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‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा , चंदन तिलक का महत्त्व‼️

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

‼️श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथाचंदन  , तिलक का महत्त्व‼️


श्री पाराशर संहिता और श्री मस्तय पुराण के अनुसार हनुमानजी के परिवार की कथा

हमारे सनातन हिन्दू  हनुमान जी की पत्नी के साथ दुर्लभ कथा दिया जाता है ।

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं।



आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में खास है। 

यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।

हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आए हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और वाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। 

लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है। 

इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का।

यह मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। 

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। 

पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।

कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा। 

दरअसल हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।

हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 

सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता 

और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। 

लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।

कुल 9 तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।

हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। 

इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वह धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे।

ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी। 

और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। 

लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहां से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे।

सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। 

इसके बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।

इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।

पाराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की – 

यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ।
🙏जय श्री बालाजी की🙏👇

॥॥सबसे बड़ा तीर्थ॥॥ 

एक बार एक चोर जब मरने लगा तो उसने अपने बेटे को बुलाकर एक नसीहत दी:-

” अगर तुझे चोरी करनी है तो किसी गुरुद्वारा, धर्मशाला या किसी धार्मिक स्थान में मत जाना बल्कि इनसे दूर ही रहना और दूसरी बात अगर कभी पकड़े जाओ।

तो यह मत स्वीकार करना कि तुमने चोरी की है।

चाहे कितनी भी सख्त मार पड़े”

चोर के लड़के ने कहा:- 

“सत्य वचन” 

इतना कहकर वह चोर मर गया और उसका लड़का रोज रात को चोरी करता रहा।

एक बार उस लड़के ने चोरी करने के लिए किसी घर के ताले तोड़े, लेकिन घर वाले जाग गए और उन्होंने शोर मचा दिया आगे पहरेदार खड़े थे उन्होंने कहा:- 

“आने दो, बच कर कहां जाएगा”? 

एक तरफ घरवाले खड़े थे और दूसरी तरफ पहरेदार
अब चोर जाए भी तो किधर जाए वह किसी तरह बच कर वहां से निकल गया रास्ते में एक धर्मशाला पड़ती थी धर्मशाला को देखकर उसको अपने बाप की सलाह याद आ गई कि धर्मशाला में नहीं जाना।

लेकिन वह अब करे भी तो क्या करे ? 

उसने यह सही मौका देख कर वह धर्मशाला में चला गया जहाँ सत्संग हो रहा था।

वह बाप का आज्ञाकारी बेटा था।

इस लिए उसने अपने कानों में उंगली डाल ली जिससे सत्संग के वचन उसके कानों में ना पड़ जाए।

लेकिन आखिरकार मन अडियल घोड़ा होता है।

इसे जिधर से मोड़ो यह उधर नही जाता है कानों को बंद कर लेने के बाद भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इस से मुझे क्या लेना देना घर वाले और पहरेदार पीछे लगे हुए थे।

किसी ने बताया कि चोर, धर्मशाला में है।

जांच पड़ताल होने पर वह चोर पकड़ा गया.

सिपाही ने चोर को बहुत मारा लेकिन उसने अपना अपराध कबूल नहीं किया।

उस समय यह नियम था कि जब तक मुजरिम, अपराध ने स्वीकार कर ले तो सजा नहीं दी जा सकती.

उसे राजा के सामने पेश किया गया वहां भी खूब मार पड़ी, लेकिन चोर ने वहां भी अपना अपराध नहीं माना वह चोर देवी की पूजा करता था।

इस लिए सिपाही ने एक ठगिनी को सहायता के लिए बुलाया ठगिनी ने कहा कि मैं इसको मना लूंगी उसने देवी का रूप भर कर दो नकली बांहें लगाई, चारों हाथों में चार मशाल जलाई और नकली शेर की सवारी की।

क्योंकि वह सिपाही के साथ मिली हुई थी इस लिए जब वह आई तो उसके कहने पर जेल के दरवाजे कड़क कड़क कर खुल गए जब कोई आदमी किसी मुसीबत में फंस जाता है तो अक्सर अपने इष्ट देव को याद करता है।

इस लिए चोर भी देवी की याद में बैठा हुआ था कि अचानक दरवाजा खुल गया और अंधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई.

देवी ने खास अंदाज में कहा:-

” देख भक्त! तूने मुझे याद किया और मैं आ गई| 

तूने बड़ा अच्छा किया कि तुमने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया अगर तू ने चोरी की है तो मुझे सच - सच बता दे मुझसे कुछ भी मत छुपाना| 

मैं तुम्हें फौरन आजाद करवा दूंगी..

चोर, देवी का भक्त था अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ और मन में सोचने लगा कि मैं देवी को सब सच सच बता दूंगा वह बताने को तैयार ही हुआ था।

कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ गई उसको फौरन सत्संग का वचन याद आ गया।

कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती उसने देखा कि इसकी तो परछाई है।

वह समझ गया कि यह देवी नहीं बल्कि मेरे साथ कोई धोखा है।

वह सच कहते कहते रुक गया और बोला:-

“ मां! मैंने चोरी नहीं की अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता।

जेल के कमरे के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत नोट कर रहे थे।

उनको और ठगिनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है.

अगले दिन उन्होंने राजा से कह दिया कि यह चोर नहीं है।

राजा ने उस को आजाद कर दिया जब चोर आजाद हो गया तो सोचने लगा कि सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया हूं।

अगर मैं अपनी सारी जिंदगी सत्संग सुनने में लगाऊं तो मेरा तो जीवन ही बदल जाएगा।

अब वह प्रतिदिन सत्संग में जाने लगा और चोरी का धंधा छोड़ कर महात्मा बन गया.

 शिक्षा:- 

कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है.

         !!!!! शुभमस्तु !!!

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चंदन तिलक का महत्त्व


हमारे धर्मं में चन्दन के तिलक 
का बहुत महत्व बताया गया है। 

शायद भारत के सिवा और कहीं भी मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित नहीं है।

यह रिवाज अत्यंत प्राचीन है। 

माना जाता है ।

कि मनुष्य के मस्तक के मध्य में विष्णु भगवान का निवास होता है ।

तिलक ठीक इसी स्थान पर लगाया जाता है।
 
भगवान को चंदन अर्पण :

भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है।
 
हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। 

अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। 

चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। 

चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। 

माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है ।

जहां सबकी नजर अटकती है।

उसके मध्य में तिलक लगाकर, देखने वाले की दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है।

तिलक का महत्व हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है ।

इस को सात्विकता का प्रतीक माना जाता है । 

मस्तिष्क के भ्रु - मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । 

शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं ।

तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । 

इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है ।

हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । 

इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा - पाठ उपासना व नामकरण , सगाई या लग्न जैसा शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार - बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल - सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें ।

इस आसान तरीके से सर्वसाधारण की रुचि धार्मिकता की ओर, आत्मिकता की ओर, तृतीय नेत्र जानकर इसके उन्मीलन की दिशा में किया गयचा प्रयास जिससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।

शास्त्रों के अनुसार :

शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है ।

हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे ।

इस तरह की धारणा क ध्यान में रखकर ।

ताकि मन में उस केन्द्र बिन्दु की स्मृति हो सकें । 

शरीर व्यापी चेतना शनैःशनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे ।

 चुँकि चेतना सारे शरीर में फैली रहती है । 

अतः इसे तिलक या टीके के माध्यम से आज्ञाचक्र
 पर एकत्रित करके तीसरे नेत्र को जागृत करा सकते है । 

ताकि हम परामानसिक जगत में प्रवेश कर सकते है ।


चन्दन लगाने के प्रकार:


स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त  वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, लगाते हैं।

शैव ललाट पर त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक लगाते हैं।

शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। 

धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है।

जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है।

नारद पुराण में उल्लेख आया है-

ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र ।

क्षत्रिय को त्रिपुण्ड ।

वैश्य को अर्धचन्द्र ।

शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये।

योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है।

चन्दन के प्रकार :

हरि चन्दन - 

पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर  के मिलाने से हरिचन्दन बनता है।

गोपीचन्दन- 

गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है ।

जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। 

श्री स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है ।

श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था ।

जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। 

इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है।

कमल' कहत जगदम्ब से,माई राखहु लाज।
सतबुद्धि और प्रेम बन,सबके हृदय विराज।।

कमल' की एकहि प्रार्थना,एक आस बिस्वास।
आजीवन अरु अंत समय,रहे चरण में वास।।

शिव शंकर विन्ध्येश्वरी,शत शत तोहि प्रणाम।
तुमसे तुमको मांगता,भक्ति भाव निष्काम।।

     ।| जय मां भगवती ||

ये वा स्तुवन्ति मनुजा अमरान्विमूढा
  मायागुणैस्तव चतुर्मुखविष्णुरुद्रान्।
शुभ्रांशुवह्नियमवायुगणेशमुख्यान्
  किं त्वामृते जननि ते प्रभवन्ति कार्ये।।

       (श्रीमद्देवीभागवत)

हे जननि!जो मनुष्य माया के गुणों से प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि,यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओं के स्तुति करते हैं ।

वे अज्ञानी ही हैं; 

क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपा शक्ति के बिना उन मनुष्यों को कार्य - फल प्रदान करने में समर्थ हो सकते हैं?

'मां आपकी जय हो, आपको बार - बार प्रणाम है।
 
त्वामेकमाद्यं पुरुषं पुराणं
 जगत्पतिं कारणमच्युतं प्रभुम्।
जनार्दनं जन्मजरार्तिनाशनं
सुरेश्वरं सुन्दरमिन्दिरापतिम्।।

बृहद्भुजं‌श्यामलकोमलं शुभं
वराननं वारिजपत्रनेत्रम्।
तरंगभङ्गायतकुन्तलं हरिं सुकान्तमीशं 
प्रणतोऽस्मि शाश्वतम्।।

आज मैं एक ( अद्वितीय ), आदि, पुराण पुरुष,जगदीश्वर, जगत् के कारण,अच्युत स्वरूप,सबके स्वामी और जन्म - जरा एवं पीड़ा को नष्ट करने वाले,देवेश्वर ,परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूं।

जिनकी भुजाएं बड़ी हैं,जो श्याम वर्ण,कोमल ,सुशोभन,सुमुख और कमल दल लोचन हैं।

क्षीरसागर की तरंग भङ्गी के समान जिनके लम्बे - लम्बे घुंघराले केश हैं।

उन परम कमनीय ,सनातन ईश्वर भगवान श्री विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।

 !!!!! शुभमस्तु !!!

जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409
WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
Web: https://sarswatijyotish.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य और इंद्र का शनि से बहस।।

सभी मित्रों के मेरा लेख में हे ज्योतिष आप मेरा हुवा की कोपी ना करे किसी लेख की कोपी नही करते, किसी का लेखको कोपी तो वाही विद्या आगे बठने की नही हेपी को हो आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता ભાઈ અને આગળ भी नही बढ़ता , તમે તમારા મહંત થી તૈયાર થવાથી ખૂબ આગળ વધો તમારો આભાર ........
જય દ્વારકાધીશ

 श्री ऋग्वेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य और इंद्र का शनि से बहस।

                         
श्री ऋग्वेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य।

નારદ જી બોલે...!

'हे महाभाग...! 

हे तपोनिधे....!

આ પ્રકારનો અતિમાસના વચનો સાંભળવા માટે હરિના તબક્કામાં આગળ ઉમેરાતાં વધારામાં શું કહ્યું?'

શ્રીનારાયણ બોલે...! 


'હે પાપ રહિત! 

हे નારદ....!

जो हरि ने मलमास के प्रति कहा वह हम कहते हैं सुन! हे मुनिश्रेष्ठ! 

તમે જે સત્कथा हमसे पूछते हैं, आपको धन्य है।'

શ્રીકૃષ્ણ બોલે...!

'હે અરજીન...!

बैकुण्ठ का वृत्तान्त हम आपको सम्मुख कहते हैं..!

સુન! 

મલमास के मूर्छित हो जाने पर हरि के नेत्र से संकेत पाये हुए गरुड़ मूरछित मलमास को पंख से हवा तो लगेंगे। 

હવા લગને પર વધુ માસ ઊઠવું ફરી બોલા હે વિભો! 

यह मुझको नहीं रुचता है.

अधिक मास बोला....!

'हे जगत्‌ को उत्पन्न करने वाले! 

हे विष्णो! 

हे जगत्पते! 

મારી રક્ષા કરો! 

બચાવ કરો! 

हे नाथ! 

मुझ शरण आये की आज कैसे उपेक्षा कर रहे हैं।'

इस प्रकार कहकर काँपते हुए घड़ी - घड़ी विलाप करते हुए अधिमास से...!

बैकुण्ठ में रहने वाले हृषीकेश हरि, बोले।

श्रीविष्णु बोले...!

'उठो - उठो तुम्हारा कल्याण हो....!

हे वत्स! 

विषाद मत करो। 

हे निरीश्वर! 

तुम्हारा दुःख मुझको दूर होता नहीं ज्ञात होता है।'

ऐसा कहकर प्रभु मन में सोचकर क्षणभर में उपाय निश्चय करके पुनः अधिक मास से मधुसूदन बोले।

श्रीविष्णु बोले....!

'हे वत्स! 

योगियों को भी जो दुर्लभ गोलोक है वहाँ मेरे साथ चलो जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम, ईश्वर रहते हैं।

गोपियों के समुदाय के मध्य में स्थित, दो भुजा वाले, मुरली को धारण किए हुए नवीन मेघ के समान श्याम, लाल कमल के सदृश नेत्र वाले, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अति सुन्दर मुख वाले, करोड़ों कामदेव के लावण्य की मनोहर लीला के धाम, पीताम्बर धारण किये हुए।

माला पहिने, वनमाला से विभूषित, उत्तम रत्ना भरण धारण किये हुए, प्रेम के भूषण, भक्तों के ऊपर दया करने वाले, चन्दन चर्चित सर्वांग, कस्तूरी और केशर से युक्त, वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह से शोभित, कौस्तुक मणि से विराजित, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रत्नों के सार से रचित किरीट वाले, कुण्डलों से प्रकाशमान, रत्नोंल के सिंहासन पर बैठे हुए।

पार्षदों से घिरे हुए जो हैं।

वही पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं। 

वे सर्वतन्त्रर स्वतन्त्रउ हैं।

ब्रह्माण्ड के बीज, सबके आधार, परे से भी परे, निस्पृह, निर्विकार, परिपूर्णतम, प्रभु, माया से परे, सर्वशक्तिसम्पन्न, गुणरहित, नित्यशरीरी। 

ऐसे प्रभु जिस गोलोक में रहते हैं।

वहाँ हम दोनों चलते हैं।

वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।'

श्रीनारायण बोले...!

'ऐसा कहकर अधिमास का हाथ पकड़ कर हरि, गोलोक को गये। 

हे मुने! 

जहाँ पहले के प्रलय के समय में वे अज्ञानरूप महा अन्धकार को दूर करने वाले, ज्ञानरूप मार्ग को दिखाने वाले केवल ज्योतिः स्वरूप थे। 

जो ज्योति करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाली, नित्य, असंख्य और विश्वप की कारण थी तथा उन स्वेच्छामय विभुकी ही वह अतिरेक की चरम सीमा को प्राप्त थी। 

जिस ज्योति के अन्दर ही मनोहर तीन लोक विराजित हैं। 

हे मुने! 

उसके ऊपर अविनाशी ब्रह्म की तरह गोलोक विराजित है।

तीन करोड़ योजन का चौतरफा जिसका विस्तार है और मण्डलाकार जिसकी आकृति है।

लहलहाता हुआ साक्षात् मूर्तिमान तेज का स्वरूप है।

जिसकी भूमि रत्नमय है। 

योगियों द्वारा स्वप्न में भी जो अदृश्य है।

परन्तु जो विष्णु के भक्तों से गम्य और दृश्य है।

ईश्वर ने योग द्वारा जिसे धारण कर रखा है ऐसा उत्तम लोक अन्तरिक्ष में स्थित है।

आधि, व्याधि, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भय आदि से रहित है।

श्रेष्ठ रत्नों से भूषित असंख्य मकार्नो से शोभित है। 

उस गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन के विस्तार के भीतर दाहिने बैकुण्ठ और बाँयें उसी के समान मनोहर शिवलोक स्थित है। 

एक करोड़ योजन विस्तार के मण्डल का बैकुण्ठ, शोभित है।

वहाँ सुन्दर पीताम्बरधारी वैष्णव रहते हैं।

उस बैकुण्ठ के रहने वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए लक्ष्मी के सहित चतुर्भुज हैं। 

उस बैकुण्ठ में रहने वाली स्त्रियाँ, बजते हुए नूपुर और करधनी धारण की हैं।

सब लक्ष्मी के समान रूपवती हैं।

गोलोक के बाँयें तरफ जो शिवलोक है उसका करोड़ योजन विस्तार है और वह प्रलयशून्य है।

सृष्टि में पार्षदों से युक्त रहता है।

बड़े भाग्यवान्‌ शंकर के गण जहाँ निवास करते हैं।

शिवलोक में रहने वाले सब लोग सर्वांग भस्म धारण किये, नाग का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं।

अर्धचन्द्र जिनके मस्तक में शोभित है।

त्रिशूल और पट्टिशधारी, सब गंगा को धारण किये वीर हैं और सबके सब शंकर के समान जयशाली हैं।

गोलोक के अन्दर अति सुन्दर एक ज्योति है। 

वह ज्योति परम आनन्द को देने वाली और बराबर परमानन्द का कारण है। 

योगी लोग बराबर योग द्वारा ज्ञानचक्षु से आनन्द जनक, निराकार और पर से भी पर उसी ज्योति का ध्यान करते हैं। 

उस ज्योति के अन्दर अत्यन्त सुन्दर एक रूप है।


जो कि नीलकमल के पत्तों के समान श्याम, लाल कमल के समान नेत्र वाले करोड़ों शरत्पूर्णिमा के चन्द्र के समान शोभायमान मुख वाले, करोड़ों कामदेव के समान सौन्दर्य की, लीला का सुन्दर धाम दो भुजा वाले, मुरली हाथ में लिए, मन्दहास्य युक्त, पीताम्बर धारण किए।


श्रीवत्स चिह्न से शोभित वक्षःस्थल वाले, कौस्तुभमणि से सुशोभित, करोड़ों उत्तम रत्नों से जटित चमचमाते किरीट और कुण्डलों को धारण किये, रत्नों के सिंहासन पर विराजमान्‌, वनमाला से सुशोभित। 

वही श्रीकृष्ण नाम वाले पूर्ण परब्रह्म हैं।

अपनी इच्छा से ही संसार को नचाने वाले, सबके मूल कारण, सबके आधार, पर से भी परे छोटी अवस्था वाले, निरन्तर गोपवेष को धारण किये हुए।

करोड़ों पूर्ण चन्द्रों की शोभा से संयुक्त, भक्तों के ऊपर दया करने वाले निःस्पृह, विकार रहित, परिपूर्णतम, स्वामी रासमण्डप के बीच में बैठे हुए। 

शान्त स्वरूप, रास के स्वामी,  मंगलस्वरूप, मंगल करने के योग्य, समस्त मंगलों के मंगल, परमानन्द के राजा, सत्यरूप, कभी भी नाश न होने वाले विकार रहित, समस्त सिद्धों के स्वामी, सम्पूर्ण सिद्धि के स्वरूप, अशेष सिद्धियों के दाता, माया से रहित, ईश्वनर, गुणरहित, नित्यशरीरी, आदिपुरुष, अव्यक्त, अनेक हैं।

नाम जिनके, अनेकों द्वारा स्तुति किए जाने वाले, नित्य, स्वतन्त्र, अद्वितीय, शान्त स्वरूप, भक्तों को शान्ति देने में परायण ऐसे परमात्मा के स्वरूप को शान्तिप्रिय, शान्त और शान्ति परायण जो विष्णुभक्त हैं।

वे ध्यान करते हैं। 

इस प्रकार के स्वरूप वाले भगवान्‌ कहे जाने वाले।

वही एक आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र हैं।'

श्रीनारायण बोले....!

'ऐसा कहकर भगवान्, सत्त्व स्वरूप विष्णु अधिमास को साथ लेकर शीघ्र ही परब्रह्मयुक्त गोलोक में पहुँचे।'

सूतजी बोले....!

'ऐसा कहकर सत्क्रिया को ग्रहण किये हुए।

नारायण मुनि के चुप हो जाने पर आनन्द सागर पुरुषोत्तम से विविध प्रकार की नयी कथाओं को सुनने की इच्छा रखने वाले नारद मुनि उत्कण्ठा पूर्वक बोले।'

इति श्रीबृहन्नारदीय पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये  पञ्चमोऽध्यायः  ॥५॥

 
इंद्र देव का अहंकार।

नारदजी देवताओं के प्रभाव की चर्चा कर रहे थे।

देवराज इंद्र अपने सामने दूसरों की महिमा का बखान सुनकर चिढ़ गए ।

वह नारद से बोले- 

आप मेरे सामने दूसरे देवों का बखान कर कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते।

नारद तो नारद ही हैं।

किसी को अगर मिर्ची लगे तो वह उसमें छौंका भी लगा दें।

उन्होंने इंद्र पर कटाक्ष किया यह आपकी भूल है।

आप सन्मान और सम्मान चाहते हैं।

तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए।

अन्यथा उपहास के पात्र बन जाएंगे।

इंद्रदेव चिढ़ गए- 

मैं राजा बनाया गया हूँ।

तो दूसरे देवों को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा।

मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है ।

मैं वर्षा का स्वामी हूँ।

जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा।

देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे ।

नारद ने इंद्र को समझाया-

वरुण, अग्नि, सूर्य आदि।

सभी देवता अपनी - अपनी शक्तियों के स्वामी हैं।

सबका अपना सामर्थ्य है। 

आप उनसे मित्रता रखिए।

बिना सहयोगियों के राजकार्य नहीं चला करता ।

आप शंख मंजीरा बजाने वाले राज काज क्या जानें ? 

मैं देवराज हूँ, मुझे किसका डर ? 

इंद्र ने नारद का मजाक उड़ाया ।

नारदजी ने कहा- 

किसी का डर हो न हो।

शनि का भय आपको सताएगा।

कुशलता चाहते हों तो शनिदेव से मित्रता रखें।

वह यदि कुपित हो जाएं तो सब कुछ तहस नहस कर डालते हैं ।

इंद्र का अभिमान नारद को खटक गया।

नारद शनि लोक गए।

इंद्र से अपना पूरा वार्तालाप सुना दिया।

शनिदेव को भी इंद्र का अहंकार चुभा शनि और इंद्र का आमना − सामना हो गया।

शनि तो नम्रता से इंद्र से मिले।

मगर इंद्र तो अपने ही अहंकार में चूर ही रहते थे।

इंद्र को नारद की याद आई तो अहंकार जाग उठा शनि से बोले- 

सुना है...!

आप किसी का कुछ भी अहित कर सकते हैं । 

लेकिन मैं आपसे जरा भी नहीं डरता।

मेरा आप कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।

शनि को इंद्र की बातचीत का ढंग खटका,शनि ने कहा-

मैंने कभी श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश नहीं की है।

फिर भी समय आने पर देखा जाएगा।

कि कौन कितने पानी में है ।

इंद्र तैश में आ गए- 

अभी दिखाइए ! 

मैं आपका सामर्थ्य देखना चाहता हूँ।

देवराज इंद्र पर आपका असर नहीं होगा । 

शनि को भी क्रोध आया।

वह बोले- 

आप अहंकार में चूर हैं।

कल आपको मेरा भय सताएगा।

आप खाना पीना तक भूल जाएंगे।

कल मुझसे बचकर रहें ।

उस रात इंद्र को भयानक स्वप्न दिखाई दिया।

विकराल दैत्य उन्हें निगल रहा था।

उन्हें लगा यह शनि की करतूत है।

वह आज मुझे चोट पहुँचाने की चेष्टा कर सकता है । 

क्यों न ऐसी जगह छिप जाऊं जहाँ शनि मुझे ढूँढ़ ही न सके ।

इंद्र ने भिखारी का वेश बनाया और निकल गए।

किसी को भनक भी न पड़ने दी।

इंद्राणी को भी कुछ नहीं बताया इंद्र को शंका भी होने लगी।

कि उनसे नाराज रहने वाले देवता कहीं शनि की सहायता न करने लगें ।

वह तरह - तरह के विचारों से बेचैन रहे।

शनि की पकड़ से बचने का ऐसा फितूर सवार हुआ।

कि इंद्र एक पेड़ की कोटर में जा छुपे।

लेकिन शनि तो इंद्र को खोजने निकले ही नहीं ।

उन्होंने इंद्र पर केवल अपनी छाया भर डाल दी थी।

कुछ किए बिना ही इंद्र बेचैन रहे।

खाने - पीने की सुध न रही।

रात हुई तब इंद्र कोटर से निकले।

इंद्र खुश हो रहे थे।

कि उन्होंने शनिदेव को चकमा दे दिया।

अगली सुबह उनका सामना शनिदेव से हो गया।

शनि अर्थपूर्ण मुद्रा में मुस्कराए...!

इंद्र बोले-कल का पूरा समय निकल गया और आप मेरा बाल भी बांका नहीं कर सके।

अब तो कोई संदेह नहीं है।

कि मेरी शक्ति आपसे अधिक है ? 

नारद जैसे लोगों ने बेवजह आपको सर चढ़ा रखा है।

शनि ठठाकर हँसे- 

मैंने कहा था कि कल आप खाना− पीना भूल जाएंगे।

वही हुआ।

मेरे भय से बिना खाए - पीए पेड़ की कोटर में छिपना पड़ा।

यह मेरी छाया का प्रभाव था।

હું जो आप पर डाली थी.

जब मेरी छाया ने भी इतना भय दिया।

જો હું પ્રત્યક્ષ કુપત હો તો શું થશે ?

ઇંદ્ર का गर्व चूर हुआ. તેઓ માફ માंगी.

★★

         !!!!! શુભમસ્તુ !!!

🙏 હર હર મહાદેવ હર ...!!
जय माँ अंबे...!!! 🙏🙏
🙏🙏🙏【【【【【{{{{((((મારી પોસ્ટ પર આપવી પડશે) પરશુરામજી ))))) }}}}}】】】】】🙏🙏🙏

પંડિત રાજ્યગુરુ પ્રભુલાલ પી. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जडेजा कुल गुर:-
વ્યવસાયિક જ્યોતિષી નિષ્ણાત:- 
-: 1987 વર્ષનો જ્યોતિષ શાસ્ત્રનો અનુભવ :-
(જ્યોતિષ અને વાસ્તુ વિજ્ઞાનમાં 2 ગોલ્ડ મેડલિસ્ટ) 
શ્રી ધનલક્ષ્મી સ્ટ્રીટ્સ સામે, મારવાડ સ્ટ્રીટ્સ, રામેશ્વરમ - 623526 (તમિલનાડુ)
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।। श्रीरामचरितमानस प्रर्वचन ।।कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीरामचरितमानस प्रर्वचन ।।


कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥

जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है।




वैसे ही हे रघुनाथजी। 

हे रामजी! 

आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥

लोभी कही भी लोभ से तृप्त नही होता।

इसी प्रकार बार - बार प्रभु की झांकी का लोभ चाहिये, सुमिरन का मीठा - मीठा दर्द चाहिये।

हर समय उसी का ध्यान, इसी को जागृति कहा है।

अगर जागोगे तो हर कार्य आपका ध्यान हो जायेगा।

ध्यान और धंधा ये कोई अलग - अलग नहीं है। 

जागकर किया गया हर कार्य ध्यान बन जाता हैं।

हम पाठ भी सोते - सोते करते है।

बोलते कहीं है।

देखते कहीं हैं।

सोचते कुछ और है होश भी नहीं रहता कि क्या बोला था? 

क्या गाया था? 

इस लिये सोये हुये किया गया भजन भी प्रकाश नहीं दे पा रहा है।

जीवन लग गया भजन करते - करते क्योंकि सोते - सोते हो रहा है।

सोते में तो स्वपन देखे जाते हैं।

अगर हम सब कार्य जागकर करेंगे तो अलग से फिर कोई ध्यान करने की आवश्यकता ही नही है।

ध्यान तो उसका किया जाता है।

जो हम से दूर हैं।

जो हमारे भीतर बैठा है वो तो ध्यान में रहता ही है।

अभी भगवान भीतर नहीं है।

इस लिये ध्यान करना पड़ता है।

ध्यान करना और ध्यान में रहना ये दोनों अलग - अलग बाते है।

काम करना और काम में रहना ये दोनों अलग - अलग बाते है।

जैसे हम शरीर से मंदिर मे है पर ध्यान मे घर बैठा हैं।

जब जीव प्रभु में डूब जाता है तो अलग से ध्यान करने की जरूरत नही होती।

इस लिये गोपियो को भीतर से ध्यान से निकालने के लिये ध्यान करना पड़ता था।

गोपियाँ ध्यान करती है कि भगवान भीतर से बाहर निकले ताकि घर का काम - काज कुछ हम कर पायें।

ये जागृति अवस्था है।

यह घटना आपने सुनी होगी।

एक शिष्य गुरु के पास आया दीक्षा लेने के लिये, भगवत - साक्षात्कार करने के लिये।

गुरु ने कहा बारह वर्ष तक धान कूटो।

उठते, बैठते, सोते जागते बस धान कूटो।

बस चौबीसों घंटे धान कूटते कूटते ध्यान में आ गया।

ध्यान अलग से करने की आवश्यकता नहीं।

हरि व्यासजी बहुत बड़े संत हुये है।

उनके गुरूदेव ने हरि व्यासजी को बोला जाओ बारह वर्ष तक गिरिराजजी की परिक्रमा लगाओ।

अब जो बारह वर्ष गिरिराजजी में डूबेगा उसे अलग से ध्यान करने की आवश्यकता पडेगी क्या? 

जागृत अवस्था ही ध्यान है।

शास्त्र पढकर सत्य के बारे मे जाना तो जा सकता है पर सत्य का अनुभव तो जागृत जीव ही कर पायेगा।

इसके लिये साधना करनी पड़ती है।

साधना बड़ा मूल्यवान शब्द है।

जो मन हमारा बिना इच्छा के इधर उधर गड्ढे में गिर रहा है।

वो सध जाये।

ये साधना है।

साधु का अर्थ क्या है? 

जो सध गया है।

साधक का अर्थ है जो सधने का प्रयत्न कर रहा है।

मन हमारे अनुसार रहे साधना का बस इतना ही अर्थ हैं।

हम लोग कहते है न कि रास्ते में बहुत फिसलन है जरा सध के चलो।

इधर - उधर पैर पड जायेगा तो पैर फिसल जायेगा।

इस लिये सत्य को जाना नहीं जाता, सत्य को जिया जाता है।

पंडित जानता है।

साधक अनुभव करता है।

विद्वान सत्य की व्याख्या करता है और साधु सत्य का पान करता हैं।

इस लिये जागने से मन के विचार मिट जाते हैं।

स्वपन तो निद्रा में आते हैं।

कुछ लोग जरूर बैठे - बैठे सपने देखते है उन्हे शेखचिल्ली कहा जाता है।

वो घटना आपने सुनी होगी, सिर पर दही की मटकी लिये जा रहा था।

सोच रहा था बच्चा होगा, पापा - पापा बोलेगा।

पैसे माँगेगा, मैं थप्पड़ लगाऊँगा और सोचते - सोचते मटकी को ही थप्पड़ मार दिया और मटकी धड़ाम से नीचे गिर गई।

सज्जनों...!

जो जागृत में स्वप्न देखते हैं उनकी मटकी बीच रास्ते में फूट जाया करती है।

इस लिये भागो मत...!

जागो...!

जहा भी हो वहीं जागिये।

जनकजी की घटना आपने सुनी होगी।

साधु को ले गये स्नान कराने के लिये और सेवक ने आकर कहा कि महल में आग लगी है।

जनकजी चैन से स्नान करते रहे और साधु दौड़ा, जनकजी ने पूछा बाबा कहाँ दौड़कर गये थे?

बोले तुमने सुना नही...!

तुम्हारे महल में आग लग गई थी...!

महल तो मेरा था आग लगी तो तुम क्यों दौड़े? 

 

साधु बोले...!

मेरी लंगोटी उसमें सूख रही थी।

आग लग रही थी इस लिये लंगोट को लेने गया था।

बाँधने के लिये महल नहीं चाहिये।

बाँधने के लिये लंगोटी ही काफी है।

योगियों ने महल छोड दिया हम भिक्षापात्र नही छोड पाते।

इस लिये पशु सोये हुये हैं।

ये बंधन में रहते है।

पाश का अर्थ है बंधन...!

हम सब किसी न किसी पाश में बंधे हैं।

कोई धन से भाग रहा है तो कोई धन की ओर भाग रहा है।

भागने का कारण ही धन है।

एक धन की और तो दूसरा धन से दूर...!

एक पैर के बल खड़ा है।

एक सिर के बल खड़ा है।

व्यक्ति तो वहीं रहता है बदलता कुछ भी नही।

इस लिये सज्जनों...!

स्थान बदलने से कई बार लोग सोचते है कि सब कुछ बदल जायेंगे।

किसी तीर्थ में चलते हैं।

स्थान बदलने से जीव नही बदलता..!

स्थिति बदलने से जीवन बदलता है। 

साधु-बैरागी हो गये पर वृत्ति तो वही की वहीं रही।

घर छोड़कर तीर्थ - आश्रम में आ गये।

जो वृत्ति घर मे थी वही बाहर घेर लेगी।

स्वभाव नही बदलता...!

भाई - बहनों...!

कपड़े बदलने से कोई परिवर्तन नहीं आ सकता।

इसी लिये भेद के लिये तो भीतर से बदलना होगा।

कुछ तो समय ख़राब था कुछ लोग भी ऐसे हीं मिल गये थे..!

उम्र तो आधी भी नहीं हुई पर सबक़ सारे मिल गये....!!

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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