https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: सखियों के श्याम वास्तविक मूल्य !

सखियों के श्याम वास्तविक मूल्य !

सखियों के श्याम वास्तविक मूल्य !


 श्रीहरिः


सखियों के श्याम :


(अकथ कथा)


श्यामसुन्दरसे भी नहीं मिलती अब ?'— सब कुछ सुनकर श्रियाने पूछा। 

मैंने 'नहीं' मैं सिर हिला दिया। 


'यह क्या किया तूने, हम सबमें एक तू ही तो सबसे मोटी, गदबदी, नटखट और तीखी-लड़ाकू थी। 

इतने पर भी श्याम सुन्दर से तेरी जाने कैसे पटती थी।


 तेरा अधिकार और हिम्मत देख हम सब चकित थी। 

लड़की होनेपर भी तू हमारे साथ कम ही रहती या तो अकेली खेलती या फिर श्यामसुन्दरके साथ।'


'जब कभी मैं तेरे साथ होती, संकोचके मारे सिर झुकाये खड़ी ही रह जाती। 

तुझसे छीन वे फल या मिठाई मुझे देते और तू दौड़कर मुझसे छीन लेती। 

वे तुझसे रूठकर चल देते, तब तू अपने हाथकी वस्तु मुँहमें डाल उन्हें मनाने के बदले दौड़कर उनकी पीठपर लटक जाती और कानसे मुख लगाकर जाने क्या कहती कि वे खिलखिला पड़ते।'




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उन्हें जाते देख मैं व्याकुल हो जाती । 

तेरी हिम्मत देख आश्चर्यमें डूब जाती और उन्हें प्रसन्न देख प्राण सरस जाते। 

इनकी दी हुई वस्तु तू खा गयी, यह पीड़ा भूलकर मैं प्रसन्न हो जाती कि तू उन्हें लौटा लाई है। 


तू उनकी पीठपर लदी हुई पाँव उछालती हुई कभी गले और कभी कानमें मुख लगा फुर्र करती — 

वे रोमाँचित हो हँसते हुए अपने गलेमें पड़े तेरे दोनों हाथ अपने हाथोंसे पकड़े गिरने से बचाते हुए कहते—

'उतर नीचे, नहीं तो अभी गिरा दूँगा।'


 'उँ हूँ! श्रियाके पास ले चलो।'


'अब श्रियाको चढ़ाओ।' —

मेरे पास उतरकर तू कहती।


तेरी बात सुन मैं संकोचमें गड़ जाती, मेरी दृष्टि उनके लाल-लाल चरणोंपर जाती और संकेतसे तुझे दिखाकर कहती— 

'देख चरण थककर लाल हो गयी है।'


..तू धप्पसे नीचे बैठकर कहती—

'आओ कान्ह जू! अब मैं तुमको उठाकर ले चलती हूँ।'


 'नहीं मुझे कहीं नहीं जाना, मैं यहीं खेलूँगा।' — 

वे वहीं बैठ जाते।


'देखो न तुम्हारे चरणतल कैसे अरुण हो गये हैं।' 

तू उनका हाथ खींचती— 

'आओ मेरी पीठपर चढ़ो।'


'नहीं इला! मुझे कुछ नहीं हुआ, तू कहे तो अभी तुम दोनोंको उठाकर घरतक पहुँचा सकता हूँ।'


' श्रिया! तू समझा न इस हठीली को।' 

'तुम्हारे चरण ही अरुण नहीं हुए, भालपर भी श्रमबिंदु झलक आये हैं। '— 

मैं कहती।


" आ इला! अपने दोनों इनके पद संवाहन करें।"


तू एकदमसे झपटकर उनका एक पद अपनी गोदमें धर लेती। 

'अहा, केवल अरुण ही नहीं, उष्ण भी हो गये हैं। '— 

कहती हुई कभी उनके चरणोंको कपोलोंसे, होठों, आँखों और हृदयसे लगा लेती। 

मैं मुग्ध-सी तेरे इस मुक्त व्यवहारको देखती रहती।


श्रियाकी बातें सुनते हुए इला के नेत्र मानो निर्झर बन गये, उसने श्रियाकी हथेलियाँ अपने हृदयसे लगा लीं।


"अहा तेरे हाथ कितने शीतल है बहिन! उन चरणोंकी शीतलता, स्पर्शकी राह तेरे हाथों में उतर आयी है ?"


'चल बहिन उसी स्थानपर चलें।' — 

श्रियाने इला का हाथ पकड़ उठाना चाहा।


'क्या करूँगी बहिन! वहाँ जाकर अब न मेरा वह हीरक जटित बचपन रहा— 

न हृदयमें वह उल्लास। 

भीतर शीतल-कठिन दाह सुलग उठा है। 

जाने यह कैसा रोग है बहिन! 

उनके दर्शन - स्पर्शको प्राण तरसते है, पर पद उस ओर उठते नहीं। 

मेरी सारी हिम्मत जाने कहाँ चुक गयी है। 




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एक बार जैसे-तैसे साहस किया भी, तो देखा-तमालसे पीठ टिकाये हाथमें वंशी लिये कान्ह जू खड़े किसीकी प्रतिक्षा कर रहे हैं। 

सम्भवतः वे तेरी प्रतिक्षा कर रहे थे अन्यथा मैं तो सदा उनसे झगड़ती रही। 

मारती–काटती सदा अपनी ही बातपर अड़नेवाली हठीली और वे....!!'– 

इलाकी वाणी रुद्ध हो गयी।


वह स्थिर दृष्टि से यमुनाकी ओर देखते हुए गद्गद कंठसे कहने लगी — 

‘वे सदा मेरी ही रुचि रखते। 

वन से गुंजा, गेरू, पंख, पुष्प और रंग-बिरंगे पाहन लाते — 

इला देख ! 

तेरे लिये क्या लाया हूँ।'


'व्रजमें ऐसा कौन है बहिन! जो उनके हाथसे एक रज कणिका पाकर भी अपनेको धन्य न समझे। 

किंतु मैं अधम; अपनी इच्छित वस्तु न पाकर मुँह फुलाकर चल देती। 

वे दौड़कर सम्मुख आकर कहते—

'यो रूठ मत इला ! 

कह न, तुझे क्या चाहिये, मैं कल अवश्य ले आऊँगा। 

यह सब मुझे अच्छा लगा इस लिये ले आया।'




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मैंने तो शुक - पिच्छ माँगा था, तुम हंस - पिच्छ क्यों ले आये?'—

मैं रो पड़ती।


'रो मत, तू मत रो! कलकी कौन बात, मैं अभी ला देता हूँ शुक-पिच्छ ।' — 

वे मुझे गोदमें भर लेते। 

व्याकुल होकर कहते— 

'मैं भूल गया री! मैया कहती है मैं बड़ा भोला हूँ, इसीसे याद नहीं रहता। 

तू यही ठहर, जाना नहीं तुझे मेरी सौगन्ध ! 

मै अभी शुक –

पिच्छ लेकर आता हूँ।'


वे शुक- पिच्छ ढूंढ़ने चले गये और मैं उनकी लायी वस्तुओंसे खेलने लगी। 

बार-बार लगता — 

इतनी देर हो गयी, कहाँ गये श्याम जू ?' 


'ए इला! देख मिल गया शुक–पिच्छ ।'– 

उन्होंने दूरसे ही पुकारा |


मैं दौड़कर उनसे लिपट गयी, आँखोंमें आँसू भर आये। 

उन्होंने पूछा—

'क्या हुआ तुझे ? देख वह शुक- पिच्छ.... ।'




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 'इतनी दूर क्यों गये इसे ढूंढ़ने! क्यों गये तुम ?'


'दूर कहाँ गया! उस पलाशके नीचे तो मिला मुझे। ले, अच्छा है न?" 


'मुझे यहीं नहीं; तुम्हीं चाहिये !'


'अब यह 'तुम्हीं' क्या है? कलतक ढूंढ़ लाऊँ तो चलेगा? किसीसे पूछना पड़ेगा कि 'तुम्ही' क्या चीज है।' 


चिढ़कर दोनों हाथों की मुट्ठी बाँध उनके वक्षपर रखते हुए बोली— 'तुम, तुम, तुम कान्ह जू चाहिये!'


 'अरे बावरी! मैं तो तेरो ही हूँ।' —वे हँस पड़े।


'नहीं! मैं तुम्हारी हूँ।'


'नहीं! मैं तेरो हूँ।'


बहुधा इस विवादका निर्णय मेरी मैया अनन्दा या बाबा सुवीर करते। 


दोनों एक ही निर्णय देते–'तुम दोनों एक-दूसरेके हो।'


मैं बाबा—मैयासे भी झगड़ती। कहा—

'यदि ऐसा होता, तो हम साथ रहते न! जैसे तुम रहते हो।'


'वह तो ब्याह होनेपर रहोगे बेटी!'– 

बाबा समझाते।


 ‘तो आज—

अभी कर दो हमारा ब्याह ।'–

मैं बाबाका हाथ खींचकर आग्रह करती।


'अभी कैसे हो सकता है भला! ब्याहके लिये बहुत बड़ा आयोजन करना पड़ता है। 

कान्ह जू व्रजराज कुँवर है, व्रजराजकी इच्छा होनेपर ही ब्याह हो पायेगा। 

शाण्डिल्य ऋषि मुहूर्त बतायेंगे— 

बहुत बड़ी देर लगती है इन सब कार्यों में। 

यह सब होगा, तबतक तुम दोनों भी बड़े हो जाओगे।'


'आह! यह बड़ा होना भी कैसा दुःखदायी है। 

कभी मैं बड़ी होनेके लिये उतावली हो उठी थी। 

नित्य बाबा मैयासे, श्याम जू से पूछती — 

आज मैं बड़ी हो गयी न ?'


'तुझे बड़ा होना अच्छा लगता है ?'— 

वे पूछते ।


 'हाँ, फिर हमारा ब्याह होगा न, इसीसे।'


'तू तो झगड़ती है, मैं तुझसे ब्याह नहीं करूँगा।' 


'मैं तो करूँगी! और तुमसे ही ब्याह करूंगी।'


'मैं नहीं करूंगा।'


'तुम चिढ़ाते हो, इसीसे तो झगड़ती हूँ। 

नहीं खिजाओगे तो नहीं लहूँगी। 

और बड़े होनेपर थोड़े ही कोई लड़ता है भला!'



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'अहा, कहाँ गये वे दिन वे रातें, क्या सोचते होंगे वे ?"


 'चल उठ न इला!'— श्रियाने हाथ थामकर उठा दिया।


'वहाँ कोई है श्रिया !"


श्यामसुंदर है ! तेरी प्रतिक्षा कर रहे हैं। चल पगली! खड़ी क्यों रह गयी? 

वे तेरी बाट देखते हैं बहिन!'


'मैं तो महा अपदार्थ हूँ, कैसे अपना मुँह दिखाऊँ उन्हें! तू जा, मैं यहाँ बैठती हूँ।'


श्रियाने मुझे बैठने नहीं दिया, हाथ पकड़कर खींच ले चली। 

हृदयकी अवस्था क्या कहूँ! दर्शन—

स्पर्शको प्राण व्याकुल थे; पर लज्जा—

संकोच, बचपनका दुस्साहस पाँव आगे बढ़ने नहीं देते थे।


मैंने दूरसे ही देखा — 

सन्ध्याके अरुण प्रकाशमें उनकी कैसी शोभा है— 

शीतल सान्ध्य समीरसे पीतपट फहरा रहा है, अलकें बार-बार मुख कमलपर घिर आती हैं। 

गौ-रज मण्डित अलकें-पलकें, फेंटमें बंसी, हाथमें लकुट, सर्वाङ्ग धातुचित्रित, पुष्पाभरण-सज्जित, कुण्डलोंकी आभासे दमकते कपोल, अन्वेषण तत्पर दीर्घदृग! वह सिंह ठवन, विशाल वक्ष, बाहु..... बैरिन चेतना साथ छोड़ गयी।


जय श्री राधे....

वास्तविक मूल्य !


बहुत समय पहले की बात है। 

उपरमालिया गाँव में एक बूढ़ा व्यक्ति रहता था। उसके दो बेटे थे। 

बूढ़ा वस्तुओं के उपयोग के मामले में कंजूस था और उन्हें बचा-बचा कर उपयोग किया करता था।


उसके पास एक पुराना चांदी का पात्र था। वह उसकी सबसे मूल्यवान वस्तु थी। 

उसने उसे संभालकर संदूक में बंद कर रखता था। 

उसने सोच रखा था कि सही अवसर आने पर ही उसका उपयोग करेगा।


एक दिन उसके यहाँ एक संत आये। 

जब उन्हें भोजन परोसा जाने लगा, तो एक क्षण को बूढ़े व्यक्ति के मन में विचार आया कि क्यों न संत को चांदी के पात्र में भोजन परोसूं? 

किंतु अगले ही क्षण उसने सोचा कि मेरा चांदी का पात्र बहुत कीमती है। 

गाँव-गाँव भटकने वाले इस संत के लिए उसे क्या निकालना? 

जब कोई राजसी व्यक्ति मेरे घर पधारेगा, तब यह पात्र निकालूंगा। 

यह सोचकर उसने पात्र नहीं निकाला।


कुछ दिनों बाद उसके घर राजा का मंत्री भोजन करने आया। 

उस समय भी बूढ़े व्यक्ति ने सोचा कि चांदी का पात्र निकाल लूं। 

किंतु फिर उसे लगा कि ये तो राजा का मंत्री है। 

जब राजा स्वयं मेरे घर भोजन करने पधारेंगे, तब अपना कीमती पात्र निकालूंगा।


कुछ दिनों के बाद स्वयं राजा उसके घर भोजन के लिए पधारे। 

राजा उसी समय पड़ोसी राज्य से युद्ध हार गए थे और उनके राज्य के कुछ हिस्से पर पड़ोसी राजा ने कब्जा कर लिया था। भोजन परोसते समय बूढ़े व्यक्ति ने सोचा कि अभी-अभी हुई पराजय से राजा का गौरव कम हो गया है। 

मेरे पात्र में किसी गौरवशाली व्यक्ति को ही भोजन करना चाहिए। 

इसलिए उसने चांदी का पात्र नहीं निकाला।


इस तरह उसका पात्र बिना उपयोग के पड़ा रहा। 

एक दिन बूढ़े व्यक्ति की मृत्यु हो गई।


उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे ने उसका संदूक खोला। 

उसमें उसे काला पड़ चुका चांदी का पात्र मिला। 

उसने वह पात्र अपनी पत्नी को दिखाया और पूछा, “इसका क्या करें?”


पत्नी ने काले पड़ चुके पात्र को देखा और मुँह बनाते हुए बोली, “अरे इसका क्या करना है। 

कितना गंदा पात्र है। इसे कुत्ते को भोजन देने के लिए निकाल लो।”


उस दिन के बाद से घर का पालतू कुत्ता उस चांदी के पात्र में भोजन करने लगा। 

जिस पात्र को बूढ़े व्यक्ति ने जीवन भर किसी विशेष व्यक्ति के लिए संभालकर रखा, अंततः उसकी ये गत हुई।


बन्धुओ किसी वस्तु का मूल्य तभी है, जब वह उपयोग में लाई जा सके। 

बिना उपयोग के बेकार पड़ी कीमती वस्तुओं का भी कोई मूल्य नहीं। 

इस लिए यदि आपके पास कोई वस्तु है, तो यथा समय उसका उपयोग कर लें।

श्री राधे 🙏🏽पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 🙏🏽 श्री राधे 🙏🏽 श्री राधे 🙏🏽 श्री राधे 🙏🏽


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