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जय द्वारकाधीश
।। श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद भागवत कथा के अनुसार वैशाख मास का महत्व माहत्म का सुंदर उल्लेख बताए गए हैं।।
श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद भागवत कथा के अनुसार वैशाख मास का महत्व माहत्म का सुंदर उल्लेख बताए गए हैं।
इस अध्याय में:-
( भगवत् कथा के श्रवण और कीर्तन का महत्त्व तथा वैशाख मास के धर्मों के अनुष्ठान से राजा पुरुयशा का संकट से )
श्री वैशाख मास-माहात्म्य अध्याय - 06
श्रुतदेव बोले-
मेष राशि में सूर्य के स्थित रहने पर जो वैशाख मास में प्रात:काल स्नान करता है।
और भगवान् विष्णु की पूजा करके इस कथा को सुनता है
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वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के परम धाम को प्राप्त होता है।
इस विषय में एक प्राचीन इतिहास कहते हैं।
जो सब पापों का नाशक, पवित्रकारक, धर्मानुकूल, वन्दनीय और पुरातन है।
गोदावरी के तट पर शुभ ब्रह्मेश्वर क्षेत्र में महर्षि दुर्वासा के दो शिष्य रहते थे।
जो परमहंस, ब्रह्मनिष्ठ, उपनिषद्विद्या में परिनिष्ठित और इच्छारहित थे।
वे भिक्षामात्र भोजन करते और पुण्यमय जीवन बिताते हुए गुफा में निवास करते थे।
उनमें से एक का नाम था सत्यनिष्ठ और दूसरेका तपोनिष्ठ।
वे इन्हीं नामों से तीनों लोकों में विख्यात थे।
सत्यनिष्ठ सदा भगवान् विष्णु की कथा में तत्पर रहते थे।
जब कोई श्रोता अथवा वक्ता न होता।
तब वे अपने नित्यकर्म किया करते थे यदि कोई श्रोता उपस्थित होता तो उसे निरन्तर वे भगवत् कथा सुनते और यदि कोई कथावाचक भगवान् विष्णु की कल्याणमयी पवित्र कथा कहता तो वे अपने सब कर्मोको समेटकर श्रवण में तत्पर हो उस कथा को सुनने लगते थे।
वे अत्यन्त दूर के तीर्थों और देवमन्दिरों को छोड़ कर तथा कथा विरोधी कर्मो का परित्याग करके भगवान् की दिव्य कथा सुनते और श्रोताओं को स्वयं भी सुनाते थे कथा समाप्त होने पर सत्यनिष्ठ अपना शेष कार्य पूरा करते थे।
कथा सुनने वाले पुरुष को जन्म - मृत्युमय संसार बन्धन की प्राप्ति नहीं होती।
उसके अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
भगवान् विष्णु में जो अनुराग की कमी है, वह दूर हो जाती है और उनके प्रति गाढ़ अनुराग होता है।
साथ ही साधु पुरुषों के प्रति सौहार्द बढ़ता है।
रजोगुण रहित गुणातीत परमात्मा शीघ्र ही हृदय में स्थित हो जाते हैं।
श्रवण से ज्ञान पाकर मनुष्य भगवच्चिन्तन में समर्थ होता है।
श्रवण, ध्यान और मनन- यह वेदों में अनेक प्रकार से बताया गया है।
जहाँ भगवान् विष्णु की कथा न होती हो और जहाँ साधु पुरुष न रहते हों।
वह स्थान साक्षात् गंगातट ही क्यों न हो।
नि:सन्देह त्याग देने योग्य है।
जिस देश में तुलसी नहीं हैं।
अथवा भगवान् विष्णु का मन्दिर नहीं है।
ऐसा स्थान निवास करने योग्य नहीं है।
यह निश्चय करके मुनिवर सत्यनिष्ठ सदा भगवान् विष्णु की कथा और चिन्तन में संलग्न रहते थे।
दुर्वासा का दूसरा शिष्य तपोनिष्ठ दुराग्रह पूर्वक कर्म में तत्पर रहता था।
वह भगवान् की कथा छोड़कर अपना कर्म पूरा करनेके लिये इधर-उधर हट जाता था।
कथा की अवहेलना से उसे बड़ा कष्ट उठाना पड़ा।
अन्ततोगत्वा कथापरायण सत्यनिष्ठ ने ही उसका संकट से उद्धार किया।
जहाँ लोगों के पाप का नाश करने वाली भगवान् विष्णु की पवित्र कथा होती है।
वहाँ सब तीर्थ और अनेक प्रकार के क्षेत्र स्थित रहते हैं।
जहाँ विष्णु-कथारूपी पुण्यमयी नदी बहती रहती है।
उस देश में निवास करने वालों की मुक्ति उनके हाथ में ही है।
पूर्व काल में पांचाल देश में पुरुयशा नामक एक राजा थे।
जो पुण्यशील एवं बुद्धिमान् राजा भूरियशा के पुत्र थे।
पिता के मरने पर पुरुयशा राज्यसिंहासन पर बैठे।
वे धर्म की अभिलाषा रखने वाले, शूरता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न और धनुर्वेद में प्रवीण थे।
उन महामति नरेश ने अपने धर्म के अनुसार पृथ्वी का पालन किया।
कुछ काल के पश्चात् राजा का धन नष्ट हो गया।
हाथी और घोड़े बड़े-बड़े रोगों से पीड़ित होकर मर गये।
उनके राज्य में ऐसा भारी अकाल पडा, जो मनुष्यों का अत्यन्त विनाश करने वाला था।
पांचाल नरेश राजा पुरुयशा को निर्बल जानकर उनके शत्रुओं ने आक्रमण किया और युद्ध में उनको जीत लिया।
तदनन्तर पराजित हुए राजा ने अपनी पत्नी शिखिणी के साथ पर्वत की कन्दरा में प्रवेश किया।
साथ में दासी आदि सेवकगण भी थे।
इस प्रकार छिपे रहकर राजा मन - ही - मन विचार करने लगे कि मेरी यह क्या अवस्था हो गयी।
मैं जन्म और कर्म से शुद्ध हूँ।
माता और पिता के हित में तत्पर रहा हूँ।
गुरुभक्त, उदार, ब्राह्मणों का सेवक, धर्मपरायण, सब प्राणियों के प्रति दयालु, देवपूजक और जितेन्द्रिय भी हूँ।
फिर किस कर्म से मुझे यह विशेष दु:ख देने वाली दरिद्रता प्राप्त हुई है?
किस कर्म से मेरी पराजय हुई और किस कर्म के फलस्वरूप मुझे यह वनवास मिला है?
इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल होकर राजा ने खिन्न चित्त से अपने सर्वज्ञ गुरु मुनिश्रेष्ठ याज और उपयाज का स्मरण किया।
राजा के आवाहन करने पर दोनों बुद्धिमान् मुनीश्वर वहाँ आये।
उन्हें देखकर पांचालप्रिय नरेश सहसा उठकर खड़े हो गये और बड़ी भक्ति के साथ गुरु के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया।
फिर वन में पैदा होने वाली शुभ सामग्रियों के द्वारा उन्होंने उन दोनों का पूजन किया और विनीत भाव से पूछा-
'विप्रवरो!
मैं गुरुचरणों में भक्ति रखने वाला हूँ।
मुझे किस कर्म से यह दरिद्रता, कोष हानि और शत्रुओं से पराजय प्राप्त हुई है?
किस कारण से मेरा वनवास हुआ और मुझे अकेले रहना पड़ा?
मेरे न कोई पुत्र है, न भाई है और न हितकारी मित्र ही हैं मेरे द्वारा सुरक्षित राज्य में यह बड़ा भारी अकाल कैसे पड़ गया?
ये सब बातें विस्तार पूर्वक मुझे बताइये।'
राजा के इस प्रकार पूछने पर वे दोनों मुनिश्रेष्ठ कुछ देर ध्यानमग्न हो इस प्रकार बोले-
राजन्!
तुम पहले के दस जन्मों तक महापापी व्याध रहे हो।
तुम सब लोगों के प्रति क्रूर और हिंसापरायण थे।
तुमने कभी लेशमात्र भी धर्म का अनुष्ठान नहीं किया।
इन्द्रियसंयम तथा मनोनिग्रह का तुम में सर्वथा अभाव था।
तुम्हारी जिह्वा किसी प्रकार भगवान् विष्णु के नाम नहीं लेती थी।
तुम्हारा चित्त गोविन्द के चारु चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता था और तुमने कभी मस्तक नवाकर परमात्मा को प्रणाम नहीं किया।
इस प्रकार दुरात्मा व्याध का जीवन व्यतीत करते हुए तुम्हारे नौ जन्म पूरे हो गये दसवाँ जन्म प्राप्त होने पर तुम सह्य पर्वतपर पुन: व्याध हुए।
वहाँ सब लोगों के प्रति क्रूरता करना ही तुम्हारा स्वभाव था।
तुम मनुष्योंके लिये यमके समान थे।
दयाहीन, शस्त्रजीवी और हिंसापरायण थे।
अपनी स्त्री के साथ रहते हुए राह चलने वाले पथिकों को तुम बड़ा कष्ट दिया करते थे बड़े भारी शठ थे।
इस प्रकार अपने हित को न जानते हुए तुमने बहुत वर्ष व्यतीत किये।
जिनके छोटे-छोटे बच्चे हैं, ऐसे मृगों और पक्षियों के वध करने के कारण तुम दयाहीन दुर्बुद्धि को इस जन्म में कोई पुत्र नहीं प्राप्त हुआ।
तुमने सबके साथ विश्वासघात किया।
इस लिये तुम्हारे कोई सहोदर भाई नहीं हुआ।
मार्ग में सबको पीड़ा देते रहे।
इस लिये इस जन्म में तुम मित्र रहित हो।
साधु पुरुषों के तिरस्कार से शत्रुओं द्वारा तुम्हारी पराजय हुई है।
कभी दान न देने के दोष से तुम्हारे घर में दरिद्रता प्राप्त हुई है।
तुमने दूसरों को सदा उद्वेग में डाला।
इस लिये तुम्हें दुःसह वनवास मिला।
सबके अप्रिय होने के कारण तुम्हें असह्य दु:ख मिला है।
तुम्हारे क्रूर कर्मो के फल से ही इस जन्म में मिला हुआ राज्य भी छिन गया है।
वैशाख मास की गरमी में तुमने स्वार्थवश एक दिन एक ऋषि को दूर से तालाब बता दिया था और हवा के लिये पलाश का एक सूखा पत्ता दे दिया था।
बस, जीवन में इस एक ही पुण्य के कारण तुम्हारा यह जन्म परम पवित्र राजवंश में हुआ है।
अब यदि तुम सुख, राज्य, धन-धान्यादि सम्पत्ति, स्वर्ग और मोक्ष चाहते हो अथवा सायुज्य एवं श्रीहरि के पद की अभिलाषा रखते हो तो वैशाख मास के धर्मो का पालन करो।
इससे सब प्रकार के सुख पाओगे।
इस समय वैशाख मास चल रहा है।
आज अक्षय तृतीया है।
आज तुम विधि - पूर्वक स्नान और भगवान् लक्ष्मीपति की पूजा करो।
यदि अपने समान ही गुणवान् पुत्रों की अभिलाषा करते हो तो सब प्राणियों के हित के लिये प्याऊ लगाओ।
इस पवित्र वैशाख मास में भगवान् मधुसूदन की प्रसन्नता के लिये यदि तुम निष्काम भाव से धर्मो का अनुष्ठान करोगे।
तो अन्त:करण शुद्ध होने पर तुम्हें भगवान् विष्णु का प्रत्यक्ष दर्शन होगा।
यों कहकर राजा की अनुमति ले उनके दोनों ब्राह्मण पुरोहित याज और उपयाज जैसे आये थे।
वैसे ही चले गये उनसे उपदेश पाकर महाराज पुरुयशा ने वैशाख मास के सम्पूर्ण धर्मो का श्रद्धापूर्वक पालन किया और भगवान् मधुसूदन की आराधना की।
इससे उनका प्रभाव बढ़ गया तथा बन्धु-बान्धव उनसे आकर मिल गये।
तत्पश्चात् वे मरने से बची हुई सेना को साथ ले बन्धुओं सहित पांचाल नगरी के समीप आये।
उस समय पांचाल राजा के साथ राजाओं का पुन: संग्राम हुआ।
महारथी पुरुषशा ने अकेले ही समस्त महाबाहु राजाओं पर विजय पायी।
विरोधी राजाओं ने भागकर विभिन्न देशों के मार्गो का आश्रय लिया।
विजयी पांचालराज ने भागे हुए राजाओं के कोष, दस करोड़ घोड़े, तीन करोड़ हाथी, एक अरब रथ, दस हजार ऊँट और तीन लाख खच्चरों को अपने अधिकार में करके अपनी पुरी में पहुँचा दिया।
वैशाख धर्म के माहात्म्य से सब राजा भग्नमनोरथ हो पुरुयशा को कर देने वाले हो गये और पांचाल देश में अनुपम सुकाल आ गया।
भगवान् विष्णु की प्रसन्नता से इस वसुधा पर उनका एकछत्र राज्य हुआ और गुरुता, उदारता आदि गुणों से युक्त उनके पाँच पुत्र हुए।
जो धृष्टकीर्ति, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्न, विजय और चित्रकेतु के नाम से प्रसिद्ध थे।
धर्म पूर्वक प्रतिपालित होकर समस्त प्रजा राजा के प्रति अनुरक्त हो गयी।
इससे उसी क्षण उन्हें वैशाख मास के प्रभाव का निश्चय हो गया।
तब से पांचालराज भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये वैशाख मास के धर्मो का निष्काम भाव से बराबर पालन करने लगे।
उनके इस धर्म से सन्तुष्ट होकर भगवान् विष्णु ने अक्षय तृतीया के दिन उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया।
"जय जय श्री हरि हरि"
जय श्री कृष्ण ...!
जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है:
जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है ।
उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना उचित नहीं है।
और जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा नहीं करना चाहिए।
🌼अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना यह पूरी तरह पागलपन होता है।
प्रेम ही ऐसा हथियार है जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है।
प्रेम की विजय ही सच्ची विजय है।
🌼आज प्रत्येक घर में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है ।
उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव।
आग को आग नहीं बुझाती, पानी बुझाता है।
प्रेम से दुनियां को तो क्या दुनियां बनाने वाले तक को जीता जा सकता है।
पशु -पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं।
प्रेम बाटों, इसकी खुशबू कभी ख़तम नहीं होती ।
जय श्री कृष्ण !
जय श्री राधे कृष्ण !!
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏



जय श्री कृष्ण
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