श्री महाभारत , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
श्रीमहाभारतम्
।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(( पौलोमपर्व ))
एकादशोऽध्यायः
डुण्डुभ की आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरु को अहिंसा का उपदेश...!
डुण्डुभ उवाच
सखा बभूव मे पूर्वं खगमो नाम वै द्विजः ।
भृशं संशितवाक् तात तपोबलसमन्वितः ।। १ ।।
स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्णं भुजङ्गमम् ।
अग्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषितः प्रमुमोह वै ।। २ ।।
BRIJ HAAT Natural Pooja shankh with kachua Shape Stand Golden
https://amzn.to/4mt4OfQ
डुण्डुभने कहा-तात ! पूर्वकालमें खगम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था।
वह महान् तपोबलसे सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था।
एक दिन वह अग्निहोत्रमें लगा था।
मैंने खिलवाड़में तिनकोंका एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया।
वह भयके मारे मूर्च्छित हो गया ।। १-२ ।।
लब्ध्वा स च पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः ।
निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक् संशितव्रतः ।। ३ ।।
फिर होशमें आनेपर वह सत्यवादी एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोधसे दग्ध-सा करता हुआ बोला- ।। ३ ।।
यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्विभीषया ।
तथावीर्यो भुजङ्गस्त्वं मम शापाद् भविष्यसि ।। ४ ।।
'अरे! तूने मुझे डरानेके लिये जैसा अल्प शक्तिवाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्पशक्तिसम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा' ।। ४ ।।
तस्याहं तपसो वीर्यं जानन्नासं तपोधन ।
भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचमहं तदा ।। ५ ।।
प्रणतः सम्भ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः ।
सखेति सहसेदं ते नर्मार्थ वै कृतं मया ।। ६ ।।
क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मन् शापोऽयं विनिवर्त्यताम् ।
सोऽथ मामब्रवीद् दृष्ट्वा भृशमुद्विग्नचेतसम् ।। ७ ।।
मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसम्भ्रान्तस्तपोधनः ।
नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन ।। ८ ।।
तपोधन !
मैं उसकी तपस्याका बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े वेगसे उसके चरणोंमें प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधन से बोला-सखे !
मैंने परिहासके लिये सहसा यह कार्य कर डाला है।
ब्रह्मन् ! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो।
मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रममें पड़े हुए उस तपस्वीने बार - बार गरम साँस खींचते हुए कहा- 'मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती' ।। ५-८ ।।
यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे तपोधन ।
श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु सदानघ ।। ९ ।।
'निष्पाप तपोधन ! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदयमें सदा धारण करो ।। ९ ।।
उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः ।
तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव ।। १० ।।
'भविष्यमें महर्षि प्रमतिके पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शापसे छुटकारा मिल जायगा' ।। १० ।।
स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजोऽपि च ।
स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम् ।। ११ ।।
जान पड़ता है तुम वही रुरु नामसे विख्यात महर्षि प्रमतिके पुत्र हो।
अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हितकी बात बताऊँगा ।। ११ ।।
स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा ।
स्वरूपं भास्वरं भूयः प्रतिपेदे महायशाः ।। १२ ।।
इदं चोवाच वचनं रुरुमप्रतिमौजसम् ।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वर ।। १३ ।।
इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपादने डुण्डुभका रूप त्यागकर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूपको प्राप्त कर लिया। फिर अनुपम ओजवाले रुरुसे यह बात कही -'समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण ! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है ।। १२-१३ ।।
तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वचित् ।
ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ।। १४ ।।
'अतः ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये।
ब्राह्मण इस लोकमें सदा सौम्य स्वभावका ही होता है, ऐसा श्रुतिका उत्तम वचन है ।। १४ ।।
वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः ।
अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ।। १५ ।।
ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणापि च।
क्षत्रियस्य हि यो धर्मः स हि नेष्येत वै तव ।। १६ ।।
'वह वेद-वेदांगोंका विद्वान् और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाला होता है।
अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदोंका स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मणके उत्तम धर्म हैं।
क्षत्रियका जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है ।। १५-१६ ।।
दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम् ।
तदिदं क्षत्रियस्यासीत् कर्म वै शृणु मे रुरो ।। १७ ।।
जनमेजयस्य यज्ञेऽस्मिन् सर्पाणां हिंसनं पुरा ।
परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि ।। १८ ।।
तपोवीर्यबलोपेताद् वेदवेदाङ्गपारगात् ।
आस्तीकाद् द्विजमुख्याद् वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम ।। १९ ।।
'रुरो ! दण्डधारण, उग्रता और प्रजापालन- ये सब क्षत्रियोंके कर्म रहे हैं।
मेरी बात सुनो, पहले राजा जनमेजयके यज्ञमें सर्पोंकी बड़ी भारी हिंसा हुई।
द्विजश्रेष्ठ ! फिर उसी सर्पसत्रमें तपस्याके बल-वीर्यसे सम्पन्न, वेद वेदांगोंके पारंगत विद्वान् विप्रवर आस्तीक नामक ब्राह्मणके द्वारा भयभीत सर्पोंकी प्राणरक्षा हुई' ।। १७-१९ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्षे एकादशोऽध्यायः ।।११ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें डुण्डुभशापमोक्षविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ११ ।
क्रमशः...
🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷
उमा महेश्वर के व्रत का वर्णन....(भाग 1)
सूतजी बोले- उमा महेश्वर व्रत शिवजी के द्वारा कहा गया।
पुरुष तथा सभी प्राणियों का हित करने वाला है।
वह तुम्हारे प्रति कहूँगा।
पूर्णमासी में अमावस्या में, अष्टमी में, चतुर्दशी के दिन रात्रि में, हविष्यान्न का भोजन कराना चाहिए तथा शिव की पूजा करनी चाहिए।
एक वर्ष तक व्रत करके बाद में सोने की या चाँदी की प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठा करें।
ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें।
रथ में बिठाकर उस मूर्ति को शिवालय तक ले जाय।
इस प्रकार वह शिव सायुज्य को प्राप्त होगा।
जो कन्या अथवा विधवा एक वर्ष तक इस प्रकार व्रत को करे वर्षान्त में भवानी के साथ प्रतिष्ठा करे तो भवानी की सायुज्य को प्राप्त होती है।
अब व्रतों का क्रम महीने वार कहता हूँ, सो सुनो। मार्गशीर्ष ( अगहन ) के महीने में नवांग पूर्ण बैल को शिवजी के नाम से छोड़ता है वह शिव और भवानी के साथ आनन्द को प्राप्त करता है।
पौष के महीने में त्रिशूल का दान करने वाला, माघ मास में सर्वलक्षण सम्पन्न रथ को प्रदान करने वाला, फाल्गुन में सोने या चाँदी की प्रतिमा बनाकर शंकर के मन्दिर में स्थापना करने वाला, भवानी के साथ सायुज्य को पाता है।
चैत्र मास में शिव, भवानी, नन्दी आदि की प्रतिमा ताँबे की बनाकर स्थापना करने वाला वैशाख मास में कैलाश नाम के शिवजी के व्रत को करने वाला, कैलाश पर्वत को प्राप्त करके भवानी के साथ में मोद को प्राप्त करता है।
जेठ के महीने में महादेव की लिंग मय मूर्ति की प्रतिष्ठा कराने वाला, ब्राह्मणों को भोजन कराने वाला पुरुष देवी की सायुज्य को प्राप्त करता है।
आषाढ़ में पक्की ईंटों आदि से बना उत्तम भवन, सम्पूर्ण वस्त्र आदि वस्तुओं से युक्त ब्रह्मचारी ब्राह्मण के लिये दान करने वाला, पुरुष गौ लोक को प्राप्त कर भगवान की सायुज्य को प्राप्त करता है।
सावन के महीने में तिलों का पर्वत बनाकर जो वस्त्र ध्वजा धातुओं से युक्त करके ब्राह्मणों को दान करता है तथा भोजन कराता है वह पूर्व में कहे फल को पाता है।
भादों में चावल का पर्वत इसी प्रकार दान करता है वह भवानी के साथ आनन्द को प्राप्त होता है।
क्वार के मास में अनेकों प्रकार के अन्नों का पर्वत स्वर्ण युक्त करके ब्राह्मणों को दान करता है तथा उन्हें भोजन कराता है वह चिरकाल तक सायुज्य को प्राप्त करता है।
कार्तिक के महीने में जो नारी देवी उमा की स्वर्ण आदि की प्रतिमा बनाकर तथा देवेश शिवजी की प्रतिमा शिवालय में उसकी स्थापना करती है वह शरीर को त्याग कर भवानी और शिव के साथ परम आनन्द को प्राप्त होती है।
जो कोई भी एक समय भोजन करके कार्तिक से अगहन तक एक वर्ष तक व्रत को धारण करता है वह शिव के साथ आनन्द को प्राप्त करता है।
चाहे वह पुरुष हो या स्त्री हो।
ऐसा शिवजी ने स्वयं ही कहा है।
क्रमशः शेष अगले अंक में...
संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
श्रीअयोध्या - माहात्म्य
धर्महरि की स्थापना और स्वर्णखनि तीर्थ, रघु का सर्वस्व दान तथा कौत्सकी याचना को सफल करना...( भाग 2 )
धर्महरिसे दक्षिण दिशामें सोनेकी उत्तम खान है, जहाँ कुबेरने राजा रघुके भयसे सोनेकी वर्षा की थी।
पूर्वकालमें इक्ष्वाकुवंशकी कीर्ति बढ़ानेवाले राजा रघु अपनी उदार भुजाओंके बलसे सम्पूर्ण भूमण्डलका शासन करते थे।
उनके प्रतापसे संतप्त हुए शत्रुवर्गके लोग उनके उत्तम यशका वर्णन करते थे।
प्रजाओंका न्यायपूर्वक पालन करनेवाले उस नीतिमान् राजाने अपने यशके प्रवाहसे दसों दिशाओंको उज्ज्वल प्रभासे आलोकित कर रखा था।
उन्होंने दिग्विजययात्राके क्रमसे बहुत अधिक धनका संग्रह किया था।
घर लौटकर उन्हों ने यज्ञ के लिये उत्सुक हो अपनी वंश - परम्परा के योग्य कर्म किया और निर्मल बुद्धिका परिचय दिया।
वशिष्ठ मुनिसे आज्ञा लेकर राजा रघुने वामदेव, कश्यप तथा अन्य मुनिवरोंको, जो अनेक तीर्थोंमें निवास करते थे, एक विनयशील ब्राह्मणके द्वारा बुलवाया।
प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी उन सब मुनियोंके वहाँ उपस्थित होनेका समाचार पाकर शत्रुविजयी महायशस्वी रघु स्वयं ही राजभवनसे बाहर निकले और उन सबके सामने नतमस्तक होकर यज्ञकी सिद्धिके लिये यह धर्मयुक्त वचन बोले-
'मुनिवरो!
मैं यज्ञ करना चाहता हूँ....!
इसके लिये आप मुझे आज्ञा प्रदान करें।'
मुनि बोले राजन् !
विश्वजित् नामक यज्ञ सब यज्ञोंमें उत्तम है।
इस समय उसीका यत्नपूर्वक अनुष्ठान कीजिये।
तब राजाने अनेक प्रकारकी सामग्रियोंसे परम मनोहर प्रतीत होनेवाला वह विश्वदिग्जय ( विश्वजित् ) नामक यज्ञ किया, जिसमें सर्वस्वकी दक्षिणा दे दी जाती है।
नाना प्रकारके दानसे उन्होंने मुनियोंको सन्तोष और हर्ष प्रदान किया और ब्राह्मणोंको अत्यन्त आदरपूर्वक सर्वस्व दान कर दिया।
वे सब ब्राह्मण जब राजाद्वारा पूजित होकर अपने - अपने घरोंको चले गये तथा प्रणाम आदिसे सत्कृत हुए मुनि भी अपने आश्रमको पधारे, तब वे सदाचारी राजा रघु विधिपूर्वक किये हुए उस यज्ञसे बड़ी शोभा पाने लगे।
इसी समय विश्वामित्र मुनिके शिष्य एवं संयमी पुरुषोंमें श्रेष्ठ कौत्स गुरुकी दक्षिणाके लिये राजाको पवित्र करनेके लिये आये।
उनको आया हुआ जान राजा रघु बड़े आदरसे उठे और विधिपूर्वक उनका पूजन किया।
राजाने मिट्टीके पात्रोंद्वारा ही कौत्स मुनिका पूजनकार्य सम्पन्न किया।
तत्पश्चात् कौत्सने कहा-
'राजन् ! आपका अभ्युदय हो, इस समय मैं अन्यत्र जाता हूँ।
आपने अपना सर्वस्व दक्षिणामें दे डाला है।
मैं गुरुजीको देनेके लिये धन माँगनेके लिये आया था, किंतु आपके पास धनका अभाव है; इसलिये आपसे याचना नहीं करता।'
मुनिके ऐसा कहनेपर शत्रुविजयी रघुने क्षणभर कुछ विचार किया; फिर विनयसे हाथ जोड़कर कहा- 'भगवन् !
मेरे महलमें एक दिन ठहरिये।
तबतक मैं आपके धनके लिये विशेष प्रयत्न करता हूँ।'
उदारबुद्धिवाले राजा रघुने यह परम उदारतापूर्ण वचन कहकर धनाध्यक्ष कुबेरको जीतनेकी इच्छासे प्रस्थान किया।
कुबेरजीने उन्हें आते देख सन्देश भेजकर उनके मनको संतुष्ट किया और अयोध्यामें ही सुवर्णकी अक्षय वर्षा की।
जहाँ वह वर्षा हुई थी, वहाँ सोनेकी उत्तम खान बन गयी।
कुबेरकी दी हुई वह सोने की खान राजाने मुनि को दिखलायी और उन्हें समर्पित कर दी।
मुनीश्वर कौत्सने भी गुरुके लिये जितना आवश्यक था....!
उतना धन आदरपूर्वक ले लिया और शेष सारा धन राजाको ही निवेदन किया और कहा-
'राजन् !
तुम्हें अपने कुलके गुणोंसे सम्पन्न सत्पुत्रकी प्राप्ति हो और यह जो सुवर्णकी खान है, वह मनोवांछित फल देनेवाली हो।
यहाँ सब पापोंका अपहरण करनेवाला उत्तम तीर्थ हो जाय।
वैशाख मासके शुक्ल पक्षकी द्वादशी तिथिको यहाँकी वार्षिक यात्रा हो और उसमें मेरे कथनानुसार लोगोंको अनेक प्रकारके अभीष्ट फलकी प्राप्ति हो।'
इस प्रकार राजाको वर देकर संतुष्ट चित्तवाले कौत्स मुनि अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये उत्कण्ठापूर्वक गुरुके आश्रमपर चले गये।
क्रमशः...
शेष अगले अंक में जारी
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु