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आरती कैसी करनी चाहिये...?

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश



आरती कैसी करनी चाहिये...? 

हमें आरती कैसे करना चाहिए,क्या है आरती का महत्व,आरती कितने प्रकार की होती है ....?


आरती के महत्व की चर्चा सर्वप्रथम “स्कन्द पुराण” में की गयी है। 

आरती हिन्दू धर्म की पूजा परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। 

किसी भी पूजा पाठ, यज्ञ, अनुष्ठान के अंत में देवी-देवताओं की आरती की जाती है। 

आरती की प्रक्रिया में, एक थाल में ज्योति और कुछ विशेष वस्तुएं रखकर भगवान के समक्ष घुमाते हैं।





थाल में अलग अलग वस्तुओं को रखने का अलग अलग महत्व होता है पर सबसे ज्यादा महत्व होता है, आरती के साथ गाई जाने वाली स्तुति का. जितने भाव से आरती गाई जायेगी, उतना ही ज्यादा यह प्रभावशाली होगी।

आरती का अर्थ है !

पूरी श्रद्धा के साथ परमात्मा की भक्ति में डूब जाना। 

आरती को नीराजन भी कहा जाता है। 

नीराजन का अर्थ है विशेष रूप से प्रकाशित करना। 

यानी कि देव पूजन से प्राप्त होने वाली सकारात्मक शक्ति हमारे मन को प्रकाशित कर दें। 

व्यक्तित्व को उज्जवल कर दें। 

बिना मंत्र के किए गए पूजन में भी आरती कर लेने से पूर्णता आ जाती है। 

*स्कंद पुराण में भगवान की आरती के संबंध* में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति मंत्र नहीं जानता हो,पूजा की विधि भी नहीं जानता हो। 






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लेकिन भगवान की आरती की जा रही हो और उस पूूजन कार्य में श्रद्धा के साथ शामिल होकर आरती करें,तो भगवान उसकी पूजा को पूरी तरह से स्वीकार कर लेते हैं।

1.आरती दीपक से क्यों-  

रुई के साथ घी की बाती जलाई जाती है। 

घी समृद्धि प्रदाता है। 

घी रुखापन दूर कर स्निग्धता प्रदान करता है। 

भगवान को अर्पित किए गए घी के दीपक का मतलब है कि जितनी स्निग्धता इस घी में है। 

उतनी ही स्निग्धता से हमारे जीवन के सभी अच्छे कार्य बनते चले जाएं। 

कभी किसी प्रकार की रुकावटों का सामना न करना पड़े।

 2.आरती में शंख ध्वनि और घंटा ध्वनि क्यों- 

आरती में बजने वाले शंख और घंटी के स्वर के साथ,जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है। 

उससे मन एक जगह केन्द्रित होता है,जिससे मन में चल रहे विचारों की उथल - पुथल कम होती जाती है। 

शरीर का रोम-रोम पुलकित हो उठता है,जिससे शरीर और ऊर्जावान बनता है। 

 3.आरती कर्पूर से क्यों- 

कर्पूर की महक तेजी से वायुमंडल में फैलती है। 







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ब्रह्मांड में मौजूद सकारात्मक शक्तियों ( दैवीय शक्तियां ) को यह आकर्षित करती है। 

आरती वह माध्यम है जिसके द्वारा देवीय शक्ति को पूजन स्थल तक पहुंचने का मार्ग मिल जाता है।

4. आरती करते हुए भक्त के मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि मानो वह पंच-प्राणों  ( पूरे मन के साथ ) की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। 

घी की ज्योति को आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानना चाहिए। 

यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं तो यह पंचारती कहलाती है। 

5. आरती दिन में एक से पांच बार की जा सकती है। 

घरों में आरती दो बार की जाती है। 

प्रातःकालीन आरती और संध्याकालीन आरती। 

 6.  दीपभक्ति विज्ञान के अनुसार आरती से पहले भगवान को नमस्कार करते हुए तीन बार फूल अर्पित करना चाहिए।

 7. उसके बाद एक दीपक में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या में यानी कि 3,5 या 7 बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए। 

सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है,जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। 

इसके बाद कर्पूर से आरती की जाती है। 

कर्पूर का धुंआ वायुमंडल में जाकर मिलता है। 

यहां धुआं हमारे पूजन कार्य को ब्रंह्माडकीय शक्ति तक पहुंचाने  का कार्य करता है।

 8. किसी विशेष पूजन में आरती पांच चीजों से की जा सकती है। 

पहली धूप से, दूसरी दीप से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, कर्पूर से,पांचवी जल से।


 

*कैसे सजाना चाहिए आरती का थाल...*

            आरती के थाल में एक जल से भरा लोटा, अर्पित किए जाने वाले फूल, कुमकुम, चावल, दीपक, धूप, कर्पूर, धुला हुआ वस्त्र, घंटी, आरती संग्रह की किताब रखी जाना चाहिए। 

थाल में कुमकुम से स्वास्तिक की आकृति बना लें। थाल पीतल या तांबे का लिया जाना चाहिए।

 *आरती करने की विधि.......*

1. भगवान के सामने आरती इस प्रकार से घुमाते हुए करना चाहिए कि ऊँ जैसी आकृति बने। 

2. अलग-अलग देवी-देवताओं के सामने दीपक को घुमाने की संख्या भी अलग है, जो इस प्रकार है।

भगवान शिव के सामने तीन या पांच बार घुमाएं।

भगवान गणेश के सामने चार बार घुमाएं। 

भगवान विष्णु के सामने बारह बार घुमाएं। 

भगवान रूद्र के सामने चौदह बार घुमाएं।

भगवान सूर्य के सामने सात बार घुमाएं।

भगवती दुर्गा जी के सामने नौ बार घुमाएं। 

अन्य देवताओं के सामने सात बार घुमाएं। 

यदि दीपक को घुमाने की विधि को लेकर कोई उलझन हो रही हो तो आगे दी गई विधि से किसी भी देवी या देवता की आरती की जा सकती है।

3. आरती अपनी बांई ओर से शुरू करके दाईं ओर ले जाना चाहिए। 

इस क्रम को सात बार किया जाना चाहिए। 

सबसे पहले भगवान की मूर्ति के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार और मुखमंडल में एक बार घुमाना चाहिए। 
इसके बाद देवमूर्ति के सामने आरती को गोलाकार सात बार घुमाना चाहिए।

4. पद्मपुराण में आरती के लिए कहा गया है कि कुंकुम, अगर, कपूर, घी और चन्दन की सात या पांच बत्तियां बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियां बनाकर शंख, घंटा आदि बजाते हुए आरती करनी चाहिए।

5. भगवान की आरती हो जाने के बाद थाल के चारों ओर जल घुमाया जाना चाहिए, जिससे आरती शांत की जाती है।

6. भगवान की आरती सम्पन्न हो जाने के बाद भक्तों को आरती दी जाती है। 

आरती अपने दाईं  ओर से दी जानी चाहिए।

 7. सभी भक्त आरती लेते हैं। 

आरती लेते समय भक्त अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ते हैं। 

आरती पर से घुमा कर अपने माथे पर लगाते हैं। 

जिसके पीछे मान्यता है कि ईश्वरीय शक्ति उस ज्योति में समाई रहती है। 

जिस शक्ति का भाग भक्त माथे पर लेते हैं। 

एक और मान्यता के अनुसार इससे ईश्वर की नजर उतारी जाती है। 

जिसका असली कारण भगवान के प्रति अपने प्रेम व भक्ति को जताना होता है।

*पूजा के बाद क्यों जरूरी है आरती ?*

*घर हो या मंदिर,* 

भगवान की पूजा के बाद घड़ी, घंटा और शंख ध्वनि के साथ आरती की जाती है। 

बिना आरती के कोई भी पूजा अपूर्ण मानी जाती है। 

इस लिए पूजा शुरू करने से पहले लोग आरती की थाल सजाकर बैठते हैं। 

पूजा में आरती का इतना महत्व क्यों हैं इसका उत्तर स्कंद पुराण में मिलता है। 

इस पुराण में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति मंत्र नहीं जानता, पूजा की विधि नहीं जानता लेकिन आरती कर लेता है तो भगवान उसकी पूजा को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेते हैं।

*आरती का धार्मिक महत्व* 

होने के साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। 

याद कीजिए आरती की थाल में कौन कौन सी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। 

आपके जेहन में रुई, घी, कपूर, फूल, चंदन जरूर आ गया होगा। 

रुई शुद्घ कपास होता है इसमें किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती है। 

इसी प्रकार घी भी दूध का मूल तत्व होता है। 

कपूर और चंदन भी शुद्घ और सात्विक पदार्थ है।

जब रुई के साथ घी और कपूर की बाती जलाई जाती है तो एक अद्भुत सुगंध वातावरण में फैल जाती है। 

इससे आस - पास के वातावरण में मौजूद नकारत्मक उर्जा भाग जाती है और सकारात्मक उर्जा का संचार होने लगता है।

आरती में बजने वाले शंख और घड़ी - घंटी के स्वर के साथ जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है उसके प्रति मन केन्द्रित होता है जिससे मन में चल रहे द्वंद का अंत होता है। 

हमारे शरीर में सोई आत्मा जागृत होती है जिससे मन और शरीर उर्जावान हो उठता है। 






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और महसूस होता है कि ईश्वर की कृपा मिल रही है।
!! जय श्री कृष्ण !!
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जय द्वारकाधीश..
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

रुद्राभिषेक एवं रुद्र क्या है...?

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

*।।   रुद्राभिषेक ।।*

रुद्र क्या है..?

रुद्राष्टाध्यायी यजुर्वेद का अंग है और वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ बताया गया है। वेद शिव के ही अंश है वेद: शिव: शिवो वेद:। अर्थात् वेद ही शिव है तथा शिव ही वेद हैं, वेद का प्रादुर्भाव शिव से ही हुअा है। 




भगवान शिव तथा विष्णु भी एकांश हैं तभी दोनो को हरिहर कहा जाता है, हरि अर्थात् नारायण (विष्णु) और हर अर्थात् महादेव (शिव) वेद और नारायण भी एक हैं वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुतम्। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में वेदों का इतना महत्व है तथा इनके ही श्लोकों, सूक्तों से पूजा, यज्ञ, अभिषेक आदि किया जाता है। शिव से ही सब है तथा सब में शिव का वास है, शिव, महादेव, हरि, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, नीलकंठ आदि सब ब्रह्म के पर्यायवाची हैं। रुद्र अर्थात् 'रुत्' और रुत् अर्थात् जो दु:खों को नष्ट करे, वही रुद्र है, रुतं--दु:खं, द्रावयति--नाशयति इति रुद्र:। रुद्रहृदयोपनिषद् में लिखा है--

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दन:।।

यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:।

ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।।

यह श्लोक बताता है कि रूद्र ही ब्रह्मा, विष्णु है सभी देवता रुद्रांश है और सबकुछ रुद्र से ही जन्मा है। इससे यह सिद्ध है कि रुद्र ही ब्रह्म है, वह स्वयम्भू है।

महिमा 
इसी रुद्र (शिव) के उपासना के निमित्त रुद्राष्टाध्यायी ग्रंथ वेद का ही सारभूत संग्रह है। जिस प्रकार दूध से मक्खन निकालते हैं उसी प्रकार जनकल्याणार्थ शुक्लयजुर्वेद से रुद्राष्टाध्यायी का भी संग्रह हुआ है। इस ग्रंथ में गृहस्थधर्म, राजधर्म, ज्ञान-वैराज्ञ, शांति, ईश्वरस्तुति आदि अनेक सर्वोत्तम विषयों का वर्णन है।

मनुष्य का मन विषयलोलुप होकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त करने में समर्थ है। इसमें ब्रह्म (शिव) के निर्गुण और सगुण दोनो रूपों का वर्णन हुआ है। जहाँ लोक में इसके जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शांति, पुत्र पौत्रादि वृद्धि, धन धान्य की सम्पन्नता और स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं मोक्ष भी प्राप्त होता है। वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में, उपनिषद, स्मृति तथा कई पुराणों में रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्राभिषेक की महिमा का वर्णन है।

वायुपुराण में लिखा है--

यश्च सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम्।

सर्वान्नात्मगुणोपेतां सुवृक्षजलशोभिताम्।।

दद्यात् कांचनसंयुक्तां भूमिं चौषधिसंयुताम्।

तस्मादप्यधिकं तस्य सकृद्रुद्रजपाद्भवेत्।।

यश्च रुद्रांजपेन्नित्यं ध्यायमानो महेश्वरम्।

स तेनैव च देहेन रुद्र: संजायते ध्रुवम्।।

अर्थ: जो व्यक्ति समुद्रपर्यन्त, वन, पर्वत, जल एवं वृक्षों से युक्त तथा श्रेष्ठ गुणों से युक्त ऐसी पृथ्वी का दान करता है, जो धनधान्य, सुवर्ण और औषधियों से युक्त है, उससे भी अधिक पुण्य एक बार के रुद्री[4] जप एवं रुद्राभिषेक का है। इसलिये जो भगवान शिव का ध्यान करके रुद्री का पाठ करता है, वह उसी देह से निश्चित ही रुद्ररूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।

इस प्रकार साधन पूजन की दृष्टि से सुद्राष्टाध्यायी का विशेष महत्व है।

प्राय: कुछ लोगों मे यह धारणा होती है कि मूलरूप से वेद के सुक्त आदि पुण्यदायक होते हैं अत: इन मन्त्रों का केवल पाठ और सुनना मात्र ही आवश्यक है। वेद तथा वेद के अर्थ तथा उसके गंभीर तत्वों से विद्वान प्राय: अनभिज्ञ हैं। वास्तव में यह सोंच गलत है, विद्वान वेद और वान से मिलकर बना है, तो वेद के विद्या को जो जाने वही विद्वान है, इसके संदर्भ में उनको जानकारी होना आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों में भी वैदिक तत्वो की महिमा का वर्णन है।

निरुक्तकार कहते हैं कि जो वेद पढ़कर उसका अर्थ नहीं जानता वह भार वाही पशु के तुल्य है अथवा निर्जन वन के सुमधुर उस रसाल वृक्ष के समान है जो न स्वयं उस अमृत रस का आस्वादन करता है और न किसी अन्य को ही देता है। अत: वेदमंत्रों का ज्ञान अतिकल्याणकारी होता है--


स्थाणुरयं भारहार: किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम्। योऽर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपप्मा।।

अत: रुद्राष्टाध्यायी के अभाव में शिवपूजन की कल्पना तक असंभव है।

परिचय 
रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है, न ही इससे बिना रुद्राभिषेक ही संभव है और न ही इसके बिना शिव पूजन ही किया जा सकता है। यह शुक्लयजुर्वेद का मुख्य भाग है। इसमें मुख्यत: आठ अध्याय हैं पर अंतिम में शान्त्यध्याय: नामक नवम तथा स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय: नामक दशम अध्याय भी हैं। इसके प्रथम अध्याय में कुल 10 श्लोक है तथा सर्वप्रथम गणेशावाहन मंत्र है, प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसुक्त है। द्वितीय अध्याय में कुल 22 वैदिक श्लोक हैं जिनमें पुरुसुक्त (मुख्यत: 16 श्लोक) है। इसी प्रकार आदित्य सुक्त तथा वज्र सुक्त भी सम्मिलित हैं। पंचम अध्याय में परम् लाभदायक रुद्रसुक्त है, इसमें कुल 66 श्लोक हैं। छठें अध्याय के पंचम श्लोक के रूप में महान महामृत्युंजय श्लोक है। सप्तम अध्याय में 7 श्लोकों की अरण्यक श्रुति है प्रायश्चित्त हवन आदि में इसका उपयोग होता है। अष्टम अध्याय को नमक-चमक भी कहते हैं जिसमें 24 श्लोक हैं।

श्लोकों की संख्या की सूची निम्नांकित है---

प्रथम अध्याय                 = 10 श्लोक
द्वितीय अध्याय               = 22 श्लोक
तृतीय अध्याय                = 17 श्लोक
चतुर्थ अध्याय                 = 17 श्लोक
पंचम अध्याय                  = 66 श्लोक
षष्ठम अध्याय                  = 8 श्लोक
सप्तम अध्याय                 = 7 श्लोक
अष्टम अध्याय                 = 29 श्लोक
शान्त्यध्याय:                  = 24 श्लोक
स्वस्तिप्रार्थनामंत्राध्याय:  = 13 श्लोक
सौजन्य: प्रकाशित रुद्राष्टाध्यायी पुस्तिका से।

शिवसंकल्प सुक्त 
प्रथम अध्याय के 5वे श्लोक से इसकी शुरुआत है--

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥

अर्थ: जो मन जागते हुए मनुष्य से बहुत दूर तक चला जाता है, वही द्युतिमान् मन सुषुप्ति अवस्था में सोते हुए मनुष्य के समीप आकर लीन हो जाता है तथा जो दूरतक जाने वाला और जो प्रकाशमान श्रोत आदि इन्द्रियों को ज्योति देने वाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥

अर्थ: कर्म अनुष्ठान में तत्पर बुद्धि संपन्न मेधावी पुरुष यज्ञ में जिस मन से शुभ कर्मों को करते हैं, प्राजाजन के शरीर में और यज्ञीय पदार्थों के ज्ञान में जो मन अद्भुत पूज्य भाव से स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु। यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥

अर्थ: जो मन प्रकर्ष ज्ञान स्वरूप, चित्त स्वरूप और धैर्य रूप हैं; जो अविनाशी मन प्राणियों के भीतर ज्योति रूप से विद्यमान है और जिसकी सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥

अर्थ जिस शाश्वत मन के द्वारा भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यकाल की सारी वस्तुएँ सब ओर से ज्ञात होती हैं और जिस मन के द्वारा सात होतावाला यज्ञ विस्तारित किया जाता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

यस्मिन्नृचः साम यजूं गुँ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः। यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।

अर्थ: जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाएँ और जिसमें सामवेद तथा यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित है, जैसे रथ चक्र की नाभि में तीलियाँ जुड़े रहते हैं, जिस मन में प्रजाओं का सारा ज्ञान (पट में तंतु की भाँति) ओतप्रोत रहता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव। हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥६॥

अर्थ: जो मन मनुष्य को अपनी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार घुमाता है, जैसे कोई अच्छा सारथि लगाम के सहारे वेगवान् घोड़ों को अपनी इच्छा के अनुसार नियंत्रित करता है; बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि से रहित तथा अति वेगवान् जो मन हृदय में स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। शास्त्रों में भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना जाता है। रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में किया गया है। भगवान शंकर कल्याणकारी हैं। उनकी पूजा,अराधना समस्त मनोरथ को पूर्ण करती है। हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान सदाशिव का विभिन्न प्रकार से पूजन करने से विशिष्ठ लाभ की प्राप्ति होती हैं। यजुर्वेद में बताये गये विधि से रुद्राभिषेक करना अत्यंत लाभप्रद माना गया हैं। लेकिन जो व्यक्ति इस पूर्ण विधि-विधान से पूजन को करने में असमर्थ हैं अथवा इस विधान से परिचित नहीं हैं वे लोग केवल भगवान सदाशिव के षडाक्षरी मंत्र-- ॐ नम:शिवाय का जप करते हुए रुद्राभिषेक तथा शिव-पूजन कर सकते हैं, जो बिलकुल ही आसान है।

महाशिवरात्रि पर शिव-आराधना करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है। अधिकांश शिव भक्त इस दिन शिवजी का अभिषेक करते हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे लोग है जो जानते हैं कि शिव का अभिषेक क्यों करते हैं?
अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है स्नान करना या कराना। रुद्राभिषेक का मतलब है भगवान रुद्र का अभिषेक यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान भगवान मृत्युंजय शिव को कराया जाता है। अभिषेक को आजकल रुद्राभिषेक के रुप में ही ज्यादातर जाना जाता है। अभिषेक के कई प्रकार तथा रुप होते हैं। शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही रुद्र कहा जाता है क्योंकि- रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।
रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि- सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका: अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।
हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिये तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक की जाती है।
रुद्राभिषेक के विभिन्न पूजन के लाभ इस प्रकार हैं-

• जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है।
• असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशोदक से रुद्राभिषेक करें।
• भवन-वाहन के लिए दही से रुद्राभिषेक करें।
• लक्ष्मी प्राप्ति के लिये गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।
• धन-वृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें।
• तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
• इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।
• पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।
• रुद्राभिषेक से योग्य तथा विद्वान संतान की प्राप्ति होती है।
• ज्वर की शांति हेतु शीतल जल/गंगाजल से रुद्राभिषेक करें।
• सहस्रनाम-मंत्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है।
• प्रमेह रोग की शांति भी दुग्धाभिषेक से हो जाती है।
• शक्कर मिले दूध से अभिषेक करने पर जडबुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
• सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है।
• शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है।
• पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें।
• गो दुग्ध से तथा शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
• पुत्र की कामनावाले व्यक्ति शक्कर मिश्रित जल से अभिषेक करें।

अभिषेक साधारण रूप से जल से ही होता है। परन्तु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों मंत्र गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत् अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है। किन्तु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाय तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है।

रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है। वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है। पुराणों में तो इससे सम्बंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।
वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में तो बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काट कर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था। जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया। भष्मासुर ने शिव लिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओ से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया।

रुद्राभिषेक कब होता है सबसे उत्तम

कोई भी धार्मिक काम करने में समय और मुहूर्त का विशेष महत्व होता है. रुद्राभिषेक के लिए भी कुछ उत्तम योग बनते हैं. आइए जानते हैं कि कौन सा समय रुद्राभिषेक करने के लिए सबसे उत्तम होता है...
- रुद्राभिषेक के लिए शिव जी की उपस्थिति देखना बहुत जरूरी है.
- शिव जी का निवास देखे बिना कभी भी रुद्राभिषेक न करें, बुरा प्रभाव होता है.
- शिव जी का निवास तभी देखें जब मनोकामना पूर्ति के लिए अभिषेक करना हो.

शिव जी का निवास कब मंगलकारी होता है-

देवों के देव महादेव ब्रह्माण्ड में घूमते रहते हैं. महादेव कभी मां गौरी के साथ होते हैं तो कभी-कभी कैलाश पर विराजते हैं. ज्योतिषाचार्याओं की मानें तो रुद्राभिषेक तभी करना चाहिए जब शिव जी का निवास मंगलकारी हो...
- हर महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया और नवमी को शिव जी मां गौरी के साथ रहते हैं.
- हर महीने कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी और अमावस्या को भी शिव जी मां गौरी के साथ रहते हैं.
- कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और एकादशी को महादेव कैलाश पर वास करते हैं.
- शुक्ल पक्ष की पंचमी और द्वादशी तिथि को भी महादेव कैलाश पर ही रहते हैं.
- कृष्ण पक्ष की पंचमी और द्वादशी को शिव जी नंदी पर सवार होकर पूरा विश्व भ्रमण करते हैं.
- शुक्ल पक्ष की षष्ठी और त्रयोदशी तिथि को भी शिव जी विश्व भ्रमण पर होते हैं.
- रुद्राभिषेक के लिए इन तिथियों में महादेव का निवास मंगलकारी होता है.

शिव जी का निवास कब अनिष्टकारी होता है-

शिव आराधना का सबसे उत्तम तरीका है रुद्राभिषेक लेकिन रुद्राभिषेक करने से पहले शिव के अनिष्‍टकारी निवास का ध्यान रखना बहुत जरूरी है...
- कृष्णपक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी को भगवान शिव श्मशान में समाधि में रहते हैं.
- शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी और पूर्णिमा को भी शिव श्मशान में समाधि में रहते हैं.
- कृष्ण पक्ष की द्वितीया और नवमी को महादेव देवताओं की समस्याएं सुनते हैं.
- शुक्लपक्ष की तृतीया और दशमी में भी महादेव देवताओं की समस्याएं सुनते हैं.
- कृष्णपक्ष की तृतीया और दशमी को नटराज क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं.
- शुक्लपक्ष की चतुर्थी और एकादशी को भी नटराज क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं.
- कृष्णपक्ष की षष्ठी और त्रयोदशी को रुद्र भोजन करते हैं.
- शुक्लपक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी को भी रुद्र भोजन करते हैं.
- इन तिथियों में मनोकामना पूर्ति के लिए अभिषेक नहीं किया जा सकता है.

कब तिथियों का विचार नहीं किया जाता-

कुछ व्रत और त्योहार रुद्राभिषेक के लिए हमेशा शुभ ही होते हैं. उन दिनों में तिथियों का ध्यान रखने की जरूरत नहीं होती है...
- शिवरात्री, प्रदोष और सावन के सोमवार को शिव के निवास पर विचार नहीं करते.
- सिद्ध पीठ या ज्योतिर्लिंग के क्षेत्र में भी शिव के निवास पर विचार नहीं करते.
- रुद्राभिषेक के लिए ये स्थान और समय दोनों हमेशा मंगलकारी होते हैं.

वस्तुत: शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं। अतः हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करते है। संसार में ऐसी कोई वस्तु, वैभव, सुख नही है जो हमें रुद्राभिषेक से प्राप्त न हो सके।
।। हर हर महादेव हर...!!
पंडित प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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