https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 07/23/20

ब्राह्मण को खुद की परंपरा के ज्ञान....!

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जय द्वारकाधीश

  ब्राह्मण को खुद की परंपरा के ज्ञान....!


ब्राह्मण को खुद की  परम्परा के ज्ञान....!
 
​एक कुलीन ब्राह्मण को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न  ११ ( एकादश ) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए -



[१ ]  गोत्र ।

[२ ]  प्रवर ।

[३ ]  वेद ।

[४]  उपवेद ।

[५]  शाखा ।

[६]  सूत्र ।

[७]  छन्द । 

[८]  शिखा ।

 [९]  पाद  ।

[१०]  देवता ।

[११]  द्वार ।

[ १ ] गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । 

किसी व्यक्ति की वंश - परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। 

हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया । 

इन गोत्रों के मूल ऋषि – विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- 

इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। 

यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। 

इन गोत्रों के अनुसार इकाई को "गण" नाम दिया गया, यह माना गया की एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा। 

इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गई । 

इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ ।

गोत्र शब्द  एक अर्थ  में  गो अर्थात्  पृथ्वी का पर्याय भी है ओर 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। 

यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है। 

गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि - मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इस लिए वे गोत्रकारक कहलाए। 

ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे....! 

वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे....! 

जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । 

जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है , यथा -



१. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है ।

२. गोत्रों से व्‍यक्ति के सम्बन्धों की पहचान होती है ।

३. गोत्र से सम्बन्ध स्थापित करने में सुविधा रहती है ।

४. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।

​५. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।

[ २ ] प्रवर - 

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" । 

अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें । 

अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। 

इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे ।

[ ३ ] वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है...! 

इनको सुनकर याद किया जाता है...! 

इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया...! 

उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। 

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है.....! 

जिसे वह अध्ययन - अध्यापन करता है ।

[ ४ ] उपवेद -

प्रत्येक वेद  से  सम्बद्ध  विशिष्ट  उपवेद  का  भी  ज्ञान  होना  चाहिये  । 

[ ५ ]  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है...! 

कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। 

इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। 

इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया...! 

वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

[ ६ ]  सूत्र - 

व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो...! 

अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है...! 

जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !

[ ७ ]  छन्द  - 

उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को  अपने परम्परासम्मत   छन्द का  भी  ज्ञान  होना  चाहिए  ।

[ ८ ]  शिखा - 

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहलाती है ।

[ ९ ]  पाद - 

अपने - अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । 

ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । 

अपने - अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते....! 

तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।

[ १० ]  देवता -  

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता [ गणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक ] उनके आराध्‍य देव है । 

इसी प्रकार कुल के भी  संरक्षक  देवता या कुलदेवी होती हें । 

इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध  अग्रजों [ माता - पिता आदि ] के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता  है । 
एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध  तो अवश्य ही  होना चाहिए -

(क) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।

(ख) कुल देवता अथवा कुल देवी ।

(ग) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

[ ११ ]  द्वार -  

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु ( यज्ञकर्त्ता ) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा  कही जाती है।

संकलित

शिवे भक्ति: शिवे भक्ति: शिवे भक्तिर्भवे भवे। 
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।।

 !! महादेव.. महादेव.. महादेव.. !!
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

🙏 भगवान जगन्नाथजी के प्रागट्य की कथा...! 🙏

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🙏 भगवान जगन्नाथजी के प्रागट्य की कथा...! 🙏


🙏🙏🙏भगवान जगन्नाथ के प्रागट्य की कथा....🙏🙏🙏

द्वापरयुग के समय की बात है । 

द्वारका में भगवान श्री कृष्णचन्द्रजी की पटरानियों ने एक बार माता रोहिणीजी के भवन जाकर उनसे आग्रह पूर्वक किया कि वे उन्हें श्यामसुंदरजी व्रज लीला के गोपी प्रेम - प्रसंग को सुनाए । 

माता ने इस बात को टालने के बहुत प्रयत्न किया ! 

किंतु पटरानियों की आग्रह के कारण उन्हें वह वर्णन सुनाने की प्रस्तुत होना ही पड़ा । 

ऊँचीत भी नही था कि सुभद्राजी भी वहां रहे । 

अंतः माता रोहिणी ने सुभद्राजी को भवन के बहार द्वार पर खड़े रहने को कहा और आदेश दे दिया कि भीतर कोई किसी को भी अंदर न आने देना । 

संयोगवश उसी समय श्री कृष्ण और बलराम वहां पधारे हुवे थे । 

सुभद्राजी ने द्वार पर ही बीच मे खड़ा रहकर अपना दोनो हाथ फैलाकर लंबा कर दिया गया दोनो भाइयो को अंदर जाने से रोक दिया गया ।

बंध द्वार के भींतर जो व्रज प्रेम की बाते हो रही थी । 

उसे द्वार के बाहर से ही साफ साफ सुनकर तीनो के शरीर द्रवित होने लगे ।

वह ही उसी समय देवर्षि नारदजी वहां पधार चुके थे । 

देवर्षि नारदजी ने यह जो प्रेम - 

द्रवित रूप देखा तो प्रार्थना किया --- 

' आप तीनो इसी रूप में बिराजमान हो '
 
 श्रीकृष्णचंद्र ने स्वीकार किया --

' कलियुग में दारुविग्रह में इसी रूप में हम तीनों स्थित होंगे ।'



प्राचीन काल मे मालवदेश के नरेश इन्द्रधुमन को पता लगा कि उत्कलप्रदेश में कहीं नीलाचल पर भगवान नीलमाधव का देवपूजित श्रीविग्रह है । 

ये भी पूरा तरह परम् विष्णु के ही भक्त थे । 

उस श्रीविग्रह का दर्शन करने के बहुत प्रयत्न में लग गए ।  

बहुत महेनत करने के बाद उनको स्थान का पत्ता लग भी गया....! 

किंतु ये वहां पहुचे इसके पूर्व ही देवता उस श्रीविग्रह को लेकर अपने लोक में चले गए थे । 

उसी समय पर ही आकाशवाणी हुई के दारूब्रह्मस्वरूप में तुम्हे अब श्री जगन्नाथजी के दर्शन होंगे ।

मगराज इन्द्रधुमन सह परिवार सगा सबंधित ओर मित्र मंडल सहित आये थे वे नीलाचल के पास ही बस गए । 

एक दिन की बात है जब समुन्द्र में बहुत तूफान आ गया उसमे बहुत बड़ा काष्ट ( महादारु ) बहकर आया । 

राजा ने उसे निकलवा ने का हुक्म किया लेकिन वो काष्ट ( महादारु ) इतना बड़ा था कि एक दो आदमी तो उसे निकाल नही पाए बहुत लोग रसीओ लेकर जुत गया तब कष्ट ( महादारु ) को समुन्द्र से बहार निकाल पाए थे । 

इस से राजा ने विष्णुमूर्ति बनवाने का निश्चय कर ही लिये । 

उसी समय मे वृद्ध बढई के रूप में विश्वकर्मा ही उपस्थित हुवे । 

उन्हों ने मूर्ति बनाना स्वीकार कर लिया ; 

किंतु यह निश्चय करा लिया कि जबतक वे सूचित न करे ! 

उनका वह ग्रह खोला नही जाएगा , जिसमे मूर्ति बनायेगे । 

महादारु को लेकर ये वृद्ध बढ़ई गुंडीचा मंदिर के अंदर स्थान पर ही भवन में बंध हो गया ।  

अनेक दिन व्यतीत हो गए । महारानी ने आग्रह प्रारंभ किया -- 

' इतने दिनों में वह वृद्ध मूर्तिकार अवश्य भूखे प्यासे मर गया होगा या मरणासन्न होगा । 

भवन के द्वार खोलकर उसकी अवस्था देख लेनी चाहिए । 

महाराज ने द्वार खुलवाया । 

बढई तो अदृश्य हो चुका था....! 

किंतु वहाँ श्री जगन्नाथ , सुभद्रा तथा बलभद्रजी की असम्पूर्ण प्रतिमा मिली ।  

राजा को बड़ा ही दुःख हुवा के मूर्तियों का काम सम्पूर्ण न होने से....! 

किंतु उसी समय आकाशवाणी हुई --- 

' चिंता मत करो ! 

इसी रूप में रहने की हमारी इच्छा है । 

मूर्तियों पर पवित्र द्रव्य ( रंग आदि ) चढ़ाकर उन्हें प्रतिस्थापित कर दो ! '
 
इस आकाशवाणी के अनुसार वे ही मूर्तियों प्रतिष्ठित हुई । 

गुंडीचा मंदिर के पास मूर्ति - निर्माण हुआ था....! 

अंतः गुंडीचा मंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुर कहते है । 

द्वारिका में एक बार श्री सुभद्राजी ने नगर देखना चाहा । 

श्री कृष्ण तथा बलरामजी ने उन्हें पृथक रथ में बैठाकर.....! 

अपने रथों के मध्यमे उनका रथ करके उन्हें नगर दर्शन कराने ले गए । 

इसी घटना के स्मारक - रूप में यहां रथ यात्रा निकलती है ।

।। जय द्वारकाधीश ।।
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🙏🙏🙏 प्रार्थना 🙏🙏🙏

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🙏🙏🙏 प्रार्थना....! 🙏🙏🙏


प्रार्थना....!


ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनके घर की हालत बड़ी बुरी थी। 

पिता मर गए थे। 



और पिता मौजी आदमी थे, तो कोई संपत्ति तो छोड़ नहीं गए थे, उलटा कर्ज छोड गए थे। 

और विवेकानंद को कुछ भी न सूझता था कि कर्ज कैसे चुके। 

घर में खाने को रोटी भी नहीं थी। 

और ऐसा अक्सर हो जाता था कि घर में इतना थोड़ा बहुत अन्न जुट पाता, कि मां और बेटे दोनों थे, तो एक का ही भोजन हो सकता था।
 
तो विवेकानंद मां को कहकर कि मैं आज घर भोजन नहीं लूंगा...!

किसी मित्र के घर निमंत्रण है...!

मां भोजन कर ले, इस लिए घर से बाहर चले जाते। कहीं भी गली—

कूचों में चक्कर लगाकर—

कोई मित्र का निमंत्रण नहीं होता—

वापस खुशी लौट आते कि बहुत अच्छा भोजन मिला, ताकि मां भोजन कर ले।

रामकृष्ण को पता लगा तो उन्होंने कहा, तू भी पागल है। 

तू जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता! तू रोज यहां आता है। 

जा मंदिर में और मां से मांग ले, क्या तुझे चाहिए। 

रामकृष्ण ने कहा तो विवेकानंद को जाना पड़ा। रामकृष्ण बाहर बैठे रहे। 

आधी घड़ी बीती। 

एक घड़ी बीती। 

घंटा बीतने लगा। 

तब उन्होंने भीतर झांककर देखा। 

विवेकानंद आंख बंद किए खड़े हैं। 

आंख से आनंद के आंसू बह रहे हैं। 

सारे शरीर में रोमांच है।

फिर जब विवेकानंद बाहर आए, तो रामकृष्ण ने कहा, मांग लिया मां से? 

विवेकानंद ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया। 

जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि मैं तो सिर्फ अनुग्रह के आनंद में डूब गया। 

अब दोबारा जब जाऊंगा, तब मांग लूंगा।

दूसरे दिन भी यही हुआ। 

तीसरे दिन भी यही हुआ। 

रामकृष्ण ने कहा, पागल, तू मांगता क्यों नहीं है? 

तो विवेकानंद ने कहा कि आप नाहक ही मेरी परीक्षा ले रहे हैं। 

भीतर जाता हूं तो यह भूल ही जाता हुं कि वे क्षुद्र जरूरतें, जो मुझे घेरे हैं, वे भी हैं, उनका कोई अस्तित्व है। 

जब मां के सामने होता हूं तो विराट के सामने होता हूं तो क्षुद्र की सारी बात भूल जाती है। 

यह मुझसे नहीं हो सकेगा। 

रामकृष्ण ने अपने शिष्यों को कहा कि इसी लिए इसे भेजता था...! 

कि अगर इसकी प्रार्थना अभी भी मांग बन सकती है....! 

तो इसे प्रार्थना की कला नहीं आई। 

अगर यह अब भी मांग सकता है प्रार्थना के क्षण में, तो इसका मन संसार में ही उलझा है....!

परमात्मा की तरफ उठा नहीं है।

आप पूछते हैं कि क्या मांगें?

मांगें मत। 

मांग संसार है। 

और जो मांगना छोड़ देता है....! 

वही केवल परमात्मा में प्रवेश करता है। 

तो कुछ भी न मांगें। 

सुख नहीं, कुछ भी मत मांगें। 

मोक्ष भी मत मांगें, मुक्ति भी मत मांगें। 

क्योंकि मांग ही उपद्रव है। 

मांग ही बाधा है। वह जो मांगने वाला मन है, वह प्रार्थना में हो ही नहीं पाता।

साधारणत: हमने सारी प्रार्थना को मांग बना लिया है। 

मांगना चाहते हैं....! 

तभी हम प्रार्थना करते हैं। 

प्रार्थी का मतलब ही हो गया मांगने वाला। 

अन्यथा हम प्रार्थना ही नहीं करते। 

जब मांगना होता है, तभी प्रार्थना करते हैं। 

जब नहीं मांगना होता, तो प्रार्थना भी खो जाती है। 

हमारी सारी प्रार्थना भिक्षु की, मांगने वाले की प्रार्थना है। 

हम भिक्षा—

पात्र लेकर ही परमात्मा के सामने खड़े होते हैं। 

यह ढंग उचित नहीं है। 

यह प्रार्थना का ढंग ही नहीं है। 

फिर प्रार्थना क्या है? 

साधारणत: लोग समझते हैं कि प्रार्थना कुछ करने की चीज है—

कि आपने जाकर स्तुति की, कि गुणगान किया, कि भगवान की बड़ी प्रशंसा की—

कुछ करने की चीज है। 

प्रार्थना न तो मांग है और न कुछ करने की चीज है। 

प्रार्थना एक मनोदशा है।

उचित होगा कहना कि प्रार्थना की नहीं जाती, आप प्रार्थना में हो सकते हैं। 

यू कैन नाट डू प्रेयर, यू कैन बी इन इट। 

प्रार्थना में हो सकते हैं, प्रार्थना की नहीं जा सकती। 

वह कोई कृत्य नहीं है कि आपने कुछ किया—

घंटा बजाया, नाम लिया। 

वे सब बाह्य उपकरण हैं। 

प्रार्थना भीतर की एक मनोदशा है; ए स्टेट ऑफ माइंड।

दो तरह की मनोदशाएं हैं। 

मांग, डिजायर, वासना। 

वासना कहती है, यह चाहिए। 

मन की एक दशा है कि यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए। 

चौबीस घंटे हम वासना में हैं, यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए। 

एक क्षण ऐसा नहीं है, जब वासना न हो। 

कुछ न कुछ चाहिए। 

चाह धुएं की तरह चारों तरफ घेरे रहती है।

एक स्थिति है, वासना। 

अगर आप मांग लेकर प्रार्थना कर रहे हैं, तो वासना ही बनी हुई है, स्थिति बदली ही नहीं। 

वहां आप फिर कुछ मांग रहे हैं। 

बाजार में कुछ मांग रहे थे। 

पत्नी से कुछ मांग रहे थे। 

पति से कुछ मांग रहे थे। 

बेटे से, बाप से कुछ मांग रहे थे। 

समाज से कुछ मांग रहे थे। 

राज्य से कुछ मांग रहे थे। 

संसार से कुछ मांग रहे थे। 

अब परमात्मा से मांग रहे हैं। 

जिससे मांग रहे थे, वह बदल गया, लेकिन मांगने वाला मन, वह भिखारी वासना मौजूद है। 

कभी इससे मांगा, कभी उससे मांगा। 

जब कहीं भी न मिल सका, तो लोग भगवान से मांगने लगते हैं। 

सोचते हैं, जो कहीं नहीं मिला, वह भगवान से मिल जाएगा! मांगते लेकिन जरूर हैं। 

यह वासना है।

प्रार्थना बिलकुल उलटी अवस्था है। 

वासना है दौड़, कुछ जो नहीं है, उसके लिए। प्रार्थना, जो है, उसका आनदभाव। 

प्रार्थना है ठहर जाना, वासना है दौड़। 

वासना है भविष्य में, प्रार्थना है अभी और यहीं। 

प्रार्थनापूर्ण चित्त का अर्थ है, मिट गया अतीत, मिट गया भविष्य; यह क्षण सब कुछ है।

गीता दर्शन 
पुजारी प्रभु राज्यगुरु

🌹🙏श्री लक्ष्मीनारायण🙏🌹

🌹🙏जय जय श्री राधे🙏🌹
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