'कुब्जा उद्धार' की कथा !!!!!!!
'कुब्जा उद्धार' की कथा !!!!!!!
कंस की नगरी मथुरा में कुब्जा नाम की स्त्री थी...!
जो कंस के लिए चन्दन, तिलक तथा फूल इत्यादि का संग्रह किया करती थी।
कंस भी उसकी सेवा से अति प्रसन्न था।
जब भगवान श्रीकृष्ण कंस वध के उद्देश्य से मथुरा में आये...!
तब कंस से मुलाकात से पहले उनका साक्षात्कार कुब्जा से होता है।
बहुत ही थोड़े लोग थे...!
जो कुब्जा को जानते थे।
उसका नाम कुब्जा इस लिए पड़ा था...!
क्योंकि वह कुबड़ी थी।
जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसके हाथ में चन्दन, फूल और हार इत्यादि है और बड़े प्रसन्न मन से वह लेकर जा रही है।
तब श्रीकृष्ण ने कुब्जा से प्रश्न किया-
" ये चन्दन व हार फूल लेकर इतना इठलाते हुए तुम कहाँ जा रही हो और तुम कौन हो? "
" कुब्जा ने उत्तर दिया कि- "
मैं कंस की दासी हूँ।
StonKraft - Brass Krishna Murti Idol Statue Sculpture, 10.5 cm
कुबड़ी होने के कारण ही सब मुझको कुब्जा कहकर ही पुकारते हैं और अब तो मेरा नाम ही कुब्जा पड़ गया है।
मैं ये चंदन, फूल हार इत्यादि लेकर प्रतिदिन महाराज कंस के पास जाती हूँ और उन्हें ये सामग्री प्रदान करती हूँ।
वे इससे अपना श्रृंगार आदि करते हैं।"
श्रीकृष्ण ने कुब्जा से आग्रह किया कि-
"तुम ये चंदन हमें लगा दो, ये फूल, हार हमें चढ़ा दो"।
कुब्जा ने साफ इंकार करते हुए कहा-
"नहीं - नहीं, ये तो केवल महाराज कंस के लिए हैं।
मैं किसी दूसरे को नहीं चढ़ा सकती।"
जो लोग आस - पास एकत्र होकर ये संवाद सुन रहे थे व इस दृश्य को देख रहे थे...!
वे मन ही मन सोच रहे थे कि ये कुब्जा भी कितनी जाहिल गंवार है।
साक्षात भगवान उसके सामने खड़े होकर आग्रह कर रहे हैं और वह है कि नहीं - नहीं कि रट लगाई जा रही है।
वे सोच रहे थे कि इतना भाग्यशाली अवसर भी वह हाथ से गंवा रही है।
बहुत कम लोगों के जीवन में ऐसा सुखद अवसर आता है।
जो फूल माला व चंदन ईश्वर को चढ़ाना चाहिए वह उसे न चढ़ाकर वह पापी कंस को चढ़ा रही है।
उसमें कुब्जा का भी क्या दोष था।
वह तो वही कर रही थी....!
जो उसके मन में छुपी वृत्ति उससे करा रही थी।
भगवान श्रीकृष्ण के बार - बार आग्रह करने और उनकी लीला के प्रभाव से कुब्जा उनका श्रृंगार करने के लिए तैयार हो गई।
परंतु कुबड़ी होने के कारण वह प्रभु के माथे पर तिलक नहीं लगा पा रही थी।
दास्यस्यहं सुन्दर कंससम्मतात्रिवक्रनामा ह्रायनुलेपकरमणि।
मद्भावितं भोजपतेरतिप्रियं विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति।।
उसने कहा-
मैं कंस की दासी हूंँ, मेरा नाम तो सैरन्ध्री है...!
लेकिन कमर तीन जगह से टेढ़ी है तो कोई मेरा नाम नहीं लेता....!
लोग मुझे कुब्जा कहते हैं....!
त्रिवक्रा भी कहते हैं....!
हे गोपाल!
मेरे जीवन का आज ये पहला दिन है कि किसी ने मेरा परिचय पूछा....!
दुनियाँ के लोगों ने कभी मेरा परिचय नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ ?
मेरे द्वारा घिसा हुआ चन्दन महाराज कंस को बड़ा प्रिय लगता है....!
लेकिन आज मेरा मन कर रहा है कि ये चन्दन आपको लगा दूँ।
क्या आप मेरे हाथ का घिसा हुआ चन्दन स्वीकार करेंगे....!
कृष्ण ने कहा-
लगाओ न.....!
उस त्रिवक्रा ने कृष्ण के सखाओं को चन्दन लगाया....!
बलरामजी के लगाया और जैसे ही मेरे गोविन्द के चन्दन लगाया....!
गोपाल के नेत्रों से आंसू झर पड़े....!
सोचा...!
ये रंग की काली है....!
त्रिवक्रा है इस लिये लोग इससे बात करना पसंद नहीं करते....!
इसे भी तो मानवीय गणों से जीने का अधिकार प्राप्त होना चाहिये।
कन्हैया ने कुब्जा को अपने नजदीक आने को कहा....!
वो जैसे ही कन्हैया के पास आयी....!
बालकृष्ण ने उसकी होड़ी से तीन अंगुली लगायी और जरा सा झटका दिया....!
वो तो परम सुन्दरी बन गई....!
कुब्जा क्या है ?
वो तीन जगह से टेढ़ी क्यों है ?
कुब्जा हमारी बुद्धि और बुद्धि तीन जगह से टेढ़ी है....!
काम, क्रोध, और लोभ, जब तक बुद्धि कंस के आधीन रहेगी तब तक तीन विकारों से टेढ़ी रहेगी।
ज्योंही कृष्ण के चरणों में गिरेगी...!
यह विकार निकल जायेंगे और बुद्धि बिलकुल ठीक हो जायेगी....!
जिस पर गोविन्द कृपा कर दे उसके लिये बड़ी बात क्या है ?
अब भगवान् श्रीकृष्ण कंस के धनुष यज्ञ में पधारे....!,
सामने कुबलिया पीड़ नामक हाथी था....!
महावत ने हाथी को आगे बढ़ाया....!
श्री कृष्ण ने पहले तो थोड़ा युद्ध किया और फिर उठाया हाथी को और मार दिया....!
आगे धनुष की ओर बढ़े।
करेण वामेन सलीलमुद्धृतं सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम्।
नृणां विकृष्य प्रबभज मध्यतो यथेक्षुदण्डं मदकर्युरूक्रमः।।
बाँये हाथ से प्रभु ने धनुष को उठाया और जितनी देर में पलक गिरते हैं उतनी देर में धनुष के तीन टुकड़े कर दिये....!
कुबलियापीड़ नाम के हाथी को मार दिया....!
कंस के पास समाचार गया....!
ये क्या किया महाराज ?
कृष्ण को क्यों बुला लिया आपने ?
उस ने आपके धोबी को मार दिया....!
आपके दर्जी से कपड़े सिलवा लिये....!
आपके माली से माला पहनी....!
कुब्जा से चंदन लगवा कर उसे परम सुन्दरी बना दिया।
कंस ने कहा वो जादू - वादू भी जानता है क्या ?
पता नहीं महाराज दूसरे दूत ने कहा....!
उसने आपके धनुष को ••• क्या हुआ धनुष को ?
दूत ने कहा-
महाराज दुःखद समाचार है कि धनुष तोड़ दिया...!
वहीं धनुष जो शिवजी ने दिया था कंस को और कहा था ये धनुष जो तोड़ेगा वो तुम्हें नहीं छोड़ेगा...!
अब तो कंस भय से कांपने लगा...!
सैनिकों ने कहा-
आप क्यों चिन्ता करते हैं ?
हम लोगों ने बहुत बड़ी रंगभूमि बनायी है...!
उसमें बड़े - बड़े पहलवान मुष्टिक...!
चाणूर....!
कृष्ण - बलराम को ललकारेंगे....!
बस आपकी आँखों के सामने दोनों को मार देंगे....!
विशाल रंगभूमि में एक तरफ मातायें और युवतियां विराजमान है....!
एक तरफ मथुरा वासिं विराजमान है....!
एक तरफ सभी राज घरानों से पधारे हुए मेहमान राजकुमार विराजमान है...!
एक तरफ वृद्ध पुरूष है और संत - महात्मा भी है।
मल्लानामशनिर्नृमां नरवरः स्त्रिणां स्मरो मूर्तिमान्।
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः।।
एक तरफ बड़े - बड़े मल्ल पहलवान है...!
उन लोगों ने कहा महाराज कृष्ण - बलराम आने वाले ही है...!
आपकी आँखों के सामने दोनों को मार देंगे...!
कंस महाराज का सिंहासन ऊँचाई पर लगा हुआ है...!
कृष्ण - बलराम दो नों भैया रंगभूमि में प्रवेश कर रहे हैं...!
आचार्य शुकदेवजी ने बहुत सुन्दर चित्रण किया है...!
इस झाँकी का-
कृष्ण तो एक ही है...!
लाखों नर - नारी बैठे हैं...!
आश्चर्य है कि एक ही कृष्ण सब को अलग - अलग रूप में दिखायी देता है।
मुत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां तत्त्व॔ परं योगिनां।
वृष्णीनां परदेवतेतिविदितो रंकं गतः साग्रजः।।
बड़े - बड़े मल्ल पहलवानों को मेरा गोविन्द पहाड़ जैसा विशाल दीखता है...!
नवयुवतियों को कृष्ण कामदेव के समान सुन्दर दिखायी देता है...!
जितने वहाँ गोप ग्वारियां बैठे थे...!
उन सब को कन्हैया अपने मित्र के रूप में दीखता है...!
राजकुमारों को कृष्ण राजकुमार दीखता है...!
जो ना समझ लोग है उन्हें श्रीकृष्ण साधारण मानव के रूप में दीखते है...!
योगियों को श्रीकृष्ण परमतत्त्व के रूप में दिखते है...!
ज्ञानियों को ब्रह्म के रूप में दिखते है...!
भक्तों को भगवान् के रूप में दिखते है।
जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
जैसा जिसका भाव है...!
एक ही प्रभु के दर्शन अनन्त रूपों में हो रहा है....!
जैसे मैंने आपके सामने एक श्वेत मणि को रख दिया और कहा-
श्रीमान् इस मणि का रंग क्या है ?
आपकी आँखों पर काला चश्मा लगा है तो आपने कहा...!
ये तो काली है...!
दूसरे ने हरा लगाया तो उसे हरी दिखायी दी...!
ऐसे ही उसको आप जिस रंग के चश्मे से देखेंगे वो वैसी ही दीखेगी...!
मणि वहीं है....!
अपरिवर्तनीय है...!
लेकिन आँखों पर चश्मा जैसा होगा उसका रंग वैसा ही दिखायी देगा।
वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता...!
लेकिन भावनात्मक दृष्टि जैसी होगी...!
प्रभु उसी भाव से दिखेंगे...!
कंस को मेरा गोविन्द साक्षात् काल के रूप में दिखाई दिये...!
चाणूर, मुष्टिक ने कहा-
आओ कृष्ण...!
हमने तुम्हारी लीला बहुत सुनी है...!
गोकुल में तुमने बड़ा नाटक किया है....!
आज हमारे साथ तुम्हें युद्ध करना पड़ेगा....!
कन्हैया बोले -
लड़ना तो हमें आता नहीं।
कंस ने कहा-
कैसे नहीं आता ?
हम ने पूतना भेजी...!
शकटासुर भेजा...!
तृणावर्त भेजा....!
सारे राक्षसों को तुमने मार दिया और कहते हो हमें युद्ध करना नहीं आता....!
कृष्ण बोले-
तुम्हारी सौगन्ध खाकर कह रहे हैं मामाजी...!
जितने भी हमारे पास राक्षस आयें सब मरे मराये....!
हमने तो उन्हें यमुनाजी में फेंके बस....!
चाणूर ने कहा-
तुम बालक नहीं हो....!
हकीकत में काल हो....!
माँ का दूध पिया है तो आ जावो युद्ध करने।
!!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏