https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , क्रोध से बचिये , श्रीस्कन्द महापुराण

श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , क्रोध से बचिये , श्रीस्कन्द महापुराण

 श्रीमहाभारतम्  ,  श्री लिंग महापुराण , क्रोध से बचिये , श्रीस्कन्द महापुराण  


श्रीमहाभारतम् 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


(आस्तीकपर्व)


त्रयोदशोऽध्यायः


जरत्कारु का अपने पितरों के अनुरोध से विवाह के लिये उद्यत होना...!


शौनक उवाच




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किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः । 

सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ।। १ ।। 

निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः । 

आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ।। २ ।। 

मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः । 

कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ।। ३ ।। 

स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे ।


शौनकजीने पूछा-सूतजी ! 

राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये सर्पसत्रद्वारा सर्पोंका अन्त किया? 

यह प्रसंग मुझसे कहिये। 

सूतनन्दन ! 

इस विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। 

जप - यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? 

तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? 

यह मुझे बताइये ।। १ -३३ ।।


सौतिरुवाच


महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ।। ४ ।। 

सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर ।


उग्रश्रवाजीने कहा- ब्रह्मन् ! 

आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है। 

वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! 

यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो ।। ४३ ।।


शौनक उवाच


श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ।। ५ ।।


आस्तीकस्य पुराणर्षेर्बाह्मणस्य यशस्विनः ।


शौनकजीने कहा- सूतनन्दन ! 

पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ५३ ।।


सौतिरुवाच


इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ।। ६ ।। 

कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु । 

पूर्व प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ।। ७ ।। 

शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् । 

तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ।। ८ ।।


उग्रश्रवाजीने कहा- 

शौनकजी! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना बताते हैं। 

पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन ( व्यास ) के कहे हुए इस इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था। 

उन्हींके मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ।। ६-८ ।।


इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते । 

कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ।। ९ ।।


शौनकजी ! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है। 

आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा - पूरा वर्णन कर रहा हूँ ।। ९ ।।


आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः । 

ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ।। १० ।।


आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। 

ब्रह्मचारी होनेके साथ ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। 

वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहते थे ।। १० ।।


जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरता महातपाः । 

स यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ।। ११ ।।  

कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः । 

चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ।। १२ ।।


उनका नाम था जरत्कारु। 

वे ऊध्र्वरता और महान् ऋषि थे। 

यायावरों में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। 

वे धर्मके ज्ञाता थे। 

एक समय तपोबलसे सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की। 

वे मुनि - वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे ।। ११-१२ ।।


तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः । 

चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ।। १३ ।।


वे सब तीर्थोंमें स्नान करते हुए घूमते थे। 

उन महातेजस्वी मुनिने कठोर व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी ।। १३ ।।


क्रमशः...




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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


पंचाक्षर महात्म्य वर्णन....!

    

इस मन्त्र का वामदेव ऋषि पंक्ति छन्द, देवता साक्षात् मैं ही शिव हूँ, नकारादि पाँच बीज पंच भूतात्मक हैं। 

सर्वव्यापी अव्यय ( ॐ ) प्रणव उसकी आत्मा में हैं। 

हे देवि ! तुम इसकी शक्ति हो।


इस मन्त्र के द्वारा बताये गए विधि पूर्वक न्यास आदि भी करने चाहिए। 

हे शुभे ! इसके बाद मैं तुमसे मन्त्र का ग्रहण करना कहता हूँ।


सत्य परायण, ध्यान परायण गुरु को प्राप्त करके शुद्ध भाव से मन, वाणी और कर्म के द्वारा तथा अनेकों द्रव्यों द्वारा आचार्य ( गुरु ) को सन्तुष्ट करके विधि पूर्वक गुरु मुख से मन्त्र ग्रहण करना चाहिए। 

शुचि स्थान में, अच्छे ग्रह में, अच्छे काल में तथा नक्षत्र में तथा श्रेष्ठ योग में मन्त्र ग्रहण करना चाहिए। 

गृह में मन्त्र जपना समान जानना चाहिए। 

गौ के खिरक में सौ गुना और शिवजी के पास में अनन्त गुना मन्त्र का फल होता है।


जप यज्ञ से सौ गुना उपाँशु जप का होता है। 

जो मन्त्र वाणी से उच्चारण किया जाता है वह वाचिक कहा जाता है। 

जो धीरे - धीरे ओठों को कुछ हिलाते हुए जप किया जाता है उसे उपाँशु कहते हैं। 


केवल मन बुद्धि के द्वारा जप किया जाए और शब्दार्थ का, चिन्तन किया जाए वह मानसिक जप होता है। 

तीनों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। 


जप यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं। वे विपुल भोगों को तथा मोक्ष को देते हैं, जप से जन्मान्तरों के पाप क्षय होते हैं, मृत्यु को भी जीत लिया जाता है। 

जप से सिद्धि प्राप्त होती है परन्तु सदाचारी पुरुष को सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं दुराचारी को नहीं, क्योंकि उसका साधन निष्फल है। 

अतः आचार ही परम धर्म है। 

आचार ही परम तप है तथा आचार ही परम विद्या है। 

आचार से ही परम गति है। 

आचारवान पुरुष ही सब फलों को पाता है तथा आचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है। 

इस लिये सिद्धि की इच्छा वाले पुरुष को सब प्रकार से आचारवान होना चाहिए।


संन्ध्योपासना करने वाले पुरुष को सब कार्य तथा फल प्राप्त होते हैं। 

अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह किसी प्रकार से भी संध्या को नहीं त्यागना चाहिए। 

संध्या न करने से ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से नष्ट होता है। 

असत्य भाषण नहीं करना चाहिये। 

पर दारा, पर द्रव्य, पर हिंसा मन वाणी से भी नहीं करनी चाहिए। 

शूद्रान्न, बासा अन्न, गणान्न तथा राजान्न का सदा त्याग करना चाहिए। 

अन्न का परिशोधन अवश्य चाहिए।


बिना स्नान किये, बिना जप किये हुए, अग्नि कार्य न किए हुए भोजन न करें। 

रात्रि में तथा बिना दीपक के तथा पर्णपृष्ठ पर फूटे पात्र में तथा गली में, पतितों के पास भोजन नहीं करना चाहिए। 

शूद्र का शेष तथा बालकों के साथ भोजन न करे। 

शुद्धान्न तथा सुसंस्कृत भोजन का एकाग्र चित्त से भोजन करना चाहिए। 

शिव इसके भोक्ता हैं ऐसा ध्यान करना चाहिए। मुंह से, खड़ा होकर, बायें हाथ से, दूसरे के हाथ से जल नहीं पीना चाहिए। 

अकेला मार्ग में न चले, बाहुओं से नदी को पार न करे, कुआं को न लांघे, पीठ पीछे गुरु या देवता अथवा सूर्य को करके जप आदिक न करे।


अग्नि में पैरों को न तपावे, अग्नि में मल का त्याग न करे। जल में पैरों को न पीटे, जल में नाक, थूक आदि मल का त्याग न करे।


अज, स्वान, खर, ऊँट, मार्जार तथा तुष की धूलि का स्पर्श न करे। 

जिसके घर में बिल्ली रहती है वह अन्त्यज के घर के समान है। 

उस घर में ब्राह्मणों को भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह चाण्डाल के समान है।


पाद की हवा, सूप की हवा, प्राण और मुख की हवा मनुष्य के सुकृत का हरण करती है अतः इनसे सदा बचना चाहिए। 

पाग बाँध करके, कंचुकी बाँधकर, केश खोलकर, नंगे होकर, अपवित्र हाथों से, मैल धारण किये हुए जप नहीं करना चाहिए। 

क्रोध, मद, जंभाई लेना, थूकना, प्रलाप, कुत्ता का या नीच का दर्शन, नींद आना ये जप के द्वेषी हैं। 

इनके हो जाने पर सूर्य का दर्शन करना चाहिए तथा आचमन, प्राणायाम करके शेष जप करना चाहिए। 

बिना आसन पर बैठकर, सोकर, खाट पर बैठकर जप न करना चाहिए।


आसन पर बैठकर, रेशमी वस्त्र या बाघ चर्म या लकड़ी का या ताल पर्ण का आसन पर बैठकर मंत्रार्थ का विचार करते हुए जप करना चाहिए। 

त्रिकाल गुरु की पूजा करनी चाहिए। गुरु और शिव एक ही हैं। शिव विद्या और गुरु भक्ति के अनुसार फल मिलता है। 

श्री की इच्छा वाले पुरुष को गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। 

गुरु के सम्पर्क से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं। 

गुरु के सन्तुष्ट होने पर सब पाप नष्ट होते हैं। 

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि सभी देव गुरु की कृपा से ही उस पर सन्तुष्ट होते हैं। 

अतः कर्म, मन, वाणी से गुरु को क्रोध नहीं करना चाहिए। 

गुरु के क्रोध से आयु, ज्ञान, क्रिया सब नष्ट होते हैं। 

उसके यज्ञ निष्फल होते हैं।


शिवजी कहते हैं जो इन्द्रियों का दमन करके पंचाक्षर मन्त्र का जप करता है वह पंच भूतों से विजय को प्राप्त करता है। 

मन का संयम करके जो चार लाख जप करता है वह सभी इन्द्रियों को विजय कर लेता है। 

जो पच्चीस लाख जप करता है वह पच्चीस तत्वों को जीत लेता है। 


बीज सहित संपुट सहित सौ लाख जप करने वाला पवित्र आत्मा परम गति को प्राप्त होकर मुझे पाता है। 

जो इस पंचाक्षर विधि को देव या पितृ कार्य में ब्राह्मणों से सुनेगा या सुनायेगा वह परम गति को प्राप्त होगा।


क्रमशः शेष अगले अंक में...




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    क्रोध से बचिये


विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से झगड़ा था।

विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। 

बहुत तप उन्होंने किया।

पहले महाराजा थे,फिर साधु हो गये। 

वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे। 

विश्वामित्र कहते थे, "मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किये हैं,मुझे ब्रह्मर्षि कहो।"

वसिष्ठ मानते नहीं थे;कहते थे,"तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है,तुम राजर्षि हो।"

यह क्रोध बहुत बुरी बला है।

सवा करोड़ नहीं,सवा अरब गायत्री का जाप कर लें,एक बार का क्रोध इसके सारे फल को नष्ट कर देता है।

विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे।

क्रोध में उन्होंने सोचा,'मैं इस वसिष्ठ को मार डालूँगा,फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा नहीं।'

ऐसा सोचकर एक छुरा लेकर,वे उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वसिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे।

शिष्य आये; वृक्ष के नीचे बैठ गये। वसिष्ठ आये ; अपने आसन पर विराजमान हो गये। शाम हो गई।

पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चाँद निकल आया।

विश्वामित्र सोच रहे थे,'अभी सब विद्यार्थी चले जाएँगे, अभी वसिष्ठ अकेले रह जायेंगे,अभी मैं नीचे कूदूँगा,एक ही वार में अपने शत्रु का अन्त कर दूँगा।'

तभी एक विद्यार्थी ने नये निकले हुए चाँद की और देखकर कहा,"कितना मधुर चाँद है वह !

कितनी सुन्दरता है !"

वसिष्ठ ने चाँद की और देखा ; बोले, "यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओ।

यह चाँद सुन्दर अवश्य है परन्तु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुन्दर हैं।

यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें।

" विद्यार्थी ने कहा," महाराज ! वे तो आपके शत्रु हैं।

स्थान - स्थान पर आपकी निन्दा करते हैं। 

" वसिष्ठ बोले, " मैं जानता हूँ,मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान् हैं, मुझसे अधिक तप उन्होंने किया है,मुझसे अधिक महान हैं वे,मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।"

वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े।

वे बैठे थे इसलिए कि वसिष्ठ को मार डालें और वसिष्ठ थे कि उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

एकदम वे नीचे कूद पड़े,छुरे को एक ओर फेंक दिया,वसिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले,


" मुझे क्षमा करो ! "

वसिष्ठ प्यार से उन्हें उठाकर बोले,

" उठो ब्रह्मर्षि ! "

विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, " ब्रह्मर्षि ? "

आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा ?

" परन्तु आप तो ये मानते नहीं हैं ? "

वसिष्ठ बोले,"आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। 

महापुरुष !

" तुम्हारे अन्दर जो चाण्डाल ( क्रोध ) था,वह निकल गया।"

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 


श्रीअयोध्या - माहात्म्य


सम्भेदतीर्थ, सीताकुण्ड, गुप्तहरि और चक्रहरि तीर्थ की महिमा...! 


भगवान् शिव बोले- जो संसारसमुद्रसे तारने और गरुड़जीको सुख देनेवाले हैं, घनीभूत मोहान्धकारका निवारण करनेके लिये चन्द्रस्वरूप हैं, उन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है। 

जहाँ ज्ञानमयी मणिकी प्रज्वलित शिखा प्रकाशित होती है तथा जो चित्तमें भगवत्संगरूपी सुधाकी वर्षा करनेवाली चन्द्रिकाके तुल्य है, मानसके उद्यानमें जो प्रवाहित होती है, उस भगवद्भक्तिरूपी मन्दाकिनीकी मैं शरण लेता हूँ। 

वह लीलापूर्वक उत्साहशक्तिको जाग्रत् करनेवाली तथा सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त है। 

सात्त्विक भावोंकी पूर्वकोटि है। 

उसे ही वैष्णवी शक्ति कहते हैं। 

हवासे हिलते हुए कमलदलके पर्वके भीतर रहनेवाले पतनशील जन्तुओंकी भाँति पतनके गर्तमें गिरनेवाले प्राणियोंको स्थिरता देनेवाली एकमात्र श्रीहरिकी स्मृति ही है। 

हृदयकमलकी कलिकाको विकसित करनेवाली ज्ञानरूपी किरणमालाओंसे मण्डित सूर्यस्वरूप आप भगवान्‌को नमस्कार है। 

योगियोंकी एकमात्र गति आप संयमशील श्रीहरिको नमस्कार है। 

तेज और अन्धकार दोनोंसे परे विराजमान आप परमेश्वरको नमस्कार है। 

आप यज्ञस्वरूप, हविष्यके उपभोक्ता तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। 

भगवती सरस्वतीके द्वारा गाये जानेवाले दिव्य सद्‌गुणोंसे विभूषित आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। आप शान्तस्वरूप, धर्मके निधि, क्षेत्रज्ञ एवं अमृतात्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

आप साधकके योगकी प्रतिष्ठा तथा जीवके एकमात्र हेतु हैं, आपको नमस्कार है। 

आप घोरस्वरूप, मायाकी विधि तथा सहस्रों मस्तकवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप योगनिद्रास्वरूप होकर शयन करते और अपने नाभिकमलसे उत्पन्न संसारकी सृष्टि रचते हैं, आपको नमस्कार है। 

आप जलस्वरूप एवं संसारकी स्थितिके कारण हैं, आपको नमस्कार है। 

आपके कार्योद्वारा आपकी शक्तिका अनुमान होता है। आप महाबली, सबके जीवन और परमात्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

समस्त भूतोंके रक्षक और प्राण आप ही हैं, आप ही विश्व तथा उसके स्रष्टा ब्रह्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

आप नृसिंहशरीर धारण करके दर्पयुक्त हो दैत्यका संहार करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप ही सबके पराक्रम हैं। 

आपका हृदय अनन्त है। 

आप सम्पूर्ण संसारके भावको ग्रहण करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप संसारके कारणभूत अज्ञानरूपी घोर अन्धकारका नाश करनेवाले हैं। 

आपका धाम अचिन्त्य है, आपको नमस्कार है। 

आप गूढ़रूपसे स्थित तथा अत्यन्त उद्वेगकारक रुद्र हैं, आपको नमस्कार है। 

आप शान्त हैं, जहाँ समस्त ऊर्मियाँ शान्त हो जाती हैं ऐसे कैवल्यपदको देनेवाले हैं। 

सम्पूर्ण भावपदार्थोंसे परे तथा सर्वमय हैं, आपको नमस्कार है। 

जो नील कमलके समान श्याम हैं और चमकते हुए केसरके समान सुशोभित कौस्तुभमणि धारण करते हैं तथा नेत्रोंके लिये रसायनरूप हैं, ऐसे आप भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ।


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


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