https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 2025

श्रीस्कन्द महापुराण श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् :

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण  श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् :

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


ब्राह्मखण्ड ( सेतु - महात्म्य )


चक्रतीर्थ, शिवतीर्थ, शंखतीर्थ और यमुना, गंगा एवं गयातीर्थ की महिमा - राजा जानश्रुति को रैक्व के उपदेश से ब्रह्मभाव की प्राप्ति...(भाग 2) 




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महर्षि रैक्व पहले गन्धमादन पर्वतपर रहकर अत्यन्त दुष्कर तपस्या करते थे। 

वे जन्मसे ही पंगु थे। 

अतः गन्धमादन पर्वतपर जो-जो तीर्थ हैं, वे उन्हींकी यात्रा करते थे; क्योंकि वे सब समीपवर्ती थे। 

पैदल न चल सकनेके कारण वे गाड़ीसे ही उन तीर्थोंमें जाते थे। 

इसी लिये गाड़ीवाले रैक्वके नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। 

उन्होंने तपस्यासे अपना शरीर सुखा डाला था। 

उनके उस शरीरमें खाज हो गयी थी, जिसे वे दिन-रात खुजलाते रहते थे। 

फिर भी उन्होंने तपस्या नहीं छोड़ी। 

एक दिन उनके मनमें ऐसा विचार हुआ कि 'मैं यमुना, गंगा और गया-इन तीनों पवित्र तीर्थोंमें स्नान करूँ; परंतु मैं तो जन्मसे ही पंगु हूँ, अतः मेरे लिये वहाँका स्नान दुर्लभ है। 

गाड़ीसे इतनी दूरकी यात्रा नहीं की जा सकती। 

तब इस समय मैं क्या करूँ?

' इस प्रकार तर्क-वितर्क करते हुए महाबुद्धिमान् रैक्वने तीनों तीर्थोंमें स्नान करनेके सम्बन्धमें अपने कर्तव्यका निश्चय किया। 

उन्होंने सोचा- 'मेरा तपोबल दुर्धर्ष एवं असह्य है, उसीके द्वारा मैं यहाँ उक्त तीर्थोंका आवाहन करूँगा।' 

मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके वे पूर्वाभिमुख बैठे, मन-इन्द्रियोंको संयममें रखकर तीन बार आचमन किया और एक क्षणतक ध्यानमें लगे रहे। 

उनके मन्त्रके प्रभावसे महानदी यमुना, गंगा और पापनाशिनी गया- तीनों भूमि फोड़कर सहसा पातालसे प्रकट हुईं और मानव शरीर धारणकर गाड़ीवाले रैक्वके समीप आ उन्हें प्रसन्न करती हुई प्रसन्नतापूर्वक बोलीं- "रैक्व ! 

तुम्हारा कल्याण हो, इस ध्यानसे निवृत्त होओ। 

तुम्हारे मन्त्रसे आकृष्ट हो हम तीनों यहाँ उपस्थित हुई हैं।'





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उनका यह वचन सुनकर महामुनि रैक्व ध्यानसे निवृत्त हुए और उन्हें अपने सामने उपस्थित देखा। 

तब उन्होंने उन तीनोंका पूजन करके कहा-'हे यमुने ! 

हे देवि गंगे! और हे पापनाशिनी गये! 

तुम तीनों गन्धमादन पर्वतपर वहीं निवास करो, जहाँ भूमि फोड़कर यहाँ प्रकट हुई हो। 

वे स्थान तुम्हारे नामसे पवित्र तीर्थ हो जायँ।' 

तब वे तीनों देवियाँ 'तथास्तु' कहकर सहसा अन्तर्धान हो गयीं। 

तब से ये तीनों तीर्थ भूतलमें मनुष्योंद्वारा उन्हीं के नामसे पुकारे जाते हैं। 

जहाँ भूमि फोड़कर यमुना निकली, उसी स्थानको लोग 'यमुनातीर्थ' कहते हैं, जहाँ पृथ्वीके छिद्रसे सहसा गंगाका प्रादुर्भाव हुआ, वह स्थान लोकमें पापनाशक 'गंगातीर्थ 'के नामसे विख्यात हुआ और जहाँ गयाका प्रादुर्भाव हुआ, वह भूमि - विवर 'गयातीर्थ' कहलाता है। 

इस प्रकार वे तीनों तीर्थ बड़े पवित्र हैं। 

जो मनुष्य इन उत्तम तीर्थोंमें स्नान करते हैं, उनके अज्ञानका नाश और ज्ञानका उदय होता है। 

रैक्व मुनि अपने मन्त्र द्वारा आकर्षित किये हुए उन तीनों तीर्थों में स्नान करते हुए समय व्यतीत करने लगे।


इसी समय महाराज जान श्रुति इस भूतल पर राज्य करते थे। वे राजर्षि पुत्रके पौत्र थे और एक मात्र धर्मके आचरणमें ही संलग्न रहते थे। 

याचकों को श्रद्धापूर्वक अन्न आदि देते थे। 

अतः मुनिलोग उन्हें लोकमें 'श्रद्धादेय' कहते थे। 

भूखे याचकोंकी तृप्तिके लिये उस अन्न-धन-सम्पन्न राजाके यहाँ नाना प्रकारके वचन कहे जाते थे, इस लिये सब याचकोंने उनका नाम 'बहुवाक्य' रख दिया था। 

जनश्रुत के पुत्र महाबली जानश्रुतिको अतिथि बहुत प्रिय थे। 

इस लिये वे बहुत दान करनेके कारण 'बहुदायी' के नामसे प्रसिद्ध हुए। 

नगरोंमें, राज्यमें, गाँवों और जंगलोंमें, चौराहोंपर तथा सभी बड़े - बड़े मार्गोंमें उनकी ओरसे खाने पीनेकी बहुत सामग्री प्रस्तुत रहती थी। 

अतिथियों की तृप्तिके लिये वे अन्न, पान, दाल, साग आदि उत्तम भोजनकी व्यवस्था रखते थे। 

उस पौत्रायण राजाके गुणोंसे महाभाग देवर्षि बहुत सन्तुष्ट हुए। 

उन सबके मनमें राजाके ऊपर कृपा करनेकी इच्छा हुई। 

एक दिन राजा जानश्रुति गरमीकी रातमें अपने महलके भीतर खिड़कीके पास सो रहे थे। 

उसी समय देवर्षिगण हंसका रूप धारण करके एक पंक्तिमें आकाशमार्गसे उड़ते हुए आये और राजाके ऊपर होकर जाने लगे। 

उस समय बड़े वेगसे उड़ते हुए एक हंसने आगे जानेवाले हंसको सम्बोधित करके राजाको सुनाते हुए उपहासपूर्वक कहा- 'भल्लाक्ष ! 

अरे ओ भल्लाक्ष! क्या आगे-आगे जाता हुआ तू अन्धोंकी नाईं देखता नहीं है कि आगे पूजनीय राजा जानश्रुति विराजमान हैं? 

यदि तू उन राजर्षिको लाँधकर ऊपर जायगा, तो उनका तेज इस समय तुझे जलाकर भस्म कर डालेगा।

ऐसा कहते हुए उस हंसको आगे जानेवाले हंसने उत्तर दिया- '

अहो! तुम तो बड़े ज्ञानी हो, विद्वानोंके द्वारा भी प्रशंसनीय हो, तथापि इस तुच्छ मनुष्यकी इतनी प्रशंसा क्यों करते हो? 

यह धर्मोंके रहस्यको नहीं जानता, जैसा कि ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ गाड़ीवाले रैक्व मुनि जानते हैं। 

इस राजा का तेज उनके समान नहीं है। 

रैक्वकी पुण्यराशियोंकी इयत्ता ( संख्या ) नहीं हो सकती। 

पृथ्वीके धूलिकण गिने जा सकते हैं, आकाशके नक्षत्र भी गणनामें आ सकते हैं, परंतु रैक्व मुनिके महामेरु - सदृश पुण्यपुंजोंकी गणना नहीं की जा सकती। 

राजा जानश्रुतिमें तो वैसा धर्म ही नहीं है, फिर वह ज्ञान - वैभव कहाँसे हो सकता है। 

अतः इस तुच्छ मनुष्यकी चर्चा छोड़कर उसी गाड़ीवाले रैक्व मुनिकी प्रशंसा करो। 

' उन्हों ने जन्मसे पंगु होकर भी स्नान करनेकी इच्छा से मन्त्रद्वारा यमुना, गंगा और गयाको भी अपने आश्रमके समीप बुला लिया है।'


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी





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श्री लिंग महापुराण 


तत्व शुद्धि वर्णन....(भाग 2)

 

हजारों अश्वमेघ से जो फल प्राप्त होता है वह फल सूर्य को अर्थ देने से प्राप्त होता है। 

भक्ति से सूर्य को अर्घ देकर पुनः त्र्यम्बक भगवान का पूजन करे। 

भास्कर का पूजन करके आग्नेय स्नान करे। 

फिर योगी पद्मासन लगाकर प्राणायाम करे। 

लाल पुष्प तथा कमल पुष्पों को लेकर दक्षिण भाग में स्थित करे। 

सर्व कार्यों में सर्व सिद्धि करने के लिए ताम्र पात्र श्रेष्ठ कहे हैं पुनः पूजा की सब सामग्री को जल से प्रक्षालन करे। 

सर्व देवों के द्वारा नमस्कार करने योग्य आदित्य का जप करे। 

मन्त्र बोलकर सूर्य को नमस्कार करे।


दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अघोरा, विकृता आठ शक्तियाँ सूर्य भगवान के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी रहती है। 

इन के मध्य में सर्वतोमुखी वरदान देने वाली देवी की स्थापना है। 

वाष्कल मन्त्र से इनका आवाहन और पूजा करे। पद्मनाभ की भास्कर की मुद्रा बनावे। 

मूल मन्त्र से पाद्य आचमन आदि करावे। 

रक्त पुष्प, रक्त चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि तथा ताम्बूल वाष्कल मन्त्र के ही द्वारा अर्पण करे। 

दीपक़ भी इस मन्त्र से प्रदान करे। कमल की कर्णिका में अष्ट मूर्ति का विन्यास करके ध्यान करे। 

बिजली की सी चमक वाली शान्त स्वरूप, अस्त्र धारिणी, सब आभरणों से युक्त, रक्त चन्दन, माला व वस्त्र धारण किये हुए, सिन्दूर के समान अरुण वर्ण वाली ऐसी अष्ट मूर्ति भास्कर रूप महेश्वर का ध्यान करे। 

उसी मण्डल में सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु का भी ध्यान करे। 

सभी दो भुजा तथा दो नेत्र वाले हैं परन्तु राहु का तो ऊर्ध्व शरीर ही है।





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इनको इनके नाम से प्रणव आदि में लेकर नमः बाद में लगाकर पूजना चाहिए। 

जैसे ॐ सोमायनमः इस प्रकार करने से सर्व सिद्धि, धर्म, अर्थ की प्राप्ति होती है। 

सब देवता, ऋषिगण, पन्नग और अप्सरायें, यातुधान, सप्त अश्व जो छन्दमय हैं, बालखिल्य ऋषियों का गण आदि सबका पृथक - पृथक अर्घ पाद्य आचमन से पूजन करे। 

पूजन के बाद हजार आधा हजार या १०८ बार वाष्कल मन्त्र का जप करना चाहिए। 

जप के दशाँश पश्चिम दिशा में परिमाण के अनुसार कुण्ड बनाकर हवन करना चाहिए। 

प्रभावती शक्ति का गन्ध, पुष्प आदि से वाष्कल मन्त्र से पूजन करे। 

पश्चात् मूल मन्त्र से पूर्णाहुति करे। 

भास्कर रूप देव देव शंकर का अंगों सहित पूजन करके अर्थ और प्रदक्षिणा करनी चाहिए। 

इस प्रकार मैंने संक्षेप से सूर्य भगवान का पूजन कहा।


जो पुरुष इस प्रकार देव देव जगद्‌गुरु भास्कर का एक बार भी पूजन करेगा वह परम गति को प्राप्त हो वेगा। 

वह पुरुष सर्व ऐश्वर्य युक्त, पुत्र पौत्रादि भाई बन्धुओं से सम्पन्न विपुल भोगों को भोगकर, धन, धान्य युक्त, यान वाहन से सम्पन्न विविध प्रकार के भूषणों से युक्तः काल गति को प्राप्त होकर सूर्य के साथ अक्षय काल तक आनन्द को प्राप्त होता है। 

फिर यहाँ आकर राजा होता है अथवा वेद वेदाँग सम्पन्न ब्राह्मण होता है। 

फिर पूर्व की वासना के योग से वह सूर्य भगवान की आराधना करके सूर्य की सायुज्यता को प्राप्त होता है।


क्रमशः शेष अगले अंक में...






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श्रीमहाभारतम् 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


(आस्तीकपर्व)


त्रिंशोऽध्यायः


गरुड का कश्यपजी से मिलना, उनकी प्रार्थना से वालखिल्य ऋषियों का शाखा छोड़कर तप के लिये प्रस्थान और गरुड का निर्जन पर्वत पर उस शाखा को छोड़ना...(दिन 116)


सौतिरुवाच


एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः ।

मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ।। १८ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं- 

भगवान् कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्य मुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चले ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः । 

शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ।। १९ ।।


उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारण कठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा- ।। १९ ।।




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भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम् । 

वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ।। २० ।।


'भगवन् ! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़ दूँ? 

आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों' ।। २० ।।


ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम् । 

अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ।। २१ ।।


तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। 

जिसकी कन्दराएँ बर्फसे ढकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकता था ।। २१ ।।


तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः । 

जवेनाभ्यपतत् तार्थ्यः सशाखागजकच्छपः ।। २२ ।।


उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान् पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े ।। २२ ।।


न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ् । 

शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ।। २३ ।।


गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी ।। २३ ।।


स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः । 

कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ।। २४ ।।


पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चले आये ।। २४ ।।





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स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः । 

अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ।। २५ ।।


पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। 

गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। २५ ।। 


पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट् ।

मुमोच पुष्पवर्ष च समागलितपादपः ।। २६ ।।


वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर काँप उठा। 

उसपर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा ।। २६ ।।


शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः । 

मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ।। २७ ।।


उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान् शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े ।। २७ ।।


शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया । 

काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ।। २८ ।।


उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे ।। २८ ।।


ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः । 

व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्याशुप्रतिरञ्जिताः ।। २९ ।।


सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त हो सूर्यकी किरणोंद्वारा रँगे हुए-से सुशोभित होते थे ।। २९ ।।


ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः । 

भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ।। ३० ।।


तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुएको खाया ।। ३० ।।


तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्थ्यः कूर्मकुञ्जरौ । 

ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ।। ३१ ।।


इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान् वेगशाली गरुड पर्वतकी उस चोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े ।। ३१ ।।


क्रमशः...

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :

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श्रीमहाभारतम् :


।। श्रीहरिः ।।

श्रीगणेशाय नमः 

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


( आस्तीकपर्व )


एकोनविंशोऽध्यायः


देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय...!


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अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च । 

प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ।। १ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं- अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम - उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ।। १ ।।


ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् । 

जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ।। २ ।। 


ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा । 

विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ।। ३ ।।





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उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान् नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करके दानवेन्द्रोंके हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णुसे अमृत ले-लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ।। २-३ ।।


ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् । 

राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ।। ४ ।।


जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामक दानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया ।। ४ ।।


तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा । 

आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ।। ५ ।।


वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यने देवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया ।। ५ ।।


ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् । 

चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ।। ६ ।। 




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तब चक्रधारी भगवान् श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तक चक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ।। ६ ।।


तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् । 

चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ।। ७ ।।


चक्रसे कटा हुआ दानवका महान् मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वह आकाशमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ।। ७ ।।


तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले । 

सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ।। ८ ।।


किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ।। ८ ।।


ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै । 

शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ।। ९ ।।


तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है ।। ९ ।।


विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।

नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् ।। १० ।।


( देवताओंको अमृत पिलानेके बाद ) भगवान् श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप त्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित कर दिया ।। १० ।।


ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।

सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ।। ११ ।।


फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया ।। ११ ।।


प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः । 

तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ।। १२ ।।


दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े-बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। 

तेज नोकवाले तोमर तथा भाँति-भाँतिके शस्त्र बरसने लगे ।। १२ ।।


ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु । 

असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ।। १३ ।।


 छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः । 

तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ।। १४ ।।


भगवान्के चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदासे घायल हुए असुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। 

उस समय तपाये हुए सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमि में गिर रहे थे ।। १३-१४ ।।


क्रमशः...




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श्री लिंग महापुराण :


विष्णु भगवान द्वारा शिवजी की सहस्त्र नामों से स्तुति करना....!

  

ऋषियों ने पूछा- हे सूतजी ! 

देव देव महेश्वर से विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र किस प्रकार प्राप्त किया। 

सो हमारे प्रति वर्णन कीजिए।


सूतजी बोले- हे मुनियो ! 

एक बार देवता और असुरों में घोर संग्राम हुआ। 

देवता असुरों के अनेकानेक शस्त्र अस्त्रों से पीड़ित हुये भाग कर विष्णु भगवान के पास आये। 

प्रणाम करने पर भयभीत हुये देवों को देखकर हरि ने पूछा- हे देवताओं! 

क्या आपत्ति है जिससे सन्ताप युक्त दौड़कर आये हो। देवता बोले- हे विष्णो ! 

हम लोग दैत्यों से पराजित हुए आपकी शरण में आये हैं। 

तुम ही जगत के कर्ता और हर्ता हो। 

हमारी रक्षा करो। 

वे दैत्य, देव वरदान के कारण वैष्णव रौद्र सौर, वायव्य आदि शस्त्रों से अवध्य हैं। 

आपका चक्र जो सूर्य मण्डल से उत्पन्न है कुण्ठित है। 

दण्ड, शार्ङ्ग और सब शस्त्र दैत्यों ने प्राप्त कर लिए हैं। 

पूर्व में त्रिपुरारी शिव ने जलन्धर को मारने के लिए जो तीक्ष्ण चक्र निर्माण किया था। 

उससे मार सकोगे अन्य शस्त्रों से नहीं।


विष्णु बोले- हे देवो ! 

त्रिपुरारी ने जो चक्र जलन्धर के वध के लिए बनाया है उसी से सब दैत्यों को बन्धु-बान्धवों सहित मार कर तुम्हारे सन्ताप को दूर करूँगा। 

ऐसा कहकर विष्णु ने हिमालय शिखर पर महादेव के लिंग की स्थापना करी जो कि मेरु पर्वत के समान विश्वकर्मा ने निर्माण किया। शिव सहस्त्र नाम से विष्णु भगवान ने पूजन किया और स्तुति की। 

सहस्त्र नाम से पूजन करते हुए प्रत्येक नाम पर कमल पुष्प से पूजन करने लगे और समिधा स्थापित कर अग्नि में सहस्त्र नाम से आहुति की। 

श्री विष्णु ने शिव के सहस्त्र नाम का पाठ किया। 

हे भव, शिव, हर, रुद्र, नीललोहित, पद्मलोचन, अष्टमूर्ति, विश्वमूर्ति, वामदेव, महादेव इत्यादि सहस्त्र नाम से स्तुति की।


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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


श्रीअयोध्या-महात्म्य


गयाकूप आदि अनेक तीर्थों का माहात्म्य तथा ग्रन्थ का उपसंहार...! 


इसके उत्तरमें वीर मत्तगजेन्द्रका शुभ सूचक स्थान है। 

उनके सामने जो सरोवर है, उसमें स्नान करके जो निश्चितरूपसे वहाँ निवास करता है, वह पूर्ण सिद्धिको पाता है। 

अयोध्याकी रक्षा करनेवाले वीर मत्तगजेन्द्र समस्त कामनाओंकी सिद्धि करनेवाले हैं। 

उसके पश्चिम भागमें परम पुरुषार्थी वीर पिण्डारकका स्थान है। 

सरयूके जलमें स्नान करके वीर पिण्डारककी पूजा करे। 

वे पापियोंको मोहनेवाले और पुण्यात्माओंको सदा सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले हैं। 

पिण्डारकके पश्चिम भागमें विघ्नेश्वर ( गणेश ) जीकी पूजा करे। 

उनके दर्शन करनेसे मनुष्योंको लेशमात्र विघ्नका भी सामना नहीं करना पड़ता। 

विघ्नेशसे ईशान कोणमें श्रीरामजन्म स्थान है। 

इसे 'जन्म - स्थान' कहते हैं। 

यह मोक्षादि फलोंकी सिद्धि करनेवाला है। 

विघ्नेशसे पूर्व, वशिष्ठसे उत्तर तथा लोमशसे पश्चिम भागमें जन्मस्थान तीर्थ माना गया है। 

उसका दर्शन करके मनुष्य गर्भवासपर विजय पा लेता है। 

रामनवमीके दिन व्रत करनेवाला मनुष्य स्नान और दानके प्रभावसे जन्म - मृत्युके बन्धनसे छूट जाता है। 

आश्रममें निवास करनेवाले तपस्वी पुरुषोंको जो फल प्राप्त होता है, सहस्रों राजसूय और प्रतिवर्ष अग्निहोत्र करनेसे जो फल मिलता है, जन्मस्थानमें नियममें स्थित पुरुषके दर्शनसे तथा माता, पिता और गुरुकी भक्ति करनेवाले सत्पुरुषोंके दर्शनसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वही सब फल जन्मभूमिके दर्शनसे प्राप्त कर लेता है। 

सरयूका दर्शन करके भी मनुष्य उस फलको पा लेता है। 

एक निमेष या आधे निमेष भी किया हुआ श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान मनुष्योंके संसार - बन्धनके कारणभूत अज्ञानका निश्चय ही नाश करनेवाला है। 

जहाँ कहीं भी रहकर जो मनसे अयोध्याजीका स्मरण करता है, उसकी पुनरावृत्ति नहीं होती। 

सरयू नदी सदा मोक्ष देनेवाली है। 

यह जलरूपसे साक्षात् परब्रह्म है। 

यहाँ कर्मका भोग नहीं करना पड़ता। 

इसमें स्नान करनेसे मनुष्य श्रीरामरूप हो जाता है। 

पशु, पक्षी, मृग तथा अन्य जो पापयोनि प्राणी हैं, वे सभी मुक्त होकर स्वर्गलोकमें जाते हैं, जैसा कि श्रीरामचन्द्रजीका वचन है। 

सत्यतीर्थ, क्षमातीर्थ, इन्द्रियनिग्रहतीर्थ, सर्वभूतदयातीर्थ, सत्यवादितातीर्थ, ज्ञानतीर्थ और तपस्तीर्थ-ये सात मानसतीर्थ कहे गये हैं। 

सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया करनारूप जो तीर्थ है, उसमें मनको विशेष शुद्धि होती है। 

केवल जलसे शरीरको पवित्र कर लेना ही स्नान नहीं कहलाता। 

जिस पुरुषका मन भलीभाँति शुद्ध है, उसीने वास्तवमें तीर्थस्नान किया है। 

भूमिपर वर्तमान जो तीर्थ हैं उनकी पवित्रताका कारण यह है। 

जैसे शरीरके कोई अंग मध्यम और कोई उत्तम माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीपर भी कुछ प्रदेश अत्यन्त पवित्र होते हैं। 

इस लिये भौम और मानस दोनों प्रकारके तीर्थोंमें निवास करना चाहिये। 

जो दोनों में स्नान करता है वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

जलचर जीव जलमें ही जन्म लेते और जलमें ही मरते हैं, परंतु वे स्वर्गमें नहीं जाते; क्योंकि उनका मन अशुद्ध होता है और वे मलिन होते हैं। 

विषयोंमें निरन्तर राग होना मनका मल कहलाता है। 

उन्हीं विषयों में जब आसक्ति न रह जाय, तब उसे मनकी निर्मलता कहते हैं। 

यदि मनुष्य भावसे निर्मल है- 

उसके अन्तःकरणमें शुद्ध भाव है तो उसके लिये दान, यज्ञ, तप, शौच, तीर्थसेवा और वेर्दोका अध्ययन ये सभी तीर्थ हैं। 

इन्द्रियसमुदायको वशमें रखनेवाला पुरुष जहाँ निवास करता है, वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर हैं। 

यह मानसतीर्थका लक्षण बतलाया गया, जिसमें स्नान करनेसे क्रियावान् पुरुषोंके सब कर्म सफल होते हैं। 

बुद्धिमान् मनुष्य प्रातःकाल उठकर संगममें स्नान करे, फिर भगवान् विष्णुहरिका दर्शन करके ब्रह्मकुण्डमें स्नान करे। 

तत्पश्चात् चक्रतीर्थमें स्नान करके मनुष्य भगवान् चक्रहरिका दर्शन करे। 

उसके बाद धर्महरिका दर्शन करके वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

प्रत्येक एकादशीको यह यात्रा शुभकारक होती है।




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बुद्धिमान् पुरुष प्रातःकाल उठकर स्वर्गद्वारके जलमें गोता लगावे। 

फिर नित्य कर्म करके अयोध्यापुरीका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् पुनः सरयूका दर्शन करके वीर मत्तगजेन्द्र, वन्दीदेवी, शीतलादेवी और वटुकभैरवका दर्शन करे। 

उनके आगे सरोवरमें स्नानकर महाविद्याका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् पिण्डारकका दर्शन करे। 

अष्टमी और चतुर्दशीको यह यात्रा फलवती होती है। 

अंगारक चतुर्थीको पूर्वोक्त देवताओंके साथ - साथ समस्त कामनाओंकी सिद्धिके लिये विघ्नेशका भी दर्शन करे। 


पूर्ववत् प्रातः काल उठकर बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मकुण्डके जलमें स्नान करे। 

फिर विष्णु और विष्णुहरिका दर्शन करके मनुष्यके मन, वाणी और शरीरकी शुद्धि होती है। 

उसके बाद मन्त्रेश्वर और महाविद्याका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् सब कामनाओंकी सिद्धिके लिये अयोध्याका दर्शन करके जितेन्द्रिय पुरुष स्वर्गद्वारमें वस्त्रसहित स्नान करे। 

उससे मनुष्यके अनेक जन्मोंके उपार्जित नाना प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं। 

इस लिये वस्त्रसहित स्नान अवश्य करे। 

यह यात्रा सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। 

जो प्रतिदिन इस प्रकार शुभ फल देनेवाली यात्रा करता है, उसकी सौ कोटि कल्पोंमें भी पुनरावृत्ति नहीं होती। 

अयोध्यापुरी सर्वोत्तम स्थान है। 

यह भगवान् विष्णुके चक्रपर प्रतिष्ठित है।




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सूतजी कहते हैं जो मनुष्य पवित्रचित्त होकर अयोध्याके इस अनुपम माहात्म्यका पाठ करता है अथवा जो श्रद्धासे इसको सुनता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

अतः मनुष्योंको सदा यत्नपूर्वक इसका श्रवण करना चाहिये। 

ब्राह्मणों तथा भगवान् विष्णुकी पूजा करनी चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणके लिये सुवर्ण आदि देना चाहिये। 

पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष इस माहात्म्यको सुनकर पुत्र पाता है और धर्मार्थीको धर्मकी प्राप्ति होती है। 

जो श्रेष्ठ मनुष्य अति विस्तृत विधानके साथ वर्णित इस धर्मयुक्त आदिक्षेत्रके उत्तम माहात्म्यका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह लक्ष्मी से सनाथ होकर संसार में सब उत्तम भोगों को भोगने के पश्चात् भगवान् विष्णु के लोक में निवास करता है।


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क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ , मां गंगा का सफर गौमुख :

 श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ , मां गंगा का सफर गौमुख 


श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ ( हिंदी अनुवाद सहित )


समृद्धं सौभाग्यं सकल वसुधायाः किमपि तत्-

महैश्वर्यं लीला जनित जगतः खण्डपरशोः ।

श्रुतीनां सर्वस्वं सुकृतमथ मूर्तं सुमनसां

सुधासौन्दर्यं ते सलिलमशिवं नः शमयतु॥१॥


(हे माँ!) महेश्वर शिव की लीला जनित इस सम्पूर्ण वसुधा की आप ही समृद्धि और सौभाग्य हो, वेदो का सर्वस्व सारतत्व भी आप ही हो. मूर्तिमान दिव्यता की सौंदर्य-सुधायुक्त आपका जल, हमारे सारे अमंगल का शमनकारी हो.




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दरिद्राणां दैन्यं दुरितमथ दुर्वासनहृदाम्

द्रुतं दूरीकुर्वन् सकृदपि गतो दृष्टिसरणिम् ।

अपि द्रागाविद्याद्रुमदलन दीक्षागुरुरिह

प्रवाहस्ते वारां श्रियमयमऽपारां दिशतु नः॥२॥


आपकी दृष्टि मात्र से ही ह्रदय की दुर्वासनाएं और दरिद्रों के दैन्य शीघ्र दूर हो जाते हैं. राग और अविद्या के गुल्म आपके गुरुसम अपार प्रवाह की दीक्षा से समूल नष्ट हो जाएँ और हमें अतुलनीय श्रेय की प्राप्ति हो.


उदञ्चन्मार्तण्ड स्फुट कपट हेरम्ब जननी

कटाक्ष व्याक्षेप क्षण जनितसंक्षोभनिवहाः।

भवन्तु त्वंगंतो हरशिरसि गङ्गातनुभुवः

तरङ्गाः प्रोत्तुङ्गा दुरितभव भङ्गाय भवताम्॥३॥


गणेशजननी की बालार्क कटाक्षदृष्टि से शिव जटाओं में बद्ध गंगा की संक्षोभित उत्ताल तरंगें, कठिन अघयुक्त-भुवनभय भंगकारी हों!


तवालम्बादम्ब स्फुरद्ऽलघुगर्वेण सहसा

मया सर्वेऽवज्ञा सरणिमथ नीताः सुरगणाः ।

इदानीमौदास्यं भजसि यदि भागीरथि तदा

निराधारो हा रोदिमि कथय केषामिह पुरः॥४॥


आपके अवलंबन के आश्रय से सहसा अति गर्वित हो मैंने सभी अन्य देवों की अवज्ञा करली, ऐसे में यदि आप मुझसे उदासीन हो गयी तो मैं निराधार किसके आगे अपना रोना रोऊँ?


स्मृतिं याता पुंसामकृतसुकृतानामपि च या

हरत्यन्तस्तन्द्रां तिमिरमिव चण्डांशु सरणिः।

इयं सा ते मूर्तिः सकलसुरसंसेव्यसलिला

ममान्तःसन्तापं त्रिविधमपि पापं च हरताम्॥५॥


सूर्य रश्मियों की उपस्थिति मात्र से ही जैसे तम का नाश हो जाता है, आपके स्मरण मात्र से ही पुण्यहीनों की भी कुंठाओं का शमन हो जाता है. दिव्यात्माओं द्वारा भी अभिलाषित आपका पावन जल मेरे भी त्रिविध  पाप संताप को दूर कर दे.


अपि प्राज्यं राज्यं तृणमिव परित्यज्य सहसा

विलोलद्वानीरं तव जननि तीरं श्रितवताम् ।

सुधातः स्वादीयः सलिलभरमातृप्ति पिबताम्

जनानामानन्दः परिहसति निर्वाणपदवीम्॥६॥


बड़े बड़े साम्राज्यों का तृणवत त्याग करके, आपके तीर का आश्रय ले कर तृण विलोलित आपके जल के  आतृप्त अमृतपान के आनंद की तुलना में तो निर्वाणपद भी हेय है.


प्रभाते स्नान्तीनां नृपति रमणीनां कुचतटी-

गतो यावन् मातः मिलति तव तोयैर्मृगमदः।

मृगास्तावद्वैमानिक शतसहस्रैः परिवृता

विशन्ति स्वच्छन्दं विमल वपुषो नन्दनवनम्॥७॥


राजमहिषियों द्वारा प्रातःकाल आप में स्नान से  कस्तूरीलेपित वक्षों  से आपके जल में मृगमद अर्पित हो जाने के पुण्य से वे मृग  अनायास ही सहस्रशत विमानों से परिवृत हो दिव्यरूप प्राप्त कर नंदनवन में स्वच्छंद प्रवेश और विचरण करते हैं.


स्मृतं सद्यः स्वान्तं विरचयति शान्तं सकृदपि

प्रगीतं यत्पापं झटिति भवतापं च हरति ।

इदं तद्गङ्गेति श्रवण रमणीयं खलु पदम्

मम प्राण प्रान्त: वदन कमलान्तर्विलसतु॥८॥


स्मरण करते ही जो तुरंत मन में प्रशांति रच देता है, गान करने से जो अविलम्ब भवताप हर लेता है, श्रवण मात्र से “गंगा” यह नाम मेरे मन के कमलवन में और मुख में प्राणांत तक विलास करता रहे.


यदन्तः खेलन्तो बहुलतर सन्तोष भरिता

न काका नाकाधीश्वर नगर साकाङ्क्ष मनसः ।

निवासाल्लोकानां जनि मरण शोकापहरणम्

तदेतत्ते तीरं श्रम शमन धीरं भवतु नः॥९॥


और तो और, आपकी सन्निधि में कौवे भी इतने संतोष से भरे रमते हैं कि उनको अब स्वर्ग की भी चाहना नहीं. आपके तीर का निवास जन्म मरण के शोक का तो हरण करता ही है, इसका नैकट्य भी निष्ठावानों का श्रमहारी हो.


न यत्साक्षाद्वेदैरपि गलितभेदैरवसितम्

न यस्मिञ्जीवानां प्रसरति मनोवागवसरः ।

निराकारं नित्यं निजमहिम निर्वासित तमो-

विशुद्धं यत्तत्त्वं सुरतटि नि तत्त्वं न विषयः॥१०॥


आप नित्य निराकार तमोहारी विशुद्ध दिव्य तत्त्व हो, जीवों के मन वाणी के विषयों से परे, अगोचर हो. सारे भेदों को पार करके साक्षात वेद भी आपका निरूपण नहीं कर सकते.


महादानैः ध्यानैर्बहुविध वितानैरपि च यत्

न लभ्यं घोराभिः सुविमल तपोराजिभिरपि।

अचिन्त्यं तद्विष्णोःपदमखिल साधारणतया

ददाना केनासि त्वमिह तुलनीया कथय नः॥११॥


बहुविधियों से दान, ध्यान बलिदान और घोर ताप से भी जो अचिन्त्य विष्णु पद अप्राप्य रहता है, वो भी आप सहजता से प्रदान कर देती हो तो भला आप किससे तुलनीय हैं?


नृणामीक्षामात्रादपि परिहरन्त्या भवभयम्

शिवायास्ते मूर्तेः क इह महिमानं निगदतु ।

अमर्षम्लानायाः परममनुरोधं गिरिभुवो

विहाय श्रीकण्ठः शिरसि नियतं धारयति याम्॥१२॥


कोई मनुष्य आपको देख भर ले तो भवभय से निर्भय हो जाता है,ऐसी आपकी   महिमा की कौन प्रशस्ति कर सकता है? इसी कारण, अमर्ष से अम्लान हुई पार्वतीजी की भी अनदेखी करते हुए सदाशिव आपको सदा अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं.


विनिन्द्यान्युन्मत्तैरपि च परिहार्याणि पतितैः

अवाच्यानि व्रात्यैः सपुलकमपास्यानि पिशुनैः ।

हरन्ती लोकानामनवरतमेनांसि कियताम्

कदाप्यश्रान्ता त्वं जगति पुनरेका विजयसे॥१३॥


निन्दितों द्वारा भी निंदनीय पापियों को भी आप तार देती हो, जो पतितों द्वारा भी घृणित और नीचों द्वारा भी त्याज्य हैं, ऐसों को भी आप निरंतर आश्रय देते हुए भी श्रमित न होकर इस विश्व में सदैव एकमात्र विजयमान रहती हो.


स्खलन्ती स्वर्लोकादवनितलशोकापहृतये

जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिबद्धा पुरभिदा ।

अये निर्लोभानामपि मनसि लोभं जनयताम्

गुणानामेवायं तव जननि दोषः परिणतः॥१४॥


माँ! शोकग्रस्तों को तारने के लिए आपके  स्वयं को अपने दिव्यलोक से पत्तन करती हुई को निर्लोभी शिव ने अपनी जटाजूट ग्रंथियों में आबद्ध करके मानो स्वयं में लोभ का दोष आरोपित कर आपकी महिमा को निरुपित किया.


जडानन्धान्पङ्गून् प्रकृतिबधिरानुक्तिविकलान्

ग्रहग्रस्तानस्ताखिलदुरितनिस्तारसरणीन् ।

निलिम्पैर्निर्मुक्तानपि च निरयान्तर्निपततो

नरानम्ब त्रातुं त्वमिह परमं भेषजमसि॥१५॥


मूर्खों, अन्धों, पंगुओं, मूक बधिर और ग्रहादि दोषों से ग्रस्त, जिनका पाप से निस्तारण का कोई मार्ग न हो,  देवताओं द्वारा परित्यक्त उन नर्कगामियों की, हे माँ, आप ही परम उद्धारक औषधि हो.


स्वभावस्वच्छानां सहजशिशिराणामयमपाम्

अपारस्ते मातर्जयति महिमा कोऽपि जगति ।

मुदा यं गायन्ति द्युतलमनवद्यद्युतिभृतः

समासाद्याद्यापि स्पुटपुलकसान्द्राः सगरजाः॥१६॥


माँ! आपके स्वच्छ शीतल जल की इस जगत में अपार महिमा अवर्णनीय है. निष्कलंक कीर्ति से स्वर्ग प्राप्त किये सगरपुत्र आज भी पुलकित रोमावलीयुक्त हो आज भी आपकी महिमा का गान करते हैं.


कृतक्षुद्रैनस्कानथ झटिति सन्तप्तमनसः

समुद्धर्तुं सन्ति त्रिभुवनतले तीर्थनिवहाः ।

अपि प्रायश्चित्तप्रसरणपथातीतचरितान्

नरान् दूरीकर्तुं त्वमिव जननि त्वं विजयसे॥१७॥


छोटे मोटे पापों से शीघ्र क्षुब्ध मन वालों के परित्राण के लिए तो हे माँ! इस विश्व में अनेको पवित्र तीर्थ व सरिताएँ हैं, परन्तु जघन्य पापों और पापियों के उद्धार के लिए तो एक मात्र आप ही हैं.


निधानं धर्माणां किमपि च विधानं नवमुदाम्

प्रधानं तीर्थानाममलपरिधानं त्रिजगतः।

समाधानं बुद्धेरथ खलु तिरोधानमधियाम्

श्रियामाधानं नः परिहरतु तापं तव वपुः॥१८॥


सर्व धर्मों की निधान, नव प्रसन्नता की विधान,त्रिभुवन में पवित्रवारि तीर्थों में प्रधान और कुविचारों का तिरोधान कर बुद्धि को समग्र समाधान प्रदान करने वाली माँ, आप ऐश्वर्यों का भंडार हो. आपका वपु हमारे सब तापों का शमन करे.


पुरो धावं धावं द्रविण मदिरा घूर्णित दृशाम्

महीपानां नाना तरुणतर खेदस्य नियतम् ।

ममैवायं मन्तुः स्वहित शत हन्तुर्जडधियो

वियोगस्ते मातः यदिह करुणातः क्षणमपि॥१९॥


मदोन्मत्त शासकों के सामने चाटुकारिता करते करते मुझमे नाना भांति के विकार आ गए हैं  और जड़ बुद्धि हो मैं स्वयं का ही हितनाशक हो गया,क्योंकि क्षण भर का भी आपकी करुणा से वियोग मेरी ही भूल है.


मरुल्लीला लोलल्लहरि लुलिताम्भोज पटली-

स्खलत्पां-सुव्रातच्छुरण विसरत्कौंकुम रुचि ।

सुर स्त्री वक्षोज क्षरद् अगरु जम्बाल जटिलम्

जलं ते जम्बालं मम जनन जालं जरयतु॥२०॥


वायु की लीला से दोलित पंकजों की पतित केसर से केसरिया और सुर ललनाओं के वक्षो से क्षरित अगरु से प्रगाढ़ हुआ आपका जल मेरे जन्म-मृत्यु जाल का निवारक हो.


समुत्पत्तिः पद्मारमण पद पद्मामल नखात्

निवासः कन्दर्प प्रतिभट जटाजूट भवने ।

अथायं व्यासङ्गो हतपतित निस्तारण विधौ

न कस्मादुत्कर्षस्तव जननि जागर्तु जगतः॥२१॥


रमारमण विष्णु के पदकंजों के अमल श्रीनखों से निसरित, मदनारी महादेव के जटाजूट-भवन निवासिनी माँ, आप दुखियों और पतितों के उद्धार में निरत हैं. तो फिर इस जगत की जाग्रति और उन्नति  कैसे न होगी!


नगेभ्यो यान्तीनां कथय तटिनीनां कतमया

पुराणां संहर्तुः सुरधुनि कपर्दोऽधिरुरुहे ।

कया च श्रीभर्तुः पद कमलमक्षालि सलिलैः

तुलालेशो यस्यां तव जननि दीयेत कविभिः॥२२॥


हे देवसरिता! और कौन नदी नगेन्द्र से निकल कर त्रिपुरारी की अलकों  पे चढ़ी है? या जिसने रमापति के चरण कमलों का प्रक्षालन किया है?और हो भी तो क्या कोई कवि उसकी आपसे लेश मात्र भी तुलना कर सकता है?


विधत्तां निःशङ्कं निरवधि समाधिं विधिरहो

सुखं शेषे शेतां हरि: अविरतं नृत्यतु हरः ।

कृतं प्रायश्चित्तैरलमथ तपोदानयजनैः

सवित्री कामानां यदि जगति जागर्ति भवती॥२३॥


जगत में जब आप जाग्रत हो कम्नापूर्ण कर ही रही हैं, तो भले ब्रह्मा निरवधि समाधिस्थ हो जाएँ,विष्णु सुख से शेष शयन करें या शिव अविरत लास्य करें, तप दान बलि यज्ञादि युक्त प्रायश्चित्त परिष्कार की भी कोई आवश्यकता नहीं है.


अनाथः स्नेहार्द्रां विगलितगतिः पुण्यगतिदाम्

पतन् विश्वोद्भर्त्री गदविदलितः सिद्धभिषजम् ।

सुधासिन्धुं तृष्णाऽकुलितहृदयो मातरमयम्

शिशुः संप्राप्तस्त्वामहमिह विदध्याः समुचितम्॥२४॥


मुझ पथभ्रष्ट अनाथ पर आप स्नेहाद्र हो कर पुन्यगति प्रदायिनी हों. आप पतित को विश्व में अभ्यूदयी बनाने वाली, रुग्ण को सिद्धौषधिदायी,तृष्णातुर ह्रदय के लिए सुधासिंधु रूपा हैं, हे माँ,मैं  बाल रूप से आपके पास आया हूँ, आप जैसा उचित समझें, वैसा करें.


विलीनो वै वैवस्वतनगर कोलाहल भरः

गता दूता दूरं क्वचिदपि परेतान् मृगयितुम् ।

विमानानां व्रातो विदलयति वीथीर्दिविषदाम्

कथा ते कल्याणी यदवधि महीमण्डलमगात्॥२५॥


 हे शुभे! जिस दिन से आपकी कथा धरती पर पहुंची है, यमपुरी का कोलाहल शांत हो गया है,दूतों को उन्हें प्राप्य मृतकों की खोज में दूर दूर जाना पड़ता है. दिव्यों के नगर की गलियाँ यानों की घर्घराहट से व्याप्त हो गई हैं.


स्फुरत्काम क्रोध प्रबलतर सञ्जातजटिल-

ज्वरज्वाला जाल ज्वलित वपुषां नः प्रति दिनम् ।

हरन्तां सन्तापं कमपि मरुदुल्लासलहरी-

छटाश्चञ्चत्पाथः,कणसरणयो दिव्यसरितः॥२६॥


हे दिव्यसरित! उल्लसित मारुत  द्वारा आपकी लहरों  से विसरित जल कण, काम और क्रोध की प्रबल ज्वालाओं से  प्रतिदिन दग्ध  हमारे तन के अवर्णनीय ताप को दूर करे.


इदं हि ब्रह्माण्डं सकल भुवनाभोगभवनम्

तरङ्गैर्यस्यान्तर्लुठति परितस्तिन्दुकमिव ।

स एष श्रीकण्ठ प्रवितत जटाजूट जटिलः

जलानां सङ्घातस्तव जननि तापं हरतु नः॥२७॥


माँ! आपका जल, जिसने पूरे ब्रह्माण्ड को तिन्दुक फल की भांति प्लावित कर दिया था,परन्तु   शिव की खोली हुई जटाओं के जाल में आबद्ध हो के रह गया, हमारे लिए तापहारी हो!


त्रपन्ते तीर्थानि त्वरितमिह यस्योद्धृतिविधौ

करं कर्णे कुर्वन्त्यपि किल कपालिप्रभृतयः।

इमं तं मामम्ब त्वमियमनुकम्पार्द्रहृदये

पुनाना सर्वेषां अघमथन दर्पं दलयसि॥२८॥


मुझ जैसे पतित को, जिसे तारने में शिव जैसे देव ने भी कानों पर हाथ रख कर और अनेक तीर्थों ने लज्जित हो कर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी,अपनी अनुकम्पा से तार कर, हे दयार्द्र हृदया माँ! आपने तो जैसे सभी तारकों के पापहारिता के दर्प का दलन कर दिया.


श्वपाकानां व्रातैरमितविचिकित्साविचलितैः

विमुक्तानामेकं किल सदनमेनः परिषदाम् ।

अहो मामुद्धर्तुं जननि घटयन्त्याः परिकरम्

तव श्लाघां कर्तुं कथमिव समर्थो नरपशुः॥२९॥


मैं तो दुश्चिंताओं से भरे चांडालों से भी त्यक्त पापों का भण्डार हूँ, फिर भी आप मेरे उद्धार तत्पर हैं. आपकी स्तुति करने में मुझ जैसा नर पशु कैसे समर्थ होगा?


न कोऽप्येतावन्तं खलु समयमारभ्य मिलितो

मदुद्धारादाराद्भवति जगतो विस्मयभरः ।

इतीमामीहां ते मनसि चिरकालं स्थितवतीम्

अयं संप्राप्तोऽहं सफलयितुमम्ब प्रथमतः॥३०॥


अनादि काल से हे माँ, आप सोचती रही हैं की क्या कोई ऐसा पतित भी मिलेगा जिसके उद्धार से सम्पूर्ण विश्व विस्मित हो जाय. अंततः आपकी इस इच्छापूर्ती हेतु प्रथम व्यक्ति के रूप में आपको मैं प्राप्त हो ही गया!  


श्ववृत्तिव्यासङ्गो नियतमथ मिथ्याप्रलपनम्

कुतर्केष्वभ्यासः सततपरपैशून्यमननम् ।

अपि श्रावं श्रावं मम तु पुनरेवं गुणगणान्

ऋते त्वां को नाम क्षणमपि निरीक्षेत वदनम् ॥ ३१ ॥


कुतर्की की भांति हर समय मिथ्या प्रलापों में दूसरों की निंदा करते हुए मैंने श्वान वत जीवन जिया है. मेरे इन गुणों को जान कर, आपके सिवा कौन है जो क्षण मात्र के लिए भी मेरी और देखे?


विशालाभ्यामाभ्यां किमिह नयनाभ्यां खलु फलम्

न याभ्यामालीढा परमरमणीया तव तनुः ।

अयं हि न्यक्कारो जननि मनुजस्य श्रवणयोः

ययोर्नान्तर्यातस्तव लहरिलीलाकलकलः ॥ ३२ ॥


चाहे कितनी ही आभा से व्याप्त विशाल क्यों न हो, वो नेत्र ही क्या जिन्होंने आपके परम रमणीय स्वरुप  को ना देखा! धिक् उन मनुष्यों के कानों को जिनमे आपकी लीला लहरी की कलकल न पड़ी!




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विमानैः स्वच्छन्दं सुरपुरमयन्ते सुकृतिनः

पतन्ति द्राक्पापा जननि नरकान्तः परवशाः ।

विभागोऽयं तस्मिन्नुभयविध मूर्तिः जनपदे

न यत्र त्वं लीला शमित मनुजाशेषकलुषा ॥ ३३ ॥


ये तो आप से हीन जनपदों की रीत है कि पुण्यवान सुरपुर जाते और पापी परवश हो शीघ्र नारकीय हो जाते हैं. आपकी लीलास्थली में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ किसी में भी कोई कलुष बचता ही नहीं!


अपि घ्नन्तो विप्रानविरतमुषन्तो गुरुसतीः

पिबन्तो मैरेयं पुनरपि हरन्तश्च कनकम् ।

विहाय त्वय्यन्ते तनुमतनुदानाध्वरजुषाम्

उपर्यम्ब क्रीडन्त्यखिलसुरसंभावितपदाः॥३४॥


ब्रह्महत्या, गुरुतिय गमन, सुरापान, और तो और स्वर्ण चोरी जैसे जघन्य पाप करने वाले भी यदि आपकी सन्निधि में देहत्याग करते हैं तो वे भी दान बलि आदि सत्कर्म कर स्वर्गादि प्राप्त करने वालों से भी ऊँचे सुर सम्मानित दिव्य पद प्राप्त कर लेते हैं.


अलभ्यं सौरभ्यं हरति सततं यः सुमनसाम्

क्षणादेव प्राणानपि विरह शस्त्रक्षत भृताम् ।

त्वदीयानां लीलाचलित लहरीणां व्यतिकरात्

पुनीते सोऽपि द्रागहह पवमानस्त्रिभुवनम्॥३५॥


अहो, पुष्प सौरभयुक्त दुर्लभ पवन भी वियोगपीड़ा  और शस्त्राघात पीड़ितों के प्राण क्षण में हर लेती है, वह भी आपकी अठखेलियाँ करती लहरों का स्पर्श पा तत्क्षण त्रिभुवन पावनी हो जाती है.


कियन्तः सन्त्येके नियतमिह लोकार्थ घटका:

परे पूतात्मानः कति च परलोकप्रणयिनः ।

सुखं शेते मातस्तव खलु कृपातः पुनरयम्

जगन्नाथः शश्वत्त्त्वयि निहितलोकत्रयभरः॥३६॥


माँ, कितने हैं जो सामान्य जन का कल्याण करने को तत्पर हैं? कितनी पुण्यात्माएं परलोकाभिलाषा में हैं. ये तो आपकी करुणा है जिस पर शाश्वत त्रिभुवनतारण का भार जान  कर ये जगन्नाथ निश्चिन्तता से  सुख से सो रहा है. 


भवत्या हि व्रात्याऽधम पतित पाषण्डपरिषत्

परित्राणस्नेहः श्लथयितुमशक्यः खलु यथा।

ममाप्येवं प्रेमा दुरितनिवहेष्वम्ब जगति

स्वभावोऽयं सर्वैरपि खलु यतो दुष्परिहरः॥३७॥


जैसे आप पतित, अधम और पाखंडियों के उद्धार का बिरद नहीं छोड़ सकती, ऐसे ही मैं भी दुष्कर्म और अधमता का त्याग नहीं कर सकता. अरे माँ,कोई कैसे अपने स्वाभाव का परित्याग कर सकता है?


प्रदोषान्तर्नृत्यत्पुरमथनलीलोद्धृतजटा-

तटाभोगप्रेङ्खल्लहरिभुजसन्तानविधुतिः ।

गलक्रोड क्रीडज्जल डमरु टङ्कार सुभगः

तिरोधत्तां तापं त्रिदश तटिनी ताण्डव विधिः॥३८॥


सांध्य तांडव करते भगवान शिव की झूलती जटाओं में से निराबद्ध हो कर, डमरू की टंकारवत क्रीडा करता और हरकंठ को आबद्ध करता हुआ गंगाजल, मानो स्वयं भी ताण्डव रत हो,  मेरे ताप का शमन करे.  


सदैव त्वय्येवार्पित कुशल चिन्ताभरमिमं

यदि त्वं मामम्ब त्यजसि समयेऽस्मिन् सुविषमे ।

तदा विश्वासोऽयं त्रिभुवन तलादस्तमयते

निराधारा चेयं भवति निर्व्याजकरुणा॥३९॥


माँ, मैंने तो अपनी कुशल की सारी चिंताओं का भार सदैव आप पर ही छोड़ा हुआ है. यदि ऐसे विषम समय में आप मेरा त्याग करोगी तो त्रिभुवन में आपकी अहैतुकि करुणा का विश्वास और आधार ही उठ जायेगा.


कपर्दादुल्लस्य प्रणयमिलदर्धाङ्गयुवतेः

मुरारेः प्रेङ्खन्त्यो मृदुलतर सीमन्त सरणौ।

भवान्या सापत्न्या स्फुरितनयनं कोमलरुचा

करेणाक्षिप्तास्ते जननि विजयन्तां लहरयः॥४०॥


भगवान अर्धनारीश्वर की जटाओं से निसृत आपकी लहरों का जल लगने पर  किंचित झुंझलाहट दृष्टि से देखते हुए माँ पारवती ने अपने कोमल करों से हटाया, ऐसी आपकी धन्य लहरें विजयशाली हों.





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प्रपद्यन्ते लोकाः कति न भवतीमत्रभवतीम्

उपाधिस्तत्रायं स्फुरति यदभीष्टं वितरसि ।

अये तुभ्यं मातर्मम तु पुनरात्मा सुरधुनि

स्वभावादेव त्वय्यमितमनुरागं विधृतवान्॥४१॥


अभीष्ट की पूर्ती हो जाने के कारण असंख्य लोग आपका आश्रय लेते हैं. जहाँ तक मेरा प्रश्न है, हे माँ, मैं तो स्वभावतः ही आपका अमित अनुरागी हूँ.


ललाटे या लोकैरिह खलु सलीलं तिलकिता

तमो हन्तुं धत्ते तरुणतरमार्तण्डतुलनाम् ।

विलुम्पन्ती सद्यो विधिलिखितदुर्वर्णसरणिं

त्वदीया सा मृत्स्ना मम हरतु कृत्स्नामपि शुचम्॥४२


लोग आपके जल की मृत्तिका का अपने ललाट पर तिलक लगाते हैं जो तमोहारि बालार्क की भांति शोभा पाता है, क्योंकि विधि द्वारा लिखित दुर्भाग्य-तम का इससे तुरंत नाश हो जाता है. ऐसी सद्य मृत्तिका मुझे शुचिता प्रदान करे.


 नरान्मूढांस्तत्तज्जनपदसमासक्तमनसः

हसन्तः सोल्लासं विकच कुसुम व्रातमिषतः ।

पुनानाः सौरभ्यैः सतत मलिनो नित्यमलिनान्

सखायो नः सन्तु त्रिदशतटिनीतीरतरवः॥४३॥


देवसरित के तट पर अवस्थित डोलते पुष्पद्रुमों से लदे वृक्ष मानो उन हत्भागियों पर हँसते हैं तो इससे विमुख हो अपनी ही विषम दुनिया में आसक्त रहते हैं. नित्य मलीन मधुमक्खियों को भी अपनी सुवास से सतत पवित्र करते पुष्पों वाले ये वृक्ष हमारे सखा हों.


भजन्त्येके देवान् कठिनतर सेवांस्तदपरे

वितानव्यासक्ता यमनियमारक्ताः कतिपये ।

अहं तु त्वन्नामस्मरणहितकामस्त्रिपथगे

जगज्जालं जाने जननि तृणजालेन सदृशम्॥४४॥


कोई देवताओं को भजते तो कोई कठिन सेवा में लगते, कोई बलि देते,  कुछ यम नियम में रत रहते या कठोर तपसाधन और ध्यान करते हैं. पर हे त्रिपथगामिनी, मैं तो आराम से मात्र आपका  नाम स्मरण मात्र ही करता हुआ इस जगत्जाल को तृणजालवत अनुभव करता हूँ.


अविश्रान्तं जन्मावधि सुकृतकर्मार्जनकृताम्

सतां श्रेयः कर्तुं कति न कृतिनः सन्ति विबुधाः ।

निरस्तालम्बानाम.ऽकृतसुकृतानां तु भवतीम्

विनामुष्मिन् लोके न परमवलोके हितकरम्॥४५॥


जन्म से ही सतत सत्कर्मियों के लिए श्रेयस्कर तो कई विद्वान और सुकृती होंगे. परन्तु सुकर्म ना करने वाले और अवलम्बनहीनों के उद्धार के लिए मुझे तो आपके अतिरिक्त और कोई नहीं दिखता है. 




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पयः पीत्वा मातस्तव सपदि यातः सहचरैः

विमूढैः संरन्तुं क्वचिदपि न विश्रान्तिमगमम् ।

इदानीमुत्सङ्गे मृदुपवनसञ्चारशिशिरे

चिरादुन्निद्रं मां सदयहृदये स्थापय चिरम्॥४६॥


अरे माँ, तेरा पय-जल पान करके भी मैं तुरंत विमूढ़ों के साहचर्य में चला गया, और कहीं भी विश्रांति न पाई. अब तो हे सदय हृदया माँ, मुझे सदा के लिए मृदु शीतल पवन युक्ता अपनी पावन गोद में   चिर विश्राम देदे, काफी देर बाद मेरे जीवन में  आपकी प्रेम के प्रति जागृति आयी है.


बधान द्रागेव द्रढिम रमणीयं परिकरम्

किरीटे बालेन्दुं नियमय पुनः पन्नग गणैः ।

न कुर्यास्त्वं हेलामितर जनसाधारण धिया

जगन्नाथस्य अयं सुरधुनि समुद्धार समयः॥४७॥


हे दिव्य सरिता! अपनी दृढ रमणिक कटि कसकर बालचंद्र के मुकुट को सर्पों के द्वारा सुस्थिर कर लो. ये किसी साधारण अधम जन का प्रकरण नहीं है. इस जगन्नाथ के समुद्धार का समय आ गया है.


शरच्चन्द्रश्वेतां शशिशकल शोभाल मुकुटाम्

करैः कुम्भाम्भोजे वराभय निरासौ विदधतीम् ।

सुधासाराकाराभरणवसनां शुभ्रमकर-

स्थितां त्वां ध्यायन्त्युदयति न तेषां परिभवः॥४८॥


आप शिशिरचन्द्र की धवलता लिए हैं और वक्रचन्द्र शोभित किरीट  आपको शोभित कर रहा है. हाथों में अभयमुद्रा युक्त हाथों में   कुम्भ्सम कुमुद हैं, सुधासार रूप वसन और अलंकार धारण किये हुए आप शुभ्र मकर पर आरूढ़ हैं. ऐसे आपके रूप का जो ध्यान धरता है, उसका कभी परिभव नहीं, अभ्युदय ही शोता है.




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दरस्मित समुल्लसद्वदनकान्तिपूरामृतैः

भवज्वलन भर्जिताननिशमूर्जयन्ती नरान् ।

विवेकमय चन्द्रिका चयचमत्कृतिं तन्वती

तनोतु मम शं तनोः सपदि शन्तनोरङ्गना॥४९॥


शांतनु अन्गिनी गंगा! तीन ताप के भवजाल से निरंतर विदग्धित जीवों को अपने स्मितमुस्कान युक्त  मुख, कांतिपूरित वदनामृत और विवेक चन्द्रिका प्रसाद से शीतलता प्रदान करने वाली आप, मेरे भी पाप ताप का शमन कर शांति प्रदान करें.


मंत्रैर्मीलितमौषधैर्मुकुलितं त्रस्तं सुराणां गणैः

स्रस्तं सान्द्रसुधा रसैर्विदलितं गारुत्मतैर्ग्रावभिः ।

वीचिक्षालित कालिया हित पदे स्वर्लोक कल्लोलिनि

त्वं तापं निरयाधुना मम भवव्यालावलीढात्मनः॥५०॥


स्वर्गलोक कल्लोलिनी गंगे! आपकी लहरों के स्पर्श से तो कलि बह ही गया! अब मेरी इस त्रस्त आत्मा का भी उद्धार करो. भाव भुजंग से ग्रसित इसका न मन्त्र, न औषधि, न सुरसमूह, न गरिष्ठ सुधा और न ही गरुत्मान मणि उपचार है.




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द्यूते नागेन्द्रकृत्ति प्रमथगण मणिश्रेणि नन्दीन्दुमुख्यं

सर्वस्वं हारयित्वा स्वमथपुरभिदिद्राक्पणी कर्तुकामे ।

साकूतं हैमवत्या मृदुलहसितया वीक्षितायास्तवाम्ब

व्यालो लोल्लासि वल्गल्लहरि नटघटी ताण्डवं नः पुनातु॥५१॥


चौसर की द्यूत क्रीडा में दांव पर अपने प्रमथगण,नंदी, ईंदु, गलहार नाग, गजचर्म सहित सब कुछ हारने के बाद जब शिव स्वयं को दांव पर लगाने को तत्पर हुए, तब अकूत जलभंडार युक्त स्वर्णकलश लिए तांडव नर्तक की भांति आपके जिस नर्तन को मृदुल हास्य के साथ पार्वतीजी ने देखा, वो हमारा पवित्र प्रोक्षण करे.


विभूषितानङ्ग रिपूत्तमाङ्गा, सद्यः कृतानेकजनार्तिभङ्गा ।

मनोहरोत्तुङ्गचलत्तरङ्गा,गङ्गा ममाङ्गान्यमली करोतु॥५२॥


अनंग-रिपु शिव के उत्तम भाल को विभूषित करने वाली गंगा असंख्य जनों के कष्टों का क्षण में शमन करती है. मनोहर उत्तंग तरंगों से हे माँ, मेरे अंगों को अमल करदो.


इमां पीयूषलहरीं जगन्नाथेन निर्मिताम् । 

यः पठेत्तस्य सर्वत्र जायन्ते सुखसम्पदः ॥ ५३॥




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मां गंगा का सफर गौमुख से हरिद्वार तक


उत्तराखंड देवभूमि है। 

यहां पंच प्रयाग में दर्शन से जीवन में उल्लास आता है।


ये प्रमुख पंच प्रयाग हैं विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग।


यह पंच प्रयाग उत्तराखंड की मुख्य नदियों के संगम पर हैं। 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नदियों का संगम बहुत ही पवित्र माना जाता है। 

इन पंच प्रयागों का पवित्र जल एक साथ अलकनंदा और भगीरथी का जल भगवान श्रीराम की तपस्थली देवप्रयाग में मिलता है और यहीं से भगीरथी और अलकनंदा का संगम गंगा के रूप में अवतरित होता है। 


उत्तराखंड के हिमालय के क्षेत्र के पंच प्रयाग यानी संगम को सबसे पवित्र माना गया है, क्योंकि गंगा, यमुना सरस्वती और उनकी सहायक नदियों का उत्तराखंड देवभूमि उद्गम स्थल है। 

जिन जगहों पर इनका संगम होता है उन्हें प्रमुख तीर्थ माना जाता है। 

जिनमें स्नान का विशेष महत्व है और इन्हीं संगम स्थलों पर पूर्वजों के मोक्ष के लिए श्राद्ध तर्पण भी किया जाता है।




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विष्णुप्रयाग


बद्रीनाथ से होकर निकलने वाली विष्णु प्रिया अलकनंदा नदी और धौली गंगा नदी का जोशीमठ के नजदीक जिस स्थान पर मिलन होता है इन दोनों नदियों के उस पवित्र संगम को विष्णु प्रयाग कहते हैं। 

इस पवित्र संगम पर भगवान विष्णु का प्राचीन मंदिर है। यह या पवित्र संगम तल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर है। 

स्कंदपुराण में विष्णुप्रयाग की महिमा बताई गई है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस संगम की प्रमुख नदियों धौलीगंगा और अलकनंदा में पांच-पांच कुंड हैं। 

यहीं से सूक्ष्म बदरिकाश्रम प्रारंभ होता है। 

इसी स्थान पर दाएं जय और बाएं विजय दो पर्वत स्थित हैं, जिन्हें विष्णु भगवान के द्वारपालों के रूप में जाना जाता है।




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नंदप्रयाग


अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों के संगम को नंदप्रयाग कहते हैं। 

यह समुद्र तल से 2805 फुट की ऊंचाई पर है। 

पौराणिक कथा के मुताबिक इस स्थान पर मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम स्थल पर नंद महाराज ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए और पुत्र की प्राप्ति की कामना के लिए कठोर तप किया था। 

यहां पर नंदादेवी का दिव्य और भव्य मंदिर है। 

नन्दा का मंदिर, नंद की तपस्थली एवं नंदाकिनी के संगम के कारण इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा।




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कर्णप्रयाग


अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों का संगम स्थल कर्णप्रयाग के नाम से विख्यात है। 

पिण्डर नदी को कर्ण गंगा भी कहा जाता है। 

इस लिए इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर स्थित है। 

संगम स्थल पर मां भगवती उमा का अत्यंत प्राचीन मंदिर है। 

कहते हैं कि यहां पर दानवीर कर्ण ने कठोर तपस्या की थी और यहां पर संगम से पश्चिम दिशा की तरफ शिलाखंड के रूप में दानवीर कर्ण की तपस्थली और मन्दिर हैं। 

कर्ण की तपस्थली होने के कारण ही यह पवित्र पावन स्थान कर्णप्रयाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।




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रुद्रप्रयाग


मंदाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर रुद्रप्रयाग स्थित है। 

संगम स्थल क्षेत्र में चामुंडा देवी व रुद्रनाथ मंदिर है। 

मान्यता है कि नारद मुनि ने इस पर संगीत के रहस्यों को जानने के लिये रुद्रनाथ महादेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया था। 

पौराणिक मान्यता है कि यहां पर ब्रह्मा की आज्ञा से देवर्षि नारद ने कई वर्षों तक भगवान शंकर की तपस्या की थी भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर नारद को सांगोपांग गांधर्व शास्त्र विद्या से पारंगत किया था। यहां पर भगवान शंकर का रुद्रेश्वर नामक लिंग है। 

यहीं से केदारनाथ के लिए तीर्थ यात्रा शुरू होती है।




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देवप्रयाग


देवप्रयाग में अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों का संगम है। 

देवप्रयाग समुद्र तल से 1500 फुट की ऊंचाई पर है। 

गढ़वाल क्षेत्र में भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। 

देवप्रयाग में शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर हैं। 

रघुनाथ मंदिर द्रविड़ शैली से निर्मित है। 

देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। 

स्कंद पुराण के केदारखंड में इस तीर्थ ब्रह्मपुरी क्षेत्र कहा गया है लोक कथाओं के अनुसार देवप्रयाग में देव शर्मा नामक ब्राह्मण ने सतयुग में निराहार सूखे पत्ते चबाकर तथा एक पैर पर खड़े रहकर कई वर्षों तक कठोर तप किया और भगवान विष्णु के दर्शन कर वर प्राप्त किया।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


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