िया नाचती है..........!

ललिता सखी  उस  नई बहु को दिखाती हुयी  बोलीं।

बृजरानीजी !  

आपको इसका नाच दिखानें के लिये ही हम यहाँ आयी हैं ।

चलो !  

नाचो  बहू !    

विशाखा सखी हँसते हुए बोली  ।

सारी सखियाँ  हँस रही थीं ।

उस नई बहु नें नाचना शुरू किया........!

और सखियों नें गाना ।

"नारायण कर तारी बजाएके,  याहे यशुमति निकट नचावो री"

सब गा रही हैं.......!

ताली बजा रही हैं....!

हँस रही हैं...........!

यशोदा जी नें देखा.........!

ध्यान से देखा......!

एक बहू  नाच रही है....!

घूँघट करके नाच रही है..........!

इसकी नाच को देखकर लग रहा है  इसको मैं जानती हूँ.......!

बृजरानी बार बार सोचती हैं......!

इस को कहीं मैने देखा है........!

रहा नही गया  बृजरानी से........!

पास में गयीं........!

और जैसे ही  घूँघट हटाया........!

कन्हैया  सखी बनें  नाच रहे हैं  ।

तू...!     

यहाँ  क्या नाच रहा है  ? 

बृजरानी नें भी पीठ में एक थप्पड़ दिया  ।

फिर हँसी आगयी........!

अरे !   

तू  कैसे  फंस गया  इन बरसानें वारियों के चक्कर में  ?       

कन्हैया  क्या कहते.............!

श्रीराधा रानी  मुस्कुराते हुए जानें लगीं  तो  बृजरानी नें माखन खानें दिया............!

सखियों नें भी खाया ।

अब जा !  

छोड़ के आ..........!

बृजरानी नें फिर कृष्ण को भेज दिया ।

गली में चले गए कृष्ण............!.

बस  -

अब तो...! 

कृष्ण नें  एक ताली बजाई  जोर से...........!

बस, आगये ग्वाल बाल....!

गली को ही घेर लिया चारों ओर से सखाओं नें.........!

सखियाँ फंस गयीं  ।

कन्हैया  आगे बढ़ें.....!

और श्रीराधा रानी के गालों में अबीर मल दिया ।

रंग से भरा कलशा लेकर आया  मनसुख.....!

कृष्ण नें  बड़े प्रेम से  श्रीराधा रानी के ऊपर रंग का  पूरा कलशा डाल दिया.........।

अब तो ललिता सखी से भी रहा नही गया..........!

उसनें कृष्ण को पकड़ा......!

जोर से पकड़ गालों को रगड़ दिया.........!

रँग,   पूरे नीले वदन में  लगा दिया......!

गुलचा मारकर.........!

गालों को काट कर.....!

ललिता सखी बोली.......!

"होरी है"  ।

कृष्ण हँसे...........!

और  अपनी प्यारी श्रीराधा रानी के पास गए.....!

बड़े प्रेम से  दोनों गले मिले........!

श्याम सुन्दर  नयनों की भाषा में  बहुत कुछ बोले थे  अपनी प्रिया से....!

और उनकी प्रिया भी  सब कुछ कह चुकी थीं  ।

तो अब ?        

   श्रीराधा रानी नें पूछा था  ।

श्याम सुन्दर  गम्भीर हो गए थे..........!

कुछ नही बोले.........!

पता नही क्यों.........!

नेत्र सजल हो उठे  थे उनके  ।

- : कर्तव्य : - 

जिसे लोग कर्तव्यपरायणता कहते हैं।

वह ' भूमि ' है। 

जिसे लोग योग कहते है।

 वह ' वृक्ष ' हैं । 

जिसे लोग तत्त्व-ज्ञान कहते हैं।

 वह ' फल ' है। 

और जिसे लोग रस कहते हैं वह ' प्रेम ' है।

अकर्तव्य के त्याग में तुम्हारा पुरुषार्थ है। 

कर्तव्य - पालन तो स्वतः होता है।

उसका अभिमान करने से तो कर्तव्य अकर्तव्य के रूप में बदल जाता है।

वैराग्य होने पर तो सब प्रकार के धर्म और कर्तव्य की समाप्ति हो जाती है। 

ऐसे ही आत्म - रति और प्रेम की प्राप्ति होने पर भी कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता।

दुःखी का कर्तव्य है त्याग और सुखी का कर्तव्य है सेवा।

कर्तव्यपरायणता आ जाने पर अधिकार बिना माँगे ही आ जाएगा।

चाह - रहित होने से कर्तव्यपरायणता की शक्ति स्वतः आ जाती है।

प्रत्येक मानव बल, योग्यता और परिस्थिति में समान नहीं है। 

यह असमानता ही कर्तव्य की जननी है। 

समानता में प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। 

एक सबल दूसरे सबल के क्या काम आ सकता है ? 

सबल ही किसी निर्बल के ही काम आ सकता है।

कर्तव्य पूरा करने पर कर्ता का कोई अस्तित्व ही शेष नहीं रहता। 

कर्तव्य पूरा होने पर कर्ता की जो आवश्यकता थी, उसकी पूर्ति हो जाती है।

और उसकी पूर्ति हो जाने पर कर्ता का अस्तित्व अपने लक्ष्य से अभिन्न हो जाता है।

दूसरे के अधिकार की रक्षा से कर्तव्यपरायणता स्वतः आ जाती है।

और अपने अधिकार के त्याग से माने हुए सभी सम्बन्ध टूट जाते हैं।

दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार का त्याग ही वास्तव में कर्तव्य है।

वास्तविक कर्तव्य वहीँ है।

जिससे किसी का अहित न हो और कर्तव्यपालन करने पर कर्ता अपने लक्ष्य से अभिन्न हो जाए।

कर्तव्यनिष्ठ होने पर जीवन तथा मृत्यु दोनों ही सरस हो जाते हैं।

और कर्तृत्वच्युत होने पर जीवन नीरस तथा मृत्यु दुःखद एवं भयंकर होती है।

जो नहीं कर सकते उसके...!

और जो नहीं करना चाहिए उसके न करने से जो करना चाहिए।

वह स्वत...!

होने लगता है। 

इस दृष्टि से कर्तव्य - परायणता सहज तथा स्वाभाविक है।

कर्तव्य का प्रश्न ' पर ' के प्रति है।

' स्व ' के प्रति नहीं। 

कर्तव्य का सम्पादन जो ' पर ' से प्राप्त है।

उसके द्वारा होता है।

' स्व ' के द्वारा नहीं। 

इस दृष्टि से कर्तव्य परधर्म है।

जो प्रवृत्ति परहित में हेतु नहीं है।

वह कर्तव्य नहीं है।

कर्तव्य - पालन उतना आवश्यक नहीं है।

जितना अकर्तव्य का त्याग। 

कारण कि अकर्तव्य का त्याग किये बिना कर्तव्य की अभिव्यक्ति ही नहीं होती।

किये हुए की फलासक्ति अपने लिये अभिष्ट नहीं है।

इसका कर्तव्य - पालन में कोई स्थान नहीं है।

कर्तव्य - परायणता वह विज्ञान है।

जिससे मानव जगत् के लिए उपयोगी होता है।

और स्वयं योग - विज्ञान का अधिकारी हो जाता है।

सृष्टि की वस्तु को सृष्टि के हित में व्यय करना अनिवार्य है।

जो वास्तव में कर्तव्य का स्वरूप है।

दूसरों के कर्तव्य की स्मृति अपने कर्तव्य की विस्मृति में हेतु है।

और कर्तृत्व की विस्मृति ही अकर्तव्य की जननी है। 

इस दृष्टि से दूसरों के कर्तव्य पर दृष्टि रखना ही अपने कर्तव्य से च्युत होना है।

जो विनाश का मूल है।

राग तथा क्रोध के रहते हुए न तो कर्तव्य-पालन की सामर्थ्य ही प्राप्त होती है।

और न कर्तव्य की स्मृति ही जागृत होती है।

तो फिर कर्तव्य-पालन कैसे सम्भव हो सकता है ?

कर्तव्य का अभिमान अकर्तव्य से भी अधिक निन्दनीय है। 

कारण कि अकर्तव्य से पीड़ित प्राणी कभी-न - कभी कर्तव्य की राह चल सकता है।

किन्तु कर्तव्य का अभिमानी तो अकर्तव्य को ही जन्म देता है।

- : एकता : -

आज हम स्वरूप से एकता करने की जो कल्पना करते हैं।

वह विवेक की दृष्टि से अपने को धोखा देना है।

अथवा भोली - भाली जनता को बहकाना है।

बाह्य भिन्नता के आधार पर कर्म में भिन्नता अनिवार्य है।

पर आन्तरिक एकता होने के कारण प्रीति की एकता भी अत्यन्त आवश्यक है। 

नेत्र से जब देखते हैं।

तब पैर से चलते हैं। 

दोनों की क्रिया में भिन्नता है।

पर वह भिन्नता नेत्र और पैर की एकता में हेतु है। 

उसी प्रकार दो व्यक्तियों में, दो वर्गों में, दो देशों में एक - दूसरे की उपयोगिता के लिए ही भिन्नता है।

प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग, देश यदि दूसरों की उपयोगिता में प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य एवं योग्यता व्यय करें तो एक - दूसरे के पूरक बन सकते हैं।

और फिर परस्पर स्नेह की एकता बड़ी ही सुगमतापूर्वक सुरक्षित रह सकती है।

जो विकास का मूल है।

आन्तरिक एकता के बिना बाह्य एकता कुछ अर्थ नहीं रखती। 

संघर्ष का मूल आन्तरिक भिन्नता है, बाह्य नहीं। 

अब यह विचार करना होगा कि आन्तरिक भिन्नता क्या है ? 

तो कहना होगा कि बाह्य भिन्नता के आधार पर प्रीति का भेद स्वीकार करना।

प्राकृतिक नियम के अनुसार दो व्यक्ति भी सर्वांश में समान रुचि, योग्यता, सामर्थ्य के नहीं होते और न परिस्थिति ही समान होती है। 

देश - काल के भेद से भी रहन-सहन आदि में भेद होता है; 

किन्तु मानव मात्र के वास्तविक उद्देश्य में कोई भेद नहीं होता। 

इस उद्देश्य की एकता के आधार पर ही मानव - समाज ने मानव मात्र के साथ एकता स्वीकार की है।

शरीर का मिलना वास्तव में मिलन नहीं है। 

लक्ष्य तथा स्नेह की एकता ही सच्चा मिलन है।

दो व्यक्तियों की भी रुचि, सामर्थ्य तथा योग्यता एक नहीं है; 

किन्तु लक्ष्य सभी का एक है। 

यदि इस वैधानिक तथ्य का आदर किया जाये तो भोजन तथा साधन की भिन्नता रहने पर भी परस्पर एकता रह सकती है।

अपने गुण और पराये दोष देखने से पारस्परिक एकता सुरक्षित नहीं रहती।

तात्पर्य :-

प्राप्त परिस्थिति के अनुसार कर्तव्य-पालन का दायित्व तब तक रहता ही है, जब तक कर्ता के जीवन से अशुद्ध तथा अनावश्यक संकल्प नष्ट न हो जाए।

आवश्यक तथा शुद्ध संकल्प पूरे होकर मिट न जाएँ, सहज भाव से निर्विकल्पता न आ जाए। 

अपने - आप आयी हुई निर्विकल्पता से असंगता न हो जाए तथा असंगतापूर्वक प्राप्त स्वाधीनता को समर्पित कर जीवन प्रेम से परिपूर्ण न हो जाए। 

कर्तव्य - पालन से अपने को बचाना भूल हैं। 

अतः प्राप्त परिस्थिति के अनुसार मानव का कर्तव्यनिष्ठ होना अनिवार्य हैं।

======================

कान जगाई ( गौर्धन पूजन )अन्नकूट महोत्सव 

। श्री विष्णुपुराण प्रवचन ।।

जय श्री कृष्ण

कान जगाई ( गौर्धन पूजन )




अन्नकूट महोत्सव के लिए चावल पधराना,  श्रीनवनीतप्रियाजी को शिरारहित पान की बीड़ी अरोगाना, गायों का पूजन, कानजगाई इत्यादि महोत्सव की सम्पूर्ण सेवा का निर्वाहन पूज्य श्री तिलकायत महाराजश्री व चि श्री विशाल बावाश्री करते हैं ।

अतः महोत्सव की सम्पूर्ण सेवा सम्भवतया श्री मुखियाजी के द्वारा ही सम्पन्न होगी ।

यद्यपि आलेख में हुज़ूरश्री एवं बावाश्री का  ही उल्लेख है ।

क्योंकि भले ही इस विकट परिस्तिथि में वे शशरीर उपस्तिथ ना हो लेकिन वे मानसिक रूप से यही हैं.।

श्री नवनीतप्रियाजी में सायं कानजगाई के व शयन समय रतनचौक में हटड़ी के दर्शन होते हैं ।

कानजगाई - 

संध्या समय गौशाला से इतनी गायें लायी जाती है कि गोवर्धन पूजा का चौक भर जाए ।

गायें मोरपंख, गले में घंटियों और पैरों में घुंघरूओं से सुशोभित व श्रृंगारित होती हैं ।

उनके पीठ पर मेहंदी कुंकुम के छापे व सुन्दर आकृतियाँ बनी होती है ।

ग्वाल - बाल भी सुन्दर वस्त्रों में गायों को रिझाते, खेलाते हैं ।

गायें उनके पीछे दौड़ती हैं जिससे प्रभुभक्त, नगरवासी और वैष्णव आनन्द लेते हैं ।

गौधूली वेला में शयन समय कानजगाई होती है ।

श्री नवनीतप्रियाजी के मंदिर से लेकर सूरजपोल की सभी सीढियों तक विभिन्न रंगों की चलनियों से रंगोली छांटी जाती है ।

श्री नवनीतप्रियाजी शयन भोग आरोग कर चांदी की खुली सुखपाल में विराजित हो कीर्तन की मधुर स्वरलहरियों के मध्य गोवर्धन पूजा के चौक में सूरजपोल की सीढ़ियों पर एक चौकी पर बिराजते हैं ।

प्रभु को विशेष रूप से दूधघर में सिद्ध केशर मिश्रित दूध की चपटिया ( मटकी ) का अरोगायी जाती है ।

चिरंजीव श्री विशालबावा कानजगाई के दौरान प्रभु को शिरारहित पान की बीड़ी अरोगाते हैं ।

श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी के कीर्तनिया कीर्तन करते हैं व झालर, घंटा बजाये जाते हैं ।

पूज्य श्री तिलकायत महाराज गायों का पूजन कर, तिलक - अक्षत कर लड्डू का प्रशाद खिलाते हैं. गौशाला के बड़े ग्वाल को भी प्रशाद दिया जाता है ।

तत्पश्चात पूज्य श्री तिलकायत नंदवंश की मुख्य गाय को आमंत्रण देते हुए कान में कहते हैं – 

“कल प्रातः गोवर्धन पूजन के समय गोवर्धन को गूंदने को जल्दी पधारना ।” 

गायों के कान में आमंत्रण देने की इस रीती को कानजगाई कहा जाता है ।

प्रभु स्वयं गायों को आमंत्रण देते हैं ऐसा भाव है ।

इसके अलावा कानजगाई का एक और विशिष्ट भाव है ।

कि गाय के कान में इंद्र का वास होता है और प्रभु कानजगाई के द्वारा उनको कहते हैं कि –

 “हम श्री गिरिराजजी को कल अन्नकूट अरोगायेंगे, तुम जो चाहे कर लेना।” 

सभी पुष्टिमार्गीय मंदिरों में अन्नकूट के एक दिन पूर्व गायों की कानजगाई की जाती है ।

सारस्वतकल्प में श्री ठाकुरजी ने जब श्री गिरिराजजी को अन्नकूट अरोगाया तब भी इसी प्रकार कानजगाई की थी ।

श्री ठाकुरजी...!

नंदरायजी एवं सभी ग्वाल - बाल अपनी गायों को श्रृंगारित कर श्री गिरिराजजी के सम्मुख ले आये ।

श्रीनंदनंदन की आज्ञानुसार श्री गिरिराजजी को दूध की चपटिया ( मटकी ) का भोग रखा गया और बीड़ा अरोगाये गये।

श्री गर्गाचार्यजी ने नंदबाबा से गायों का पूजन कराया था।

 तब श्री ठाकुरजी और नंदबाबा ने एक - एक गाय के कान में अगले दिन गोवर्धन पूजन हेतु पधारने को आमंत्रण दिया ।

इस प्रसंग पर अष्टसखाओं ने कई सुन्दर कीर्तन गाये हैं ।

परन्तु समयाभाव के चलते उन सबका वर्णन यहाँ संभव नहीं है।

श्रीजी के शयन के दर्शन बाहर नहीं खुलते.

शयन समय श्री नवनीतप्रियाजी रतनचौक में हटड़ी में विराजित हो दर्शन देते हैं ।

हटड़ी में विराजने का भाव कुछ इस प्रकार है ।

कि नंदनंदन प्रभु बालक रूप में अपने पिता श्री नंदरायजी के संग हटड़ी ( हाट अथवा वस्तु विक्रय की दुकान ) में बिराजते हैं ।

और तेजाना, विविध सूखे मेवा व मिठाई के खिलौना आदि विक्रय कर उससे एकत्र धनराशी से अगले दिन श्री गिरिराजजी को अन्नकूट का भोग अरोगाते हैं।

रात्रि लगभग 9.00 बजे तक दर्शन खुले रहते हैं और दर्शन उपरांत श्री नवनीतप्रियाजी श्रीजी में पधारकर संग विराजते हैं।

श्री गुसांईजी, उनके सभी सात लालजी, व तत्कालीन परचारक महाराज काका वल्लभजी के भाव से 9 आरती होती है ।

श्री गुसांईजी व श्री गिरधरजी की आरती स्वयं श्री तिलकायत महाराज करते हैं ।

अन्य गृहों के बालक यदि उपस्थित हों तो वे श्री तिलकायत से आज्ञा लेकर सम्बंधित गृह की आरती करते हैं ।

और अन्य की उपस्थिति न होने पर स्वयं तिलकायत महाराज आरती करते हैं ।

काका वल्लभजी की आरती श्रीजी के वर्तमान परचारक महाराज गौस्वामी चिरंजीवी श्री विशालबावा करते हैं ।

आज श्रीजी में शयन पश्चात पोढावे के व मान के पद नहीं गाये जाते ।

दिवाली की रात्रि शयन उपरांत श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी प्रभु लीलात्मक भाव से गोपसखाओं, श्री स्वामिनीजी, सखीजनों सहित अरस - परस बैठ चौपड़ खेलते हैं.।

अखण्ड दीप जलते हैं ।

चौपड़ खेलने की अति आकर्षक, सुन्दर भावात्मक साज - सज्जा की जाती है ।

दीप इस प्रकार जलाये जाते हैं कि प्रभु के श्रीमुख पर उनकी चकाचौंध नहीं पड़े ।

इस भावात्मक साज - सज्जा को मंगला के पूर्व बड़ाकर ( हटा ) लिया जाता है ।

इसी भाव से दिवाली की रात्रि प्रभु के श्रृंगार बड़े नहीं किये जाते और रात्रि अनोसर भी हल्के श्रृंगार सहित ही होते हैं.।
जय द्वारकाधीश !!

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

aadhyatmikta ka nasha

महाभारत की कथा का सार

महाभारत की कथा का सार| कृष्ण वन्दे जगतगुरुं  समय नें कृष्ण के बाद 5000 साल गुजार लिए हैं ।  तो क्या अब बरसाने से राधा कृष्ण को नहीँ पुकारती ...

aadhyatmikta ka nasha 1