https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 07/26/20

श्री पंचमुखी गणेश जी महात्म्य / एक शिक्षा पद कहानी

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

श्री पंचमुखी गणेश जी महात्म्य / एक शिक्षा पद कहानी

श्री पंचमुखी गणेश जी महात्म्य


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आपने पंच मुखी हनुमानजी की तरह आपने पंचमुखी गणेशजी की भी प्रतिमाएं देखी होगी। 




क्या आप जानते है क्या है इनका अर्थ ?

शुभ और मंगलमयी होते हैं पंचमुखी गणेश पांच मुख वाले गजानन को पंचमुखी गणेश कहा जाता है। 

पंच का अर्थ है पांच। 

मुखी का मतलब है मुंह। 

ये पांच पांच कोश के भी प्रतीक हैं।

वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के माध्यम से समझाया गया है। 

इन पंचकोश को पांच तरह का शरीर कहा गया है। 

पहला कोश है अन्नमय कोश-संपूर्ण जड़ जगत जैसे धरती, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि; ये सब अन्नमय कोश कहलाता है।

दूसरा कोश है प्राणमय कोश-जड़ में प्राण आने से वायु तत्व धीरे-धीरे जागता है और उससे कई तरह के जीव प्रकट होते हैं। 

यही प्राणमय कोश कहलाता है। 

तीसरा कोश है मनोमय कोश-प्राणियों में मन जाग्रत होता है और जिनमें मन अधिक जागता है वही मनुष्य बनता है। 

चौथा कोश है विज्ञानमय कोश-सांसारिक माया भ्रम का ज्ञान जिसे प्राप्त हो। 

सत्य के मार्ग चलने वाली बोधि विज्ञानमय कोश में होता है।

यह विवेकी मनुष्य को तभी अनुभूत होता है जब वह बुद्धि के पार जाता है।

पांचवां कोश है आनंदमय कोश-ऐसा कहा जाता है कि इस कोश का ज्ञान प्राप्त करने के बाद मानव समाधि युक्त अतिमानव हो जाता है। 

मनुष्यों में शक्ति होती है भगवान बनने की और इस कोश का ज्ञान प्राप्त कर वह सिद्ध पुरुष होता है। 

जो मानव इन पांचों कोशों से मुक्त होता है, उनको मुक्त माना जाता है और वह ब्रह्मलीन हो जाता है। 

गणेश जी के पांच मुख सृष्टि के इन्हीं पांच रूपों के प्रतीक हैं।

पंच मुखी गणेश चार दिशा और एक ब्रह्मांड के प्रतीक भी माने गए हैं अत: वे चारों दिशा से रक्षा करते हैं। 

वे पांच तत्वों की रक्षा करते हैं। 

घर में इनको उत्तर या पूर्व दिशा में रखना मंगलकारी होता है।

ईश्वर आदि हैं, अनंत हैं। 

उनका स्वरूप निराकार है। 

फिर भी प्रत्येक तीर्थस्थल, मंदिर और मठ में उनके विभिन्न स्वरूपों की पूजा होती है।

आज हम आपको भगवान गणेश के ऐसे ही एक स्वरूप के दर्शन करा रहे हैं।

 मध्यप्रदेश के इंदौर जिले में दुनिया के एक मात्र स्वयंभू पंचमुखी गणेश जी का मंदिर है।

स्वयंभू पंचमुखी गणेश जी की प्रतिमा जुनी इंदौर स्थित स्वयंभू पंचमुखी श्री अर्केश्वर गणेश मंदिर में भगवान श्री गणेश मदार ( आकड़े ) के वृक्ष स्वरूप में विद्यमान हैं। 

मान्यता है कि भगवान श्री गणेश की मदार के पेड़ में यह मूर्ति स्वयंभू है, जो सदियों पुरानी है।

मंदिर में भगवान गणेश के पंचमुखी स्वरूप के दर्शन करने के लिये सालभर भक्तों की भीड़ लगी रहती है। 

मंदिर के पुजारी का मानना है कि मदार के पेड़ में गणेश की यह मूर्ति स्वयंभू है। 

न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में शायद ही गणेश जी का ऐसा स्वरूप देखने को मिलता है।
🔸〰️〰️🔸〰️हर हर महादेव हर〰️🔸〰️〰️🔸

एक सच्चा अनुभव और जिवन मे आया बड़ा बदलाव
🌹एक शिक्षा प्रद कहानी 🌹

एक सहर में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम राजेश था दुसरे का नाम  दिपक था। 

दोनों का सिमित परिवार था पति पत्नी और दो दो थे!  दोनों में अथाह प्रेम था दोनों दिन रात अपने काम में लगे रहते थे खुब मेहनत कर परिवार का पालन पोषण करते थे। दिपक को नसे कि आदत थी। और राजेश उसकी आदत से चिढता था।एक दिन इसी बात पर दोनों में अनबन हो गई ।
 
राजेश का परीवार हशी खुशी से चल रहा था और निरंतर प्रगति की और विकास की और अग्रसर था। 

वही दिपक का परीवार दुख भरी जिंदगी व्यतीत कर रहा था ।

एक दिन दिपक कि बिटिया की तबियत अचानक खराब हो गई और उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा? 

घर में गरबी थी। 

दिपक ने रिश्तेदारों से मदद की गुहार की?  

मगर कोई आगे नही आया। 

तब दिपक कि पत्नी ने कहा आप अपने दोस्त राजेश जी से बात किजीए सायद वो हमारी मदद कर दे। 

इस पर दिपक ने कहा हमारा झगड़ा हुए दो वर्ष हो गये।


हमने कभी बात नहीं कि और अब अचानक कैसे मदद के लिए कहुँ। दिपक कि पत्नी ने कहा आप फोन लगा कर मुझे दिजिए और दिपक ने हा कहकर    फोन लगाया। फोन राजेश कि बिटिया ने उठाया   और देखा किसी दिपक का फोन है बिटिया बोली पापा किसी दीपक का फोन आ रहा है। 
उधर मेस पर खाना खाते राजेश ने सुना तो भोचक्का रह गया और हाथ का निवाला थाली में छोड़ भाग कर आया और फोन उठाया उसकी आँखों में प्रेम छलक रहा था। राजेश कि पत्नी ये सब देख हैरान थीं। 
और खामोश भी। राजेश ने भरे हुए गले से हेलो कहा और उधर से दिपक कि पत्नी ने रोते हुए घर कि लाचारी और बिटिया के अस्पताल कि सारी बात बताई और फुट फुट कर रोने लगी। राजेश ने सात्वना देते हुए धिरज रखने को कहा और पुछा बिटिया कौन से अस्पताल में है और ये नालायक दिपक कहा है । 
इस पर दिपक की पत्नी ने अस्पताल का नाम बताया और कहा वो आपसे बात करने में संकोचित हैऔर  डर रहे हैं। राजेश ने कहा आप घबराईए मत हम लोग अभी अस्पताल पहुँच रहे हैं ।
ये सब वाक्या राजेश कि पत्नी देख और सुन रहि थी उसने राजेश को इतना खुश और दुखी कभी नहीं देखा था ।
इस्से पहले की राजेश कुछ कहता वो बोली कैसी है भाभी जी और भैया और क्या हुआ है बिटिया को तब राजेश ने सारा हाल बताया और कहा हमें उनकी मदद करनी चाहिए ।
तब राजेश कि पत्नी ने हा कहते हुए कहा आप कार निकालिए में कुछ रुपये निकाल के रख लेती हुं ।
दोनों अस्पताल पहुंचे देखा कि दिपक और उसकी पत्नी दयनीय स्थिति में दिखे और उदास भी उन्हें यकीन नहीं था जहाँ सारे रिश्तेदारों ने नजरें फेर ली   वही दोस्त मदद को आगे आयेगा। जैसे ही दोनों ने एक दुसरे को देखा तो खुशी से भावी भौर हो गये दिपक ने शर्म से सर झुका लिया तब राजेश ने दिपक को गले लगाया और कहा सब ठीक हो जाएगा। 
इतना सुनते ही दिपक फुट फुट कर रोने लगा। राजेश ने दिपक की पिठ थपथपाई और कहा चल बिटिया कैसी है  दिखा कर जैसे ही बिटिया रुम में गयें मौजुद डॉ, ने कहा अब बिटिया स्वस्थ हैं यदि समय पर पैसे जमा नहीं होतें तो बिटिया को बचाना मुश्किल हो जाता? चुंकि जब तक राजेश ने दिपक को धैर्य बंधाया तब तक राजेश की पत्नी ने अस्पताल में रुपये जमा कर बिटिया का ईलाज करवा दिया था । 
दिपक ने कहा मै कैसे तुम्हारा धन्यवाद करु मेरे पास शब्द नहीं है हम जिंदगी भर तुम्हारे ऋणी रहेंगे।तुम ही मेरेे सच्चे मित्र हो सारे रिश्तेदार सत्रु बन गए। तब राजेश ने कहा नहीं मित्र तुमहारा कोई सत्रु नहीं है तुम स्वयं अपने सत्रु हो और तुम्हारी बुरी आदतें और व्यसन तुम्हारे सत्रु जिन्की  वजह से आज तुम्हारे परिवार के ये  हालत है यदि तुम मुझे अपना सच्चा दोस्त आज भी मानते हो और वाकई मे मेरा ऋण उतारना चाहते हो तो आज से बुरे व्यसनों का त्याग कर अपने परिवार को सम्रद्ध बनाने का प्रयास करो।दिपक ने भरे मन कहाँ दोस्त में नसे कि लत में अन्धा हो गया था। 
मैं आज से ये प्रण करता हूँ कि नसा छोड़ दूंगा और अपनी कमाई का सारा पैसा अपने परिवार की सम्रद्धि और स्वास्थ्य पर खर्च करुंगा। और अच्छा दोस्त बनकर दिखाऊंगा।अच्छा अब हम चलते हैं कहकर राजेश और उस्की पत्नी चले गए। 
इस एक घटना ने दिपक कि जिन्दगी बदल दी अब दिपक और उस्का परिवार के  खुश और सुखी रहने लगा। और राजेश और दिपक पहले जैसे दोस्त।।  
🌹🌹इस कहानी से ये शिक्षा मिलती है कि नशा हमारे का विनाश कर देता है और हम (कहानी के एक पात्र राजेश)  राजेश जैसा दोस्त खो देते हैं।🌹🌹
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्रीकृष्ण का प्राकट्य / असली गहना ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीकृष्ण का प्राकट्य / असली गहना ।।

*श्रीकृष्ण का प्राकट्य*_   3️⃣


🙏🙏😊😊🙏🙏

महाभारत का गहराई से अध्ययन - मनन करने वाले पुरुष यह भली - भाँति जानते हैं कि महाभारत के मुख्य प्रतिपाद्य भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। 

महाभारत के आदि पर्व में ही कहा गया है-


*भगवान्‌ वासुदेवश्च कीर्त्यतऽत्र सनातनः।*
*स कि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च ।।*

*शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रवं ज्योतिः सनातनः।*
*यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः।।*

*असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्वं प्रवर्तते।*
*यत्तद् यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः।।*

*प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।*

इस महाभारत में सनातन भगवान वासुदेव की महिमा ही गायी गयी है। 

वे ही सत्य हैं। 

वे ही ऋतु हैं, वे ही पावन और पवित्र हैं। 

वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं नित्य विचल ज्योतिःस्वरूप सनातन पुरुष हैं। 

मनीषीविद्वान उन्हीं की दिव्य लीलाओं का वर्णन करते हैं। 

असत और सत तथा यह सत् और असत रूप सारा विश्व उन्हीं से उत्पन्न हुआ है। 

ध्यानयोग के बल से समन्वित जीवन्मुक्त संन्यासीगण दर्पण में प्रतिबिम्ब की भाँति अपने अन्तःकरण में इन्हीं परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं’ आचार्य श्रीमदानन्दतीर्थ भगवत्पादने

 ‘श्रीमहाभारततात्पर्यनिर्णय’ नामक ग्रन्थ में इस बात को उदाहरण देकर भलीभाँति सिद्ध कर दिया है।

महाभारतान्तर्गत विश्व विख्यात सर्वलोकसमादृत श्रीभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं कहते हैं-

*मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय।*
*मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे पणिगणा इव।।*

‘धनंजय! मेरे अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु नहीं है। 

यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र की मणियों के सदृश मुझ में गुँथा हुआ है।

*यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।*
*अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुत्तमः।।*

‘मैं क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हूँ। 

इस से लोक - वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ।’

*यच्चापि सर्वभूतानां बींज तदहमर्जुन।*
*न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।*

‘अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का बीज है, वह भी मैं ही हूँ। 

चर अथवा अचर कोई भी ऐसा भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो।’

*गतिर्भता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।*
*प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।*

‘मैं ही गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, सबका आधार, निधान तथा अविनाशी कारण हूँ।’

*ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।*
*शाश्वतस्य व धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।*

‘मैं अविनाशी ब्रह्म की, अमृत की, नित्यधर्म की, और ऐकान्तिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ- 

सबका आधार हूँ।’

*मत्तः सर्वं प्रवर्तते।*
‘सब मुझसे ही प्रवर्तित है।’

*अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।*

‘मैं सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय हूँ।’

*भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।*

‘ मैं समस्त यज्ञ-तपों का भोक्ता और सर्वलोकों का महान् ईश्वर हूँ।’

*विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।*
‘ इस सम्पूर्ण जगत को मैंने एक अंश में धारण कर रखा है।’

*यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।*
‘जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है।’

*अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।*

‘मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ। अर्जुन ने गीता में कहा है-

*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।*
*पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।*

‘भगवान! आप परब्रह्म, परमधाम, परमपवित्र, सनातनपुरुष, दिव्यपुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु हैं।’

श्रीमद्भागवत में तो श्रीकृष्ण के परब्रह्मत्व, उनकी स्वयं भगवत्स्वरूपता तथा उनके अनन्त महत्त्व का ही वर्णन श्रीव्यास देव जी ने किया है। 

उसकी तो रचना ही उन्हीं की स्वरूपव्याख्या तथा लीला कथा के वर्णन के लिये हुई है।

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि “जब भगवान श्रीकृष्ण ‘पूर्ण परात्पर ब्रह्म’, ‘ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा‘, सर्वथा सच्चिदानन्दमय स्वरूप हैं....!

तब उनका स्वरूप और आकार प्राकृत तथा उनके कार्य - स्नान, भोजन - शयनादि तथा अन्यान्य व्यवहार-बर्ताव प्राकृत मनुष्य के - से क्यों दिखायी पड़ते हैं?” 

इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो भगवान स्वयं ‘सर्व - भवन - समर्थ’ हैं- 

वे चाहे जैसे बन सकते हैं और यहाँ तो वे मनुष्य - लीला ही करते हैं। 

दूसरे, उन्होंने स्वयं इस प्रश्न का उत्तर गीता में दे दिया है-

*नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।*
*मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।*

‘योगमाया से पूरा-पूरा ढका रहने के कारण मैं समस्त लोगों की दृष्टि में प्रकाशित नहीं होता। 

इस लिये मूढ़लोग मेरे इस अजन्मा और अविनाशी स्वरूप को नहीं जान पाते- मुझको जन्म - मृत्युशील प्राकृतदेह धारी मानते हैं।’

*अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।*
*परं भावमजानन्तो मम भूतमेश्वरम्।।*

‘मैं सम्पूर्ण भूतों का महान् ईश्वर हूँ, मेरे इस परम भाव ( उत्कृष्ट माहात्म्य ) को वे मूढ़लोग नहीं जानते और मुझे मनुष्य के सदृश शरीर धारण किये देखकर प्राकृतशरीरधारी मनुष्य मान लेते हैं मेरा अपमान करते हैं।’

श्रीयामुन मुनिने कहा है-

*तद्भह्मकृष्णयोरैक्यात्.........................................।*

उस ब्रह्म और श्रीकृष्ण में वैसा ही एकत्व है, जैसा किरणों में और सूर्य में होता है। 

अतएव दिव्य सच्चिदानन्दघन प्रेमानन्द - रस - विग्रह भगवान श्रीकृष्ण विरुद्धधर्माश्रयी साक्षात् पूर्णब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु हैं।

गीता मे तीन प्रकार के अवतारों का संकेत और भगवान श्रीकृष्ण का महत्त्व.....!

उन्होंने गीता में अवतार के प्रसंग में अपने इस पूर्णाविर्भाव तथा अपने अंशावतारों का वर्णन सांकेतिक सूत्र रूप से बहुत सुन्दर किया है। 

वे कहते हैं-

*अजोऽपि सन्नव्ययत्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।*
*प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।*

*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।*
*अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।*

*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।*


इन श्लोकों का साधारण शब्दार्थ है-

‘मैं अजन्मा, अव्ययात्मा और सर्वभूतों का ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृति को ( अपने स्वभाव को ) स्वीकार करके अपनी माया से ( योगमाया को साथ लेकर ) उत्पन्न - उत्तम रीति से प्रकट होता हूँ *

( सम्भवामि )।’*

‘जब - जब धर्म की ग्लानि और अर्धम का अभ्युत्थान होता है, तब - तब मैं अपने रूप को रचता हूँ।’

‘साधु पुरुषों के परित्राण, दृष्टों के विनाश और धर्म संस्थापन के लिये मैं युग - युग में उत्तम रीति से प्रकट होता हूँ ।

*( सम्भवामि )।’*

साधुओं का परित्राण, दृष्टों का दमन और धर्म का संरक्षण - सस्थापन - भगवदवतार के ये तीन कार्य सुप्रसिद्ध हैं। 

इन तीनों का वर्णन तथा इनके लिये प्रकट होने की बात आठवें श्लोंक में आ जाती है। 

फिर छठे श्लोक में ‘सम्भवामि’ और सातवे में ‘आत्मानं सृजामि’ कहने की क्या आवश्यक्ता थी? 

तीनों मे ही प्रकारान्तर से अपने प्रकट होने की बात ही कही गयी है- 

छठे तथा आठवें दो में ‘सम्भवामि’ तथा सातवें में ‘आत्मानं सृजामि’ कहा है। 

अतएव ऐसा प्रतीत होता है- 

तीन श्लोकों में तीन प्रकार के अवतारों का संकेत है।

 मैं अत, अव्ययात्मा और सर्वभूतमहेश्वर होकर भी अपनी प्रकृति को स्वीकार करके आत्ममाया ये प्रकट होता हूँ, इसमें अपने ‘विरुद्ध धर्माश्रयी’ परब्रह्म स्वरूप के पूर्णाविर्भाव का संकेत है। 

दूसरे में सदुपदेश के द्वारा धर्मग्लानि तथा अधर्म के अभ्युत्थान का नाश करने वाले

 *‘आचार्यावतार’* 

का संकेत है तथा तीसरे में साधु संरक्षण, दुष्टदलन और धर्म संरक्षण - संस्थापन करने वाले

 *‘अंशावतार’* 

का संकेत है।

श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् हैं- 

यह गीता के उपर्युक्त श्लोक में आये हुए 

*‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय’* 

और

 *‘आत्ममायया सम्भवामि’* 

 पदों के गम्भीर्य पर ध्यान देकर समझने से और भी सुस्पष्ठ हो जाता है।

_*शेष ( दिव्य सत्संग ) अगले भाग में........*_
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*जय जय श्री राधे गोविन्द*

*जय जय श्री वृंदावन धाम*

।। असली गहना.....! ।।


एक राजा थे , उनका नाम था चक्ववेण , वह बड़े ही धर्मात्मा थे। 

राजा जनता से जो भी कर लेते थे सब जनहित में ही खर्च करते थे उस धन से अपना कोई कार्य नहीं करते थे। 

अपने  जीविकोपार्जन हेतु राजा और रानी दोनोँ खेती किया करते थे। 

उसी से जो पैदावार हो जाता उसी से अपनी गृहस्थी चलाते , अपना जीवन निर्वाह करते थे। 

राजा रानी होकर भी साधारण से वस्त्र और साधारण सात्विक भोजन करते थे। 

    एक दिन नगर में कोई उत्सव था तो राज्य की तमाम महिलाएं बहुत अच्छे वस्त्र और गहने धारण किये हुए जिसमें रेशमी वस्त्र तथा हीरे ,पन्ने , जवाहरात आदि के जेवर आदि पहने थीँ आई और जब रानी को साधारण वस्त्रों में देखा तो कहने लगी कि आपतो हमारी मालकिन हो और इतने साधरण वस्त्रों में बिना गहनों के जबकि आपको तो हम लोगों से अच्छे वस्त्रों और गहनों में होना चाहिए। 

यह बात रानी के कोमल हृदय को छू गई और रात में जब राजा रनिवास में आये तो रानी ने सारी बात बताते हुए कहा कि आज तो हमारी बहुत फजीहत बेइज्जती हुई। 

सारी बात सुनने के बाद राजा ने कहा क्या करूँ मैं खेती करता हूँ जितना कमाई होती है घर गृहस्थी में ही खर्च हो जाता है , क्या करूँ ? 

प्रजा से आया धन मैं उन्हीं पर खर्च कर देता हूँ , फिर भी आप परेशान न हों , मैं आपके लिए गहनों की ब्यवस्था कर दूंगा। तुम धैर्य रखो।

     
दूसरे दिन राजा ने अपने एक आदमी को बुलाया और कहा कि तुम लंकापति रावण के पास जाओ और कहो कि राजा चक्रवेणु ने आपसे कर मांगा है और उससे सोना ले आओ। 

वह ब्यक्ति रावण के दरबार मे गया और अपना मन्तब्य बताया इस पर रावण अट्टहास करते हुए बोला अब भी कितने मूर्ख लोग भरे पड़े है , मेरे घर देवता पानी भरते हैं और मैं कर दूंगा। 

उस ब्यक्ति ने कहा कि कर तो आप को अब देना ही पड़ेगा , अगर स्वयं दे दो तो ठीक है , इस पर रावण क्रोधित होकर बोला कि ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई , जा चला जा यहां से -,

      रात में रावण मन्दोदरी से मिला तो यह कहानी बताई मन्दोदरी पूर्णरूपेण एक पतिव्रता स्त्री थीँ , यह सुनकर उनको चिन्ता हुई और पूँछी कि फिर आपने कर दिया या नहीं ? 

तो रावण ने कहा तुम पागल हो मैं रावण हूँ , क्या तुम मेरी महिमा को जानती नहीं। 

क्या रावण कर देगा। 

इस पर मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप कर दे दो वरना इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। 

मन्दोदरी राजा चक्रवेणु के प्रभाव को जानती थी क्योंकि वह एक पतिव्रता स्त्री थी। 

रावण नहीं माना , जब सुबह उठकर रावण जाने लगा तो मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप थोड़ी देर ठहरो मैं आपको एक तमाशा दिखाती हूँ। 

रावण ठहर गया , मन्दोदरी प्रतिदिन छत पर कबूतरों को दाना डाला क़रतीं थी , उस दिन भी डाली और जब कबूतर दाना चुगने लगे तो बोलीं कि अगर तुम सब एक भी दाना चुगे तो तुम्हें महाराजाधिराज रावण की दुहाई है , कसम है। 

रानी की इस बात का कबूतरों पर कोई असर नहीं हुआ और वह दाना चुगते रहे। 

मन्दोदरी ने रावण से कहा कि देख लिया न आपका प्रभाव , रावण ने कहा तू कैसी पागल है पक्षी क्या समझें कि क्या है रावण का 

प्रभाव तो मन्दोदरी ने कहा कि ठीक है अब दिखाती हूँ आपको फिर उसने कबूतरों से कहा कि अब एक भी दाना चुना तो राजा चक्रवेणु की दुहाई है। 

सारे कबूतर तुरन्त दाना चुगना बन्द कर दिया। 

केवल एक कबूतरी ने दाना चुना तो उसका सर फट गया , क्योंकि वह बहरी थी सुन नही पाई थी। 

रावण ने कहा कि ये तो तेरा कोई जादू है ,मैं नही मानता इसे। 

और ये कहता हुआ वहां से चला गया।

      रावण दरबार मे जाकर गद्दी पर बैठ गया तभी राजा चक्रवेणु का वही व्यक्ति पुनः दरबार मे आकर पूंछा की आपने मेरी बात पर रात में विचार किया या नहीं। 

आपको कर रूप में सोना देना पड़ेगा। 

रावण हंसकर बोला कि कैसे आदमी हो तुम देवता हमारे यहां पानी भरते है और हम कर देंगे। 

तब उस ब्यक्ति ने कहा कि ठीक है आप हमारे साथ थोड़ी देर के लिए समुद्र के किनारे चलिये , रावण किसी से डरता ही नही था सो कहा चलो और उसके साथ चला गया। 

उसने समुद्र के किनारे पहुंचकर लंका की आकृति बना दी और जैसे चार दरवाजे लंका में थे वैसे दरवाजे बना दिये और रावण से पूंछा की लंका ऐसी ही है न ? 

तो रावण ने कहा हाँ ऐसी ही है तो ? 

तुम तो बड़े कारीगर हो। 

वह आदमी बोला कि अब आप ध्यान से देखें , " महाराज चक्रवेणु की दुहाई है " ऐसा कहकर उसने अपना हाथ मारा और एक दरवाजे को गिरा दिया। 

इधर बालू से बनी लंका का एक एक हिस्सा बिखरा उधर असली लंका का भी वही हिस्सा बिखर गया। अब वह आदमी बोला कि कर देते हो या नहीं?  

नहीं तो मैं अभी हाथ मारकर सारी लंका बिखेरता हूँ। 

रावण डर गया और बोला हल्ला मत कर ! 

तेरे को जितना चाहिए चुपचाप लेकर चला जा। 

रावण उस ब्यक्ति को लेजाकर कर के रूप में बहुत सारा सोना दे दिया। 

      रावण से कर लेकर वह आदमी राजा चक्रवेणु के पास पहुंचा और उनके सामने सारा सोना रख दिया चक्ववेण ने वह सोना रानी के सामने रख दिया कि जितना चाहिए उतने गहने बनवा लो। 

रानी ने पूंछा कि इतना सोना कहाँ से लाये ? 

राजा चक्ववेण ने कहा कि यह रावण के यहां से कर रूप में मिला है। 

रानी को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि रावण ने कर कैसे दे दिया? 

रानी ने कर लाने वाले आदमी को बुलाया और पूंछा कि कर कैसे लाये तो उस ब्यक्ति ने सारी कथा सुना दी। 

कथा सुनकर रानी चकरा गई और बोली कि मेरे असली गहना तो मेरे पतिदेव जी हैं , दूसरा गहना मुझे नहीं चाहिए। 

गहनों की शोभा पति के कारण ही है। 

पति के बिना गहनों की क्या शोभा ? 

जिनका इतना प्रभाव है कि रावण भी भयभीत होता है , उनसे बढ़कर गहना मेरे लिए और हो ही नहीं सकता। 

रानी ने उस आदमी से कहा कि जाओ यह सब सोना रावण को लौटा दो और कहो कि महाराज चक्ववेण तुम्हारा कर स्वीकार नहीं करते। 

       कथा का सार है कि मनुष्य को देखा देखी पाप देखादेखी पुण्य नहीं करना चाहिए और सात्विक रूप से सत्यता की शास्त्रोक्त विधि से कमाई हुई दौलत में ही सन्तोष करना चाहिए। 

दूसरे को देखकर मन को बढ़ावा या पश्चाताप नहीं करना चाहिए। 

धर्म मे बहुत बड़ी शक्ति आज भी है। 

करके देखिए निश्चित शांति मिलेगी । 

आवश्यकताओं को कम कर दीजिए जो आवश्यक आवश्यकता है उतना ही खर्च करिये शेष परोपकार में लगाइए। 

भगवान तो हमारे इन्हीं कार्यो की समीक्षा में बैठे हैं, मुक्ति का द्वार खोले , किन्तु यदि हम स्वयं नरकगामी बनना चाहें तो उनका क्या दोष ?
।।। शिव ।।। शिव ।।। शिव ।।।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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तिरुपति बालाजी को गोविंदा क्यों कहते है...?

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

*तिरुपति बालाजी को गोविंदा क्यों कहा जाता है...?*


यह एक अत्यंत रोचक घटना है, महालक्ष्मी की खोज में भगवान विष्णु जब  भूलोक पर आए, तब यह सुंदर घटना घटी । 




भूलोक में प्रवेश करते ही, उन्हें भूख एवं प्यास यह मानवीय गुण प्राप्त हुए, भगवान श्री निवास ऋषि अगस्त के आश्रम में गए और बोले, "मुनिवर मैं एक विशिष्ट मुहिम से भूलोक पर ( पृथ्वी ) पर आया हूँ", "और कलयुग का अंत  होने तक यहीं रहूंगा"। 

मुझे गाय का दूध अत्यंत पसंद है और और मुझे अन्न के रूप में उसकी आवश्यकता है। 

*मैं जानता हूँ कि आपके पास एक बड़ी गौशाला है, उसमें अनेक गाएँ हैं, मुझे आप एक गाय दे सकते हैं क्या? 

ऋषि अगस्त्य हँसे और कहने लगे, "स्वामी मुझे पता है कि आप श्रीनिवास के मानव स्वरूप में, श्रीविष्णु हैं"। 

मुझे अत्यंत आनंद है कि इस विश्व के निर्माता और शासक स्वयं मेरे आश्रम में आए हैं, मुझे यह भी पता है की आपने मेरी  भक्ति की परीक्षा लेने के लिए यह मार्ग अपनाया है....!

फिरभी स्वामी मेरी एक शर्त है कि, मेरी गौशाला की पवित्र गाय केवल ऐसे व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो उसकी पत्नी संग यहाँ आए, मुझे आप को उपहार स्वरूप गाय देना अच्छा लगेगा....!

परंतु जब तुम मेरे आश्रम में देवी लक्ष्मी संग आओगे, और गो दान देने के लिए पूछोगे, तभी मैं ऐसा कर पाऊँगा।*


श्रीनिवासन हँसे, और बोले ठीक है मुनिवर, तुम्हें जो चाहिए वह मैं करूँगा, ऐसा कहकर वे वापस चले गए। 

बाद में भगवान श्रीनिवास ने देवी पद्मावती से विवाह किया, विवाह के कुछ दिन पश्चात भगवान श्रीनिवासन, उनकी दिव्य पत्नी पद्मावती के साथ, ऋषि अगस्त्य महामुनि के आश्रम में आए, पर उस वक्त ऋषि आश्रम में नहीं थे। 

भगवान श्रीनिवासन से उनके शिष्यों ने पूछा आप कौन हैं? 

और हम आपके लिए क्या कर सकते हैं ? 

प्रभु ने उत्तर दिया, "मेरा नाम श्रीनिवासन है, और यह मेरी पत्नी पद्मावती है"। 

आपके आचार्य को मेरी रोज की आवश्यकता के लिए एक गाय दान करने के लिए कहा था, परंतु उन्होंने कहा था कि पत्नी के साथ आकर दान मांगेंगे तभी मैं गाय दान दूंगा। 

यह तुम्हारे आचार्य की शर्त थी, इसी लिए मैं अब पत्नी संगआया हूँ, शिष्यों ने विनम्रता  से कहा, "हमारे आचार्य आश्रम में नहीं है इसी लिए कृपया आप गाय लेने के लिए बाद में आइये"। 

श्रीनिवासन हंँसे और कहने लगे, मैं आपकी बात से सहमत हूंँ, परंतु मैं संपूर्ण जगत का सर्वोच्च शासक हूंँ, इसी लिए तुम सभी शिष्य गण  मुझ पर विश्वास रख सकते हैं, और मुझे एक गाय दे सकते हैं मैं फिर से नहीं आ सकता। 

शिष्यों ने कहा, निश्चित रूप से आप धरती के शासक हैं बल्कि यह संपूर्ण विश्व भी आपका ही है, परंतु हमारे दिव्य आचार्य हमारे लिए सर्वोच्च हैं, और उनकी आज्ञा के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते। 

धीरे - धीरे हंसते हुए भगवान कहने लगे, आपके आचार्य का आदर करता हूँ कृपया वापस आने पर आचार्य को बताइए कि मैं सपत्नीक आया था, ऐसा कहकर भगवान श्रीनिवासन  तिरुमाला की दिशा में जाने  लगे, कुछ मिनटों में ऋषि अगस्त्य आश्रम में वापस आए, और जब उन्हें इस बात का पता लगा तो वे अत्यंत निराश हुए ।
 
*"श्रीमन नारायण  स्वयं लक्ष्मी के संग, मेरे आश्रम में आए थे"। 

दुर्भाग्यवश मेैं आश्रम में  नहीं था, बड़ा अनर्थ हुआ । 

फिर भी कोई बात नहीं प्रभु को जो गाय चाहिए थी, वह मैंने तो देना ही चाहिए। 

ऋषि तुरंत गौशाला में दाखिल हुए, और एक पवित्र गाय लेकर भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती की दिशा में भागते हुए निकले, थोड़ी दूरी पर श्रीनिवास एवं पत्नी पद्मावती उन्हें नजर आए।*

*उनके पीछे भागते हुए ऋषि तेलुगु भाषा में पुकारने  लगे स्वामी ( देवा )  गोवु ( गाय ) इंदा ( ले जाओ ) तेलुगु में गोवु अर्थात गाय, और इंदा अर्थात ले जाओ।*
 
*स्वामी, गोवु इंदा...! 

स्वामी, गोवु इंदा...! 

स्वामी, गोवु इंदा...! 

स्वामी, गोवु इंदा...! 

( स्वामी गाय ले जाइए )......!

कई बार पुकारने के पश्चात भगवान ने नहीं देखा, इधर मुनि ने अपनी गति बढ़ाई, और स्वामी ने पुकारे हुए शब्दों को सुनना शुरू किया।*

 *भगवान की लीला, उन शब्दों का रूपांतर क्या हो गया।* 

*स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, गोविंदा गोविंदा गोविंदा,*
 *ऋषि ने बार बार पुकारने के पश्चात भगवान श्रीनिवास वेंकटेश्वर एवं देवी पद्मावती वापिस मुडे, और ऋषि से पवित्र गाय स्वीकार की ।* 

*मुनिवर तुमने ज्ञात अथवा अज्ञात अवस्था में मेरे सबसे प्रिय नाम गोविंदा को 108 बार बोल दिया है, कलयुग के अंत तक पवित्र पहाड़ियों पर मूर्ति के रूप में भूलोक पर रहूँगा, मुझे मेरे सभी भक्त "गोविंदा" नाम से   पुकारेंगे....!*

 *इन सात पवित्र पहाड़ियों पर, मेरे लिए एक मंदिर बनाया जाएगा, और हर दिन मुझे देखने के लिए बड़ी संख्या में भक्त आते रहेंगे। 

भक्त पहाड़ी पर चढ़ते हुए, अथवा मंदिर में मेरे सामने मुझे, गोविंदा नाम से पुकारेंगे*।

*मुनिराज कृपया ध्यान दीजिए हर समय मुझे इस नाम से पुकारे जाते वक्त, तुम्हें भी स्मरण किया जाएगा क्योंकि इस प्रेम भरे नाम का कारण तुम हो, यदि किसी भी कारण वश कोई भक्त मंदिर में आने में असमर्थ रहेगा, और मेरे गोविंदा नाम करेगा। 

तब उसकी सारी आवश्यकता मैं पूरी करूँगा। 

सात पहाड़ियों पर चढ़ते हुए  जो गोविंदा नाम को पुकारेगा, उन सभी श्रद्धालुओं को मैं मोक्ष दूंगा।*
🦜🦜🦜🦜🦜🦜🦜🦜
 *वेंकटरमना गोविंदा-*
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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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।। जय माँ अनपूर्णा माँ.... ।।

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जय द्वारकाधीश

।। जय माँ अन्नपूर्णा माँ.... ।।

अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी - देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। 




इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। 

इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण - पोषण होता है। 

अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ है- 

'धान्य' (अन्न ) की अधिष्ठात्री। 

सनातन धर्म की मान्यता है कि प्राणियों को भोजन माँ अन्नपूर्णा की कृपा से ही प्राप्त होता है।

शिव की अर्धांगनी, कलियुग में माता अन्नपूर्णा की पुरी काशी है, किंतु सम्पूर्ण जगत् उनके नियंत्रण में है। 

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के अन्नपूर्णाजी के आधिपत्य में आने की कथा बडी रोचक है। 

भगवान शंकर जब पार्वती के संग विवाह करने के पश्चात् उनके पिता के क्षेत्र हिमालय के अन्तर्गत कैलास पर रहने लगे, तब देवी ने अपने मायके में निवास करने के बजाय अपने पति की नगरी काशी में रहने की इच्छा व्यक्त की।

 

महादेव उन्हें साथ लेकर अपने सनातन गृह अविमुक्त - क्षेत्र ( काशी ) आ गए। 

काशी उस समय केवल एक महाश्मशान नगरी थी। 

माता पार्वती को सामान्य गृहस्थ स्त्री के समान ही अपने घर का मात्र श्मशान होना नहीं भाया।

इस पर यह व्यवस्था बनी कि सत्य, त्रेता, और द्वापर, इन तीन युगों में काशी श्मशान रहे और कलियुग में यह अन्नपूर्णा की पुरी होकर बसे। 

इसी कारण वर्तमान समय में अन्नपूर्णा का मंदिर काशी का प्रधान देवीपीठ हुआ।

स्कन्दपुराण के 'काशीखण्ड' में लिखा है कि भगवान विश्वेश्वर गृहस्थ हैं और भवानी उनकी गृहस्थी चलाती हैं। 

अत: काशीवासियों के योग - क्षेम का भार इन्हीं पर है। 

'ब्रह्मवैव‌र्त्तपुराण' के काशी - रहस्य के अनुसार भवानी ही अन्नपूर्णा हैं।

परन्तु जनमानस आज भी अन्नपूर्णा को ही भवानी मानता है। 

श्रद्धालुओं की ऐसी धारणा है कि माँ अन्नपूर्णा की नगरी काशी में कभी कोई भूखा नहीं सोता है। 

अन्नपूर्णा माता की उपासना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ये अपने भक्त की सभी विपत्तियों से रक्षा करती हैं।

इनके प्रसन्न हो जाने पर अनेक जन्मों से चली आ रही दरिद्रता का भी निवारण हो जाता है। 

ये अपने भक्त को सांसारिक सुख प्रदान करने के साथ मोक्ष भी प्रदान करती हैं। 

तभी तो ऋषि - मुनि इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं-

शोषिणीसर्वपापानांमोचनी सकलापदाम्।
दारिद्र्यदमनीनित्यंसुख-मोक्ष-प्रदायिनी॥

काशी की पारम्परिक 'नवगौरी यात्रा' में आठवीं भवानी गौरी तथा नवदुर्गा यात्रा में अष्टम महागौरी का दर्शन - पूजन अन्नपूर्णा मंदिर में ही होता है। 

अष्टसिद्धियों की स्वामिनी अन्नपूर्णाजी की चैत्र तथा आश्विन के नवरात्र में अष्टमी के दिन 108 परिक्रमा करने से अनन्त पुण्य फल प्राप्त होता है। 

सामान्य दिनों में अन्नपूर्णा माता की आठ परिक्रमा करनी चाहिए। 

प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा देवी के निमित्त व्रत रखते हुए उनकी उपासना करने से घर में कभी धन - धान्य की कमी नहीं होती है।

भविष्यपुराण में मार्गशीर्ष मास के अन्नपूर्णा व्रत की कथा का विस्तार से वर्णन मिलता है। 

काशी के कुछ प्राचीन पंचांग मार्गशीर्ष की पूर्णिमा में अन्नपूर्णा जयंती का पर्व प्रकाशित करते हैं।

अन्नपूर्णा देवी का रंग जवापुष्प के समान है। 

इनके तीन नेत्र हैं, मस्तक पर अ‌र्द्धचन्द्र सुशोभित है। 

भगवती अन्नपूर्णा अनुपम लावण्य से युक्त नवयुवती के सदृश हैं। 

बन्धूक के फूलों के मध्य दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर ये प्रसन्न मुद्रा में स्वर्ण - सिंहासन पर विराजमान हैं।

देवी के बायें हाथ में अन्न से पूर्ण माणिक्य, रत्न से जडा पात्र तथा दाहिने हाथ में रत्नों से निर्मित कलछूल है। 

अन्नपूर्णा माता अन्न दान में सदा तल्लीन रहती हैं।

देवीभागवत में राजा बृहद्रथ की कथा से अन्नपूर्णा माता और उनकी पुरी काशी की महिमा उजागर होती है। 

भगवती अन्नपूर्णा पृथ्वी पर साक्षात कल्पलता हैं, क्योंकि ये अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं।

 स्वयं भगवान शंकर इनकी प्रशंसा में कहते हैं- 

"मैं अपने पांचों मुख से भी अन्नपूर्णा का पूरा गुण - गान कर सकने में समर्थ नहीं हूँ। 

यद्यपि बाबा विश्वनाथ काशी में शरीर त्यागने वाले को तारक - मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, तथापि इसकी याचना माँ अन्नपूर्णा से ही की जाती है। 

गृहस्थ धन - धान्य की तो योगी ज्ञान - वैराग्य की भिक्षा इनसे मांगते हैं-

अन्नपूर्णेसदा पूर्णेशङ्करप्राणवल्लभे।
ज्ञान-वैराग्य-सिद्धयर्थम् भिक्षाम्देहिचपार्वति॥

मंत्र - महोदधि, तन्त्रसार, पुरश्चर्यार्णव आदि ग्रन्थों में अन्नपूर्णा देवी के अनेक मंत्रों का उल्लेख तथा उनकी साधना - विधि का वर्णन मिलता है। 

मंत्रशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'शारदातिलक' में अन्नपूर्णा के सत्रह अक्षरों वाले निम्न मंत्र का विधान वर्णित है-

"ह्रीं नम: भगवतिमाहेश्वरिअन्नपूर्णेस्वाहा"

मंत्र को सिद्ध करने के लिए इसका सोलह हज़ार बार जप करके, उस संख्या का दशांश (1600 बार) घी से युक्त अन्न के द्वारा होम करना चाहिए। 

जप से पूर्व यह ध्यान करना होता है-

रक्ताम्विचित्रवसनाम्नवचन्द्रचूडामन्नप्रदाननिरताम्स्तनभारनम्राम्।नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणंविलोक्यहृष्टांभजेद्भगवतीम्भवदु:खहन्त्रीम्॥

अर्थात 'जिनका शरीर रक्त वर्ण का है, जो अनेक रंग के सूतों से बुना वस्त्र धारण करने वाली हैं, जिनके मस्तक पर बालचंद्र विराजमान हैं, जो तीनों लोकों के वासियों को सदैव अन्न प्रदान करने में व्यस्त रहती हैं, यौवन से सम्पन्न, भगवान शंकर को अपने सामने नाचते देख प्रसन्न रहने वाली, संसार के सब दु:खों को दूर करने वाली, भगवती अन्नपूर्णा का मैं स्मरण करता हूँ।'

प्रात:काल नित्य 108 बार अन्नपूर्णा मंत्र का जप करने से घर में कभी अन्न - धन का अभाव नहीं होता। 

शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा का पूजन - हवन करने से वे अति प्रसन्न होती हैं। करुणा मूर्ति ये देवी अपने भक्त को भोग के साथ मोक्ष प्रदान करती हैं। 

सम्पूर्ण विश्व के अधिपति विश्वनाथ की अर्धांगिनी अन्नपूर्णा सबका बिना किसी भेद - भाव के भरण - पोषण करती हैं। 

जो भी भक्ति - भाव से इन वात्सल्यमयी माता का अपने घर में आवाहन करता है, माँ अन्नपूर्णा उसके यहाँ सूक्ष्म रूप से अवश्य वास करती हैं।
।।।। जय माताजी ।।। जय माताजी ।।।
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।। पाप और पुण्य / यूँ तो अधिकांश लोग जिन्दगी से शिकायत किया करते हैं ।।

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।। पाप और पुण्य / यूँ तो अधिकांश लोग जिन्दगी से शिकायत किया करते हैं  ।।

।।  पुण्य ओर पाप ।।


पुण्य मन के उस धर्म का ही नाम है , जो कि मनुष्य को सुख उपजाता है । 

सुख उपजाने वाले या भविष्य में जो -- जो भी कर्म सुख उपजाए , वे सब पुण्य कर्म कहे जाते है । 

इसी प्रकार पुण्य की एक ऐसी सूक्ष्म अवस्था है , जो कि मोक्ष के सुख की ओर अग्रसर करती है , जिस में इस पूर्ण संयम से जो पुण्य उदय हॉट्स है । 


वह अंततः मोक्ष -- प्राप्ति का कारण होती है । 

परंतु ऐसा पुण्य करने वाले को यदि कोई सांसारिक सुख पाने की इच्छा या संकल्प या कामना न हो तो वह बड़े आराम से सब पापों का समाप्त करता हुवा मोक्ष मार्ग पर ही अग्रसर हो जायेगा और अंत मे मोक्ष को ही प्राप्त करेगा ।

पाप मन का वह धर्म है , जो मन के अंदर सूक्ष्म रूप से या अदृष्ट रूप से बेठा हुआ मनुष्य के दुख को उपजाता है । 

पुण्य के समान यह पाप भी की प्रकार के खोटे कर्मो से उपजाता है । 

वे सब पाप कर्म कहे जाते है ।

जैसे पुण्य सूक्ष्म रूप से मोक्ष का दाता है ; ऐसे ही इन्द्रियों का असेम्ब, मन -- बुद्धि का असंयम ओर शरीर का भी असंयम पाप का हेतु है । 

यह ही पाप रूप है । 

इस पाप से बचकर ही दुर्गति के ऊपर जीत लिया जा शकता है । 

पाप दुर्गति देने वाले है । 

दुर्गति उसका नाम है , जिस में दुख की नातरा बहुत अधिक होती है । 

जो मनुष्य की बुद्धि को भष्ट करे और उसको हित -- अहित के बारे में सोचने भी न दे और समझने भी न दे , यही पाप है ।

पुनः साधन करने में विध्न या प्रतिबंध डाले , यही पाप का स्वरूप है , जो मनुष्य की बुद्धि को मनुष्यता के स्तर से नीचे नही गिरने देता और मोक्ष तक ले जाता है । 

मनुष्य की बुद्धि का स्तर तब ही गिरता है , जब कि मनुष्य के अंदर उनके काम , क्रोध इत्यादि विकार ओर उतेजना द्वारा हित -- अहित के बारे में विचार करने की ओर समझने की बुद्धि खो जाए । 
जैसे कि पशु -- पक्षी , किट -- पतंग में यह मनुष्यताके स्तर की बुद्धि नही है , इस लिये वह दुर्गति है । 
मनुष्य होते हुवे भी यदि अंततक दुःख में पड़ा रहे , तो यह दुर्गति ही है । 

यह सब पाप का कार्य ही है ।

इस लिये वह सब प्रकार के मिथ्या कर्मो को करने में प्रेरित वह कर्म करने लग जाय , जो कि दुशरो की दृष्टि में भी न करने योग्य माने जाते है । 

ऐसा कर्मो से मनुष्य को मोक्ष का मार्ग ओर अपनी आत्मा का सुख मिलना तो दूर रहा ; परंतु  संसार मे कोई अच्छा या मनुष्य के स्तर का जन्म तक भी नही मिलेगा ।

कोई नही कह सकता कि वह मरने के पश्चात किन -- किन योनियों में जन्म पाता है भयंकर दुःखो  को  पाप्त होता रहेगा । 

केवल मनुष्य की बुद्धि रखकर यदि उन सब पापों से बचता रहेगा ; 

तभी कही मनुष्य -- जन्म पाकर अन्त में पवित्रता -- निर्मलता रखता हुआ मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त हो जाएगा अर्थात नोक्ष मार्ग पर चढ़ जाएगा और अंत मे मुक्त हो जाएगा ।

।।। जय श्री कृष्ण..! जय श्री कृष्ण..! जय श्री कृष्ण..! ।।।

।। श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।
          

 यूँ तो अधिकांश लोग जिन्दगी से शिकायत किया करते हैं। 


मगर बहुत थोड़े ही लोग हुआ करते हैं जो शिकायतों में भी हँसकर जिया करते हैं। 

जिन्दगी से हमारी शिकायतों का कारण अभाव नहीं अपितु हमारा स्वभाव है।

🌇हम सिर्फ खोने का दुःख मनाना जानते हैं, पाने की ख़ुशी नहीं। 

ख़ुशी के लिए काम करोगे तो ख़ुशी ही मिले यह निश्चित नहीं मगर खुश होकर काम करोगे तो ख़ुशी अवश्य मिलेगी।

🌇जिन्दगी से शिकायत करने की अपेक्षा जो प्राप्त है ।

उसका आनंद लो ।

यही जीवन की वास्तविक उपलब्धि है।

🌇तकदीर के लिखे पर कभी शिकवा न कर , 

तू अभी इतना समझदार नहीं कि 
ईश्वर के इरादे समझ सके।

जय श्री कृष्ण !
जय श्री राधे कृष्ण !!
🌹🙏🌹🙏🌹
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।।।।। श्री राम स्तुति , *ब्राह्मण क्यों देवता ?* ।।।।।

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🚩 *****!! *श्री विनय पत्रिका* !!*****🚩
                         🙏

।।।।। श्री राम स्तुति  , *ब्राह्मण क्यों देवता ?* ।।।।।


                 *श्रीराम स्तुति*
*पद-58*


*कुणप अभिमान सागर भयंकर घोर ,विपुल अवगाह ,दुस्तर अपारं।*
*नक्र रागादि संकुल मनोरथ सकल,संग संकल्प वीचीविकारं।।*
*मोह दशमौलि ,तद्भ्रात अंहकार,पाकारिजित काम विश्रामहारी।*
*लोभ अतिकाय ,मत्सर महोदर दुष्ट,क्रोध पापिष्ठ विबुधांतकारी।।*

*भावार्थ*-

देहाभिमान अत्यंत भयंकर,अथाह ,अपार समुद्र है ।जिसमें राग द्वेष और कामना आदि अनेक घड़ियाल भरे है और आसक्ति तथा संकल्प की लहरें उठ रही हैं। 

        इस लंका में मोह रुपी रावण ,अंहकार रुपी भाई कुम्भकर्ण और शांति नष्ट करने वाला कामरूपी मेघनाथ है।यहाँ लोभरुपी अतिकाय ,मत्सर रूपी दुष्ट महोदर ,क्रोध रुपी महापापी देवान्तक है।

                   🌹🙏🌹

            *जय श्री सीताराम*
क्रमशः

।। श्री ब्रह्मवैवर्तपुराण , श्री विष्णुपुराण , श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस के ग्रथों का प्रवचन ।।


*ब्राह्मण क्यों देवता ?*



*नोट--*_कुछ आदरणीय मित्रगण कभी -कभी मजाक में या 

कभी जिज्ञासा में, 

कभी गंभीरता से 

एक प्रश्न करते है कि_


 *ब्राम्हण को इतना सम्मान क्यों दिया जाय या दिया जाता है ?*


            _इस तरह के बहुत सारे प्रश्न 

समाज के नई पिढियो के लोगो कि भी जिज्ञासा का केंद्र बना हुवा है ।_


_*तो आइये 

देखते है हमारे 

धर्मशास्त्र क्या कहते है इस विषय में----*_

                *शास्त्रीय मत*

_पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।_

_सागरे  सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।_


_चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः  ।_

_सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया  ।।_


_अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।_

_नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।_


*•अर्थात पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में  है ।* 


*चार वेद उसके मुख में हैं  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इसवास्ते ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है ।* 


*पृथ्वी में ब्राह्मण जो है विष्णु रूप है इसलिए  जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष  नहीं करना चाहिए ।*


_•देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।_

_ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।_


*•अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।*    


_ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते।_

_विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम्।।_


*ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए।*

*संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है।*


*जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है ।* 

*वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।*


ऊँ पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।_

_अस्यैव दर्शनान्नित्यं ,अश्वमेधादिजं फलम्।।_


*जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है।* 

*जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है ।* 


*जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।*


पितामह भीष्म जी ने पुलस्त्य जी से पूछा--


*गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है?*


यह बताने की कृपा करें।*


*पुलस्त्यजी ने कहा--*


राजन!


इस पृथ्वी पर ब्राम्हण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है।


तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं।


ब्राम्हण देवताओं का भी देवता है।

संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।

वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है।

ब्राम्हण सब लोगों का गुरु,पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है।

*पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था--*


ब्रम्हन्!


किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?"


ब्रम्हाजी बोले--


जिस पर ब्राम्हण प्रसन्न होते हैं,उसपर भगवान विष्णुजी भी प्रसन्न हो जाते हैं।

अत: ब्राम्हण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है।

*ब्राम्हण के शरीर में सदा ही श्रीविष्णु का निवास है।*

_जो दान,मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राम्हणों की पूजा करते हैं ।

उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।_

*जिसके घरपर आया हुआ ब्राम्हण निराश नही लौटता,उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।*

_पवित्र देशकाल में सुपात्र ब्राम्हण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है।_

*वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है,उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है।* 

*जिस घर के आँगन में ब्राम्हणों की चरणधूलि पडने से वह पवित्र होते हैं वह तीर्थों के समान हैं।*


_ऊँ  न विप्रपादोदककर्दमानि,_

_न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!_

_स्वाहास्वधास्वस्तिविवर्जितानि,_

_श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।_


*जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती।* 

*जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है।* 

*वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।*


_भीष्मजी!


पूर्वकाल में विष्णु भगवान के मुख से ब्राम्हण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।_

(  श्री अगत्यरूषी भगवान श्री रामचन्द्र जी को लंका युद्ध के विजय के बाद ब्रह्म हत्या दोष के निवारण पूजन के लिए शिवलिंग पूजन और छबीस कुंड के स्थापन पूजन  )


पितृयज्ञ ( श्राद्ध - तर्पण ), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं।


*ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं।* 

*ब्राम्हण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।*

_जहाँ ब्राम्हणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहाँ असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं।_

*ब्राम्हण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए।*

_उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है।


ब्राम्हणों को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है,धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।_


*चौ- पूजिय विप्र सकल गुनहीना।*

      *शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा।।*


*कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।*

*एहिसम विजयउपाय न दूजा।।*


       *------ रामचरित मानस......*


ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,

       गोब्राम्हणहिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय, दल

        गोविन्दाय नमोनमः।।


*जगत के पालनहार*


*गौ,ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशःवन्दना करते हैं।*

_जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं।

उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।।_

*ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है,*

*ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।*

*ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है,*

*ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।*

*ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है,*

*ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।*

*ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है,*

*ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।*

*ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है,* 

*ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।*

*ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है,*

*ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।*

*ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है,*

*ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।*

*ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,*

*ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।*

*ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है,* 

*ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।*

*ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है,* 

*ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए बेद कीर्तिवान है।*

*ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है,* 

*ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।*

*ब्राह्मण संकुचित विचारधारों से परे एक नाम है,* 

*ब्राह्मण सबके अंत:स्थल में बसा अविरल राम है..* 

        🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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