किसे कहते हैं सत्संग ?
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
हे तात!
स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए...!
तो भी वे सब मिलकर ( दूसरे पलड़े पर रखे हुए ) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते...!
जो लव ( क्षण ) मात्र के सत्संग से होता है॥
हमारे देश क पौराणिक और धार्मिक कथा साहित्य बढ़ा समृद्धि शाली हैं...!
ऋषि - मुनियों ने भारतीय ज्ञान...!
नीति,सत्य प्रेम न्याय संयम धर्म तथा उच्च कोटि के नैतिक सिद्धांतों को जनता तक पोहचाने के लिए बढे ही मनो वैज्ञानिक ढंग से अनेक प्रकार की धार्मिक कथाओं की रचना की हैं।
इन में दुष्ट प्रवृत्तियों की हमेशा हार दिखा कर उन्हें छोड़ने की प्रेंडा दी गई हैं....!
इस प्रकार ये कथाएं हमें पाप बुध्धि से छुड़ाती हैं।
हमारी नैतिक बुध्धि को जगाती हैं जिससे मनुष्य सब्य, सुसंस्कृत और पवित्र बनता हैं भगवान की कथा को भव - भेषज, सांसारिक कष्ट पीड़ाओं और पतन से मुक्ति दिलाने वाली ओषधि कहा जाता हैं...!
इस लिए कथा सुनने तथा सत्संग का बोहोत महत्त्व होता हैं।
वेद व्ययास जी ने भगवत की रचना इस लिए की ताकि लोग कथा के दुवारा ईश्वर के आदर्श रूप को समझें और उस को अपना कर जीवन लाभ उठाये।
भगवान की कथा को आधि भौतिक आदि दैविक एवं आधात्मिक तापों को काटने वाली कहा गया हैं यानि इन का प्रभाव मृत्तु के बाद ही नहीं जीवन में भी दिखाई देने लगता हैं....!
सांसारिक सफलताओं से लेकर पार लौकिक उपलब्धियों तक उस की गति बनी रहने से जीवन की दिशा ही बदल जाती हैं।
पाप और पूण्य का सही स्वरूप भगवत गीता से समझ आता हैं...!
इसे अपने हर पापों का छय तथा पुण्यों की वृद्धि की जा सकती हैं...!
व्यक्ति अपने बंधनो को छोड़ने और तोड़ने में सफल हो जाता हैं...!
तथा मुक्ति का अधिकारी बन जाता हैं...!
इस से अलावा कथा सुन ने से जीवन की समसयाओं कुंठाओं विडम्बनाओं का समाधान आसानी से मिल जाता हैं।
आत्मानुशासन पांच में कहा गया हैं की जो बुध्धिमान हो जिस ने समस्त शास्त्रों का रहस्य प्राप्त किया हो लोक मर्यादा जिसके प्रकट हुई हो कांतिमान हो...!
उप शमि हो...!
प्रश्न करने से पहले ही जिसने उत्तर जाना हो...!
बाहूल्यता से प्रश्नों को सहने वाला हो....!
प्रभु हो...!,
दूसरे की तथा दूसरे के द्वारा अपनी निंदारहित गूढ़ से दूसरे के मन को हरने वाला हो गुण निधान हो जिसके वचन स्पष्ट और मधुर हों सभा का ऐसा नायक धर्मकथा कहें।
स्कन्दपुराण में सूतजी कहते हैं-
श्री मद्भागवत का जो श्रवण करता हैं....!
वह अवस्य ही भगवान के दर्शन करता हैं...!
किन्तु कथा का श्रवण, पाठन....!
श्रद्धाभक्ति, आस्था के साथ - साथ विधि पूर्वक होना चाहिए अन्यथा सफल की प्राप्ति नहीं होती।
श्रीमद्भागवत जी में लिखा हैं की जहाँ भगवत कथा की अमृतमयी सरिता नहीं बहती....!
जहाँ उसके कहने वाले भक्त, साधुजन निवास नहीं करते....!
वह चाहें ब्र्म्हलोक ही कियों ना हो...!
उसका उसका सेवन नहीं करना चाहिए।
धर्मिक कथा....!
प्रवचन आदि का महात्म केवल उसके सुनने मात्र तक ही सीमित नहीं हैं...!
बल्कि उन पर स्रद्धपूर्वक मनन....!
चिंतन और आचरण करने में हैं।
श्रद्धा के लिए मात्र जगदिखाने के लिए कथा आदि सुनने का कोई फल नहीं मिलता...!
एक बार किसी भक्त ने नारद ने पूछा-
भगवान की कथा के प्रभाव से लोगों के अंदर भाव और वैराग्य के भव जाग ने और पुष्ट होने चाहिए।
वह क्यों नहीं होते....!
नारद ने कहा-
ब्राम्हण लोग केवल अन्न, धना दि के लोभ वश घर - घर एवं जन - जन को भगवतकथा सुनाने लगे हैं।
इस लिए भगवत का प्रभाव चला गया हैं....!
वीतराग शुकदेवजी के मुहं से राजा परीक्षित ने भगवत पुराण की कथा सुनकर मुक्ति प्राप्त की और स्वर्ग चले गए।
सुकदेव ने परमार्थभाव से कथा कही थी और परीक्षित ने उसे आत्म कलियांड के लिए पूर्ण श्रद्धाभाव से सुनकर आत्मा में उत्तर लिया था इस लिए उन्हें मोछ मिला।
सत्संग के विषय में कहा जाता हैं की भगवान की कथाएँ कहने वाले और सुनने वाले दोनों का ही मन और शरीर दिव्य एवं तेजमय होता चला जाता हैं....!
इसी तरह कथा सुनने से पाप कट जाते है और प्रभु कृपा सुलभ होकर परमांनद की अनुभूति होती हैं।
भय विपत्ति रोग दरिद्रता में सांत्वना उत्साह और प्रेणा की प्राप्ति होती हैं मन और आत्मा की चिकित्साह पुनरुद्धार प्राणसंचार की अद्भुत शक्तियां मिलती हैं...!
विपत्ति में धैर्य....!
आवेस में विवेक व् कलिआण चिंतन में मदत प्राप्त होती हैं।
गणेशमाता दुर्गा या शिवरूपा शिवप्रिया
नारायणी विष्णुमाया पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी।
ब्रह्मादिदेवैर्मुनिभिर्मनुभि: पूजिता स्तुता
सर्वाधिष्ठातृदेवी सा शर्वरूपा सनातनी।।
जो गणेशमाता दुर्गा शिवप्रिया तथा शिवरूपा हैं...!
वे ही विष्णु माया नारायणी हैं तथा पूर्णब्रह्म स्वरूपा हैं।
ब्रह्मादि देवता, मुनि तथा मनुगण सभी उनकी पूजा - स्तुति करते हैं।
वे सबकी अधिष्ठात्री देवी हैं...!
सनातनी हैं तथा शिव स्वरूपा हैं।
वे धर्म, सत्य, पुण्य तथा कीर्तिस्वरूपा हैं;
वे यश, कल्याण,सुख, प्रसन्नता और मोक्ष भी देती हैं तथा शोक, दुख और संकटों का नाश करने वाली हैं।'
मां!
आपको प्रणाम है।
|| जय हो मां विंध्यवासिनी ||
|| ठाकुर जी का प्रथम नाम ||
ठाकुर जी का नाम नीलमणि इस लिए रखा गया था...!
क्योंकि यशोदा मैया ठाकुर जी को "नील मणि" कहकर बुलाती थीं।
"नील" का अर्थ है नीला, और "मणि" का अर्थ है रत्न, जो हृदय को प्रिय होता है...!
यशोदा मैया को ठाकुर जी नीले रंग के रत्न के समान प्रिय थे....!
इस लिए उन्होंने उन्हें " नीलमणि " नाम दिया....!
एक साल तक ठाकुर जी का कोई नामकरण नहीं हुआ था....!
और यशोदा मैया उन्हें " नीलमणि " कहकर ही पुकारती थीं....!
बाद में, गर्गाचार्य जी ने आकर उनका नामकरण किया।
जिस कार्य को करते हुए अन्तरात्मा का समर्थन मिले उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए....!
और जिस कार्य को करने में अन्तरात्मा का समर्थन न हो उसे प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए।
जहां प्रेम होता हैं....!
वही सागर बहता है....!
प्रभू भी वहीं बसते हैं और वहां रिश्ते भी अपने आप ही बन जाते हैं।
ये प्रेम ही तो है जो, हम आपको और आप हमें रोज याद करते हैं।
क्योंकि मनुष्य के जीवन में प्रेम ईश्वरीय देन है अतः प्रेम से बढ़कर कुछ भी नही अच्छे लोगों की परीक्षा कभी न लीजिए....!
क्योंकि वे पारे की तरह होते हैं,जब आप उन पर चोट करते हैं तो वे टूटते नहीं हैं....!
लेकिन फिसल कर चुपचाप आपकी जिंदगी से निकल जाते है।
जीवन में अगर खुश रहना है तो,स्वयं को एक शांत सरोवर की तरह बनाए...!
जिसमें कोई अंगारा भी फेंके तो खुद बख़ुद ठंडा हो जाए!
🙏🌻🙏
🙏🌹 जय श्री कृष्ण🌹🙏
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 🙏🌹 जय श्री कृष्ण🌹🙏
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