सभी मित्रों के मेरा लेख में हे ज्योतिष आप मेरा हुवा की कोपी ना करे किसी लेख की कोपी नही करते, किसी का लेखको कोपी तो वाही विद्या आगे बठने की नही हेपी को हो आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता ભાઈ અને આગળ भी नही बढ़ता , તમે તમારા મહંત થી તૈયાર થવાથી ખૂબ આગળ વધો તમારો આભાર ........
જય દ્વારકાધીશ
श्री ऋग्वेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य और इंद्र का शनि से बहस।
श्री ऋग्वेद श्री यजुर्वेद और श्री विष्णु पुराण पर सेपुरुषोत्तम मास माहात्म्य।
નારદ જી બોલે...!
'हे महाभाग...!
हे तपोनिधे....!
આ પ્રકારનો અતિમાસના વચનો સાંભળવા માટે હરિના તબક્કામાં આગળ ઉમેરાતાં વધારામાં શું કહ્યું?'
શ્રીનારાયણ બોલે...!
'હે પાપ રહિત!
हे નારદ....!
जो हरि ने मलमास के प्रति कहा वह हम कहते हैं सुन! हे मुनिश्रेष्ठ!
તમે જે સત્कथा हमसे पूछते हैं, आपको धन्य है।'
શ્રીકૃષ્ણ બોલે...!
'હે અરજીન...!
बैकुण्ठ का वृत्तान्त हम आपको सम्मुख कहते हैं..!
સુન!
મલमास के मूर्छित हो जाने पर हरि के नेत्र से संकेत पाये हुए गरुड़ मूरछित मलमास को पंख से हवा तो लगेंगे।
હવા લગને પર વધુ માસ ઊઠવું ફરી બોલા હે વિભો!
यह मुझको नहीं रुचता है.
अधिक मास बोला....!
'हे जगत् को उत्पन्न करने वाले!
हे विष्णो!
हे जगत्पते!
મારી રક્ષા કરો!
બચાવ કરો!
हे नाथ!
मुझ शरण आये की आज कैसे उपेक्षा कर रहे हैं।'
इस प्रकार कहकर काँपते हुए घड़ी - घड़ी विलाप करते हुए अधिमास से...!
बैकुण्ठ में रहने वाले हृषीकेश हरि, बोले।
श्रीविष्णु बोले...!
'उठो - उठो तुम्हारा कल्याण हो....!
हे वत्स!
विषाद मत करो।
हे निरीश्वर!
तुम्हारा दुःख मुझको दूर होता नहीं ज्ञात होता है।'
ऐसा कहकर प्रभु मन में सोचकर क्षणभर में उपाय निश्चय करके पुनः अधिक मास से मधुसूदन बोले।
श्रीविष्णु बोले....!
'हे वत्स!
योगियों को भी जो दुर्लभ गोलोक है वहाँ मेरे साथ चलो जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम, ईश्वर रहते हैं।
गोपियों के समुदाय के मध्य में स्थित, दो भुजा वाले, मुरली को धारण किए हुए नवीन मेघ के समान श्याम, लाल कमल के सदृश नेत्र वाले, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अति सुन्दर मुख वाले, करोड़ों कामदेव के लावण्य की मनोहर लीला के धाम, पीताम्बर धारण किये हुए।
माला पहिने, वनमाला से विभूषित, उत्तम रत्ना भरण धारण किये हुए, प्रेम के भूषण, भक्तों के ऊपर दया करने वाले, चन्दन चर्चित सर्वांग, कस्तूरी और केशर से युक्त, वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह से शोभित, कौस्तुक मणि से विराजित, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रत्नों के सार से रचित किरीट वाले, कुण्डलों से प्रकाशमान, रत्नोंल के सिंहासन पर बैठे हुए।
पार्षदों से घिरे हुए जो हैं।
वही पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं।
वे सर्वतन्त्रर स्वतन्त्रउ हैं।
ब्रह्माण्ड के बीज, सबके आधार, परे से भी परे, निस्पृह, निर्विकार, परिपूर्णतम, प्रभु, माया से परे, सर्वशक्तिसम्पन्न, गुणरहित, नित्यशरीरी।
ऐसे प्रभु जिस गोलोक में रहते हैं।
वहाँ हम दोनों चलते हैं।
वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।'
श्रीनारायण बोले...!
'ऐसा कहकर अधिमास का हाथ पकड़ कर हरि, गोलोक को गये।
हे मुने!
जहाँ पहले के प्रलय के समय में वे अज्ञानरूप महा अन्धकार को दूर करने वाले, ज्ञानरूप मार्ग को दिखाने वाले केवल ज्योतिः स्वरूप थे।
जो ज्योति करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाली, नित्य, असंख्य और विश्वप की कारण थी तथा उन स्वेच्छामय विभुकी ही वह अतिरेक की चरम सीमा को प्राप्त थी।
जिस ज्योति के अन्दर ही मनोहर तीन लोक विराजित हैं।
हे मुने!
उसके ऊपर अविनाशी ब्रह्म की तरह गोलोक विराजित है।
तीन करोड़ योजन का चौतरफा जिसका विस्तार है और मण्डलाकार जिसकी आकृति है।
लहलहाता हुआ साक्षात् मूर्तिमान तेज का स्वरूप है।
जिसकी भूमि रत्नमय है।
योगियों द्वारा स्वप्न में भी जो अदृश्य है।
परन्तु जो विष्णु के भक्तों से गम्य और दृश्य है।
ईश्वर ने योग द्वारा जिसे धारण कर रखा है ऐसा उत्तम लोक अन्तरिक्ष में स्थित है।
आधि, व्याधि, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, भय आदि से रहित है।
श्रेष्ठ रत्नों से भूषित असंख्य मकार्नो से शोभित है।
उस गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन के विस्तार के भीतर दाहिने बैकुण्ठ और बाँयें उसी के समान मनोहर शिवलोक स्थित है।
एक करोड़ योजन विस्तार के मण्डल का बैकुण्ठ, शोभित है।
वहाँ सुन्दर पीताम्बरधारी वैष्णव रहते हैं।
उस बैकुण्ठ के रहने वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए लक्ष्मी के सहित चतुर्भुज हैं।
उस बैकुण्ठ में रहने वाली स्त्रियाँ, बजते हुए नूपुर और करधनी धारण की हैं।
सब लक्ष्मी के समान रूपवती हैं।
गोलोक के बाँयें तरफ जो शिवलोक है उसका करोड़ योजन विस्तार है और वह प्रलयशून्य है।
सृष्टि में पार्षदों से युक्त रहता है।
बड़े भाग्यवान् शंकर के गण जहाँ निवास करते हैं।
शिवलोक में रहने वाले सब लोग सर्वांग भस्म धारण किये, नाग का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं।
अर्धचन्द्र जिनके मस्तक में शोभित है।
त्रिशूल और पट्टिशधारी, सब गंगा को धारण किये वीर हैं और सबके सब शंकर के समान जयशाली हैं।
गोलोक के अन्दर अति सुन्दर एक ज्योति है।
वह ज्योति परम आनन्द को देने वाली और बराबर परमानन्द का कारण है।
योगी लोग बराबर योग द्वारा ज्ञानचक्षु से आनन्द जनक, निराकार और पर से भी पर उसी ज्योति का ध्यान करते हैं।
उस ज्योति के अन्दर अत्यन्त सुन्दर एक रूप है।
श्रीवत्स चिह्न से शोभित वक्षःस्थल वाले, कौस्तुभमणि से सुशोभित, करोड़ों उत्तम रत्नों से जटित चमचमाते किरीट और कुण्डलों को धारण किये, रत्नों के सिंहासन पर विराजमान्, वनमाला से सुशोभित।
वही श्रीकृष्ण नाम वाले पूर्ण परब्रह्म हैं।
अपनी इच्छा से ही संसार को नचाने वाले, सबके मूल कारण, सबके आधार, पर से भी परे छोटी अवस्था वाले, निरन्तर गोपवेष को धारण किये हुए।
करोड़ों पूर्ण चन्द्रों की शोभा से संयुक्त, भक्तों के ऊपर दया करने वाले निःस्पृह, विकार रहित, परिपूर्णतम, स्वामी रासमण्डप के बीच में बैठे हुए।
शान्त स्वरूप, रास के स्वामी, मंगलस्वरूप, मंगल करने के योग्य, समस्त मंगलों के मंगल, परमानन्द के राजा, सत्यरूप, कभी भी नाश न होने वाले विकार रहित, समस्त सिद्धों के स्वामी, सम्पूर्ण सिद्धि के स्वरूप, अशेष सिद्धियों के दाता, माया से रहित, ईश्वनर, गुणरहित, नित्यशरीरी, आदिपुरुष, अव्यक्त, अनेक हैं।
नाम जिनके, अनेकों द्वारा स्तुति किए जाने वाले, नित्य, स्वतन्त्र, अद्वितीय, शान्त स्वरूप, भक्तों को शान्ति देने में परायण ऐसे परमात्मा के स्वरूप को शान्तिप्रिय, शान्त और शान्ति परायण जो विष्णुभक्त हैं।
वे ध्यान करते हैं।
इस प्रकार के स्वरूप वाले भगवान् कहे जाने वाले।
वही एक आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र हैं।'
श्रीनारायण बोले....!
'ऐसा कहकर भगवान्, सत्त्व स्वरूप विष्णु अधिमास को साथ लेकर शीघ्र ही परब्रह्मयुक्त गोलोक में पहुँचे।'
सूतजी बोले....!
'ऐसा कहकर सत्क्रिया को ग्रहण किये हुए।
नारायण मुनि के चुप हो जाने पर आनन्द सागर पुरुषोत्तम से विविध प्रकार की नयी कथाओं को सुनने की इच्छा रखने वाले नारद मुनि उत्कण्ठा पूर्वक बोले।'
इति श्रीबृहन्नारदीय पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
इंद्र देव का अहंकार।
नारदजी देवताओं के प्रभाव की चर्चा कर रहे थे।
देवराज इंद्र अपने सामने दूसरों की महिमा का बखान सुनकर चिढ़ गए ।
वह नारद से बोले-
आप मेरे सामने दूसरे देवों का बखान कर कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते।
नारद तो नारद ही हैं।
किसी को अगर मिर्ची लगे तो वह उसमें छौंका भी लगा दें।
उन्होंने इंद्र पर कटाक्ष किया यह आपकी भूल है।
आप सन्मान और सम्मान चाहते हैं।
तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए।
अन्यथा उपहास के पात्र बन जाएंगे।
इंद्रदेव चिढ़ गए-
मैं राजा बनाया गया हूँ।
तो दूसरे देवों को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा।
मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है ।
मैं वर्षा का स्वामी हूँ।
जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा।
देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे ।
नारद ने इंद्र को समझाया-
वरुण, अग्नि, सूर्य आदि।
सभी देवता अपनी - अपनी शक्तियों के स्वामी हैं।
सबका अपना सामर्थ्य है।
आप उनसे मित्रता रखिए।
बिना सहयोगियों के राजकार्य नहीं चला करता ।
आप शंख मंजीरा बजाने वाले राज काज क्या जानें ?
मैं देवराज हूँ, मुझे किसका डर ?
इंद्र ने नारद का मजाक उड़ाया ।
नारदजी ने कहा-
किसी का डर हो न हो।
शनि का भय आपको सताएगा।
कुशलता चाहते हों तो शनिदेव से मित्रता रखें।
वह यदि कुपित हो जाएं तो सब कुछ तहस नहस कर डालते हैं ।
इंद्र का अभिमान नारद को खटक गया।
नारद शनि लोक गए।
इंद्र से अपना पूरा वार्तालाप सुना दिया।
शनिदेव को भी इंद्र का अहंकार चुभा शनि और इंद्र का आमना − सामना हो गया।
शनि तो नम्रता से इंद्र से मिले।
मगर इंद्र तो अपने ही अहंकार में चूर ही रहते थे।
इंद्र को नारद की याद आई तो अहंकार जाग उठा शनि से बोले-
सुना है...!
आप किसी का कुछ भी अहित कर सकते हैं ।
लेकिन मैं आपसे जरा भी नहीं डरता।
मेरा आप कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।
शनि को इंद्र की बातचीत का ढंग खटका,शनि ने कहा-
मैंने कभी श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश नहीं की है।
फिर भी समय आने पर देखा जाएगा।
कि कौन कितने पानी में है ।
इंद्र तैश में आ गए-
अभी दिखाइए !
मैं आपका सामर्थ्य देखना चाहता हूँ।
देवराज इंद्र पर आपका असर नहीं होगा ।
शनि को भी क्रोध आया।
वह बोले-
आप अहंकार में चूर हैं।
कल आपको मेरा भय सताएगा।
आप खाना पीना तक भूल जाएंगे।
कल मुझसे बचकर रहें ।
उस रात इंद्र को भयानक स्वप्न दिखाई दिया।
विकराल दैत्य उन्हें निगल रहा था।
उन्हें लगा यह शनि की करतूत है।
वह आज मुझे चोट पहुँचाने की चेष्टा कर सकता है ।
क्यों न ऐसी जगह छिप जाऊं जहाँ शनि मुझे ढूँढ़ ही न सके ।
इंद्र ने भिखारी का वेश बनाया और निकल गए।
किसी को भनक भी न पड़ने दी।
इंद्राणी को भी कुछ नहीं बताया इंद्र को शंका भी होने लगी।
कि उनसे नाराज रहने वाले देवता कहीं शनि की सहायता न करने लगें ।
वह तरह - तरह के विचारों से बेचैन रहे।
शनि की पकड़ से बचने का ऐसा फितूर सवार हुआ।
कि इंद्र एक पेड़ की कोटर में जा छुपे।
लेकिन शनि तो इंद्र को खोजने निकले ही नहीं ।
उन्होंने इंद्र पर केवल अपनी छाया भर डाल दी थी।
कुछ किए बिना ही इंद्र बेचैन रहे।
खाने - पीने की सुध न रही।
रात हुई तब इंद्र कोटर से निकले।
इंद्र खुश हो रहे थे।
कि उन्होंने शनिदेव को चकमा दे दिया।
अगली सुबह उनका सामना शनिदेव से हो गया।
शनि अर्थपूर्ण मुद्रा में मुस्कराए...!
इंद्र बोले-कल का पूरा समय निकल गया और आप मेरा बाल भी बांका नहीं कर सके।
अब तो कोई संदेह नहीं है।
कि मेरी शक्ति आपसे अधिक है ?
नारद जैसे लोगों ने बेवजह आपको सर चढ़ा रखा है।
शनि ठठाकर हँसे-
मैंने कहा था कि कल आप खाना− पीना भूल जाएंगे।
वही हुआ।
मेरे भय से बिना खाए - पीए पेड़ की कोटर में छिपना पड़ा।
यह मेरी छाया का प्रभाव था।
હું जो आप पर डाली थी.
जब मेरी छाया ने भी इतना भय दिया।
જો હું પ્રત્યક્ષ કુપત હો તો શું થશે ?
ઇંદ્ર का गर्व चूर हुआ. તેઓ માફ માंगी.
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!!!!! શુભમસ્તુ !!!
🙏 હર હર મહાદેવ હર ...!!
जय माँ अंबे...!!! 🙏🙏
🙏🙏🙏【【【【【{{{{((((મારી પોસ્ટ પર આપવી પડશે) પરશુરામજી ))))) }}}}}】】】】】🙏🙏🙏
પંડિત રાજ્યગુરુ પ્રભુલાલ પી. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जडेजा कुल गुर:-
વ્યવસાયિક જ્યોતિષી નિષ્ણાત:-
-: 1987 વર્ષનો જ્યોતિષ શાસ્ત્રનો અનુભવ :-
(જ્યોતિષ અને વાસ્તુ વિજ્ઞાનમાં 2 ગોલ્ડ મેડલિસ્ટ)
શ્રી ધનલક્ષ્મી સ્ટ્રીટ્સ સામે, મારવાડ સ્ટ્રીટ્સ, રામેશ્વરમ - 623526 (તમિલનાડુ)
સેલ નંબર: +91- 7010668409
વોટ્સએપ નંબર:+ 91- 7598240825 ( तमिलनाडु )
સ્કાયપે: જ્યોતિષ 85
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નોટ એ મારો શોખ નથી હે મારો જોબ હેકૃપ્યા તમારી મુક્ત સેવા માટે દુઃખ ના દે.....
જય દ્વારકાધીશ....
જય જય પરશુરામજી...🙏🙏🙏
जय श्री कृष्ण🙏🙏🙏
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