सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
आज कल के सच्चे कथाकार संत और ढोंगी कथाकार असन्त में कितना फर्क है....? द्रौपदी के स्वयंवर में जाते समय श्री कृष्ण , यशोदा मैया प्रभु श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग
आज ये भरतखण्ड की भूमि भगवान श्री रामचन्द्रजी की ओर भगवान श्री कृष्णजी की भूमि में आज कल सन्तरूप में अनेक ढोंगी असन्त हमारे समाज का शौषण करने में लगे है ।
हम में से अनेक स्त्री पुरुषो अपने भोले - भोले स्वभाव के कारण उनके कुचक्र में फंस कर अपना तन - मन - धन सब कुछ गंवा बैठते है ।
जूठी आस्था और अज्ञानता के कारण अपनी सारी पूंजी लूटकर उनके वशीभूत हो जाते है । पाप और वासना में डूबे ऐसे तथाकथित सन्तो की संख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है ।
आज कल तो इन कथाकारों तथाकथित सन्तो साधुओं का बहुत मनधड़क शास्त्रों के विरुद्ध का प्रवचनों प्रचलित हो चुका है । हम फंसकर इन कथाकरो संत और शैतान की पहचान नही कर पाते । इन सन्तो तथा कथाकरो ओर सन्तो को शास्त्र का श कैसा होता है वो भी पूरा ज्ञान नही होता व्यासपीठ पकड़कर ज्यादा वीआईपी मान सन्मान बिना कुछ महेनत का ज्यादा पैसा की कमाई करने का होड़ लगी चुकी है ।
इस विषय मे हमारा मार्गदर्शन करते हुवे संत श्री रामचरितमानस के बालकाण्ड में लिखा है--
साधु चरित सुभ चरित कपासू ।
नीरस बिसद गुनमय फल जासू ।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा ।
बंदनीय जेहि जग जस पावा ।।
कथाकरो संतो का निर्मल चरित्र तथा शीतल स्वभाव कपास की भौति स्वच्छ , निर्मल उज्ज्वल ओर अनेको गुण अपने आँचल में समेटे , रसरहित फल - जैसा होता है । जैसे कपास अनेक क्रियाओद्ररा भौति - भौतिके दुःख सहकर वस्त्ररूप में मयार्दा ओर सुख का आधार बनता है , उसी प्रकार कथाकरो संतो के समस्त कर्म जीवमात्र के लिये स्वार्थरहित हितकारक होता है । ऐसा कथाकार ओर संत निविकररूप से लोक और परलोक सुधार ने में सहकार बनकर सनासर में वन्दनीय हो जाता है । लेकिन आज कल के कथाकरो सन्तो को अग्नि का भी प्रकार मालूम नही पड़ता कि अग्नि कितना प्रकार का होता है , आज के कथाकरो सन्तो तो स्मशान का अग्नि में शादी भी करवा देता है । हिन्दू शास्त्र के अग्नि पुराण में ही कहा जाता है कि स्मशान का अग्नि असुद्ध होता है जातक को स्मशान क्रिया में जाने के बाद स्नान करना जरूरी होता है ।
मानस के अरण्यकाण्ड में महर्षि नारद ने भगवान श्रीराम से कथाकरो संतो के लक्षण बताने की प्रार्थना की है ---
संतन्ह के लच्छन रधुबीरा ।
कहहु नाथ भव भंजन भीरा ।।
नारद जी के मुख से जब ऐसा प्रिय वचन सुनकर प्रभु ने कहा -- है ऋषिवर सुनिये , में आपको कथाकरो संतो के गुण कहता हूं --
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहउँ ।
जिन्ह ते में उन्ह के बस रहऊ ।।
षट विकार जीत अनध अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बांध अनिह मितभोगी ।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।।
सावधान मानव मदहीना ।
धीर धर्म गति परम प्रबीना ।।
कथाकार सन्तजन काम , क्रोध , लोभ , मोह , ईर्ष्या - जैसे विकारों को अपने से दूर रखते है । ये कभी भी इनके वशीभूत नही होते । लेकिन आज कल के कथाकरो संतों तो बस वीआईपी ऐसी वाले बगला में रहना जिस गांव में उसको अच्छा लग जाय वहां के जग्या किसी भी प्रकार से कैसे हड़प किया जाय कैसे चेला चपका हमारी सेवा में नत मस्तक ही खड़ा रहे । सच्चा कथाकरो संत ये निष्पाय , निष्काम , निश्छल चित्तवाले तथा अंतर ओर बाह्य दोनो में शुद्ध और सुखके धाम होते है । लेकिन आज कल के कथाकरो संतों तो जो उसका मन पसंद वस्तु , जग्या, मिलकत ओर स्त्री उसका हाथ मे न आएगा तो वो साम दाम दंड ओर भेद का भी प्रयोग करने में कोई कचाश नही छोड़ेंगे ।
सच्चा कथाकरो संतो का ज्ञान असीमित होता है । उसका प्रवचनों में कोई एक भी शब्द कस भूल नही निकाल पाएंगे । नही कोई किसी प्रकार के उसका ऊपर आरोप लगा शकेगे । सच्चे कथाकार संत बड़े ही समेच , सबका सम्मान करनेवाले ओर स्वयं अहंकारहीन होते है ।
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ।।
सम सीतल नही त्यागहि नीति ।
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति ।।
जप तप व्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोविंद विप्र पद प्रेमा ।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया ।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।।
सच्चे ब्राह्मण कथाकार सन्त स्वभाव से अपनी प्रसंसा सुनकर अप्रसन्न होते है और ओर अन्योकि प्रसंसा ओर उनके गुणों की चर्चा सुनकर हर्षित होते है । वे राग - द्वेषसे दूर , तीनो तापो से मुक्त ओर नीति में सदैव रत रहते है । स्वभाव से सरल प्राणी मात्र में प्रीति रखने वाले होते है । जप तप व्रत में लीन ब्राह्मण कथाकार सन्त इन्द्रियों का दमन करने वाले ओर ब्राह्मण कथाकार संत भी ब्राह्मण के चरणों मे प्रेम रखने वाले होते है । आज कल के तो ब्राह्मणों के अलावा इतर लोग ही कथाकार संत बनकर व्यासपीठ पकड़ कर बैठ गया है । सच्चे ब्राह्मण संत कथाकार तो श्रद्धा , क्षमा , मैत्री ओर दया से सम्पन्न होते है ।
( आगे भाग 2 पर )
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द्रौपदी के स्वयंवर में जाते समय श्री कृष्ण:
द्रौपदी के स्वयंवर में जाते समय श्री कृष्ण" अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि, हे पार्थ तराजू पर पैर संभलकर रखना,संतुलन बराबर रखना, लक्ष्य मछली की आंख पर ही केंद्रित हो इस बात का विशेष खयाल रखना... तब अर्जुन ने कहा, "हे प्रभु " सबकुछ अगर मुझे ही करना है, तो फिर आप क्या करोगे, ???*
*वासुदेव हंसते हुए बोले, हे पार्थ जो आप से नहीं होगा वह मैं करुंगा,पार्थ ने कहा प्रभु ऐसा क्या है,जो मैं नहीं कर सकता ??? तब वासुदेव ने मुस्कुराते हुए कहा - जिस अस्थिर, विचलित, हिलते हुए पानी में तुम मछली का निशाना साधोगे , उस विचलित "पानी" को स्थिर "मैं" रखुंगा !!*
*कहने का तात्पर्य यह है कि आप चाहे कितने ही निपुण क्यूँ ना हो , कितने ही बुद्धिवान क्यूँ ना हो ,* *कितने ही महान एवं विवेकपूर्ण क्यूँ ना हो , लेकिन आप स्वंय हर एक परिस्थिति के ऊपर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकते .. आप सिर्फ अपना प्रयास कर सकते हो , लेकिन उसकी भी एक सीमा है और जो उस सीमा से आगे की बागडोर संभलता है उसी का नाम "भगवान है ..*
जीवन में बुराई अवश्य हो सकती है मगर जीवन बुरा कदापि नहीं हो सकता। जीवन एक अवसर है श्रेष्ठ बनने का, श्रेष्ठ करने का, श्रेष्ठ पाने का। जीवन की दुर्लभता जिस दिन किसी की समझ में आ जाएगी उस दिन कोई भी व्यक्ति जीवन का दुरूपयोग नहीं कर सकता।
जीवन वो फूल है जिसमें काँटे तो बहुत हैं मगर सौन्दर्य की भी कोई कमी नहीं। ये और बात है कुछ लोग काँटो को कोसते रहते हैं और कुछ सौन्दर्य का आनन्द लेते हैं।
जीवन को बुरा सिर्फ उन लोगों के द्वारा कहा जाता है जिनकी नजर फूलों की बजाय काँटो पर ही लगी रहती है। जीवन का तिरस्कार वे ही लोग करते हैं जिनके लिए यह मूल्यहीन है।
जीवन में सब कुछ पाया जा सकता है मगर सब कुछ देने पर भी जीवन को नहीं पाया जा सकता है। जीवन का तिरस्कार नहीं अपितु इससे प्यार करो। जीवन को बुरा कहने की अपेक्षा जीवन की बुराई मिटाने का प्रयास करो, यही समझदारी है।
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यशोदा मैया प्रभु श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग
*बड़ी सुन्दर कथा है श्रीकृष्ण जी महाराज की अवश्य पढ़े*
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एक बार की बात है कि यशोदा मैया प्रभु श्री कृष्ण के उलाहनों से तंग आ गयीं और छड़ी लेकर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ीं।
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जब प्रभु ने अपनी मैया को क्रोध में देखा तो वह अपना बचाव करने के लिए भागने लगे।
भागते - भागते श्रीकृष्ण एक कुम्हार के पास पहुँचे। कुम्हार तो अपने मिट्टी के घड़े बनाने में व्यस्त था।
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लेकिन जैसे ही कुम्हार ने श्रीकृष्ण को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ।
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कुम्हार जानता था कि श्रीकृष्ण साक्षात् परमेश्वर हैं।
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तब प्रभु ने कुम्हार से कहा कि, कुम्हार जी, आज मेरी मैया मुझ पर बहुत क्रोधित है।
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मैया छड़ी लेकर मेरे पीछे आ रही है। भैया, मुझे कहीं छुपा लो।
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तब कुम्हार ने श्रीकृष्ण को एक बड़े से मटके के नीचे छिपा दिया।
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कुछ ही क्षणों में मैया यशोदा भी वहाँ आ गयीं और कुम्हार से पूछने लगीं, क्यूँ रे, कुम्हार ! तूने मेरे कन्हैया को कहीं देखा है, क्या ?
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कुम्हार ने कह दिया, नहीं, मैया ! मैंने कन्हैया को नहीं देखा।
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श्रीकृष्ण ये सब बातें बड़े से घड़े के नीचे छुपकर सुन रहे थे। मैया तो वहाँ से चली गयीं।
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अब श्रीकृष्ण जी महाराज कुम्हार से कहते हैं, कुम्हार जी, यदि मैया चली गयी हो तो मुझे इस घड़े से बाहर निकालो।
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कुम्हार बोला, ऐसे नहीं, प्रभु जी ! पहले मुझे चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।
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श्रीकृष्ण जी मुस्कुराये और कहा, ठीक है, मैं तुम्हें चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने का वचन देता हूँ। अब तो मुझे बाहर निकाल दो।
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कुम्हार कहने लगा, मुझे अकेले नहीं, प्रभु जी ! मेरे परिवार के सभी लोगों को भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दोगे तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूँगा।
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श्रीकृष्ण जी कहते हैं, चलो ठीक है, उनको भी चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होने का मैं वचन देता हूँ। अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।
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अब कुम्हार कहता है, बस, प्रभु जी ! एक विनती और है। उसे भी पूरा करने का वचन दे दो तो मैं आपको घड़े से बाहर निकाल दूँगा।
. श्रीकृष्ण जी बोले, वो भी बता दो, क्या चाहते हो ?
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कुम्भार कहने लगा, प्रभु जी ! जिस घड़े के नीचे आप छुपे हो, उसकी मिट्टी मेरे बैलों के ऊपर लाद के लायी गयी है।
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मेरे इन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।
. श्रीकृष्ण जी ने कुम्हार के प्रेम पर प्रसन्न होकर उन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त होने का वचन दिया।
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श्रीकृष्ण जी बोले, अब तो तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो गयी, अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।
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तब कुम्हार कहता है, अभी नहीं, भगवन् ! बस, एक अन्तिम इच्छा और है। उसे भी पूरा कर दीजिये..
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और वो ये है, जो भी प्राणी हम दोनों के बीच के इस संवाद को सुनेगा, उसे भी आप चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करोगे।
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बस, यह वचन दे दो तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकाल दूँगा।
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कुम्हार की प्रेम भरी बातों को सुन कर श्रीकृष्ण जी महाराज बड़े प्रसन्न हुए और कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरा करने का वचन दिया।
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फिर कुम्हार ने बाल श्रीकृष्ण को घड़े से बाहर निकाल दिया।
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उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु जी के चरण धोये और चरणामृत पीया।
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अपनी पूरी झोंपड़ी में चरणामृत का छिड़काव किया और प्रभु जी के गले लगकर इतना रोये क़ि प्रभु में ही विलीन हो गये।
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जरा सोच करके देखिये, जो बाल श्रीकृष्ण सात कोस लम्बे-चौड़े गोवर्धन पर्वत को अपनी इक्क्नी अंगुली पर उठा सकते हैं, तो क्या वो एक घड़ा नहीं उठा सकते थे ।
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लेकिन
*बिना प्रेम रीझे नहीं नटवर नन्द किशोर।*
*पल में चित्त चुराए वो नटखट माखन चोर ।*
कोई कितने भी यज्ञ करे, अनुष्ठान करे, कितना भी दान करे, चाहे कितनी भी भक्ति करे,
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लेकिन जब तक आपके दिल में सब के लिए प्रेम नहीं है तो प्रभु श्रीकान्हा जी की भक्ति व उनका दर्शन नहीं हो सकता.......
*हे गोपाल राधा कृष्ण गोविंद गोविंद*🙏🌷🌷❣️
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 25 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏