संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् :
संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :
ब्राह्मखण्ड ( सेतु - महात्म्य )
चक्रतीर्थ, शिवतीर्थ, शंखतीर्थ और यमुना, गंगा एवं गयातीर्थ की महिमा - राजा जानश्रुति को रैक्व के उपदेश से ब्रह्मभाव की प्राप्ति...(भाग 2)
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महर्षि रैक्व पहले गन्धमादन पर्वतपर रहकर अत्यन्त दुष्कर तपस्या करते थे।
वे जन्मसे ही पंगु थे।
अतः गन्धमादन पर्वतपर जो-जो तीर्थ हैं, वे उन्हींकी यात्रा करते थे; क्योंकि वे सब समीपवर्ती थे।
पैदल न चल सकनेके कारण वे गाड़ीसे ही उन तीर्थोंमें जाते थे।
इसी लिये गाड़ीवाले रैक्वके नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई।
उन्होंने तपस्यासे अपना शरीर सुखा डाला था।
उनके उस शरीरमें खाज हो गयी थी, जिसे वे दिन-रात खुजलाते रहते थे।
फिर भी उन्होंने तपस्या नहीं छोड़ी।
एक दिन उनके मनमें ऐसा विचार हुआ कि 'मैं यमुना, गंगा और गया-इन तीनों पवित्र तीर्थोंमें स्नान करूँ; परंतु मैं तो जन्मसे ही पंगु हूँ, अतः मेरे लिये वहाँका स्नान दुर्लभ है।
गाड़ीसे इतनी दूरकी यात्रा नहीं की जा सकती।
तब इस समय मैं क्या करूँ?
' इस प्रकार तर्क-वितर्क करते हुए महाबुद्धिमान् रैक्वने तीनों तीर्थोंमें स्नान करनेके सम्बन्धमें अपने कर्तव्यका निश्चय किया।
उन्होंने सोचा- 'मेरा तपोबल दुर्धर्ष एवं असह्य है, उसीके द्वारा मैं यहाँ उक्त तीर्थोंका आवाहन करूँगा।'
मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके वे पूर्वाभिमुख बैठे, मन-इन्द्रियोंको संयममें रखकर तीन बार आचमन किया और एक क्षणतक ध्यानमें लगे रहे।
उनके मन्त्रके प्रभावसे महानदी यमुना, गंगा और पापनाशिनी गया- तीनों भूमि फोड़कर सहसा पातालसे प्रकट हुईं और मानव शरीर धारणकर गाड़ीवाले रैक्वके समीप आ उन्हें प्रसन्न करती हुई प्रसन्नतापूर्वक बोलीं- "रैक्व !
तुम्हारा कल्याण हो, इस ध्यानसे निवृत्त होओ।
तुम्हारे मन्त्रसे आकृष्ट हो हम तीनों यहाँ उपस्थित हुई हैं।'
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उनका यह वचन सुनकर महामुनि रैक्व ध्यानसे निवृत्त हुए और उन्हें अपने सामने उपस्थित देखा।
तब उन्होंने उन तीनोंका पूजन करके कहा-'हे यमुने !
हे देवि गंगे! और हे पापनाशिनी गये!
तुम तीनों गन्धमादन पर्वतपर वहीं निवास करो, जहाँ भूमि फोड़कर यहाँ प्रकट हुई हो।
वे स्थान तुम्हारे नामसे पवित्र तीर्थ हो जायँ।'
तब वे तीनों देवियाँ 'तथास्तु' कहकर सहसा अन्तर्धान हो गयीं।
तब से ये तीनों तीर्थ भूतलमें मनुष्योंद्वारा उन्हीं के नामसे पुकारे जाते हैं।
जहाँ भूमि फोड़कर यमुना निकली, उसी स्थानको लोग 'यमुनातीर्थ' कहते हैं, जहाँ पृथ्वीके छिद्रसे सहसा गंगाका प्रादुर्भाव हुआ, वह स्थान लोकमें पापनाशक 'गंगातीर्थ 'के नामसे विख्यात हुआ और जहाँ गयाका प्रादुर्भाव हुआ, वह भूमि - विवर 'गयातीर्थ' कहलाता है।
इस प्रकार वे तीनों तीर्थ बड़े पवित्र हैं।
जो मनुष्य इन उत्तम तीर्थोंमें स्नान करते हैं, उनके अज्ञानका नाश और ज्ञानका उदय होता है।
रैक्व मुनि अपने मन्त्र द्वारा आकर्षित किये हुए उन तीनों तीर्थों में स्नान करते हुए समय व्यतीत करने लगे।
इसी समय महाराज जान श्रुति इस भूतल पर राज्य करते थे। वे राजर्षि पुत्रके पौत्र थे और एक मात्र धर्मके आचरणमें ही संलग्न रहते थे।
याचकों को श्रद्धापूर्वक अन्न आदि देते थे।
अतः मुनिलोग उन्हें लोकमें 'श्रद्धादेय' कहते थे।
भूखे याचकोंकी तृप्तिके लिये उस अन्न-धन-सम्पन्न राजाके यहाँ नाना प्रकारके वचन कहे जाते थे, इस लिये सब याचकोंने उनका नाम 'बहुवाक्य' रख दिया था।
जनश्रुत के पुत्र महाबली जानश्रुतिको अतिथि बहुत प्रिय थे।
इस लिये वे बहुत दान करनेके कारण 'बहुदायी' के नामसे प्रसिद्ध हुए।
नगरोंमें, राज्यमें, गाँवों और जंगलोंमें, चौराहोंपर तथा सभी बड़े - बड़े मार्गोंमें उनकी ओरसे खाने पीनेकी बहुत सामग्री प्रस्तुत रहती थी।
अतिथियों की तृप्तिके लिये वे अन्न, पान, दाल, साग आदि उत्तम भोजनकी व्यवस्था रखते थे।
उस पौत्रायण राजाके गुणोंसे महाभाग देवर्षि बहुत सन्तुष्ट हुए।
उन सबके मनमें राजाके ऊपर कृपा करनेकी इच्छा हुई।
एक दिन राजा जानश्रुति गरमीकी रातमें अपने महलके भीतर खिड़कीके पास सो रहे थे।
उसी समय देवर्षिगण हंसका रूप धारण करके एक पंक्तिमें आकाशमार्गसे उड़ते हुए आये और राजाके ऊपर होकर जाने लगे।
उस समय बड़े वेगसे उड़ते हुए एक हंसने आगे जानेवाले हंसको सम्बोधित करके राजाको सुनाते हुए उपहासपूर्वक कहा- 'भल्लाक्ष !
अरे ओ भल्लाक्ष! क्या आगे-आगे जाता हुआ तू अन्धोंकी नाईं देखता नहीं है कि आगे पूजनीय राजा जानश्रुति विराजमान हैं?
यदि तू उन राजर्षिको लाँधकर ऊपर जायगा, तो उनका तेज इस समय तुझे जलाकर भस्म कर डालेगा।
' ऐसा कहते हुए उस हंसको आगे जानेवाले हंसने उत्तर दिया- '
अहो! तुम तो बड़े ज्ञानी हो, विद्वानोंके द्वारा भी प्रशंसनीय हो, तथापि इस तुच्छ मनुष्यकी इतनी प्रशंसा क्यों करते हो?
यह धर्मोंके रहस्यको नहीं जानता, जैसा कि ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ गाड़ीवाले रैक्व मुनि जानते हैं।
इस राजा का तेज उनके समान नहीं है।
रैक्वकी पुण्यराशियोंकी इयत्ता ( संख्या ) नहीं हो सकती।
पृथ्वीके धूलिकण गिने जा सकते हैं, आकाशके नक्षत्र भी गणनामें आ सकते हैं, परंतु रैक्व मुनिके महामेरु - सदृश पुण्यपुंजोंकी गणना नहीं की जा सकती।
राजा जानश्रुतिमें तो वैसा धर्म ही नहीं है, फिर वह ज्ञान - वैभव कहाँसे हो सकता है।
अतः इस तुच्छ मनुष्यकी चर्चा छोड़कर उसी गाड़ीवाले रैक्व मुनिकी प्रशंसा करो।
' उन्हों ने जन्मसे पंगु होकर भी स्नान करनेकी इच्छा से मन्त्रद्वारा यमुना, गंगा और गयाको भी अपने आश्रमके समीप बुला लिया है।'
क्रमशः...
शेष अगले अंक में जारी
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श्री लिंग महापुराण
तत्व शुद्धि वर्णन....(भाग 2)
हजारों अश्वमेघ से जो फल प्राप्त होता है वह फल सूर्य को अर्थ देने से प्राप्त होता है।
भक्ति से सूर्य को अर्घ देकर पुनः त्र्यम्बक भगवान का पूजन करे।
भास्कर का पूजन करके आग्नेय स्नान करे।
फिर योगी पद्मासन लगाकर प्राणायाम करे।
लाल पुष्प तथा कमल पुष्पों को लेकर दक्षिण भाग में स्थित करे।
सर्व कार्यों में सर्व सिद्धि करने के लिए ताम्र पात्र श्रेष्ठ कहे हैं पुनः पूजा की सब सामग्री को जल से प्रक्षालन करे।
सर्व देवों के द्वारा नमस्कार करने योग्य आदित्य का जप करे।
मन्त्र बोलकर सूर्य को नमस्कार करे।
दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अघोरा, विकृता आठ शक्तियाँ सूर्य भगवान के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी रहती है।
इन के मध्य में सर्वतोमुखी वरदान देने वाली देवी की स्थापना है।
वाष्कल मन्त्र से इनका आवाहन और पूजा करे। पद्मनाभ की भास्कर की मुद्रा बनावे।
मूल मन्त्र से पाद्य आचमन आदि करावे।
रक्त पुष्प, रक्त चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि तथा ताम्बूल वाष्कल मन्त्र के ही द्वारा अर्पण करे।
दीपक़ भी इस मन्त्र से प्रदान करे। कमल की कर्णिका में अष्ट मूर्ति का विन्यास करके ध्यान करे।
बिजली की सी चमक वाली शान्त स्वरूप, अस्त्र धारिणी, सब आभरणों से युक्त, रक्त चन्दन, माला व वस्त्र धारण किये हुए, सिन्दूर के समान अरुण वर्ण वाली ऐसी अष्ट मूर्ति भास्कर रूप महेश्वर का ध्यान करे।
उसी मण्डल में सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु का भी ध्यान करे।
सभी दो भुजा तथा दो नेत्र वाले हैं परन्तु राहु का तो ऊर्ध्व शरीर ही है।
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इनको इनके नाम से प्रणव आदि में लेकर नमः बाद में लगाकर पूजना चाहिए।
जैसे ॐ सोमायनमः इस प्रकार करने से सर्व सिद्धि, धर्म, अर्थ की प्राप्ति होती है।
सब देवता, ऋषिगण, पन्नग और अप्सरायें, यातुधान, सप्त अश्व जो छन्दमय हैं, बालखिल्य ऋषियों का गण आदि सबका पृथक - पृथक अर्घ पाद्य आचमन से पूजन करे।
पूजन के बाद हजार आधा हजार या १०८ बार वाष्कल मन्त्र का जप करना चाहिए।
जप के दशाँश पश्चिम दिशा में परिमाण के अनुसार कुण्ड बनाकर हवन करना चाहिए।
प्रभावती शक्ति का गन्ध, पुष्प आदि से वाष्कल मन्त्र से पूजन करे।
पश्चात् मूल मन्त्र से पूर्णाहुति करे।
भास्कर रूप देव देव शंकर का अंगों सहित पूजन करके अर्थ और प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
इस प्रकार मैंने संक्षेप से सूर्य भगवान का पूजन कहा।
जो पुरुष इस प्रकार देव देव जगद्गुरु भास्कर का एक बार भी पूजन करेगा वह परम गति को प्राप्त हो वेगा।
वह पुरुष सर्व ऐश्वर्य युक्त, पुत्र पौत्रादि भाई बन्धुओं से सम्पन्न विपुल भोगों को भोगकर, धन, धान्य युक्त, यान वाहन से सम्पन्न विविध प्रकार के भूषणों से युक्तः काल गति को प्राप्त होकर सूर्य के साथ अक्षय काल तक आनन्द को प्राप्त होता है।
फिर यहाँ आकर राजा होता है अथवा वेद वेदाँग सम्पन्न ब्राह्मण होता है।
फिर पूर्व की वासना के योग से वह सूर्य भगवान की आराधना करके सूर्य की सायुज्यता को प्राप्त होता है।
क्रमशः शेष अगले अंक में...
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श्रीमहाभारतम्
।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(आस्तीकपर्व)
त्रिंशोऽध्यायः
गरुड का कश्यपजी से मिलना, उनकी प्रार्थना से वालखिल्य ऋषियों का शाखा छोड़कर तप के लिये प्रस्थान और गरुड का निर्जन पर्वत पर उस शाखा को छोड़ना...(दिन 116)
सौतिरुवाच
एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः ।
मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ।। १८ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-
भगवान् कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्य मुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चले ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः ।
शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ।। १९ ।।
उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारण कठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा- ।। १९ ।।
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भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम् ।
वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ।। २० ।।
'भगवन् ! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़ दूँ?
आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों' ।। २० ।।
ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम् ।
अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ।। २१ ।।
तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था।
जिसकी कन्दराएँ बर्फसे ढकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकता था ।। २१ ।।
तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः ।
जवेनाभ्यपतत् तार्थ्यः सशाखागजकच्छपः ।। २२ ।।
उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान् पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े ।। २२ ।।
न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ् ।
शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ।। २३ ।।
गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी ।। २३ ।।
स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः ।
कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ।। २४ ।।
पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चले आये ।। २४ ।।
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स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः ।
अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ।। २५ ।।
पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी।
गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। २५ ।।
पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट् ।
मुमोच पुष्पवर्ष च समागलितपादपः ।। २६ ।।
वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर काँप उठा।
उसपर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा ।। २६ ।।
शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः ।
मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ।। २७ ।।
उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान् शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े ।। २७ ।।
शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया ।
काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ।। २८ ।।
उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे ।। २८ ।।
ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः ।
व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्याशुप्रतिरञ्जिताः ।। २९ ।।
सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त हो सूर्यकी किरणोंद्वारा रँगे हुए-से सुशोभित होते थे ।। २९ ।।
ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः ।
भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ।। ३० ।।
तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुएको खाया ।। ३० ।।
तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्थ्यः कूर्मकुञ्जरौ ।
ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ।। ३१ ।।
इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान् वेगशाली गरुड पर्वतकी उस चोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े ।। ३१ ।।
क्रमशः...
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
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