https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: सूर्योदय सूर्यास्त , श्रद्धा और विश्वास :

सूर्योदय सूर्यास्त , श्रद्धा और विश्वास :

सूर्योदय सूर्यास्त , श्रद्धा और विश्वास :


सूर्योदय सूर्यास्त की पौरिणीक रोचक कथा :


स्कंद महापुराण के काशी खंड में एक कथा वर्णित है कि त्रैलोक्य संचारी महर्षि नारद एक बार महादेव के दर्शन करने के लिए गगन मार्ग से जा रहे थें। 

मार्ग के बीच में उनकी दृष्टि उत्तुंग विंध्याद्रि पर केंद्रित हुई। 

ब्रह्मा के मानस पुत्र देवर्षि नारद को देखकर विंध्या देवी अति प्रसन्न हुई। 

तत्काल उनका स्वागत कर विंध्या ने देवर्षि को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। 

देवर्षि नारद ने आह्लादित होकर विंध्या को आशीर्वाद दिया। 

इसके बाद विंध्या ने यथोचित सत्कार करके नारद को उचित आसन पर बैठाया। 




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यात्रा की थकान दूर करने के लिए उनके चरण दबाते हुए विंध्या ने कहा कि देवर्षि, मैंने सुना है कि मेरु पर्वत अहंकार के वशीभूत हो सर्वत्र यह प्रचार कर रहा है कि वही समस्त भूमंडल का वहन कर रहा है। 

हिमवंत गौरीदेवी के पिता हैं। 

इस कारण से उनको गिरिराज की उपाधि उपलब्ध हो गई है। 

कहा जाता है कि हिमगिरी में रत्नभंडार है और वह स्वर्णमय है, परंतु मैं इस कारण उसे अधिक महत्व नहीं देती। 

यह भी माना जाता है कि हिमवान पर अधिक संख्या में महात्मा और ऋषि, मुनि निवास करते हैं। 

इस कारण से भी मैं उनका अधिक आदर नहीं कर सकती। 

उनसे भी अधिक उन्नत पर्वतराज इस भूमंडल पर अनेक हैं। 

आप ही बताइए, इस संबंध में आपके क्या विचार हैं? 

देवर्षि मंदहास करके बोले, मैं तुम लोगों के बल - सामर्थ्य के बाबत अधिक नहीं जानता, परंतु इतना बता सकता हूं कि इसका निर्णय भविष्य ही कर सकता है। 





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यह उत्तर देकर देवमुनि आकाश पथ पर अग्रसर हुए। 

नारद का उत्तर सुनकर विंध्या देवी मन - ही - मन खिन्न हो गई और अपनी मानसिक शांति खोकर सोचने लगी कि ज्ञाति के द्वारा किए गए अपमान को सहन करने की अपेक्षा मृत्यु ही उत्तम है। 

मेरु पर्वत की प्रशंसा मैं सुन नहीं सकती। 

इसके बाद ईष्या के वशीभूत हो विंध्या देवी सदा अशांत रहने लगी। 

क्रमश: निद्रा और आहार से वंचित हो वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती गई। 





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प्रतिकार की भावना से प्रेरित हो वह सोचती रह गई। 

अंत में वह एक निश्चय पर आ गई कि सूर्य भगवान प्रतिदिन मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। 

मैं ग्रह एवं नक्षत्रों के मार्ग को अवरुद्ध करते हुए आकाश की ओर बढ़ती जाऊंगी। 

तब तमाशा देखूंगी, किसकी ताकत कैसी है? 

इस निश्चय पर पहुंचकर विंध्या देवी आकाश की ओर बढ़ चली। 

बढ़ते - बढ़ते उसने सूर्य के आड़े रहकर उनके मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। 

परिणाम स्वरूप तीनों लोक सूर्य प्रकाश से वंचित रह गए और सर्वत्र अंधकार छा गया। 

समस्त प्राणी समुदाय तड़पने लगा। 

देवताओं ने व्याकुल होकर सृष्टिकर्ता से शिकायत की। 

ब्रह्मदेव को जब पता चला तो उन्होंने देवताओं को उपाय बताया कि पुत्रो सुनो, इस समय विंध्या और मेरु पर्वत के बीच बैर हो गया है। 

इस कारण से विंध्या ने सूर्य के परिभ्रमण के पथ को रोक रखा है। 

इस समस्या का समाधान केवल महर्षि अगस्त्य ही कर सकते हैं। 

इस समय वे काशी क्षेत्र में विश्वेश्वर के प्रति तपस्या में निमग्न हैं और तपोबल में वे अद्वितीय हैं। 




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एक बार उन्होंने लोक कंटक वातापि और इलवल का मर्दन कर जगत् की रक्षा की थी। 

इस भूमंडल पर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो उनसे भय न खाता हो। 

उस महानुभाव ने सागर को ही मथ डाला था। 

इस लिए तुम लोग उस महाभाग के आश्रय में जाकर उनसे प्रार्थना करो। 

तुम लोगों के मनोरथ की सिद्धि होगी। 

ब्रह्मदेव के मुंह से उपाय सुनकर देवता प्रसन्न हुए। 

वे उसी समय काशी नगरी पहुंचे। 

वहां पर देखा, महर्षि अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा समेत पर्ण - कुटी में तपस्या में लीन हैं। 

देवताओं ने भक्ति भाव से उन मुनि दम्पति को प्रणाम करके निवेदन किया कि महानुभाव! 




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हम अपनी विपदा क्या बताएं? 

विंध्या पर्वत मेरु पर्वत के साथ शत्रु - भाव से उसका अपमान करने के लिए तैयार हैं। 

इसी आशय से उसने सूर्य पथ को रोक रखा है। 

विंध्या गगन की ओर गतिमान है। 

उसकी गति को रोकने की क्षमता केवल आप ही रखते हैं। 




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आप कृपा करके सूर्य की परिक्रमा को यथावत् संपन्न करके तीनों लोकों की रक्षा की जिए। 

यही मेरा आपसे सादर निवेदन है, देवगुरु बृहस्पति ने प्रार्थना की। 

महर्षि अगस्त्य ने देवताओं की विपदा पर दया दिखाकर उन्हें अभय प्रदान किया। 

जगत के कल्याण के लिए महर्षि ने देवताओं को अभय तो प्रदान किया, परंतु उनका मन काशी नगरी और काशी के अधिष्ठाता देव विश्वेश्वर को छोड़ने को मानता न था। 

गंगा जी में स्नान किए बिना वे कभी पानी तक ग्रहण नहीं करते और विश्वेश्वर के दर्शन किए बिना वे पल - भर नहीं रह सकते। 

काशी को त्यागते हुए उनका मन विकल हो उठा। 

विवश होकर मन - ही - मन महादेव का स्मरण करते हुए उन्होने काशी से प्रस्थान किया।विंध्या देवी ने दूर से ही महर्षि अगस्त्य को देखा। 




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निकट आने पर उनके तमतमाए हुए मुखमंडल को देख विंध्या देवी नख से लेकर शिख तक कांप उठी। 

अपना मस्तक झुकाकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया। 

मुनि को शांत करने के विचार से विनीत भाव से बोली कि महात्मा, आदेश दीजिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं? 

विंध्या, तुम साधु प्रकृति की हो। स्थिर चित्त हो। 

मेरे स्वभाव से भी तुम भली - भांति परिचित हो। 

मैं दक्षिणापथ में जा रहा हूं। 

तुम मेरे लौटने तक इसी प्रकार झुकी रहो, ऊपर उठने की चेष्टा न करो। 

यही मेरा आदेश है। 

यह कहकर महर्षि अगस्त्य ने विंध्या को आशीर्वाद दिया और दक्षिण दिशा की ओर निकल पड़े। 




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दक्षिण में मुनि दम्पति ने पवित्र गोदावरी के तट पर अपना स्थिर निवास बनाया। 

किंतु विंध्या को इस बात का पता न था और वह अपना इसी इंतजार में समय काटने लगी कि महर्षि अगस्त्य शीघ्र ही लौट आनेवाले हैं। 

समय बीतता गया, परंतु महर्षि नहीं लौटे। 

विंध्या ने जो अपना मस्तक झुकाया, उसे अगस्त्य की प्रतीक्षा में झुकाए ही रखा। 

फिर क्या था, पूर्व दिशा में सूर्योदय हुआ और पश्चिमी दिशा में सूर्यास्त होता रहा। 

समस्त दिशाएं सूर्य के आलोक से दमक उठीं। 

प्राणी - समुदाय हर्षोल्लास से नाच उठा। 

जगत के कार्यकलाप यथावत् घटित होने लगे।


हरहर महादेव ।।




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श्रद्धा और विश्वास :


एक सेठ बड़ा धार्मिक था संपन्न भी था। 

एक बार उसने अपने घर पर पूजा पाठ रखी और पूरे शहर को न्यौता दिया। 

पूजा पाठ के लिए बनारस से एक विद्वान शास्त्री जी को बुलाया गया और खान पान की व्यवस्था के लिए शुद्ध घी के भोजन की व्यवस्था की गई। 

जिसके बनाने के लिए एक महिला जो पास के गांव में रहती थी को सुपुर्द कर दिया गया। 




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शास्त्री जी कथा आरंभ करते हैं, गायत्री मंत्र का जाप करते हैं और उसकी महिमा बताते हैं उसके हवन पाठ इत्यादि होता है लोग बाग आने लगे और अंत में सब भोजन का आनंद लेते घर वापस हो जाते हैं। 

ये सिलसिला रोज़ चलता है।


भोज्य प्रसाद बनाने वाली महिला बड़ी कुशल थी वो अपना काम करके बीच बीच में कथा आदि सुन लिया करती थी।




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रोज की तरह एक दिन शास्त्री जी ने गायत्री मंत्र का जाप किया और उसकी महिमा का बखान करते हुए बोले कि इस महामंत्र को पूरे मन से एकाग्रचित होकर किया जाए तो इस भव सागर से पार जाया जाएगा सकता है। 

इंसान जन्म मरण के झंझटों से मुक्त हो सकता है।


खैर करते करते कथा का अंतिम दिन आ गया। 

वह महिला उस दिन समय से पहले आ गई और शास्त्री जी के पास पहुंची, उन्हें प्रणाम किया और बोली कि शास्त्री जी आपसे एक निवेदन है।" 


शास्त्री उसे पहचानते थे उन्होंने उसे चौके में खाना बनाते हुए देखा था। 

वो बोले कहो क्या कहना चाहती हो ?"


वो थोड़ा सकुचाते हुए बोली शास्त्री जी मैं एक गरीब महिला हूँ और पड़ोस के गांव में रहती हूँ। 

मेरी इच्छा है कि आज का भोजन आप मेरी झोपड़ी में करें।" 


सेठ जी भी वहीं थे, वो थोड़ा क्रोधित हुए लेकिन शास्त्री जी ने बीच में उन्हें रोकते हुए उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और बोले आप तो अन्नपूर्णा हैं। 

आप ने इतने दिनों तक स्वादिष्ट भोजन करवाया, मैं आपके साथ कथा के बाद चलूंगा।" 


वो महिला प्रसन्न हो गई और काम में व्यस्त हो गई। 

कथा खत्म हुई और वो शास्त्री जी के समक्ष पहुंच गई, वायदे के अनुसार वो चल पड़े गांव की सीमा पर पहुंच गए देखा तो सामने नदी है।


शास्त्री जी ठिठक कर रुक गए बारिश का मौसम होने के कारण नदी उफान पर थी कहीं कोई नाव भी नहीं दिख रही थी। 

शास्त्री जी को रुकता देख महिला ने अपने वस्त्रों को ठीक से अपने शरीर पर लपेट लिया व इससे पहले की शास्त्रीजी कुछ समझते उसने शास्त्री जी का हाथ थाम कर नदी में छलांग लगा दी और जोर जोर से *ऊँ भूर्भुवः स्वः ..... ऊँ भूर्भुवः स्वः बोलने लगी और एक हाथ से तैरते हुए कुछ ही क्षणों में उफनती नदी की तेज़ धारा को पार कर दूसरे किनारे पहुंच गई। 


शास्त्री जी पूरे भीग गए और क्रोध में बोले मूर्ख औरत ये क्या पागलपन था अगर डूब जाते तो...?"


महिला बड़े आत्मविश्वास से बोली शास्त्री जी डूब कैसे जाते ? 

आप का बताया मंत्र जो साथ था। 

मैं तो पिछले दस दिनों से इसी तरह नदी पार करके आती और जाती हूँ। 


शास्त्री जी बोले क्या मतलब ??"


महिला बोली की आप ही ने तो कहा था कि इस मंत्र से भव सागर पार किया जा सकता है। 

लेकिन इसके कठिन शब्द मुझसे याद नहीं हुए बस मुझे ऊँ भूर्भुवः स्वः याद रह गया तो मैंने सोचा "भव सागर" तो निश्चय ही बहुत विशाल होगा जिसे इस मंत्र से पार किया जा सकता है तो क्या आधा मंत्र से छोटी सी नदी पार नहीं होगी और मैंने पूरी एकाग्रता से इसका जाप करते हुए नदी सही सलामत पार कर ली। 

बस फिर क्या था मैंने रोज के 20 पैसे इसी तरह बचाए और आपके लिए अपने घर आज की रसोई तैयार की।"


शास्त्री जी का क्रोध व झुंझलाहट अब तक समाप्त हो चुकी थी। 

किंकर्तव्यविमूढ़ उसकी बात सुन कर उनकी आँखों में आंसू आ गए और बोले माँ मैंने अनगिनत बार इस मंत्र का जाप किया, पाठ किया और इसकी महिमा बतलाई पर तेरे विश्वास के आगे सब बेसबब रहा।"


"इस मंत्र का जाप जितनी श्रद्धा से तूने किया उसके आगे मैं नतमस्तक हूं। 

तू धन्य है कह कर उन्होंने उस महिला के चरण स्पर्श किए। 

उस महिला को कुछ समझ नहीं आ रहा था वो खड़ी की खड़ी रह गई। 

शास्त्री भाव विभोर से आगे बढ़ गए वो पीछे मुड़ कर बोले मां चलो भोजन नहीं कराओगी बहुत भूख लगी है।"




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हिमाचल के पहाड़ों में जिस घर/आश्रम में मैं एकांतवास कर रहा हूं,वहां 5 दिन पूर्व अपने वृंदावन धाम के एक अन्य संत भी पधारे हुए हैं!

वृंदावन के गोधुलीपुरम में इनका " युगल कृपा धाम " के नाम से भव्य आश्रम है!

ये मथुरा के पास के एक गांव के बृजवासी ब्राह्मण हैं!

इन के पूरे देश में अनगिनत शिष्य हैं!

ये बहुत बढ़िया राम कथा और भागवत कथा करते हैं!इनका स्वभाव बड़ा ही दिव्य,सहज सरल है!

मात्र 20 वर्ष की अल्पायु में पूज्यपाद श्री डोंगरे जी महाराज की कथा से प्रभावित होकर इन्होंने विरक्त वेश ग्रहण कर लिया था!

इन का दर्शन करके मुझे सुप्रसिद्ध संत पूज्यश्री बक्सर वाले नारायण दास भक्तमाली "मामाजी" का स्फूरण होता है!

इन का चेहरा मोहरा बिलकुल उन्हीं के जैसा है!

एक दिन मैं यहां आंगन में बैठा बैठा उच्च स्वर में मीराबाई जी का एक दिव्य पद गुनगुना रहा था !

" पिया बिन सूनो छे जी म्हारो देश"!उसे सुनकर ये झटपट बाहर दौड़े आए और इन्होंने मुझसे कहा,"अरे अपना गला तो बहुत ही मीठा है!"

फिर संध्या कीर्तन के बाद इन्होंने मुझसे अन्यान्य पद / भजन सुनाने का निवेदन किया!

मैंने तीन चार पद सुनाए!उन्हें सुनकर इन्होंने कहा,"आपका गाने का लहज़ा,भाव,सुर और आलाप आदि उतार चढ़ाव ऐसे हैं,जो सीधे दिल पर चोट करते हैं ! "

इन्हों ने स्वयं भी एक पद गाकर सुनाया!

उस रात यहां बिजली गुम हो गई थी,और हम सभी लोग 10 बजे आंगन में बैठे थे!तब इन्होंने मुझसे और भी पद सुनाने का निवेदन किया!

फिर तो मैंने एक के बाद एक पंद्रह बीस पद / भजन सुना दिए!ये अत्यंत प्रफुल्लित होकर सुनते रहे,और मेरा कंठ सार्थक हुआ!!

रात 12 बजे हम लोगों ने शयन किया, किंतु मुझे भोर होने तक नींद नहीं आई!

इनसे हुई परिचर्चा और भजन भाव की ही बातें याद आती रहीं!

तबसे प्रतिदिन इनके साथ दो तीन घंटे का सत्संग होता है! 

मैंने अपने मन के अनेक संशयों का निराकरण इनसे करवाया और इन्होंने बहुत ही संतोषजनक उत्तर दिया!




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कल सुबह अपनी साधना करने के बाद ये जब मेरे पास आए,तो मुझे देखकर कहा,"आपको देखकर हमें अत्यधिक प्रसन्नता होती है! 

इनके यहां पधारने से मेरा आनंद दुगुना हो गया है!

वृंदावन से बाहर इतनी दूर आने पर भी मुझे यहां वृंदासन के ही उत्तम संत का संग मिल रहा है,ये मेरे ऊपर राधारानी की कितनी असीम कृपा है!?!

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

हरहर महादेव ।।


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