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जय द्वारकाधीश
।। श्रीमदशिवमहापुराण प्रवचन ।।
अर्धनारीश्वर अवतार की कथा , नवनाथ पंथ में त्रिदेवों ओर माता सती अनसूयाजी की कथा वर्णन
अर्धनारीश्वर अवतार की कथा
शीश गंग अर्धंग पार्वती
नंदी भृंगी नृत्य करत है”
शिव स्तुति में आये इस भृंगी नाम को आप सब ने जरुर ही सुना होगा।
पौराणिक कथाओं के अनुसार ये एक ऋषि थे ।
जो महादेव के परम भक्त थे किन्तु इनकी भक्ति कुछ ज्यादा ही कट्टर किस्म की थी।
कट्टर से तात्पर्य है कि ये भगवान शिव की तो आराधना करते थे ।
किन्तु बाकि भक्तो की भांति माता पार्वती को नहीं पूजते थे।
उनकी भक्ति पवित्र और अदम्य थी ।
लेकिन वो माता पार्वती जी को हमेशा ही शिव से अलग समझते थे ।
या फिर ऐसा भी कह सकते है ।
कि वो माता को कुछ समझते ही नही थे।
वैसे ये कोई उनका घमंड नही अपितु शिव और केवल शिव में आसक्ति थी ।
जिसमे उन्हें शिव के आलावा कुछ और नजर ही नही आता था।
एक बार तो ऐसा हुआ की वो कैलाश पर भगवान शिव की परिक्रमा करने गए ।
लेकिन वो पार्वती की परिक्रमा नही करना चाहते थे।
ऋषि के इस कृत्य पर माता पार्वती ने ऐतराज प्रकट किया और कहा कि हम दो जिस्म एक जान है ।
तुम ऐसा नही कर सकते।
पर शिव भक्ति की कट्टरता देखिये भृंगी ऋषि ने पार्वती जी को अनसुना कर दिया ।
और भगवान शिव की परिक्रमा लगाने बढे।
किन्तु ऐसा देखकर माता पार्वती शिव से सट कर बैठ गई।
इस किस्से में और नया मोड़ तब आता है ।
जब भृंगी ने सर्प का रूप धरा और दोनों के बीच से होते हुए शिव की परिक्रमा देनी चाही।
तब भगवान शिव ने माता पार्वती का साथ दिया और संसार में महादेव के अर्धनारीश्वर रूप का जन्म हुआ।
अब भृंगी ऋषि क्या करते किन्तु गुस्से में आकर उन्होंने चूहे का रूप धारण किया और शिव और पार्वती को बीच से कुतरने लगे।
ऋषि के इस कृत्य पर आदिशक्ति को क्रोध आया ।
वही और उन्होंने भृंगी ऋषि को श्राप दिया कि जो शरीर तुम्हे अपनी माँ से मिला है ।
वो तत्काल प्रभाव से तुम्हारी देह छोड़ देगा।
हमारी तंत्र साधना कहती है ।
कि मनुष्य को अपने शरीर में हड्डिया और मांसपेशिया पिता की देन होती है ।
जबकि खून और मांस माता की देन होते है l
श्राप के तुरंत प्रभाव से भृंगी ऋषि के शरीर से खून और मांस गिर गया।
भृंगी निढाल होकर जमीन पर गिर पड़े और वो खड़े भी होने की भी क्षमता खो चुके थे l
तब उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने माँ पार्वती से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी।
हालाँकि तब पार्वती ने द्रवित हो कर अपना श्राप वापस लेना चाहा ।
किन्तु अपराध बोध से भृंगी ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया l
ऋषि को खड़ा रहने के लिए सहारे स्वरुप एक और ( तीसरा ) पैर प्रदान किया गया जिसके सहारे वो चल और खड़े हो सके तो भक्त भृंगी के कारण ऐसे हुआ था ।
महादेव के अर्धनारीश्वर रूप का उदय।
जय जय परशुरामजी...!!!
1 नवनाथ पंथ कथा 💥
॥ त्रिदेव और सती माता अनुसूईयाजी ॥ - 1
ॐ नमोनमः शिव गोरख योगी ।
*" नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी !
कुछ लोग मानते है कि ' नाग शब्द बिगड़कर नाथ हो गया ।
भारत मे नाथ योगियों की परंपरा बहुत प्राचीन रही है, नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक विभिन्न अंग है ।
नौं (नव) नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुये है ।
नौं नाथों के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद है । "*
भगवान शँकरजी ( भोलेनाथ ) को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाना जाता है, आपने अमरनाथ, केदारनाथ, भैरवनाथ, गोरखनाथ आदि नाम भी सुने होंगे ।
गोगादेव, बाबा रामदेव आदि भी इस परंपरा से थे ।
तिब्बत के भी सिद्ध भी नाथ परम्परा से ही थे ।
" हिन्दू संत धारा "
सभी नाथ साधुओं का मुख्य स्थान हिमालय की गुफाएं है ।
नागाबाबा, नाथबाबा और सभी कमंडल - चिमटा धारण किये हुए, जटाधारी बाबा शैव और शाक्त सम्प्रदाय के अनुयायी है ।
परन्तु भगवान आदिगुरु दत्तात्रेय के काल मे वैष्णव, शैव और शाक्त सम्प्रदायो का समन्वय किया गया था ।
नाथ सम्प्रदाय की एक शाखा ' जैन धर्म ' में दूसरी बौद्ध धर्म मे जाएगी ।
यदि गौर से देखा जाय तो इन्ही के कारण इस्लाम धर्म मे सूफीवाद की शुरुआत हुई ।
" दत्तात्रेय की जीवनी "
हिन्दुधर्म में तीन देव ' भगवान ब्रह्मा विष्णु महेश ' का सबसे उच्च स्थान है भगवान दत्तात्रेय का रूप इन तीनो देवो का एक रूप मिलकर बना है ।
" भगवान दत्तात्रेय सप्तऋषि अत्रि एवयं माता अनुसुइया के पुत्र है ।
भारतवर्ष की सती - साध्वी नारियों में अनसूया जी का स्थान बहुत ऊँचा है ।
इनका जन्म अत्यन्त उच्चकुलमें हुआ था ।
ब्रह्माजी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था ।
अपनी सत्त सेवा तथा प्रेम से इन्होंने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था ।"
भगवान को अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है ।
तो वे नाना प्रकार की लीलाएं करते हैं ।
" श्री लक्ष्मीजी, श्री सतीजी और श्री सरस्वती जी को अपने पातिव्रत्य का बड़ा अभिमान था ।
तीनों देवियों के अंहकार को नष्ट करने के लिये " ;
भगवान ने नारद जी के मन में प्रेरणा की ।
फलत: वे श्री लक्ष्मी जी के पास पहुंचे ।
लक्ष्मी जी ने कहा-
‘आइये, नारद जी !
आप तो बहुत दिनों बाद आये ।
कहिये, क्या हाल है ?
नारद जी बोले-
‘ माता जी !
क्या बताऊं, कुछ बताते नहीं बनता ।
अब की बार मैं घूमता हुआ चित्रकूट की ओर चला गया ।
वहां मैं महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचा ।
माता जी ! मैं तो महर्षि की पत्नी "अनसूया जी " का दर्शन करके कृतार्थ हो गया ।
तीनों लोकों में " उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं " है ।‘
लक्ष्मी जी को यह बात बहुत बुरी लगी ।
उन्होंने पूछा-
' नारद !
क्या वह मुझसे भी बढ़कर पतिव्रता है ?’
नारद जी ने कहा –
‘ माता जी !
आप ही नहीं, तीनों लोकों में कोई भी
" स्त्री सती अनसूया की तुलना में किसी भी गिनती में नहीं है ।"
इसी प्रकार देवर्षि नारद ने सती और सरस्वती और पार्वती के पास जाकर उनके मन में भी सती अनसूया के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जला दी ।
अन्त में " तीनों देवियों से त्रिदेवों से हठ करके उन्हें सती अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए बाध्य कर दिया। "
" ब्रहमा, विष्णु और महेश " तीनो देव महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुंचे ।
तीनों देव मुनि वेष में थे ।
उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम पर नहीं थे ।
अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनसूया ने स्वागत - सत्कार करना चाहा, किंतु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया ।
सती अनसूया ने उनसे पूछा-
‘मुनियों! मुझसे कौन सा अपराध हो गया, जो आप लोग मेरे द्वारा की हुई पूजा को ग्रहण नहीं कर रहें हैं ?’
मुनियों ने कहा-
देवि !
यदि आप बिना वस्त्र के हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगें ।
यह सुनकर सती अनसूया सोच में पड़ गयी ।
उन्होने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया ।
वे बोलीं- "
मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूंगी ।
यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैनें कभी भी काम भाव से किसी पर - पुरूष का चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छह - छह माह के बच्चे बन जायें "।
" पतिव्रता अनुसूयाजी का इतना कहना था कि त्रिदेव छह छह माह के बच्चे बन गये ।
माता ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालने में खेलने के लिए डाल दिया ।"
॥ ॐ नमो नमः श्री त्रिदेवायः ॥
( आगे भाग - 2 पर )
यह भक्ति - वृक्ष इस भौतिक जगत का वृक्ष नहीं है ।
यह आध्यात्मिक जगत में उगता है ।
जहां शरीर के विभिन्न अंगों में अंतर नहीं होता ।
यह एक प्रकार से चीनी के वृक्ष के समान है ।
जिसके किसी भी भाग का आस्वादन किया जाए वह सर्वथा मीठा ही लगेगा ।
भक्ति वृक्ष में अनेक प्रकार की शाखाएं ,पत्तियां और फल होते हैं ।
किंतु वे सब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की सेवा के लिए होते हैं ।
भक्ति की विभिन्न विधियां हैं ----
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनं अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यम आत्मनिवेदनम्*
किंतु ये सभी भगवान की सेवा के निमित्त हैं ।
चाहे कोई श्रवण करें ।
कीर्तन करे ।
स्मरण करे या पूजा करे ।
उसके कृत्यों का एक जैसा ही फल मिलेगा
इनमें से कौन - सी विधि किस भक्त के लिए उचित होगी ,
यह उसकी रुचि पर निर्भर करेगा ।
जय हो प्रभुपाद
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
जय श्री कृष्ण
जय द्वारकाधीश
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 25 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏
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