सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
ठाकुरजी के प्रति ब्राह्मण की दृढ़ता.......! अद्भुत दिव्य जानकारी....!
ठाकुरजी के प्रति ब्राह्मण की दृढ़ता.......!
कृष्णनगर के पास एक गांव में एक ब्राह्मण रहते थे।
वे ब्राह्मण पुरोहिती का काम करते थे।
एक दिन यज़मान के यहाँ पूजा करा कर घर लौटते समय उन्होंने रास्ते में देखा की एक मालिन ( साग वाली ) एक ओर बैठी साग बेच रही है।
भीड़ लगी है कोई साग तुलवा रहा है तो कोई मोल कर रहा है।
पंडित जी रोज उसी रास्ते जाते भी साग वाली को भी वहीं देखते।
एक दिन किसी जानपहचान के अदमी को साग खरीदते देखकर वे भी यहीं खड़े हो गये।
उन्होंने देखा साग वाली के पास एक पत्थर का बाट है।
उसी से वह पाँच सेर वाले को पाँच सेर और एक सेर वाले को एक सेर भाग तौल रही है।
एक ही बाट सब तौलो में समान काम देता है !
पण्डित जी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने साग वाली से पूछा..!
तुम इस एक ही पत्थर के बाट से कैसे सबको तौल देती हो?
क्या सबका वजन ठीक उतरता है?
पण्डित जी के परिचित व्यक्ति ने कहा....!
हाँ,
पण्डित जी!
यह बड़े अचरज की बात है।
हम लोगों ने कई बार इससे लिये हुए साग को दूसरी जगह तौलकर आजमाया, पूरा वजन सही सही उतरा।
पण्डित जी ने कुछ रुककर साग वाली से कहा....!
बेटी !
यह पत्थर मुझें दोगी?
साग वाली बोली....!
नहीं बाबाजी !
तुम्हें नहीं दूँगी।
मैंने बडी कठिनता से इसको पाया है।
मेरे सेर - बटखरे खो जाते तो घर जाने पर माँ और बड़े भाई मुझे मारते।
तीन वर्ष की बात है, मेरे बटखरे खो गये।
मैं घर गयी तो बड़े भाई ने मुझे मारा।
मैं रोती - रोती घाट पर आकर बैठ गयी और मन - ही - मन भगवान को पुकारने लगी।
इतने में ही मेरे पैर के पास यह पत्थर लगा।
मैंने इसको उठाकर ठाकुर जी से कहा-
महाराज !
मैं तौलना नहीं जानती,
आप ऐसी कृपा करें जिससे इसी से सारे तौल हो जायँ।
है बस, तब से मैं इसे रखती दूं।
अब मुझे अलग - अलग बटखरो की जरूरत नहीं होती।
इसी से सब काम निकल जाता है।
बताओ, आपको कैसे दे दूँ।
पण्डित जी बोले-
मैं तुम्हें बहुत से रुपये दूंगा।
साग वाली ने कहा-
कितने रुपये दोगे तुम?
मुझे वृंदावन का खर्च दोगे?
सब लोग वृन्दावन गये हैं।
मैं ही नहीं जा सकी हूँ।
ब्राह्मण ने पूछा....!
कितने रुपये में तुम्हारा काम होगा..?
सागवाली ने कहा-
पूरे ३०० रुपये चाहिये।
ब्राह्मण बोले-
अच्छा, बेटी !
यह तो बताओ,
तुम इस शिला को रखती कहाँ हो?
साग वाली ने कहा –
इसी टोकरी में रखती हूँ,
बाबाजी! और कहाँ रखूँगी?
ब्राह्मण घर लौट आये और चुपचाप बैठे रहे।
ब्राह्मणी ने पति से पूछा..
यों उदास क्यों बैठे हैं?
देर जो हो गयी है।
ब्राह्मण ने कहा-
आज मेरा मन खराब हो रहा है, मुझे तीन सौ रुपये की जरूरत है।
ब्राह्मण पत्नी ने कहा..
इसमें कौन सी बात है।
आपने ही तो मेरे गहने बनवाये थे।
विशेष जरूरत हो तो लीजिये, इन्हें ले जाइये, होना होगा तो फिर हो जायगा।
इतना कहकर ब्राह्मणी ने गहने उतार दिये।
ब्राह्मण ने गहने बेचकर रुपये इकट्ठे किये और दूसरे दिन सबेरे साग वाली के पास जाकर उसे रुपये गिन दिये और बदले में उस शिला को ले लिया।
गंगाजी पर जाकर उसको अच्छी तरह धोया और फिर नहा - धोकर वे घर लौट आये।
इधर पीछे से एक छोटा - सा सुकुमार बालक जाकर ब्राह्मणी से कह गया-
‘पण्डिताइन जी !
तुम्हारे घर ठाकुर जी आ रहे हैं घर को अच्छी तरह झाड़ - बुहारकर ठीक करो।
सरल हृदया ब्राह्मणी ने घर साफ करके उसमें पूजा की सामग्री सजा दी।
ब्राह्मण ने आकर देखा तो उन्हें अचरज हआ।
ब्राह्मणी से पूछने पर उसने छोटे बालक के आकर कह जाने की बात सुनायी।
यह सुनकर पण्डित जी को और भी आश्चर्य हुआ।
पण्डित जी ने शिला को सिंहासन पर पधराकर उसकी पूजा की।
फिर उसे ऊपर आले में पधरा दिया।
रात को सपने में भगवान् ने कहा-
तू मुझे जल्दी लौटा आ,
नहीं तो तेरा भला नहीं होगा,
सर्वनाश को जायगा।
ब्राह्मण ने कहा-
जो कुछ भी हो,
मैं तुमको लौटाऊँगा नहीं।
ब्राह्मण घर में जो कुछ भी पत्र - पुष्प मिलता उसी से पूजा करने लगे।
दो चार दिनों बाद स्वप्न में फिर कहा-
मुझे फेंक आ,
नहीं तो तेरा लड़का मर जायगा।
ब्राह्मण ने कहा-
मर जाने दो, तुम्हें नहीं फेंकूँगा।
महीना पूरा बीतने भी नहीं पाया था कि ब्राह्मण का एक मात्र पुत्र मर गया।
कुछ दिनों बाद फिर स्वप्न हुआ-
अब भी मुझे वापस दे आ, नहीं तो तेरी लड़की मर जायगी।
दृढ़ निश्चयी ब्राह्मण ने पहले वाला ही जवाब दिया।
कुछ दिनों पश्चात् लड़की मर गयी।
फिर कहा कि अबकी बार स्त्री मर जायगी।
ब्राह्मणने इसका भी वही उत्तर दिया।
अब स्त्री भी मर गयी।
इतने पर भी ब्राह्मण अचल - अटल रहा।
लोगो ने समझा, यह पागल को गया है।
कुछ दिन बीतने पर स्वप्न में फिर कहा गया–
‘देख, अब भी मान जा, मुझे लौटा दे।
नहीं तो सात दिनों में तेरे सिर पर बिजली गिरेगी।
ब्राह्मण बोले-
गिरने दो, मैं तुम्हें उस साग वाली की गंदी टोकरी में नहीं रखने का।
ब्राह्मण ने एक मोटे कपड़े में लपेटकर भगवान् को अपने साथ मजबूत बाँध लिया।
वे सब समय यों ही उन्हें बाँधे रखते।
कड़कड़ाकर बिजली कौंधती...!
नज़दीक आती, पर लौट जाती।
अब तीन ही दिन शेष रह गये।
एक दिन ब्राह्मण गंगा जी के घाट पर संध्या - पूजा कर रहे थे कि दो सुन्दर बालक उनके पास आकर जल में कूदे।
उनमें एक साँवला था, दूसरा गोरा।
उनके शरीर पर कीचड़ लिपटा था।
वे इस ढंग से जल में कूदे कि जल उछल कर ब्राह्मण के शरीर पर पड़ा।
ब्राह्मण ने कहा.. तुम लोग कौन हो, भैया?
कहीं इस तरह जल में कूदा जाता है?
देखो, मेरे शरीर पर जल पड़ गया, इतना ही नहीं, मेरे भगवान पर भी छींटे पड़ गये।
देखते नहीं, मैं पूजा कर रहा था।
बालकों ने कहा..
ओहो !
तुम्हारे भगवान् पर भी छींटे लग गये?
हमने देखा नहीं बाबा !
तुम गुस्सा न होना !
पण्डित जी ने कहा नहीं..
भैया! गुस्सा कहाँ होता हूँ।
बताओ तो तुम किसके लड़के हो?
ऐसा सुंन्दर रूप तो मैंने कभी नहीं देखा! कहाँ रहते हो, भैया !
आहा! कैसी अमृतघोली मीठी बोली है !
बालको ने कहा..
बाबा ! हम तो यहीं रहते हैं।
पण्डित जी बोले- भैया !
क्या फिर भी कभी मैं तुम लोगों को देख सकूँगा।
.
बच्चों ने कहा-
क्यों नहीं, बाबा?
पुकारते ही हम आ जायेंगे।
पण्डित् जी के नाम पूछने पर..
हमारा कोई एक नाम नहीं है,
जिसका जो मन होता है,
उसी नाम से वह हमें पुकार लेता है।
साँवला लड़का इतना कहकर चला.. लो, मुरली!
जरूरत हो तब इसे बजाना।
बजाते ही हम लोग आ जायेंगे।
दूसरे गोरे लड़के ने एक फूल देकर पण्डित जी से कहाँ..
बाबा !
इस फूल को अपने पास रखना,
तुम्हारा सदा मङ्गल होगा।
वे जब तक वहाँ से चले नहीं गये,
ब्राह्मण निर्निमेष दृष्टि से उनकी ओर आँखें लगाये रहे।
मन - ही - मन सोचने लगे - आहा !
कितने सुन्दर हैं दोनों !
कभी फिर इनके दर्शन होंगे?
ब्राह्मण ने फूल देखकर सोचा-
फूल तो बहुत बढिया है,
कैसी मनोहर गंध आ रही है इसमें !
पर मै इसका क्या करूँगा और रखूँगा भी कहाँ?
इससे अच्छा है, राजा को ही दे आऊँ।
पण्डित जी ने जाकर फूल राजा को दिया।
राजा बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने उसे महल में ले जाकर बड़ी रानी को दिया।
इतने मे ही छोटी रानी ने जाकर कहा..
मुझे भी एक ऐसा ही फूल मँगवा दो, नहीं तो मैं डूब मरूँगी।
राजा दरबार में आये और सिपाहियों को उसी समय पंडित जी को खोजने भेजा।
सिपाहियों ने दूँढ़ते - दूँढ़ते जाकर देखा ब्राह्मण देवता सिर पर सिला बाँधे पेड़ की छाया में बैठे गुनगुना रहे हैं।
वे उनको राजा के पास लिवा लाये।
राजा ने कहा-
महाराज !
वैसा ही एक फूल और चाहिये।
पण्डितजी बोले-
राज़न्!
मेरे पास तो वह एक ही फूल था, पर देखिये, चेष्टा करता हूँ।
ब्राह्मण उन लड़कों की खोज में निकल पड़े।
अकस्मात् उन्हें मुरली वाली बात याद आ गयी।
उन्होंने मुरली बजायी।
उसी क्षण गौर श्याम जोड़ी प्रकट हो गयी।
ब्राह्मण रूपमाधुरी के पान मे मतवाले हो गये।
कुछ देर बाद उन्होंने कहा-
भैया !
वैसा एक फूल और चाहिये।
मैंने तुम्हारा दिया हुआ पुल राजा को दिया था।
राजा ने वैसा ही एक फूल और माँगा है।
गोरे बालक ने कहा फूल तो हमारे पास नहीं है ,
परंतु हम तुम्हें एक ऐसी जगह ले जायेंगे,
जहाँ वैसे फूलों का बगीचा खिला है।
तुम आँखें बंद करो।
ब्राह्मण ने आँखें मूँद लीं।
बच्चे उनका हाथ पकड़कर न मालूम किस रास्ते से बात ही बात कहाँ ले गये।
एक जगह पहुँचकर ब्राह्मण ने आखे खोली।
देखकर मुग्ध हो गये।
बड़ा सुंदर स्थान है, चारों’ ओर सुंदर सुंदर वृक्ष लता आदि पुष्पो की मधुर गंध से सुशोभित हैं।
बगीचे के बीच में एक बडा मनोहर महल है।
ब्राहाण ने देखा तो वे बालक गायब थे।
वे साहस करके आगे बढ़े।
महल के अंदर जाकर देखते हैं, सब ओर से सुसज्जित बड़ा सुरम्य स्थान है।
बीच में एक दिव्य रत्नों का सिंहासन है।
सिंहासन खाली है।
पंडित जी ने उस स्थान को मन्दिर समझकर प्रणाम किया।
उनके माथे पर बंधी हुई ठाकुरजी की शिला खुलकर निचे पड़ गयी।
ज्यों ही पण्डित ने उसे उठाने को हाथ बढ़ाया कि शिला फटी और उसमें से भगवान् लक्ष्मी नारायण प्रकट होकर शून्य सिंहासन पर विराजमान हो गये !
भगवान् नारायण ने मुस्कराते हुए ब्राहाण से कहा-
हमने तुमको कितने दु:ख दिये, परंतु तुम अटल रहे।
दुख पाने पर भी तुमने हमें छोड़ा नहीं, पकड़े ही रहे इसी से तुम्हें हम सशरीर यहाँ ले आये हैं।
जो भक्त स्त्री, पुत्र, घर, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक छोडकर हमारी शरण में आ गये हैं भला, उन्हें हम केसे छोड़ सकते हैं।
इधर देखो-
यह खड़ी है तुम्हारी सहधर्मिणी, तुम्हारी कन्या और तुम्हारा पुत्र।
ये भी मुझे प्रणाम कर रहे हैं।
तुम सबको मेरी प्राप्ति हो गयी।
तुम्हारी एक की दृढ़ता से सारा परिवार मुक्त हो गया।
राधे राधे
किसी ने पूछा एक राजा और सन्यासी में सबसे बड़ा अंतर क्या होता है?
प्रेम से बोलो जय जय श्री राधे
बहुत सुंदर प्रश्न है।
इसका उत्तर मैं हम कथा के माध्यम से देना चाहते ।
कथा का आनंद लें।
एक वृद्ध संन्यासी अपनी कुटिया में रहकर साधन भजन करते थे।
वहां के राजा कभी कभी उनके पास जाकर ज्ञान की बातें सुना करते थे।
संत की सेवा का महत्व जानकर उन्होंने महात्माजी से आग्रह किया कि महाराज! मैं आपके लिए कुछ अच्छी व्यवस्था करना चाहता हूं।
संन्यासी ने कहा कि मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, मैं अपनी व्यवस्था में प्रसन्न हूं।
राजा के विशेष आग्रह करने पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी।
स्वीकृति लेकर राजा ने अपने राज भवन के निकट ही महात्माजी के लिए सुंदर भवन बनवाया।
सुख - सुविधा हेतु सारी सामग्री भवन में जुटा दिया।
भवन के सामने सुंदर उद्यान लगवा दिया।
सवारी के लिए हाथी घोड़े और सेवा के लिए अनेक सेवकों की व्यवस्था उन्होंने कर दी।
महात्माजी उसी में रहने लगे।
अब उनके कपड़े भी कीमती और सुंदर हो गए।
कुछ दिनों के बाद एक दिन राजा और महात्माजी साथ में घूमने के लिए निकले।
रास्ते में राजा ने उनसे पूछा—
"महाराज! अब मुझ में और आप में क्या अंतर रहा?'
महात्माजी ने कहा—"तनिक आगे चलो, फिर बतलाऊंगा।"
चलते चलते वे लोग दूर निकल गए।
राजा को थकावट हो रही थी।
कुछ जरूरी राजकीय कार्य भी उनको स्मरण हो आया।
अतः राजा ने निवेदन किया कि हमलोग नगर से बहुत दूर निकल गए हैं, अब लौटना चाहिए।
महात्माजी ने कहा--
" थोड़ा और चलो।"
थोड़ी देर और चलने पर सामने जंगल आ गया।
राजा ने घबराकर कहा—
"महाराज! अब आगे जाना ठीक नहीं है।
शाम होने को है, लौटकर भवन चलना चाहिए।"
महात्माजी ने उत्तर दिया--
"अब लौट कर करना ही क्या है?
मेरी तो लौटने की इच्छा नहीं है।
राज - सुख तो हम लोगों ने बहुत भोग लिए।
अब चलो वन में रहकर ही ईश्वर का भजन करेंगे।"
राजा हाथ जोड़कर बोला—
"महाराज! मुझे स्त्री है, बच्चे हैं, राज की व्यवस्था देखने वाला कोई नहीं है।
जंगल में रहने की साहस भी मुझ में नहीं है।
मैं अब आगे नहीं जा सकता।"
महात्माजी ने हंसते हुए कहा--
"राजन! मुझ में और तुझ में यही अंतर है।
बाहरी रहन - सहन से क्या होता है?
हृदय का भाव ही प्रधान है।
जिसका मन भोगों में आसक्त है वह वन में रहकर भी संसारी है...!
और जिसका मन अनासक्त है वह महल में रहकर भी विरक्त है, संन्यासी है।
तुम महल में जाओ और मैं अपने लक्ष्य की ओर चलता हूं।"
ऐसा कहकर महात्माजी घने जंगल में ओझल हो गए।
तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है कि जिस व्यक्ति को आनंददायक ब्रह्म - पीयूष मिल गया है, वह मृगतृष्णा का जल पीने के लिए दौड़ नहीं लगाता है।
ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै।
तो कत मृगजल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै
जय जय श्रीराधे
अद्भुत *दिव्य जानकारी*
*"साला" शब्द की रोचक जानकारी!*
हम प्रचलन की बोलचाल में साला शब्द को एक "गाली" के रूप में देखते हैं, साथ ही "धर्मपत्नी" के भाई/भाइयों को भी "साला"/"सालेसाहब" के नाम से इंगित करते हैं।
"पौराणिक कथाओं" में से एक "समुद्र_मंथन" में हमें एक जिक्र मिलता है, मंथन से जो 14 दिव्य रत्न प्राप्त हुए थे वो थे:-
*कालकूट ( हलाहल ),*
*ऐरावत,*
*कामधेनु,*
*उच्चैःश्रवा,*
*कौस्तुभमणि,*
*कल्पवृक्ष,*
*रंभा ( अप्सरा ),*
*लक्ष्मी,*
*शंख ( जिसका नाम साला था! )*
*वारुणी मदिरा,*
*चन्द्रमा,*
*शारंग धनुष,*
*गंधर्व,*
*और अंत में अमृत...*
*"लक्ष्मीजी" मंथन से "स्वर्ण" के रूप में निकली थी,*
*इसके बाद जब "साला शंख" निकला, तो उसे लक्ष्मी जी का भाई कहा गया!*
*दैत्य और दानवों ने कहा कि अब देखो लक्ष्मी जी का भाई साला (🐚शंख ) आया है..*
*तभी से ये प्रचलन में आया कि नवविवाहिता "बहु" या धर्मपत्नी जिसे हम "गृहलक्ष्मी" भी कहते है, उसके भाई को बहुत ही पवित्र नाम "साला" कहकर पुकारा जाता हैं!*
*जब भी धन-प्राप्ति के उपाय करो "🐚शंख" को कभी नजरअंदाज ना करे, लक्ष्मी जी की फ़ोटो/प्रतिमा के नजदीक रखें।*
।। जय श्री लक्ष्मीनारायण ।।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏