सखियों के श्याम , अग्नि की उत्पत्ति कथा :
श्रीहरिः
सखियों के श्याम
(जात न पूछे कोय)
पर यह कौन है ?' – मेरे प्रश्न करते ही वह उठकर खड़ी हो गयी और भागनेको उद्यत हुई तो मैंने बाँह थाम ली।
'कौन जाने उनकी उन कजरारी अंखियोंने कहाँ-कहाँ किस-किसको घायल किया हैं।' — मैंने मनमें कहा।
'कौन हो, यहाँ ऐसे कैसे पड़ी थी? क्या नाम है ?'— मैंने पूछा ।
'कुछ नहीं।' — उसने सिर हिलाकर बताया, किंतु आँखोंमें भरे आँसू न चाहते भी छलक पड़े।
'मुझसे न कहेगी सखी!'
'कहा कहूँ ?' उसका कंठ इतना ही कहते रुद्ध हो गया और दो धारायें कपोलोंसे उतर वक्षावरण भिगोने लगीं।
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'यहाँ तो कू व्रजराज कुँअर मिले हते ?"
उसने 'हाँ' में सिर हिलाया।
'आ, यहाँ आकर बैठ सखी! हम दोनों एक ही रोगकी रोगिणी है, एक दूजेसे बात कर मन को ठंडो करें।
उनकी चर्चा तें सुख मिले सखी! तेरो नाम कहा है? - कहते हुए मैं उसी पाहनपर बैठ गयी और अपने समीप ही उसे बिठाने लगी।
'ऐसी अनीति न करें स्वामिनी!'– वह मेरे पैरोंपर गिर पड़ी। मैंने उसे उठाकर अपनेसे लगा लिया।
पीठपर हाथ फेरते हुए पूछा— 'अपनो नाम नहीं बतायेगी ?'
'कंका है मेरो नाम।'
'कब, कैसे मिले श्यामसुन्दर, कहा कही ?'
उसने एक बार अपने जलपूर्ण नेत्र उठाकर भोली और शंका भरी दृष्टिसे मेरी ओर देखा।
मैंने मुस्कराकर स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखा तो वह पलकें झुकाकर कुछ कहने को उद्यत हुई, किंतु होठ थोड़े हिलकर रह गये।
'कंका, बोलेगी नहीं ?
कह देनेसे मनका ताप हलका हो जाता है सखी!
हम सब यही तो करती है।
इसी मिस उनकी चर्चा होती है।'
ताप हलका हो, यही तो मैं नहीं चाहती। इस तपनमें बहुत सुख है स्वामिनी। पर आप कहती है कि चर्चा होगी; उसका लोभ भी कम नहीं है।" उसने कहा।
एक क्षणके लिये मैं उसकी बात सुन चकित रह गयी। वह ताप सुखदायी है यह सब जानती है, पर वह मिटे यही तो हमारी कामना रही है।
यह तो मिटानेकी कौन कहे! घटानेकी बात भी नहीं सोचना चाहती।
'पुनः उनके दर्शन हों और यह अदर्शनका ताप मिटे, नहीं चाहती तुम ?'
— मैंने पूछा।
'ऐसा कौन न चाहेगा ? किंतु जबतक वह सम्भव नहीं है, यह ताप — उनका स्मरण ही तो मेरा धन है।
फिर मेरा ऐसा भाग्य कहाँ ...... ......l' — उसका गला पुनः रूँध गया।
'वे कहाँ कैसे मिले तुझे? क्या बात की ?'
मैं एक दिन इन जटाओंको बाँधकर झूला झूल रही थी कि उन्होंने पीछेसे आकर झूलेके साथ ही मेरा हाथ पकड़ लिया जिससे एकदम भाग न सकूँ।
मैं चौंककर खड़ी हो गयी। उन्होंने कहा— 'मुझे भी अपने साथ झुलावेगी ?'
इतनी देरमें तो मैं अपने आपको ही भूल गयी थी! वह रूप, स्पर्श और फिर वह मधुर स्वर व मुस्कान और... और.... वह चित....वनि.... !
कंका पुनः मौन हो गयी।
'ए कंका! फिर क्या हुआ? क्या कहा तुने ?"
हाँ, उसने चौंककर मेरी ओर देखा।
मेरे मुखसे बोल नहीं फूटा तो वे स्वयं ही झूलेपर बैठ गये और हाथ थामकर मुझे भी अपने समीप बिठा लिया। हम दोनों झूलने लगे।
उनकी अं....ग..... सु... वा.... स...। – कंकाने साँस खींची।
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‘फिर ?'– मैंने शीघ्रतासे पूछा कि वह कहीं फिर स्मृतिके समुद्रमें डूबकि न लगा जाय।
"तेरो नाम कहा है री ?"
'कंका!'
'कंस तो नाय ?'– वे खुलकर हँस पड़े।
ले खायेगी ?'– उन्होंने फेंटसे आम्रफल निकालकर मुझे दिया, तभी मुझे स्मरण आया— कुछ मधुर फल फूल और अंकुर मैंने संग्रह किये हैं। मैं वह लानेके लिये उठी तो उन्होंने बाँह थाम ली— 'कहाँ जाती है?'
मैंने वृक्षकी खोडरकी ओर संकेत किया। दोना लाकर उनके हाथ में धमाया तो बोले— 'यह क्या है? क्या करूँ इसका?' मैंने एक फल उठाकर उनके मुखमें दिया तो खाते हुए बोले— 'अहा यह तो बहुत स्वादिष्ट है।'
सब खाकर बोले— 'ले मैं तो सब खा गया, अब तू क्या खायेगी ?
'मैं और ले आऊँगी। तुम्हें रुचे ये? मैं नित्य ही ला दिया करूँगी।'
'सच! बहुत अच्छे हैं। और ला देगी तो मैं दादाके— सखाओंके लिये भी ले जाऊँगा। कल ला देगी ?"
'कल क्यों, अभी ला दूंगी।'– मैं चलने लगी तो उन्होंने फिर रोक दिया।
'आज नहीं! अभी तो बहुत आतप है, कल लाना। चल अभी तो अपने खेलें।'
मेरा हाथ पकड़कर वे उस ओर ले गये। वहाँ भूमिपर लकीरें खींचकर हमने चौकोर घर बनाये।
पत्थरके टुकड़ेको फेंक एक पैरपर चलते उस टुकड़ेको ठोकरसे खिसकाते हुए खेलने लगे।
पहले तो मुझे कुछ संकोच लगा किंतु जब अच्छी तरह खेलने लगी तो वे हार गये।
कंकाने मेरी ओर देखकर लज्जासे सिर झुका लिया। मैं थोड़ा—सा हँस दी।
'जिसने त्रिविक्रम बनकर दो पदमें ही त्रिलोककी नाप लिया था, वह अपनी ठोकरसे नन्हे पाषाण खंडको नहीं खिसका पाया।' —मनमें कहा।
'फिर?" — उपरसे पूछा।
'फिर नित्य ही मैं मूल— फल— अंकूर लाती और यहाँ प्रतिक्षा करती।
वे आते अपने साथ कोई फल, कभी कोई मोदक अथवा मिष्ठान लिये आते मुझे देते।
मेरी लायी हुई वस्तुओंमें—से कुछ खाते—सराहते और फिर हम खेलते।
वे अधिकाँश हारते ही थे।
धीरे—धीरे मेरे मनमें यह बात समा गयी कि कुअंर जू को खेलना आता ही नहीं और वे मेरे बिना रह नहीं सकते।
मैं छिप जाती तो वे ढूंढते–ढूढ़ते आकुल हो उठते।'
एक दिन मैं छिपी ही रही और उनकी आकूलताका आनंद लेती रही।
वे उदास होकर चले गये और उसके दूसरे दिन वे आये ही नहीं।
मैं फल—मूल संग्रहकर रही थी कि मुख्य पथकी ओर पशु—पक्षियोंका सम्मलित आर्तनाद सुना, साथ ही रथकी थरथराहट भी।
दौड़कर उस ओर गयी देखा सारे पशु—पक्षी वनके छोरपर एकत्रित हो क्रन्दनकर रहे हैं।
एक रथ पथपर बढ़ रहा है।
उसमें कुअंर जू अपने दादाके संग बिराजे हैं, रथ मथुराकी ओर जा रहा है।
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'मेरे हाथसे दोना छूटकर गिर पड़ा....।
तबसे नित्य यहाँ आकर पथ जोहती हूँ।
क्या वे अबतक नहीं आये! मुझ पापिनीने उन्हें सताया था.... इसीसे.... वे सबको छोड़कर चले गये। मेरे कारण.... सबको ..... दुःख.... पहुँचा....।
स्वामिनी ! आप मुझे धिक्कारो— ताड़ना दो सबके दुःखका कारण मैं हूँ... मैं... हूँ।'— कंका बिलखकर रोने लगी।
मैंने उसे गले लगा लिया— ‘रो मत बहिन! हम सब ऐसा ही सोचती है कि हमारे अपराधके कारण वे चले गये, किंतु अपनों का अपराध देखना उन्हें कभी आया ही नहीं।
वे आयेंगे, निज जनों से दूर कैसे रह पायेंगे ?
तू धीरज धर ।'
उसने फल-मूल अंकुरका दोना लाकर मुझे थमा दिया — 'यह ले जायँ आप, मैं नित्य पहुँचा दूँगी।
वे आयें तो उन्हें देकर कहें— कंका अपराधिनी है, उसे अपने ही हाथसे दंड देवें, किंतु यह स्वीकार करें।'
'अच्छा बहिन! कह दूँगी, उन्हें साथ लेकर यहाँ आऊँगी। वे तो भूल ही चुके होंगे, आवें तो वे ही स्वयं तुझसे माँग—माँगकर खायेंगे।
तू चिन्ता न कर, उनके आने भरकी देर है, सम्पूर्ण व्रजमें जीवन दौड़ जावेगा।'— कहते हुए मैं वह दोना लेकर चल पड़ी।
मैं तो नित्य ही यहाँ आती थी, अपराह्न ढलनेपर ही जाती, वे मेरे साथ बने रहते। कभी इसे देखा नहीं यहाँ और इसका कहना है— नित्य आती थी। उनकी लीला कौन जाने! देश और काल दोनों सापेक्ष है और उनके इंगितपर संचालित होते हैं।
'कैसी ब्रह्मविद्या है री तू ?'
एक दिन उन्होंने कहा था—'कुछ भी समझमें नहीं आता तुझे, छोटा-सा विनोद भी नहीं समझती, रोने बैठ जाती है।'
'हाँ प्रभु ! आप निखिल ब्रह्माण्ड नायकको जब ऊखलमें बंधे रोते देखा, माखन चुरा—चुराकर खाते देखा, गोबरकी बिन्दियोंसे मुख भरे देखा, गोष्ठमें चुल्लू भर छाछके लिये नाचते देखा तो लगा, श्रुतियाँ नेति—नेति कह क्या इनका ही बखान करती है?
यही वेदके प्रतिपाद्य विषय है ?
महाकाल और मायाको भयभीत और भ्रू संकेतसे नियमित करनेवाले क्या यही है ?'
'बस, बस।' उन्होंने मेरे मुखपर हाथ रख दिया– 'यह ब्रज है सखी! और मैं नंदकुमार। अखिल ब्रह्माण्ड नायक बेचारा कहीं जाकर दुबक गया होगा।
इसी प्रकार यह दासी भी केवल पूर्ण गोपकी कन्या विद्या है। ब्रह्मविद्या व्रजमें क्या करेगी श्यामसुन्दर ! बारम्बार उसका नाम लेकर क्यों उकसाते हो ?'
'मैं केवल स्मरण करवा रहा हूँ जिसके लिये तूने तप किया था, वह उद्देश्य पूरा हुआ कि नहीं ?"
'मैं धन्य हुई। मैं ही क्या श्यामसुन्दर ! यह मुक्ति, श्रुतियाँ और न जाने कितने ऋषि, कितने प्रेमैक प्राण तुम्हें पाकर कृतार्थ हुए हैं। तुम्हारी अनुकम्पाकी इति नहीं है। कभी किसीने सोचा था कि ब्रह्म यों गोप कुमार बना गायोंके संग डोलेगा ?'
'जाने दे विद्या! यह चर्चा इस रसधाममें अप्रिय लगती है। यह स्तुति किसी अन्य समय लिये उठा रख।'
'ठीक है, किंतु मुझे फिर कभी ब्रह्मविद्याकी याद न दिलाना अन्यथा.... ।' — मैं हँस पड़ी।
'तो तू मुझसे बदला ले रही थी, ठहर तो बंदरिया कहीं की!' श्याम जू मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं हँसती हुई घरकी ओर दौड़ गयी थी।
जय श्री राधे....
श्री राधे
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अग्नि की उत्पत्ति कथा तथा वेद एवं पुराणों में माहात्म्य :
एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये।
शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया।
तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र त तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।
श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई।
उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है?
तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है?
श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है, अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है।
शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है।
ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है।
इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है।
इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है इसलिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है।
जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है।
इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है।
उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है।
जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है।
उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है।
सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है।
इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है।
जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते है।
भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं।
इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।
पुराणों में अग्नि का महात्म्य :
अग्निदेवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं।
ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले हैं।
सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं।
वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है।
अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व - साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है।
ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार - बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है।
आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे - आगे चलते हैं।
युद्ध में सेनापति का काम करते हैं इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।
पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं।
ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुँचती है।
केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं।
ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं।
पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है।
उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।
अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं।
उन जिह्वाओं के नाम : - काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि हैं।
पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए।
इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या उनंचास है।
भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र माना गया है।
स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं।
ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं।
अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं।
प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है।
इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।
अग्निदेव की कृपा के पुराणों में अनेक दृष्टान्त प्राप्त होते हैं।
उनमें से कुछ इस प्रकार हैं।
महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने अपनी शिक्षा पूर्ण होने पर आचार्य दम्पति से गुरु दक्षिणा माँगने का निवेदन किया। गुरु पत्नी ने उनसे महाराज पौष्य की पत्नी का कुण्डल माँगा।
उत्तंक ने महाराज के पास पहुँचकर उनकी आज्ञा से महारानी से कुण्डल प्राप्त किया।
रानी ने कुण्डल देकर उन्हें सतर्क किया कि आप इन कुण्डलों को सावधानी से ले जाइयेगा, नहीं तो तक्षक नाग कुण्डल आप से छीन लेगा।
मार्ग में जब उत्तंक एक जलाशय के किनारे कुण्डलों को रखकर सन्ध्या करने लगे तो तक्षक कुण्डलों को लेकर पाताल में चला गया।
अग्निदेव की कृपा से ही उत्तंक दुबारा कुण्डल प्राप्त करके गुरु पत्नी को प्रदान कर पाये थे।
अग्निदेव ने ही अपनी ब्रह्मचारी भक्त उपकोशल को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था।
अग्नि की प्रार्थना उपासना से यजमान धन, धान्य, पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है।
उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि होती है।
अग्निदेव का बीजमन्त्र रं तथा मुख्य मन्त्र रं वह्निचैतन्याय नम: है।
ऋग्वेद के अनुसार,अग्निदेव अपने यजमान पर वैसे ही कृपा करते हैं, जैसे राजा सर्वगुणसम्पन्न वीर पुरुष का सम्मान करता है।
एक बार अग्नि अपने हाथों में अन्न धारण करके गुफा में बैठ गए।
अत: सब देवता बहुत भयभीत हुए।
अमर देवताओं ने अग्नि का महत्व ठीक से नहीं पहचाना था।
वे थके पैरों से चलते हुए ध्यान में लगे हुए अग्नि के पास पहुँचे।
मरुतों ने तीन वर्षों तक अग्नि की स्तुति की।
अंगिरा ने मंत्रों द्वारा अग्नि की स्तुति तथा पणि नामक असुर को नाद से ही नष्ट कर डाला।
देवताओं ने जांघ के बल बैठकर अग्निदेव की पूजा की।
अंगिरा ने यज्ञाग्नि धारण करके अग्नि को ही साधना का लक्ष्य बनाया।
तदनन्तर आकाश में ज्योतिस्वरूप सूर्य और ध्वजस्वरूप किरणों की प्राप्ति हुई।
देवताओं ने अग्नि में अवस्थित इक्कीस गूढ़ पद प्राप्त कर अपनी रक्षा की।
अग्नि और सोम ने युद्ध में बृसय की सन्तान नष्ट कर डाली तथा पणि की गौएं हर लीं।
अग्नि के अश्वों का नाम रोहित तथा रथ का नाम धूमकेतु है।
महाभारत के अनुसार :
देवताओं को जब पार्वती से शाप मिला था कि वे सब सन्तानहीन रहेंगे, तब अग्निदेव वहाँ पर नहीं थे।
कालान्तर में विद्रोहियों को मारने के लिए किसी देवपुत्र की आवश्यकता हुई।
अत: देवताओं ने अग्नि की खोज आरम्भ की। अग्निदेव जल में छिपे हुए थे।
मेढ़क ने उनका निवास स्थान देवताओं को बताया।
अत: अग्निदेव ने रुष्ट होकर उसे जिह्वा न होने का शाप दिया।
देवताओं ने कहा कि वह फिर भी बोल पायेगा।
अग्निदेव किसी दूसरी जगह पर जाकर छिप गए।
हाथी ने देवताओं से कहा-अश्वत्थ ( सूर्य का एक नाम ) अग्नि रूप है।
अग्नि ने उसे भी उल्टी जिह्वा वाला कर दिया।
इसी प्रकार तोते ने शमी में छिपे अग्नि का पता बताया तो वह भी शापवश उल्टी जिह्वा वाला हो गया।
शमी में देवताओं ने अग्नि के दर्शन करके तारक के वध के निमित्त पुत्र उत्पन्न करने को कहा।
अग्नि देव शिव के वीर्य का गंगा में आधान करके कार्तिकेय के जन्म के निमित्त बने।
भृगु पत्नी पुलोमा का पहले राक्षस पुलोमन से विवाह हुआ था।
जब भृगु अनुपस्थित थे, वह पुलोमा को लेने आया तो उसने यज्ञाग्नि से कहा कि वह उसकी है या भृगु की भार्या।
उसने उत्तर दिया कि यह सत्य है कि उसका प्रथम वरण उसने ( राक्षस ) ही किया था, लेकिन अब वह भृगु की पत्नी है।
जब पुलोमन उसे बलपूर्वक ले जा रहा था, उसके गर्भ से 'च्यवन' गिर गए और पुलोमन भस्म हो गया।
उसके अश्रुओं से ब्रह्मा ने 'वसुधारा नदी' का निर्माण किया।
भृगु ने अग्नि को शाप दिया कि तू हर पदार्थ का भक्षण करेगी।
शाप से पीड़ित अग्नि ने यज्ञ आहुतियों से अपने को विलग कर लिया, जिससे प्राणियों में हताशा व्याप्त हो गई।
ब्रह्मा ने उसे आश्वासन दिया कि वह पूर्ववत् पवित्र मानी जाएगी।
सिर्फ़ मांसाहारी जीवों की उदरस्थ पाचक अग्नि को छोड़कर उसकी लपटें सर्व भक्षण में समर्थ होंगी।
अंगिरस ने अग्नि से अनुनय किया था कि वह उसे अपना प्रथम पुत्र घोषित करें, क्योंकि ब्रह्मा द्वारा नई अग्नि स्रजित करने का भ्रम फैल गया था।
अंगिरस से लेकर बृहस्पति के माध्यम से अन्य ऋषिगण अग्नि से संबद्ध रहे हैं।
हरिवंश पुराण के अनुसार :
असुरों के द्वारा देवताओं की पराजय को देखकर अग्नि ने असुरों को मार डालने का निश्चय किया। वे स्वर्गलोक तक फैली हुई ज्वाला से दानवों की दग्ध करने लगे।
मय तथा शंबरासुर ने माया द्वारा वर्षा करके अग्नि को मंद करने का प्रयास किया, किन्तु बृहस्पति ने उनकी आराधना करके उन्हें तेजस्वी रहने की प्रेरणा दी।
फलत: असुरों की माया नष्ट हो गई।
जातवेदस् नामक अग्नि का एक भाई था।
वह हव्यवाहक ( यज्ञ - सामग्री लाने वाला ) था।
दिति - पुत्र ( मधु ) ने देवताओं के देखते - देखते ही उसे मार डाला।
अग्नि गंगाजल में आ छिपा।
देवता जड़वत् हो गए।
अग्नि के बिना जीना कठिन लगा तो वे सब उसे खोजते हुए गंगाजल में पहुँचे।
अग्नि ने कहा, भाई की रक्षा नहीं हुई, मेरी होगी, यह कैसे सम्भव है ?
देवताओं ने उसे यज्ञ में भाग देना आरम्भ किया।
अग्नि ने पूर्ववत् स्वर्गलोक तथा भूलोक में निवास आरम्भ कर दिया।
देवताओं ने जहाँ अग्नि प्रतिष्ठा की, वह स्थान अग्नितीर्थ कहलाया।
दक्ष की कन्या ( स्वाहा ) का विवाह अग्नि ( हव्यवाहक ) से हुआ।
बहुत समय तक वह नि:सन्तान रही।
उन्हीं दिनों तारक से त्रस्त देवताओं ने अग्नि को सन्देशवाहक बनाकर शिव के पास भेजा।
शिव से देवता ऐसा वीर पुत्र चाहते थे, जो कि तारक का वध कर सके।
पत्नी के पास जाने में संकोच करने वाले अग्नि ने तोते का रूप धारण किया और एकान्तविलासी शिव-पार्वती की खिड़की पर जा बैठा।
शिव ने उसे देखते ही पहचान लिया तथा उसके बिना बताये ही देवताओं की इच्छा जानकर शिव ने उसके मुँह में सारा वीर्य उड़ेल दिया।
शुक (अग्नि ) इतने वीर्य को नहीं सम्भाल पाए।
उसने वह गंगा के किनारे कृत्तिकाओं में डाल दिया, जिनसे कार्तिकेय का जन्म हुआ।
थोड़ा - सा बचा हुआ वीर्य वह पत्नी के पास ले गया।
उसे दो भागों में बाँटकर स्वाहा को प्रदान किया, अत: उसने ( स्वाहा ने ) दो शिशुओं को जन्म दिया।
पुत्र का नाम सुवर्ण तथा कन्या का नाम सुवर्णा रखा गया।
मिश्र वीर्य सन्तान होने के कारण वे दोनों व्यभिचार दोष से दूषित हो गए।
सुवर्णा असुरों की प्रियाओं का रूप बनाकर असुरों के साथ घूमती थी तथा सुवर्ण देवताओं का रूप धारण करके उनकी पत्नियों को ठगता था। सुर तथा असुरों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दोनों को सर्वगामी होने का शाप दिया।
ब्रह्मा के आदेश पर अग्नि ने गोमती नदी के तट पर, शिवाराधना से शिव को प्रसन्न कर दोनों को शापमुक्त करवाया।
वह स्थान तपोवन कहलाया।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु