https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: ।।श्रीमद् भागवत के प्रसंग की एक सुंदर कहानी राधारानी जी को सौ वर्षों का वियोग।।

।।श्रीमद् भागवत के प्रसंग की एक सुंदर कहानी राधारानी जी को सौ वर्षों का वियोग।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।।श्रीमद् भागवत के प्रसंग की एक सुंदर कहानी राधारानी जी को सौ वर्षों का वियोग।।


जब श्रीदामा जी को श्राप लगा तो भगवान कृष्ण श्रीदामा जी से बोले-  

कि तुम एक अंश से असुर होगे और वैवत्सर मनमंतर में द्वापर में अवतार लूगाँ और मै गोपियों के साथ रास करूगाँ।



तो तुम अवहेलना करोगे।

तो मै वध करूगाँ।

इस प्रकार श्री दामा जी यक्ष के यहाँ शंखचूर्ण  नाम के दैत्य हो गए।

कुबेर के सेवक हो गए।

जब द्वापर में भगवान ने अवतार लिए ब्रज की लीलाओं में भगवान ने रासलीला की तो यही शंखचूर्ण नामक दैत्य जो कंस का मित्र था।

उस समय वह कंस से मिलकर लौट रहा था।

बीच में रास मंडल देखा उस समय राधा कृष्ण की अलौकिक शोभा है।

गोपियाँ चवर डूला रही है।

भगवान के एक हाथ में बंशी है।

सिर पर मोर मुकुट है।

गले में मणी है।

पैरों में नुपर है।

उसी समय ये शंखचूर्णने गोपियों को हरने की सोची उसका मुख बाघ के समान है,

शरीर से काला है।

उसे देखकर गोपियाँ भागने लगी। 

तो उनमे से एक गोपी शतचंद्र्नना को उसने पकड़ा,

और पूर्व दिशा में ले जाने लगा,गोपी कृष्ण - कृष्ण पुकारने लगी।

तो भगवान कृष्ण भी शाल का वृक्ष हाथ में लेकर उसकी ओर दोडे।

अब डर से उसने गोपी को तो छोड़ दिया और भगवान को आते देख अपने प्राण बचाने के लिए भागने लगा।

और हिमालय की घाटी पर पहुँच गया तो भगवान ने एक ही मुक्के में उसमें सिर को तोड दिया और उसकी चूडामणी निकाल ली।

शंखचूड़ के शरीर से एक दिव्य ज्याति निकली और भगवान के सखा श्रीदामा जी में विलीन हो गई तो शंखचूर्ण का वध करके भगवान  ब्रज में आ गए।

ये राक्षस श्रीदामा जी के अंश् था।

इस लिए शंख चूड़ की आत्मज्योति निकलकर श्री दामा में ही समां गई।

यहाँ जो श्राप श्री राधा रानी जी ने श्री दामा जी को दिया था वह तो पूर्ण हो गया।

अब जो श्राप राधा रानी जो को श्री दामा जी ने दिया था।

उसका समय भी निकट आ गया था और श्राप वश राधाजी केा सौ वर्ष का विरह हुआ।

तो भगवान ने कहा कि मै अपने भक्त का संकल्प कभी नहीं छोड सकता है.

इसलिए राधा जी को तो वियोग होना ही है।

फिर जब भगवान मथुरा चले गए तो वो लौट के नहीं आए सौ वर्ष बाद कुरूक्षेत्र में सारे गोप ग्वालों की भगवान से भेंट हुई राधा जी से मिले।

गौलोक धाम का प्राकट्य सबसे पहले विशालकाय शेषनाग का प्रादुर्भाव हुआ।

जो कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के है।

उन्ही की गोद में लोकवंदित महालोक “गोलोक” प्रकट हुआ।

जिसे पाकर भक्ति युक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता।

फिर असंख्य ब्रह्माण्डो के अधिपति गोलोक नाथ भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से “त्रिपथा गंगा” प्रकट हुई।

आगे जब भगवान से ब्रह्माजी प्रकट हुए।

तब उनसे देवर्षि नारद का प्राकट्य हुआ।

वे भक्ति से उन्मत होकर भूमंडल पर भ्रमण करते हुए भगवान के नाम पदों का कीर्तन करने लगे।

ब्रह्माजी ने कहा – 

नारद ! 

क्यों व्यर्थ में घूमते फिरते हो ? 

प्रजा की सृष्टि करो।

इस पर नारद जी बोले – 

मै सृष्टि नहीं करूँगा।

क्योकि वह “शोक और मोह” पैदा करने वाली है।

बल्कि मै तो कहता हूँ।

आप भी इस सृष्टि के व्यापार में लगकर दुःख से अत्यंत आतुर रहते है।

अतः आप भी इस सृष्टि को बनाना छोड़ दीजिये.

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया और उन्होंने नारद जी को श्राप दे दिया।

ब्रह्मा जी बोले -

हे दुर्मति नारद तु एक कल्प तक गाने-बजाने में लगे रहने वाले गन्धर्व हो जाओ।

नारद जी गन्धर्व हो गए...!

और गन्धर्वराज के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।

स्त्रियों से घिरे हुए एक दिन ब्रह्मा जी के सामने वेसुर गाने लगे।

फिर ब्रह्मा जी ने श्राप दिया तू शूद्र हो जा...!

दासी के घर पैदा होगा।

 

और इस तरह नारदजी दासी के पुत्र हुए।

और सत्संग के प्रभाव से उस देह हो छोड़कर फिर से ब्रह्मा जी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए।

और फिर भूतल पर विचरण करते हुए वे भगवान के पदों का गान व कीर्तन करने लगे.

एक दिन बिभिन्न लोको का दर्शन करते हुए।

“वेद - नगर” में गए,नारद जी ने देखा वहाँ सभी अपंग है।

किसी के हाथ नहीं किसी के पैर नहीं।

कोई कुबड़ा है।

किसी के दाँत नहीं है।

बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने पूँछा – 

बड़ी विचित्र बात है ! 

यहाँ सभी बड़े विचित्र दिखायी पड़ते है?

इस पर वे सब बोले – 

हम सब “राग - रगनियाँ” है।

ब्रह्मा जी का पुत्र है -

“नारद” वह वेसमय धुवपद गाता हुआ इस पृथ्वी पर विचरता है।

इस लिए हम सब अपंग हो गए है।

( जब कोई गलत राग,पद गाता है तो मानो राग रागनियो के अंग - भंग हो जाते है )

नारद जी बोले – 

मुझे शीघ्र बताओ ! 

नारद को किस प्रकार काल और ताल का ज्ञान होगा ?

राग-रागनियाँ – 

यदि सरस्वती शिक्षा दे।

तो सही समय आने पर उन्हें ताल का ज्ञान हो सकता है.

नारद जी ने सौ वर्षों तक तप किया।

तब सरस्वती प्रकट हुई और संगीत की शिक्षा दी।

नारद जी ज्ञान होने पर विचार करने लगे की इसका उपदेश किसे देना चाहिये? 

तब तुम्बुरु को शिष्य बनाया, दूसरी बात मन में उठी।

कि किन लोगो के सामने इस मनोहर राग रूप गीत का गान करना चाहिये?

खोजते-खोजते इंद्र के पास गए, इंद्र तो विलास में डूबे हुए थे।

उन्होंने ध्यान नहीं दिया, शंकरजी के पास गए।

वे नेत्र बंद किये ध्यान में डूबे हुए थे।

तब अंत में नारदजी “गोलोक धाम” में गए।

जब भगवान श्रीकृष्ण के सामने उन्होंने स्तुति करके भगवान के गुणों का गान करने लगे।

और वाद्य यंत्रो को दबाकर देवदत्त स्वरामृतमयी वीणा झंकृत की।

तब भगवान बड़े प्रसन्न हुए और अंत में प्रेम के वशीभूत हो।

अपने आपको देकर भगवान जल रूप हो गए।

भगवान के शरीर से जो जल प्रकट हुआ उसे “ब्रह्म - द्रव्य”के नाम से जानते है।

उसके भीतर कोटि - कोटि ब्रह्माण्ड राशियाँ लुढकती है।

जिस ब्रह्माण्ड में सभी रहते है।

उसे “पृश्निगर्भ” नाम से प्रसिद्ध है जो वामन भगवान के पाद - घात से फूट गया।

उसका भेदन करके जो ब्रह्म-द्रव्य का जल आया, उसे ही हम सब गंगा के नाम से जानते है।

गंगा जी को धुलोक में “मन्दाकिनी”,पृथ्वी पर “भागीरथी”,और अधोलोक पाताल में “भोगवर्ती” कहते है।

इस प्रकार एक ही गंगा को त्रिपथ गामिनी होकर तीन नामो से विख्यात हुई.

इसमें स्नान करने के लिए प्रणत-भाव से जाते हुए मनुष्य के लिए पग - पग पर राजसूर्य और अश्वमेघ यज्ञो का फल दुर्लभ नहीं रह जाता।

फिर भगवान के “बाये कंधे” से सरिताओ में श्रेष्ठ – 

“यमुना जी” प्रकट हुई...!

भगवान के दोनों “गुल्फो से” दिव्य “रासमंडल” और “दिव्य श्रृंगार” साधनों के समूह का प्रादुर्भाव हुआ।

भगवान की “पिंडली” से “निकुंज” प्रकट हुआ. जो सभा, भवनों, आंगनो गलियों और मंडलों से घिरा हुआ था।

“घुटनों” से सम्पूर्ण वनों में उत्तम “श्रीवृंदावन” का आविर्भाव हुआ.

“जंघाओं” से “लीला-सरोवर” प्रकट हुआ. “कटि प्रदेश” से दिव्य रत्नों द्वारा जड़ित प्रभामायी “स्वर्ण भूमि” का प्राकट्य हुआ.

उनके “उदर” में जो रोमावालिया है, वे विस्तृत “माधवी लताएँ”बन गई. गले की “हसुली” से “मथुरा-द्वारका” इन दो पूरियो का प्रादुर्भाव हुआ,

दोनों “भुजाओ” से “श्रीदामा”आदि. आठ श्रीहरि के “पार्षद” उत्पन्न हुए. “कलाईयों” से “नन्द” और “कराग्र-भाग” से “उपनंद” प्रकट हुए.

“भुजाओ” के मूल भागो से “वृषभानुओं” का प्रादुर्भाव हुआ।

समस्त गोपगण श्रीकृष्ण के “रोम” से उत्पन्न हुए।

भगवान के “बाये कंधे” से एक परम कान्तिमान गौर तेज प्रकट हुआ,

जिससे “श्री भूदेवी”,”विरजा” और अन्यान्य “हरिप्रियाये”आविभूर्त हुई.

फिर उन श्रीराधा रानीजी के दोनों भुजाओ से “विशाखा” “ललिता” इन दो सखियों का आविभार्व हुआ,

और दूसरी सहचरी गोपियाँ है वे सब राधा के रोम से प्रकट हुई, इस प्रकार मधुसूदन ने गोलोक की रचना की

भगवान् की शरण के महिमा अपार है।

बहुत-सी भेड़ - बकरियाँ जंगल में चरने गयीं। 

उनमें से एक बकरी
 चरते - चरते एक लता में उलझ गयी।

उसको उस लता में से निकलने में बहुत देर लगी।

तब तक अन्य सब भेड़ - बकरियाँ अपने घर पहुँच गयीं।

अँधेरा भी हो रहा था। 

वह बकरी घूमते -  घूमते एक सरोवर के किनारे पहुँची। 

वहाँ किनारे की गीली जमीन पर सिंह का एक चरण - चिह्न मँढा हुआ था। 

वह उस चरण - चिह्न के शरण होकर उसके पास बैठ गयी। 

रात में जंगली सियार , भेड़िया ,  बाघ आदि प्राणी बकरी को खाने के लिये पास में जाते हैं तो वह बकरी बता देती है.....!

पहले देख लेना कि मैं किसकी शरण में हूँ; 

तब मुझे खाना !’

वे चिह्न को देखकर कहते हैं.....!

अरे....!

यह तो सिंह के चरण - चिह्न के शरण है।

जल्दी भागो यहाँ से ! 

सिंह आ जायगा तो हमको मार डालेगा।

’इस प्रकार सभी प्राणी भयभीत होकर भाग जातें हैं। 

अन्त में जिसका चरण - चिह्न था।

वह सिंह स्वयं आया और बकरी से बोला...!

तू जंगल में अकेली कैसे बैठी है ? 

बकरी ने कहा.....!

यह चरण - चिह्न देख लेना...!

फिर बात करना। 

जिसका यह चरण - चिह्न है।

उसी के मैं शरण हुई बैठी हूँ।

सिंह ने देखा....!

ओह ! 

यह तो मेरा ही चरण - चिह्न है।

यह बकरी तो मेरे ही शरण हुई !

सिंह ने बकरी को आश्वासन दिया कि अब तुम डरो मत...!

निर्भय होकर रहो।

रात में जब जल पीने के लिये हाथी आया तो सिंह ने हाथी से कहा....!

तू इस बकरी को अपनी पीठ पर चढ़ा ले। 

इसको जंगल में चराकर लाया कर और हरदम अपनी पीठ पर ही रखा कर, नहीं तो तू जानता नहीं, मैं कौन हूँ ? 

मार डालूँगा ! 

सिंह की बात सुनकर हाथी थर - थर काँपने लगा। 

उसने अपनी सूँड़ से झट बकरी को पीठ पर चढ़ा लिया। 

अब वह बकरी निर्भय होकर हाथी की पीठ पर बैठे - बैठे ही वृक्षों की ऊपर की कोंपलें खाया करती और मस्त रहती।

खोज पकड़ सैंठे रहो,धणी मिलेंगे आय।
अजया गज मस्तक चढ़े,निर्भय कोंपल खाय॥

ऐसे ही जब मनुष्य भगवान्‌ के शरण हो जाता है।

उनके चरणों का सहारा ले लेता है।

तो वह सम्पूर्ण प्राणियों से, विघ्न बाधाओं  से निर्भय हो जाता है। 

उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता।

कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

जो जाको शरणो गहै,वाकहँ ताकी लाज।
उलटे जल मछली चले बह्यो जात गजराज॥

भगवान्‌ के साथ काम, भय, द्वेष, क्रोध, स्‍नेह आदि से भी सम्बन्ध क्यों न जोड़ा जाय।

वह भी जीव का कल्याण करने वाला ही होता है। 
तात्पर्य यह हुआ कि काम, क्रोध, द्वेष आदि किसी तरह से भी जिनका भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध जुड़ गया।

उनका तो उद्धार हो ही गया।

पर जिन्होंने किसी तरह से भी भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा।

उदासीन ही रहे।

वे भगवत्प्राप्ति से वंचित रह गये।

श्री ठाकुरजी के चरणों का भक्त कुछ हो न हो पर धैर्यवान जरूर होगा। 

तिलक लगा हो माथे पर न लगा हो।

अभी हाथ लगे तो मिट जाएगा।

कपड़ा फट सकते हैं।

छूट सकते हैं।

माला छूट सकती है सब हो सकता है। 

बहुत सफल ऊर्जा है धैर्य की। 

भगवान बड़े धैर्य से बैठे हैं। 

राधारमण पाँच सौ वर्ष से धैर्य से बैठे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

वासुदेव सर्वं इति स महात्मा सुदुर्लभ॥ 

भगवान कह रहे हैं वो महात्मा तो मेरे लिए भी दुर्लभ है। 

उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। 

परमात्मा भी मन्दिरों में बैठे -  बैठे महात्मा की प्रतीक्षा करता है।

प्रेम डोर अदृश्य है...!

देख सके नहीं कोय !

प्रेम में बांध प्रभु राखिये।
प्रभु भी तेरा होय !!

श्री भगवान कहते है मेरी जिस पर कृपा होती है।

उस भक्त का मैं वित्त  हरण करता हूँ।

उसको रोगी बना देता हूँ।

वह उसके निजी जनों का मरण करा देता हूँ।

उसको पग पग पर कष्ट और दुःख का अनुभव कराता हूँ। 

भक्त को जब दुःख मिलता है तो वह मुझे पुकारने लगता है।

उसकी हर प्रार्थना मुझसे ही होने लगती है।

और यही उसको मेरे समीप ले आती है।

अतः भक्त को चाहिए कि वह इसे मेरा अनूठा कृपा प्रसाद मानकर धैर्य के साथ सहन करते हुए मेरे पथ पर चलता रहे। 

यह तपस्या उसकी व्यर्थ नहीं जाएगी और एक दिन ऐसा रंग लायेगी जिसकी कल्पना भी भक्त को नहीं होगी। 

सारे गिले शिकवे सब दूर हो जायेंगे। 

वह मुझमें ही रमण करने लगेगा।

इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध दन्तकथा भी है।

एक बार भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। 

रास्ते में उनको प्यास लगी। 

उन्होंने एक धनी आदमी के घर जाकर उनसे पानी माँगा।

उसने उन्हें बगैर पानी दिये निकाल दिया। 

श्री कृष्ण भगवान ने उसके घर से निकलते निकलते कहा - तेरी धन दौलत और बढ़े। 

आगे चलकर वे एक गरीब की झोपड़ी में गये। 

उसके पास एक गाय के सिवाय कुछ भी नहीं था।

उसने उन दोनों का बड़े प्रेम से स्वागत किया।

पीने को ठंडा पानी दिया।

ऊपर से गाय का दूध पिलाया। 

वहाँ से निकलते निकलते श्री कृष्ण भगवान बोले - तेरी गाय मरे।

यह सुनकर अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

उसने श्री कृष्ण महाराज से पूछा- 

महाराज यह कैसा न्याय है?

भगवान ने उसको समझाया कि उस धनी व्यक्ति की मुझमें भक्ति नहीं। 

उसकी भक्ति सिर्फ उसकी सम्पत्ति पर है।

जबकि उस गरीब की मुझ पर अनन्य भक्ति है। 

मेरे सिवाय उसकी थोड़ी सी आसक्ति उसकी गाय में है। 

परमेश्वर प्राप्ति में उसकी गाय रोड़ा बनी हुई है।

परमेश्वर प्राप्ति का रास्ता खुलने हेतु ही मैने ऐसा कहा।।

जीवन जीने की दो शैलियाँ हैं। 

एक जीवन को उपयोगी बनाकर जिया जाए और दूसरा इसे उपभोगी बनाकर जिया जाए। 

जीवन को उपयोगी बनाकर जीने का मतलब है।

उस फल की तरह जीवन जीना जो खुशबू और सौंदर्य भी दूसरों को देता है।

और टूटता भी दूसरों के लिए हैं।        

अर्थात कर्म तो करना मगर परहित की भावना से करना। 

साथ ही अपने व्यवहार को इस प्रकार बनाना कि हमारी अनुपस्थिति दूसरों को रिक्तता का एहसास कराए।         

जीवन को उपभोगी बनाने का मतलब है।

उन पशुओं की तरह जीवन जीना केवल और केवल उदर पूर्ति ही जिनका एक मात्र लक्ष्य है। 

अर्थात लिवास और विलास ही जिनके जिन्दा रहने की शर्त हो। 

मानव जीवन की सार्थकता के नाते यह परमावश्यक है।

कि जीवन केवल उपयोगी बने उपभोगी नहीं।

तपस्या बने तमाशा नहीं।

सार्थक बने, निरर्थक नहीं।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे 
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

🔸〰️जय श्री कृष्ण〰️🔸〰जय श्री कृष्ण️〰️🔸〰️जय श्री कृष्ण〰️🔸

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

1 टिप्पणी:

aadhyatmikta ka nasha

महाभारत की कथा का सार

महाभारत की कथा का सार| कृष्ण वन्दे जगतगुरुं  समय नें कृष्ण के बाद 5000 साल गुजार लिए हैं ।  तो क्या अब बरसाने से राधा कृष्ण को नहीँ पुकारती ...

aadhyatmikta ka nasha 1