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जय द्वारकाधीश
।। श्रीकृष्ण का प्राकट्य / असली गहना ।।
*श्रीकृष्ण का प्राकट्य*_ 3️⃣
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महाभारत का गहराई से अध्ययन - मनन करने वाले पुरुष यह भली - भाँति जानते हैं कि महाभारत के मुख्य प्रतिपाद्य भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।
महाभारत के आदि पर्व में ही कहा गया है-
*भगवान् वासुदेवश्च कीर्त्यतऽत्र सनातनः।*
*स कि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च ।।*
*शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रवं ज्योतिः सनातनः।*
*यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः।।*
*असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्वं प्रवर्तते।*
*यत्तद् यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः।।*
*प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।*
इस महाभारत में सनातन भगवान वासुदेव की महिमा ही गायी गयी है।
वे ही सत्य हैं।
वे ही ऋतु हैं, वे ही पावन और पवित्र हैं।
वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं नित्य विचल ज्योतिःस्वरूप सनातन पुरुष हैं।
मनीषीविद्वान उन्हीं की दिव्य लीलाओं का वर्णन करते हैं।
असत और सत तथा यह सत् और असत रूप सारा विश्व उन्हीं से उत्पन्न हुआ है।
ध्यानयोग के बल से समन्वित जीवन्मुक्त संन्यासीगण दर्पण में प्रतिबिम्ब की भाँति अपने अन्तःकरण में इन्हीं परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं’ आचार्य श्रीमदानन्दतीर्थ भगवत्पादने
‘श्रीमहाभारततात्पर्यनिर्णय’ नामक ग्रन्थ में इस बात को उदाहरण देकर भलीभाँति सिद्ध कर दिया है।
महाभारतान्तर्गत विश्व विख्यात सर्वलोकसमादृत श्रीभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं कहते हैं-
*मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय।*
*मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे पणिगणा इव।।*
‘धनंजय! मेरे अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु नहीं है।
यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र की मणियों के सदृश मुझ में गुँथा हुआ है।
*यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।*
*अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुत्तमः।।*
‘मैं क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हूँ।
इस से लोक - वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ।’
*यच्चापि सर्वभूतानां बींज तदहमर्जुन।*
*न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।*
‘अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का बीज है, वह भी मैं ही हूँ।
चर अथवा अचर कोई भी ऐसा भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो।’
*गतिर्भता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।*
*प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।*
‘मैं ही गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, सबका आधार, निधान तथा अविनाशी कारण हूँ।’
*ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।*
*शाश्वतस्य व धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।*
‘मैं अविनाशी ब्रह्म की, अमृत की, नित्यधर्म की, और ऐकान्तिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ-
सबका आधार हूँ।’
*मत्तः सर्वं प्रवर्तते।*
‘सब मुझसे ही प्रवर्तित है।’
*अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।*
‘मैं सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय हूँ।’
*भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।*
‘ मैं समस्त यज्ञ-तपों का भोक्ता और सर्वलोकों का महान् ईश्वर हूँ।’
*विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।*
‘ इस सम्पूर्ण जगत को मैंने एक अंश में धारण कर रखा है।’
*यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।*
‘जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है।’
*अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।*
‘मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ। अर्जुन ने गीता में कहा है-
*परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।*
*पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।*
‘भगवान! आप परब्रह्म, परमधाम, परमपवित्र, सनातनपुरुष, दिव्यपुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु हैं।’
श्रीमद्भागवत में तो श्रीकृष्ण के परब्रह्मत्व, उनकी स्वयं भगवत्स्वरूपता तथा उनके अनन्त महत्त्व का ही वर्णन श्रीव्यास देव जी ने किया है।
उसकी तो रचना ही उन्हीं की स्वरूपव्याख्या तथा लीला कथा के वर्णन के लिये हुई है।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि “जब भगवान श्रीकृष्ण ‘पूर्ण परात्पर ब्रह्म’, ‘ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा‘, सर्वथा सच्चिदानन्दमय स्वरूप हैं....!
तब उनका स्वरूप और आकार प्राकृत तथा उनके कार्य - स्नान, भोजन - शयनादि तथा अन्यान्य व्यवहार-बर्ताव प्राकृत मनुष्य के - से क्यों दिखायी पड़ते हैं?”
इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो भगवान स्वयं ‘सर्व - भवन - समर्थ’ हैं-
वे चाहे जैसे बन सकते हैं और यहाँ तो वे मनुष्य - लीला ही करते हैं।
दूसरे, उन्होंने स्वयं इस प्रश्न का उत्तर गीता में दे दिया है-
*नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।*
*मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।*
‘योगमाया से पूरा-पूरा ढका रहने के कारण मैं समस्त लोगों की दृष्टि में प्रकाशित नहीं होता।
इस लिये मूढ़लोग मेरे इस अजन्मा और अविनाशी स्वरूप को नहीं जान पाते- मुझको जन्म - मृत्युशील प्राकृतदेह धारी मानते हैं।’
*अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।*
*परं भावमजानन्तो मम भूतमेश्वरम्।।*
‘मैं सम्पूर्ण भूतों का महान् ईश्वर हूँ, मेरे इस परम भाव ( उत्कृष्ट माहात्म्य ) को वे मूढ़लोग नहीं जानते और मुझे मनुष्य के सदृश शरीर धारण किये देखकर प्राकृतशरीरधारी मनुष्य मान लेते हैं मेरा अपमान करते हैं।’
श्रीयामुन मुनिने कहा है-
*तद्भह्मकृष्णयोरैक्यात्.........................................।*
उस ब्रह्म और श्रीकृष्ण में वैसा ही एकत्व है, जैसा किरणों में और सूर्य में होता है।
अतएव दिव्य सच्चिदानन्दघन प्रेमानन्द - रस - विग्रह भगवान श्रीकृष्ण विरुद्धधर्माश्रयी साक्षात् पूर्णब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु हैं।
गीता मे तीन प्रकार के अवतारों का संकेत और भगवान श्रीकृष्ण का महत्त्व.....!
उन्होंने गीता में अवतार के प्रसंग में अपने इस पूर्णाविर्भाव तथा अपने अंशावतारों का वर्णन सांकेतिक सूत्र रूप से बहुत सुन्दर किया है।
वे कहते हैं-
*अजोऽपि सन्नव्ययत्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।*
*प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।*
*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।*
*अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।*
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।*
इन श्लोकों का साधारण शब्दार्थ है-
‘मैं अजन्मा, अव्ययात्मा और सर्वभूतों का ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृति को ( अपने स्वभाव को ) स्वीकार करके अपनी माया से ( योगमाया को साथ लेकर ) उत्पन्न - उत्तम रीति से प्रकट होता हूँ *
( सम्भवामि )।’*
‘जब - जब धर्म की ग्लानि और अर्धम का अभ्युत्थान होता है, तब - तब मैं अपने रूप को रचता हूँ।’
‘साधु पुरुषों के परित्राण, दृष्टों के विनाश और धर्म संस्थापन के लिये मैं युग - युग में उत्तम रीति से प्रकट होता हूँ ।
*( सम्भवामि )।’*
साधुओं का परित्राण, दृष्टों का दमन और धर्म का संरक्षण - सस्थापन - भगवदवतार के ये तीन कार्य सुप्रसिद्ध हैं।
इन तीनों का वर्णन तथा इनके लिये प्रकट होने की बात आठवें श्लोंक में आ जाती है।
फिर छठे श्लोक में ‘सम्भवामि’ और सातवे में ‘आत्मानं सृजामि’ कहने की क्या आवश्यक्ता थी?
तीनों मे ही प्रकारान्तर से अपने प्रकट होने की बात ही कही गयी है-
छठे तथा आठवें दो में ‘सम्भवामि’ तथा सातवें में ‘आत्मानं सृजामि’ कहा है।
अतएव ऐसा प्रतीत होता है-
तीन श्लोकों में तीन प्रकार के अवतारों का संकेत है।
मैं अत, अव्ययात्मा और सर्वभूतमहेश्वर होकर भी अपनी प्रकृति को स्वीकार करके आत्ममाया ये प्रकट होता हूँ, इसमें अपने ‘विरुद्ध धर्माश्रयी’ परब्रह्म स्वरूप के पूर्णाविर्भाव का संकेत है।
दूसरे में सदुपदेश के द्वारा धर्मग्लानि तथा अधर्म के अभ्युत्थान का नाश करने वाले
*‘आचार्यावतार’*
का संकेत है तथा तीसरे में साधु संरक्षण, दुष्टदलन और धर्म संरक्षण - संस्थापन करने वाले
*‘अंशावतार’*
का संकेत है।
श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् हैं-
यह गीता के उपर्युक्त श्लोक में आये हुए
*‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय’*
और
*‘आत्ममायया सम्भवामि’*
पदों के गम्भीर्य पर ध्यान देकर समझने से और भी सुस्पष्ठ हो जाता है।
_*शेष ( दिव्य सत्संग ) अगले भाग में........*_
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*जय जय श्री राधे गोविन्द*
*जय जय श्री वृंदावन धाम*
।। असली गहना.....! ।।
एक राजा थे , उनका नाम था चक्ववेण , वह बड़े ही धर्मात्मा थे।
राजा जनता से जो भी कर लेते थे सब जनहित में ही खर्च करते थे उस धन से अपना कोई कार्य नहीं करते थे।
अपने जीविकोपार्जन हेतु राजा और रानी दोनोँ खेती किया करते थे।
उसी से जो पैदावार हो जाता उसी से अपनी गृहस्थी चलाते , अपना जीवन निर्वाह करते थे।
राजा रानी होकर भी साधारण से वस्त्र और साधारण सात्विक भोजन करते थे।
एक दिन नगर में कोई उत्सव था तो राज्य की तमाम महिलाएं बहुत अच्छे वस्त्र और गहने धारण किये हुए जिसमें रेशमी वस्त्र तथा हीरे ,पन्ने , जवाहरात आदि के जेवर आदि पहने थीँ आई और जब रानी को साधारण वस्त्रों में देखा तो कहने लगी कि आपतो हमारी मालकिन हो और इतने साधरण वस्त्रों में बिना गहनों के जबकि आपको तो हम लोगों से अच्छे वस्त्रों और गहनों में होना चाहिए।
यह बात रानी के कोमल हृदय को छू गई और रात में जब राजा रनिवास में आये तो रानी ने सारी बात बताते हुए कहा कि आज तो हमारी बहुत फजीहत बेइज्जती हुई।
सारी बात सुनने के बाद राजा ने कहा क्या करूँ मैं खेती करता हूँ जितना कमाई होती है घर गृहस्थी में ही खर्च हो जाता है , क्या करूँ ?
प्रजा से आया धन मैं उन्हीं पर खर्च कर देता हूँ , फिर भी आप परेशान न हों , मैं आपके लिए गहनों की ब्यवस्था कर दूंगा। तुम धैर्य रखो।
दूसरे दिन राजा ने अपने एक आदमी को बुलाया और कहा कि तुम लंकापति रावण के पास जाओ और कहो कि राजा चक्रवेणु ने आपसे कर मांगा है और उससे सोना ले आओ।
वह ब्यक्ति रावण के दरबार मे गया और अपना मन्तब्य बताया इस पर रावण अट्टहास करते हुए बोला अब भी कितने मूर्ख लोग भरे पड़े है , मेरे घर देवता पानी भरते हैं और मैं कर दूंगा।
उस ब्यक्ति ने कहा कि कर तो आप को अब देना ही पड़ेगा , अगर स्वयं दे दो तो ठीक है , इस पर रावण क्रोधित होकर बोला कि ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई , जा चला जा यहां से -,
रात में रावण मन्दोदरी से मिला तो यह कहानी बताई मन्दोदरी पूर्णरूपेण एक पतिव्रता स्त्री थीँ , यह सुनकर उनको चिन्ता हुई और पूँछी कि फिर आपने कर दिया या नहीं ?
तो रावण ने कहा तुम पागल हो मैं रावण हूँ , क्या तुम मेरी महिमा को जानती नहीं।
क्या रावण कर देगा।
इस पर मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप कर दे दो वरना इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।
मन्दोदरी राजा चक्रवेणु के प्रभाव को जानती थी क्योंकि वह एक पतिव्रता स्त्री थी।
रावण नहीं माना , जब सुबह उठकर रावण जाने लगा तो मन्दोदरी ने कहा कि महाराज आप थोड़ी देर ठहरो मैं आपको एक तमाशा दिखाती हूँ।
रावण ठहर गया , मन्दोदरी प्रतिदिन छत पर कबूतरों को दाना डाला क़रतीं थी , उस दिन भी डाली और जब कबूतर दाना चुगने लगे तो बोलीं कि अगर तुम सब एक भी दाना चुगे तो तुम्हें महाराजाधिराज रावण की दुहाई है , कसम है।
रानी की इस बात का कबूतरों पर कोई असर नहीं हुआ और वह दाना चुगते रहे।
मन्दोदरी ने रावण से कहा कि देख लिया न आपका प्रभाव , रावण ने कहा तू कैसी पागल है पक्षी क्या समझें कि क्या है रावण का
प्रभाव तो मन्दोदरी ने कहा कि ठीक है अब दिखाती हूँ आपको फिर उसने कबूतरों से कहा कि अब एक भी दाना चुना तो राजा चक्रवेणु की दुहाई है।
सारे कबूतर तुरन्त दाना चुगना बन्द कर दिया।
केवल एक कबूतरी ने दाना चुना तो उसका सर फट गया , क्योंकि वह बहरी थी सुन नही पाई थी।
रावण ने कहा कि ये तो तेरा कोई जादू है ,मैं नही मानता इसे।
और ये कहता हुआ वहां से चला गया।
रावण दरबार मे जाकर गद्दी पर बैठ गया तभी राजा चक्रवेणु का वही व्यक्ति पुनः दरबार मे आकर पूंछा की आपने मेरी बात पर रात में विचार किया या नहीं।
आपको कर रूप में सोना देना पड़ेगा।
रावण हंसकर बोला कि कैसे आदमी हो तुम देवता हमारे यहां पानी भरते है और हम कर देंगे।
तब उस ब्यक्ति ने कहा कि ठीक है आप हमारे साथ थोड़ी देर के लिए समुद्र के किनारे चलिये , रावण किसी से डरता ही नही था सो कहा चलो और उसके साथ चला गया।
उसने समुद्र के किनारे पहुंचकर लंका की आकृति बना दी और जैसे चार दरवाजे लंका में थे वैसे दरवाजे बना दिये और रावण से पूंछा की लंका ऐसी ही है न ?
तो रावण ने कहा हाँ ऐसी ही है तो ?
तुम तो बड़े कारीगर हो।
वह आदमी बोला कि अब आप ध्यान से देखें , " महाराज चक्रवेणु की दुहाई है " ऐसा कहकर उसने अपना हाथ मारा और एक दरवाजे को गिरा दिया।
इधर बालू से बनी लंका का एक एक हिस्सा बिखरा उधर असली लंका का भी वही हिस्सा बिखर गया। अब वह आदमी बोला कि कर देते हो या नहीं?
नहीं तो मैं अभी हाथ मारकर सारी लंका बिखेरता हूँ।
रावण डर गया और बोला हल्ला मत कर !
तेरे को जितना चाहिए चुपचाप लेकर चला जा।
रावण उस ब्यक्ति को लेजाकर कर के रूप में बहुत सारा सोना दे दिया।
रावण से कर लेकर वह आदमी राजा चक्रवेणु के पास पहुंचा और उनके सामने सारा सोना रख दिया चक्ववेण ने वह सोना रानी के सामने रख दिया कि जितना चाहिए उतने गहने बनवा लो।
रानी ने पूंछा कि इतना सोना कहाँ से लाये ?
राजा चक्ववेण ने कहा कि यह रावण के यहां से कर रूप में मिला है।
रानी को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि रावण ने कर कैसे दे दिया?
रानी ने कर लाने वाले आदमी को बुलाया और पूंछा कि कर कैसे लाये तो उस ब्यक्ति ने सारी कथा सुना दी।
कथा सुनकर रानी चकरा गई और बोली कि मेरे असली गहना तो मेरे पतिदेव जी हैं , दूसरा गहना मुझे नहीं चाहिए।
गहनों की शोभा पति के कारण ही है।
पति के बिना गहनों की क्या शोभा ?
जिनका इतना प्रभाव है कि रावण भी भयभीत होता है , उनसे बढ़कर गहना मेरे लिए और हो ही नहीं सकता।
रानी ने उस आदमी से कहा कि जाओ यह सब सोना रावण को लौटा दो और कहो कि महाराज चक्ववेण तुम्हारा कर स्वीकार नहीं करते।
कथा का सार है कि मनुष्य को देखा देखी पाप देखादेखी पुण्य नहीं करना चाहिए और सात्विक रूप से सत्यता की शास्त्रोक्त विधि से कमाई हुई दौलत में ही सन्तोष करना चाहिए।
दूसरे को देखकर मन को बढ़ावा या पश्चाताप नहीं करना चाहिए।
धर्म मे बहुत बड़ी शक्ति आज भी है।
करके देखिए निश्चित शांति मिलेगी ।
आवश्यकताओं को कम कर दीजिए जो आवश्यक आवश्यकता है उतना ही खर्च करिये शेष परोपकार में लगाइए।
भगवान तो हमारे इन्हीं कार्यो की समीक्षा में बैठे हैं, मुक्ति का द्वार खोले , किन्तु यदि हम स्वयं नरकगामी बनना चाहें तो उनका क्या दोष ?
।।। शिव ।।। शिव ।।। शिव ।।।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏
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