https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: महाभारत की कथा का सार https://sarswatijyotish.com/India
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महाभारत की कथा का सार

महाभारत की कथा का सार|

कृष्ण वन्दे जगतगुरुं 

समय नें कृष्ण के बाद 5000 साल गुजार लिए हैं । 

तो क्या अब बरसाने से राधा कृष्ण को नहीँ पुकारती होगी ? 

बृज की गोपियों, दही बेचने वालियों नें कृष्ण को आवाज़ देनी बँद कर दी होगी ...?

भूखी प्यासी गायें  क्या कृष्ण को याद कर नहीँ रम्भाती होगी अब...?

जमुना की वो मछलियाँ जो कृष्ण के पैरों से लिपट के खेलती थी क्या उन्होने कृष्ण को बिसार दिया होगा...? 

क्या मीरा नें हाथ की मेहन्दी में कृष्ण का नाम लिख कर उनकी याद में रोना छोड़ दिया होगा...?

फिर समय नें कृष्ण को क्यों नहीँ पुकारा होगा...? 

क्या कृष्ण किसी एक युग, एक धर्म के थे..? 

अगर नहीँ तो क्या बाद के युगों, धर्मों नें कृष्ण को नहीँ पुकारा होगा...?

कृष्ण की आवश्कता तो आज भी हैं।

क्या आज कोई कंस नहीँ हैं...?

क्या कोई वासुदेव आज कैद में नहीँ हैं...?

क्या किसी देवकी की कोख आज नहीँ कुचली जाती...?


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क्या द्रौपदी का चीर हरण नहीँ होता अब...?

क्या आज भी कालिया का फन कुचले जाने की आवश्कता नहीँ हैं...?

कंस की तानाशाही तो आज भी हैं।

करोड़ों गालियाँ देने वाले शिशुपाल तो हर गली हर नुक्कड़ पर जिंदा घूम रहे है।

फ़िर क्यों नहीँ आते कृष्ण...?

शायद इस लिए क्योंकि आज कृष्ण हमारे लिए सिर्फ मूरत होकर,अगबत्ती दिखाने भर के लिए रह गए हैं।

गोविंदा आला रे कह कर हुल्लड़ मचाना आसान है पर क्या वाकई हमने कृष्ण को अनुकरणीय समझा है ?

क्या हमने कृष्ण को अपने जीवन में उतारने की इंच मात्र भी कोशिश की है?

क्या हमने कृष्ण के गुणों का एक प्रतिशत भी खुद में आत्मसात किया है? 

कृष्ण वो शिखर हैं जहाँ पहुँच कर एक इंसान की मानव से ईश्वर बनने कि राह आरम्भ होती हैं। 

कृष्ण वो केन्द्र बिन्दु हैं जहाँ से ईश्वर की सत्ता शुरू होती हैं। 

कृष्ण उस ज्योतिर्मय लौ का नाम है जिसमें नृत्य है, गीत है, प्रीत है, समर्पण है, हास है, रास है और ज़रूरत पड़ने पर युध्द का शंखनाद भी है...।

जय श्रीराम, अल्लाह हो अकबर या लाल सलाम कह कर हथियार उठाने का मतलब कृष्ण होना नहीँ हैं...! 

कृष्ण होने का मतलब हैं ताकत होने के बावजूद समर्पण भाव से मथुरा को बचाना।

कृष्ण होने का मतलब है अपनी खुद की द्वारिका बसाना।

कृष्ण राजा नहीँ थे...! 

न ही उन्होंने राजा बनने के लिए कोई युद्ध लड़ा फ़िर भी उनके एक इशारे पर हजारों राजमुकुट उनके चरणों में समर्पित हो सकते थे।

कृष्ण महान योगी थे जिन्होने वासना को नहीँ जीवन रस को महत्व दिया।

कृष्ण अकेले ऐसे व्यक्ति है जो ईश्वर की सत्ता की परम गहराई और परम ऊँचाई पर पहुँच कर भी आत्म्मुग्ध नहीँ थे...।

एक हाथ में बंसी और दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर महा इतिहास रचने वाला कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीँ हुआ इस संसार में आज तक न होगा। 

हम कहते है कृष्ण तुम्हें आना होगा।

कितने मासूम है हम जो आज भी कृष्ण के आने का इंतजार कर रहे है कि वो आयेंगे और हमारी लड़ाई लड़ेंगे...! 

क्योंकि कृष्ण नें कहा था यदा यदा हि धर्मस्य...।

कृष्ण नें कर्मण्येवाधिकारस्ते भी कहा था।

कंस, जरासंध, पूतना और दुर्योधन जैसों के नाश के लिए कोई भी कृष्ण बन सकता है, तुम भी, मैं भी। 

कृष्ण किसी एक धर्म के नहीँ थे, जिस धर्म में भी धर्म पीड़ित और न्याय पीडित होंगे वहाँ न्याय दिलाने के लिए कोई न कोई कृष्ण ज़रूर खड़ा होगा।

कृष्ण क्या किसी और दुनियाँ से आएँगे ? 

तो सोचिए कब आयेंगे और कैसे...?

कृष्ण नहीं आएंगे क्योंकि तो कहीँ गए ही नहीँ हैं, वो तो युगों युगों से यहीं है।

माखन में मिश्री की तरह घुले है कृष्ण, मोर पंख की आँखों में है कृष्ण, बाँसुरी की तान में है कृष्ण, गाय चराते ग्वालो में हैं कृष्ण, जमुना की लहरों में है कृष्ण, कण कण में है कृष्ण, क्षण क्षण है कृष्ण। 

ज़रूरत बस उन्हे पहचानने की है।

कृष्ण लुप्त नहीँ है वो तो आज भी अपने  विराट स्वरूप में सामने आ सकते हैं पर किसमे हिम्मत हैं अर्जुन होने की...?

कौन है जो अपने अतिप्रिय बंधु बान्धवों के विरोध के बावजूद न्याय के साथ खड़ा हो सके...?

कौन है जो किसी द्रौपदी का सम्मान स्थापित करने के लिए अपने माथे पर सहर्ष कलंक को धारण कर सके...? 

         || जय श्री कृष्ण जय श्री श्याम ||



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|| परस्त्री में आसक्ति मृत्यु का कारण होती है-||

द्रौपदी के साथ पाण्डव वनवास के अंतिम वर्ष अज्ञातवास के समय में वेश तथा नाम बदलकर राजा विराट के यहां रहते थे| 

उस समय द्रौपदी ने अपना नाम सैरंध्री रख लिया था और विराट नरेश की रानी सुदेष्णा की दासी बनकर वे किसी प्रकार समय व्यतीत कर रही थीं |

राजा विराट का प्रधान सेनापति कीचक सुदेष्णा का भाई था | 

एक तो वह राजा का साला था, दूसरे सेना उसके अधिकार में थी, तीसरे वह स्वयं प्रख्यात बलवान था और उसके समान ही बलवान उसके एक सौ पांच भाई उसका अनुगमन करते थे‌ | 

इन सब कारणों के कीचक निरंकुश तथा मदांध हो गया था| 

वह सदा मनमानी करता था | 

राजा विराट का भी उसे कोई भय या संकोच नहीं था | 

उल्टे राजा ही उससे दबे रहते थे और उसके अनुचित व्यवहारों पर भी कुछ कहने का साहस नहीं करते थे |

दुरात्मा कीचक अपनी बहन रानी सुदेष्णा के भवन में एक बार किसी कार्यवश गया | 

वहां अपूर्व लावण्यवती दासी सैरंध्री को देखकर उस पर आसक्त हो गया | 

कीचक ने नाना प्रकार के प्रलोभन सैरंध्री को दिए | 

सैरंध्री ने उसे समझाया, मैं पतिव्रता हूं | 

अपने पति के अतिरिक्त किसी पुरुष की कभी कामना नहीं करती | 

तुम अपना पाप - पूर्ण विचार त्याग दो |

लेकिन कामांध कीचक ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया | 

उसने अपनी बहन सुदेष्णा को भी तैयार कर लिया कि वे सैरंध्री को उसके भवन में भेजेंगी | 

रानी सुदेष्णा ने सैरंध्री के अस्वीकार करने पर भी अधिकार प्रकट करते हुए डांटकर उसे कीचक के भवन में जाकर वहां से अपने लिए कुछ सामग्री लाने को भेजा | 

सैरंध्री जब कीचक के भवन में पहुंची, तब वह दुष्ट उसके साथ बल प्रयोग करने पर उतारू हो गया | 

उसे धक्का देकर वह भागी और राजसभा में पहुंची | 

परंतु कीचक ने वहां पहुंचकर राजा विराट के सामने ही उसके केश पकड़कर भूमि पर पटक दिया और पैर की एक ठोकर लगा दी | 

राजा विराट कुछ भी बोलने का साहस न कर सके |

सैरंध्री बनी द्रौपदी ने देख लिया कि इस दुरात्मा से विराट उसकी रक्षा नहीं कर सकते | 

कीचक और भी धृष्ट हो गया | 

अंत में व्याकुल होकर रात्रि में द्रौपदी भीमसेन के पास गई और रोकर उसने भीमसेन से अपनी व्यथा कही | 

भीमसेन ने उसे आश्वासन दिया | 

दूसरे दिन सैरंध्री ने भीमसेन की सलाह के अनुसार कीचक से प्रसन्नतापूर्वक बातें कीं और रात्रि में उसे नाट्यशाला में आने को कह दिया |

राजा विराट की नाट्यशाला अंत:पुर की कन्याओं के नृत्य एवं संगीत सीखने में काम आती थी | 

वहां दिन में कन्याएं गान - विद्या का अभ्यास करती थीं, किंतु रात्रि में वह सूनी रहती थी | 

कन्याओं के विश्राम के लिए उसमें एक पलंग पड़ा था, रात्रि का अंधकार हो जाने पर भीमसेन चुपचाप आकर नाट्यशाला के उस पलंग पर सो गए | 

कामांध कीचक सज - धजकर वहां आया और अंधेरे में पलंग पर बैठकर, भीमसेन को सैरंध्री समझकर उसके ऊपर उसने हाथ रखा | 

उछलकर भीमसेन ने उसे नीचे पटक दिया और वे उस दुरात्मा की छाती पर चढ़ बैठे |

कीचक बहुत बलवान था | 

भीमसेन से वह भिड़ गया | 

दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा, किंतु भीमसेन ने उसे शीघ्र ही पछाड़ दिया और उसका गला घोंटकर उसे मार डाला | 

फिर उसका मस्तक तथा हाथ - पैर इतने जोर से दबा दिए कि सब धड़ के भीतर घुस गए | 

कीचक का शरीर एक डरावना लोथड़ा बन गया |

प्रात:काल सैरंध्री ने ही लोगों को दिखाया कि उसका अपमान करने वाला कीचक किस दुर्दशा को प्राप्त हुआ | 

परंतु कीचक के एक सौ पांच भाइयों ने सैरंध्री को पकड़कर बांध लिया | 

वे उसे कीचक के शव के साथ चिता में जला देने के उद्देश्य से श्मशान ले गए | 

सैरंध्री क्रंदन करती जा रही थी | 

उसका विलाप सुनकर भीमसेन नगर का परकोटा कूदकर श्मशान पहुंचे | 

उन्होंने एक वृक्ष उखाड़कर कंधे पर रख लिया और उसी से कीचक के सभी भाइयों को यमलोक भेज दिया | 

सैरंध्री के बंधन उन्होंने काट दिए |

अपनी कामासक्ति के कारण दुरात्मा कीचक मारा गया और पापी भाई का पक्ष लेने के कारण उसके एक सौ पांच भाई भी बुरी मौत मारे गए |
  || जय श्री कृष्णा ||
 
कर्ण के जीवन के तीन सबसे बड़े श्राप जिसने बदल दी महाभारत की दिशा!

कर्ण,महाभारत के सबसे वीर और दानवीर योद्धाओं में से एक थे। 

लेकिन उनके जीवन में कई कठिनाइयाँ और शाप भी थे, जिन्होंने उनकी नियति को बदल दिया। 

कर्ण को मिले तीन प्रमुख शापों ने महाभारत के युद्ध में उनकी हार का मार्ग प्रशस्त किया। 

आइए जानते हैं इन शापों के बारे में विस्तार से।

(1) - पृथ्वी माता का शाप
       
एक बार कर्ण यात्रा कर रहे थे, तभी उन्होंने रास्ते में एक कन्या को रोते हुए देखा। 

जब उन्होंने कारण पूछा, तो कन्या ने बताया कि उसका घी जमीन पर गिर गया है और यदि वह घी लेकर घर नहीं गई, तो उसकी सौतेली मां उसे दंड देगी। 

यह सुनकर कर्ण को दया आ गई। 

उन्होंने उस स्थान की मिट्टी को मुट्ठी में भरकर निचोड़ना शुरू किया ताकि घी वापस निकल आए।

लेकिन यह देख पृथ्वी माता को अत्यंत कष्ट हुआ। 

उन्हें लगा कि कर्ण जबरदस्ती उनके तत्व को निचोड़ रहे हैं। 

इस लिए उन्होंने क्रोधित होकर कर्ण को शाप दिया—

" जब तुम्हारा जीवन सबसे कठिन समय में होगा, जब तुम्हें सबसे अधिक मेरी आवश्यकता होगी, तब मैं तुम्हारा साथ नहीं दूँगी और तुम्हारे रथ का पहिया धरती में धंस जाएगा।

यह शाप आगे चलकर कर्ण के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ। 

महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन से उनका सामना हुआ, तब उनका रथ सच में धरती में धंस गया और वे असहाय हो गए। "

(2) -  गुरु परशुराम का शाप
     
कर्ण एक सूत पुत्र थे,लेकिन वे शस्त्र विद्या में निपुण बनना चाहते थे। 

उन्होंने परशुराम से शिक्षा प्राप्त करने की ठानी, लेकिन समस्या यह थी कि परशुराम केवल क्षत्रियों को ही शस्त्र विद्या सिखाते थे। 

इस लिए कर्ण ने झूठ बोलकर स्वयं को ब्राह्मण बताया और उनसे दिव्य अस्त्र - शस्त्रों की शिक्षा ले ली।

एक दिन जब परशुराम विश्राम कर रहे थे, तब कर्ण उनकी गोद में बैठकर उनकी सेवा कर रहे थे। 

तभी एक कीड़ा आकर कर्ण की जांघ पर काटने लगा, लेकिन कर्ण ने बिना हिले - डुले उस कष्ट को सहन किया ताकि उनके गुरु की नींद न टूटे। 

जब परशुराम की नींद खुली, तो उन्होंने देखा कि कर्ण की जांघ से रक्त बह रहा है। 

यह देखकर वे चौंक गए और समझ गए कि कोई ब्राह्मण इतना कष्ट सहन नहीं कर सकता।

तभी उन्हें कर्ण के झूठ का पता चला, जिससे वे अत्यंत क्रोधित हो गए। 

उन्होंने कर्ण को शाप दिया—

" जिस दिन तुम्हें अपने शस्त्रों और विद्या की सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उसी दिन तुम अपनी सारी विद्या भूल जाओगे। "

महाभारत युद्ध में यह शाप सत्य सिद्ध हुआ। 

जब अर्जुन के साथ युद्ध के दौरान कर्ण को ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना था, तब वे इसे भूल गए और असहाय हो गए।

(3) - ब्राह्मण का शाप
     
" एक दिन कर्ण शब्दभेदी बाण का अभ्यास कर रहे थे।

अभ्यास के दौरान उन्होंने अनजाने में एक गाय का वध कर दिया। 

यह गाय एक ब्राह्मण की थी। 

जब ब्राह्मण को इस बात का पता चला, तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ और कर्ण को शाप दिया—

जैसे मेरी निर्दोष गाय को बिना कारण मार दिया गया, वैसे ही एक दिन तुम भी युद्धभूमि में असहाय होकर मारे जाओगे। "

महाभारत के युद्ध में यह शाप भी सच हुआ। 

जब कर्ण का रथ धरती में धंस गया और वे अपने शस्त्र भूल गए, तब वे पूरी तरह असहाय हो गए। 

तभी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के आदेश पर उन पर प्रहार किया और उनकी मृत्यु हो गई।

कर्ण की वीरता और दानशीलता के बावजूद, उनके जीवन के तीन बड़े शापों ने उनकी हार सुनिश्चित कर दी। 

महाभारत में यह दिखाया गया कि कैसे भाग्य, शाप और कर्म का गहरा प्रभाव पड़ता है। 

यदि कर्ण को ये शाप न मिले होते, तो शायद महाभारत का परिणाम कुछ और ही होता। 

कर्ण का जीवन हमें यह सिखाता है कि सत्य से बढ़कर कुछ नहीं होता, और छल - कपट से मिली सफलता अंततः विनाश का कारण बनती है।

        || महाभारत की कथा का सार ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

तमिल / द्रावीण ब्राह्मण

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