https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :

श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :

श्रीमहाभारतम्  , श्री लिंग महापुराण , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :  


श्रीमहाभारतम् :


।। श्रीहरिः ।।

श्रीगणेशाय नमः 

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


( आस्तीकपर्व )


एकोनविंशोऽध्यायः


देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय...!


सौतिरुवाच




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अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च । 

प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ।। १ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं- अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम - उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ।। १ ।।


ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् । 

जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ।। २ ।। 


ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा । 

विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ।। ३ ।।


उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान् नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करके दानवेन्द्रोंके हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णुसे अमृत ले-लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ।। २-३ ।।


ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् । 

राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ।। ४ ।।


जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामक दानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया ।। ४ ।।


तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा । 

आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ।। ५ ।।


वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यने देवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया ।। ५ ।।


ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् । 

चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ।। ६ ।। 


तब चक्रधारी भगवान् श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तक चक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ।। ६ ।।


तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् । 

चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ।। ७ ।।


चक्रसे कटा हुआ दानवका महान् मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वह आकाशमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ।। ७ ।।


तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले । 

सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ।। ८ ।।


किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ।। ८ ।।


ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै । 

शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ।। ९ ।।


तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है ।। ९ ।।


विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।

नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् ।। १० ।।


( देवताओंको अमृत पिलानेके बाद ) भगवान् श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप त्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित कर दिया ।। १० ।।


ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।

सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ।। ११ ।।


फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया ।। ११ ।।


प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः । 

तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ।। १२ ।।


दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े - बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। 

तेज नोकवाले तोमर तथा भाँति - भाँतिके शस्त्र बरसने लगे ।। १२ ।।


ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु । 

असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ।। १३ ।।


 छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः । 

तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ।। १४ ।।


भगवान्के चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदासे घायल हुए असुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। 

उस समय तपाये हुए सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमि में गिर रहे थे ।। १३-१४ ।।


क्रमशः...


श्री लिंग महापुराण :


विष्णु भगवान द्वारा शिवजी की सहस्त्र नामों से स्तुति करना....!

  

ऋषियों ने पूछा- हे सूतजी ! 

देव देव महेश्वर से विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र किस प्रकार प्राप्त किया। 

सो हमारे प्रति वर्णन कीजिए।


सूतजी बोले- हे मुनियो ! 

एक बार देवता और असुरों में घोर संग्राम हुआ। 

देवता असुरों के अनेकानेक शस्त्र अस्त्रों से पीड़ित हुये भाग कर विष्णु भगवान के पास आये। 

प्रणाम करने पर भयभीत हुये देवों को देखकर हरि ने पूछा- हे देवताओं! 

क्या आपत्ति है जिससे सन्ताप युक्त दौड़कर आये हो। देवता बोले- हे विष्णो ! 

हम लोग दैत्यों से पराजित हुए आपकी शरण में आये हैं। 

तुम ही जगत के कर्ता और हर्ता हो। 

हमारी रक्षा करो। 

वे दैत्य, देव वरदान के कारण वैष्णव रौद्र सौर, वायव्य आदि शस्त्रों से अवध्य हैं। 

आपका चक्र जो सूर्य मण्डल से उत्पन्न है कुण्ठित है। 

दण्ड, शार्ङ्ग और सब शस्त्र दैत्यों ने प्राप्त कर लिए हैं। 

पूर्व में त्रिपुरारी शिव ने जलन्धर को मारने के लिए जो तीक्ष्ण चक्र निर्माण किया था। 

उससे मार सकोगे अन्य शस्त्रों से नहीं।


विष्णु बोले- हे देवो ! 

त्रिपुरारी ने जो चक्र जलन्धर के वध के लिए बनाया है उसी से सब दैत्यों को बन्धु-बान्धवों सहित मार कर तुम्हारे सन्ताप को दूर करूँगा। 

ऐसा कहकर विष्णु ने हिमालय शिखर पर महादेव के लिंग की स्थापना करी जो कि मेरु पर्वत के समान विश्वकर्मा ने निर्माण किया। शिव सहस्त्र नाम से विष्णु भगवान ने पूजन किया और स्तुति की। 

सहस्त्र नाम से पूजन करते हुए प्रत्येक नाम पर कमल पुष्प से पूजन करने लगे और समिधा स्थापित कर अग्नि में सहस्त्र नाम से आहुति की। 

श्री विष्णु ने शिव के सहस्त्र नाम का पाठ किया। 

हे भव, शिव, हर, रुद्र, नीललोहित, पद्मलोचन, अष्टमूर्ति, विश्वमूर्ति, वामदेव, महादेव इत्यादि सहस्त्र नाम से स्तुति की।


क्रमशः शेष अगले अंक में...


संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


श्रीअयोध्या-महात्म्य


गयाकूप आदि अनेक तीर्थों का माहात्म्य तथा ग्रन्थ का उपसंहार...! 


इसके उत्तरमें वीर मत्तगजेन्द्रका शुभ सूचक स्थान है। 

उनके सामने जो सरोवर है, उसमें स्नान करके जो निश्चितरूपसे वहाँ निवास करता है, वह पूर्ण सिद्धिको पाता है। 

अयोध्याकी रक्षा करनेवाले वीर मत्तगजेन्द्र समस्त कामनाओंकी सिद्धि करनेवाले हैं। 

उसके पश्चिम भागमें परम पुरुषार्थी वीर पिण्डारकका स्थान है। 

सरयूके जलमें स्नान करके वीर पिण्डारककी पूजा करे। 

वे पापियोंको मोहनेवाले और पुण्यात्माओंको सदा सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले हैं। 

पिण्डारकके पश्चिम भागमें विघ्नेश्वर ( गणेश ) जीकी पूजा करे। 

उनके दर्शन करनेसे मनुष्योंको लेशमात्र विघ्नका भी सामना नहीं करना पड़ता। 

विघ्नेशसे ईशान कोणमें श्रीरामजन्म स्थान है। 

इसे 'जन्म - स्थान' कहते हैं। 

यह मोक्षादि फलोंकी सिद्धि करनेवाला है। 

विघ्नेशसे पूर्व, वशिष्ठसे उत्तर तथा लोमशसे पश्चिम भागमें जन्मस्थान तीर्थ माना गया है। 

उसका दर्शन करके मनुष्य गर्भवासपर विजय पा लेता है। 

रामनवमीके दिन व्रत करनेवाला मनुष्य स्नान और दानके प्रभावसे जन्म - मृत्युके बन्धनसे छूट जाता है। 

आश्रममें निवास करनेवाले तपस्वी पुरुषोंको जो फल प्राप्त होता है, सहस्रों राजसूय और प्रतिवर्ष अग्निहोत्र करनेसे जो फल मिलता है, जन्मस्थानमें नियममें स्थित पुरुषके दर्शनसे तथा माता, पिता और गुरुकी भक्ति करनेवाले सत्पुरुषोंके दर्शनसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वही सब फल जन्मभूमिके दर्शनसे प्राप्त कर लेता है। 

सरयूका दर्शन करके भी मनुष्य उस फलको पा लेता है। 

एक निमेष या आधे निमेष भी किया हुआ श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान मनुष्योंके संसार - बन्धनके कारणभूत अज्ञानका निश्चय ही नाश करनेवाला है। 

जहाँ कहीं भी रहकर जो मनसे अयोध्याजीका स्मरण करता है, उसकी पुनरावृत्ति नहीं होती। 

सरयू नदी सदा मोक्ष देनेवाली है। 

यह जलरूपसे साक्षात् परब्रह्म है। 

यहाँ कर्मका भोग नहीं करना पड़ता। 

इसमें स्नान करनेसे मनुष्य श्रीरामरूप हो जाता है। 

पशु, पक्षी, मृग तथा अन्य जो पापयोनि प्राणी हैं, वे सभी मुक्त होकर स्वर्गलोकमें जाते हैं, जैसा कि श्रीरामचन्द्रजीका वचन है। 

सत्यतीर्थ, क्षमातीर्थ, इन्द्रियनिग्रहतीर्थ, सर्वभूतदयातीर्थ, सत्यवादितातीर्थ, ज्ञानतीर्थ और तपस्तीर्थ-ये सात मानसतीर्थ कहे गये हैं। 

सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया करनारूप जो तीर्थ है, उसमें मनको विशेष शुद्धि होती है। 

केवल जलसे शरीरको पवित्र कर लेना ही स्नान नहीं कहलाता। 

जिस पुरुषका मन भलीभाँति शुद्ध है, उसीने वास्तवमें तीर्थस्नान किया है। 

भूमिपर वर्तमान जो तीर्थ हैं उनकी पवित्रताका कारण यह है। 

जैसे शरीरके कोई अंग मध्यम और कोई उत्तम माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीपर भी कुछ प्रदेश अत्यन्त पवित्र होते हैं। 

इस लिये भौम और मानस दोनों प्रकारके तीर्थोंमें निवास करना चाहिये। 

जो दोनों में स्नान करता है वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

जलचर जीव जलमें ही जन्म लेते और जलमें ही मरते हैं, परंतु वे स्वर्गमें नहीं जाते; क्योंकि उनका मन अशुद्ध होता है और वे मलिन होते हैं। 

विषयोंमें निरन्तर राग होना मनका मल कहलाता है। 

उन्हीं विषयों में जब आसक्ति न रह जाय, तब उसे मनकी निर्मलता कहते हैं। 

यदि मनुष्य भावसे निर्मल है- 

उसके अन्तःकरणमें शुद्ध भाव है तो उसके लिये दान, यज्ञ, तप, शौच, तीर्थसेवा और वेर्दोका अध्ययन ये सभी तीर्थ हैं। 

इन्द्रियसमुदायको वशमें रखनेवाला पुरुष जहाँ निवास करता है, वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर हैं। 

यह मानसतीर्थका लक्षण बतलाया गया, जिसमें स्नान करनेसे क्रियावान् पुरुषोंके सब कर्म सफल होते हैं। 

बुद्धिमान् मनुष्य प्रातःकाल उठकर संगममें स्नान करे, फिर भगवान् विष्णुहरिका दर्शन करके ब्रह्मकुण्डमें स्नान करे। 

तत्पश्चात् चक्रतीर्थमें स्नान करके मनुष्य भगवान् चक्रहरिका दर्शन करे। 

उसके बाद धर्महरिका दर्शन करके वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

प्रत्येक एकादशीको यह यात्रा शुभकारक होती है।


बुद्धिमान् पुरुष प्रातःकाल उठकर स्वर्गद्वारके जलमें गोता लगावे। 

फिर नित्य कर्म करके अयोध्यापुरीका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् पुनः सरयूका दर्शन करके वीर मत्तगजेन्द्र, वन्दीदेवी, शीतलादेवी और वटुकभैरवका दर्शन करे। 

उनके आगे सरोवरमें स्नानकर महाविद्याका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् पिण्डारकका दर्शन करे। 

अष्टमी और चतुर्दशीको यह यात्रा फलवती होती है। 

अंगारक चतुर्थीको पूर्वोक्त देवताओंके साथ - साथ समस्त कामनाओंकी सिद्धिके लिये विघ्नेशका भी दर्शन करे। 


पूर्ववत् प्रातः काल उठकर बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मकुण्डके जलमें स्नान करे। 

फिर विष्णु और विष्णुहरिका दर्शन करके मनुष्यके मन, वाणी और शरीरकी शुद्धि होती है। 

उसके बाद मन्त्रेश्वर और महाविद्याका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् सब कामनाओंकी सिद्धिके लिये अयोध्याका दर्शन करके जितेन्द्रिय पुरुष स्वर्गद्वारमें वस्त्रसहित स्नान करे। 

उससे मनुष्यके अनेक जन्मोंके उपार्जित नाना प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं। 

इस लिये वस्त्रसहित स्नान अवश्य करे। 

यह यात्रा सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। 

जो प्रतिदिन इस प्रकार शुभ फल देनेवाली यात्रा करता है, उसकी सौ कोटि कल्पोंमें भी पुनरावृत्ति नहीं होती। 

अयोध्यापुरी सर्वोत्तम स्थान है। 

यह भगवान् विष्णुके चक्रपर प्रतिष्ठित है।


सूतजी कहते हैं जो मनुष्य पवित्रचित्त होकर अयोध्याके इस अनुपम माहात्म्यका पाठ करता है अथवा जो श्रद्धासे इसको सुनता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

अतः मनुष्योंको सदा यत्नपूर्वक इसका श्रवण करना चाहिये। 

ब्राह्मणों तथा भगवान् विष्णुकी पूजा करनी चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणके लिये सुवर्ण आदि देना चाहिये। 

पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष इस माहात्म्यको सुनकर पुत्र पाता है और धर्मार्थीको धर्मकी प्राप्ति होती है। 

जो श्रेष्ठ मनुष्य अति विस्तृत विधानके साथ वर्णित इस धर्मयुक्त आदिक्षेत्रके उत्तम माहात्म्यका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह लक्ष्मी से सनाथ होकर संसार में सब उत्तम भोगों को भोगने के पश्चात् भगवान् विष्णु के लोक में निवास करता है।


श्रीअयोध्या - महात्म्य सम्पूर्ण।

वैष्णवखण्ड समाप्त


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


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